Friday, 30 May 2025

21 बरस की बाली उमर को सलाम, लेकिन

 


दो साल पहले प्रथम वर्ष में पढ़ने वाली लड़की से मेरी बातचीत बस में सफ़र के दौरान शुरू हुई थी। शाम को काम से थकी हारी वह मुझे बस स्टॉप पर मिलती थी और दुनिया जहान की बातें, बातों-बातों में बताया करती थी। उसकी बातों में दफ़्तर में मालिक को कोसने के अतिरिक्त घरेलू सदस्यों से भी शिकायतें थीं। हमारी सफ़र वाली दोस्ती थी। उसका विश्वास मुझ पर कुछ इस क़द्र था कि वह मुझे ‘दीदी’ कहकर पुकारने लगी थी। कुछ ही समय बाद, एक दिन वह शादीशुदा लड़की के वेश में मिली। मुझे हैरानी हुई। मैंने कहा- “शादी में बुलाया भी नहीं!” उसने कहा- “मेरी मर्ज़ी से नहीं हुई। अब शायद काम भी नहीं करुँगी।” हर तरह के श्रृंगार से सजी वह लड़की उदास चेहरे के साथ थी। उसकी उम्र 19 या 20 के बीच थी। बाद के सालों में सफ़र का रिश्ता सफ़र बनकर ही रह गया। मेरी मुलाक़ात उससे फिर कभी नहीं हुई।

भारतीय कानून के मुताबिक़ लड़कियों की विवाह की उम्र 18 साल है। यदि लड़की 18 वर्ष की है तो वह विवाह के योग्य मानी जाती है। अंटी-अंकल उर्फ़ माता-पिता बातचीत का क़रीब से विश्लेषण किया जाए तब कुछ ख़ास तरह की पंक्तियाँ सुनने को मिलती हैं। जैसे, हमारी लड़की की शादी हो जाए तो चिंता ख़त्म हो, ये तो पराया धन है, लड़कियाँ सिल की तरह हैं, जो छाती पर धरी रहती हैं, हम एक अच्छा-सा लड़का खोज रहे हैं, इसकी शादी के लिए बचत कर रहे हैं, आजकल ज़माना बहुत ख़राब है, इन्हें क्या आगे पढ़ाएँ, नौकरी थोड़ी करवानी है, अपने घर जाकर जो मर्ज़ी आए वो करना, हमने तो अपनी लड़की शादी जल्दी कर दी, अब हम चैन से हैं, जवान लड़की घर में पड़ी हो तो नींद कहाँ आती है, सिलाई वगैरह का कोर्स करवाना है, लड़कियों में घरेलू काम करने का हुनर होना चाहिए, आदि-आदि। ये सब आज भी मध्यम वर्गीय परिवारों में सुनने को मिल जाता है। इस तरह की पंक्तियाँ मोहल्ले से लेकर दफ़्तरों में मौज़ूद माताओं और पिताओं के मुँह से सुनी जा सकती है। इन पंक्तियों में एक नागरिक को उसके संपूर्ण व्यक्तित्व के लिहाज़ से न देखकर किसी वस्तु की तरह देखने के प्रयास है, क्योंकि वह एक स्त्री है। ये प्रयास एक दिन में तैयार नहीं हुए हैं। संस्कृतियों ने इन प्रयासों को और इस तरह के व्यवहारों को पोसा है। इक्कसवीं शताब्दी में आज भी बहुत से लोगों की सोच का दायरा कुएँ के पानी की तरह ही है। उसमें बदलाव की झलक नहीं है और यह बात परेशान करने वाली है। गाँव और शहर के बीच बँटे भारत में आज भी आबादी का एक बड़ा हिस्सा गाँवों में रहता है और चुनौतियों का सामना कर रहा है।

हिंदी सिनेमा की यात्रा में महबूब खान द्वारा निर्मित फ़िल्म ‘मदर इंडिया’ (1957) को जो प्रसिद्धि मिली उसे कौन नहीं जानता! क़िस्सों की दुनिया में कहा जाता है कि वास्तव में उस फ़िल्म का निर्माण कैथरीन मेयो द्वारा लिखी पुस्तक ‘मदर इंडिया’ के जवाब के तौर पर किया था। इस पुस्तक का प्रकाशन सन् 1927 में हुआ था। पुस्तक में उन्होंने भारत में स्त्रियों की स्थिति पर गौर किया है। उस समय इस पुस्तक का काफी विरोध हुआ था। लेकिन इस पुस्तक के कुछ अंशों को झुठलाया नहीं जा सकता। पुस्तक के पहले भाग के अंतिम अध्याय में एक अस्पताल में भर्ती महिला मरीज़ों का वर्णन किया गया है। वे लिखती हैं कि डॉक्टर ने उन्हें एक हिंदू अधिकारी की पत्नी के बारे में बताया। इस महिला के पहले प्रसव में ही बच्चा जीवित नहीं रह सका था। इसलिए जब तीन दिन पहले उसके दूसरे प्रसव का दर्द शुरु हुआ तो उसका पति उसे अस्पताल ले आया था। महिला को दिल की बीमारी और दमे की शिकायत थी। उसकी एक टाँग में भी परेशानी थी। डॉक्टर ने टाँग का इलाज करके उस महिला का प्रसव कराया। जुड़वाँ बच्चे हुए, पर वे जीवित नहीं थे। अंदरूनी संक्रमण होने से कोख नष्ट हो गई। अब यह महिला दुबारा बच्चे को जन्म नहीं दे सकती। इस महिला की उम्र 13 वर्ष थी। इस महिला को इस बात की जानकारी नहीं थी कि वह अब माँ नहीं बन सकती वरना उसे सदमा लग सकता है.[1] ऐसे ही अन्य उदहारण पुस्तक में दिए गए हैं जिन्हें पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। सरकारी दावों और आंकड़ों में वर्तमान में स्थिति को नियंत्रण में बताया जा रहा है। सरकारी आंकड़ें कहते हैं कि भारत में मातृ मृत्यु अनुपात (Maternal Mortality Ratio) गिर रहा है।[2] ये आंकड़ें वाकई में सुखद हैं पर ज़मीनी सच्चाई यह भी है कि आज भी कई इलाक़ों में बच्चे को जन्म देने की प्रक्रिया दाई द्वारा घरों में ही संपन्न करवाई जाती है। सुविधाओं का न होना, महिलाओं की मृत्यु की वजह बन रहा है। अख़बारों में तो अस्पताल के बाहर ही जच्चगी हो जाने की ख़बरें भी प्रकाशित होती रहती हैं।        

कैथरीन मेयो की विदेशी आँखों के अनुभवों की भरपूर आलोचना हुई थी। पर इस बात से इंकार नहीं कि कम उम्र में विवाह के बाद एक लड़की को बहुत-सी मानसिक और शारीरिक परेशानी उठानी पड़ती है। उत्तर प्रदेश और बिहार के कुछ क्षेत्रों में गौना नामक प्रथा का आज भी निर्वाह होता है। इस प्रथा के अंतर्गत लड़की का कम उम्र में विवाह होने के बाद गौना किया जाता है। उसके द्वारा एक निश्चित आयु प्राप्त करने के बाद ही उसे पति के साथ ‘विदा’[3] किया जाता है। इस प्रथा के बाद भी कम उम्र में विवाह के चलते लड़कियों को कई परेशानियों से गुज़रना पड़ता था। समय ने अपने भीतर स्त्रियों से जुड़े कई दर्दनाक अनुभवों को समेटकर रखा है। परंपरा और प्रथा के नाम पर उनके साथ सलूक के तौर पर की जाती रही कई दुखद रीतियाँ अब तक जारी हैं। साल 2019 में फरवरी के महीने नवभारत टाइम्स की मौज़ूदा ऑनलाइन ख़बर कहती है कि शहरों में बाल विवाह का औसत 6.9 फीसदी है और गाँवों में 14.1 फीसदी है।[4] बाल विवाह एक कड़वी सच्चाई अभी भी है।

भारतीय शिक्षा प्रणाली में 10+2 की संरचना को भी गौर से देखना चाहिए। आज से काफी वर्ष पहले प्री-स्कूलिंग या नर्सरी कक्षाओं का बहुत चलन नहीं था। इसलिए विद्यालयों में दाख़िले पाँच वर्ष की आयु से लिए जाते थे। बारहवीं कक्षा को पास करते समय लड़की और लड़के की उम्र 17 से 18 वर्ष होती है। बारहवीं के बाद लड़के के लिए दुनिया के दरवाजे खुल जाते हैं, जिसमें कॉलेज जाना, किसी तरह का कोर्स करना, किसी अन्य परीक्षा की तैयारी करना, बड़े भाई या पुत्र की भूमिका में आना, परिवार में क़द के साथ हैसियत का बढ़ना भी अनुभव किया जा सकता है। यदि कोई लड़का कॉलेज में दाख़िला लेता है तब उसके पास पूरे तीन वर्ष मौज़ूद हैं जिसमें वह अपने करियर को एक आकार देता है और दुनियादारी की समझ विकसित करता है। लेकिन इसके विपरीत लड़कियों के संदर्भ में घोर पारिवारिक और सामाजिक बदलाव आता है। लड़कियों का बड़ा होना मतलब, ढेरों क़ायदों का बनकर तैयार होना है। इसके अलावा उन्हें निगरानी के भीतर भी रहना पड़ता है।   

अपने सामाजिक कार्य के दौरान एक लड़की जिसने बारहवीं कक्षा पास की थी, मुझसे मिलने आई। मैंने उसे शुभकामना दी और आगे की पढ़ाई के बारे में उससे जानना चाहा। उसने कहा- “नहीं... अब घरवाले शादी करेंगे!” मैंने हैरानी से कहा- “अभी तो तुम छोटी हो। शादी से ज़्यादा ज़रूरी कुछ बनना है।” इसके बाद उसका चेहरा उदास ही बना रहा। अगले दिन जब उसकी माँ मुझसे मिलने आईं तब भी मैंने उन्हें यही कहा। उसकी माँ बोलीं- “बस अब बहुत हो गई पढ़ाई-वढ़ाई, इसे कौन-सी नौकरी करनी है! मैं तो मान भी जाऊँ पर इसके पापा और भाई नहीं सुनने के। लड़का भी खोज लिया है। ठीक ही है। सही सलामत अपने घर चली जाए, अब और क्या चाहिए!” मैंने उनसे कई बार बात की पर वे अपनी मानसिक पितृसत्तात्मक ज़मीन पर टिकी रहीं। उसके कुछ ही महीने बाद उस लड़की की शादी हो गई। पितृसत्ता संरचना में लड़की ख़ुद का चुनाव तो दूर अपने लिए फैसले भी नहीं ले सकती। इसलिए यदि कानून का दबाव हो तो शायद बहुत-सी लड़कियों को अपने करियर के बारे में सोचने का वक़्त मिल जाए।                

सरकार की ओर से लड़कियों की विवाह की उम्र को 21 साल करने के मंथन के लिए एक कमिटी भी गठित की गई है। इस कमिटी की रिपोर्ट इसी साल आने वाली थी लेकिन कोरोना महामारी के चलते हो सकता है इसमें अभी और वक़्त लगे। बहरहाल सरकार लड़कियों के लिए 21 साल की उम्र करने के पीछे कुछ बातों को सामने रख रही है। जेंडर समानता, लड़कियों का कम उम्र में शीघ्र गर्भवती होना और और जोख़िम का बढ़ना, लड़कियों के स्वास्थ्य पर असर होना, कुपोषण का शिकार होना और बाल मृत्यु दर का अधिक होना आदि कारण, सरकार बता रही है। इसके अलावा संविधान की धारा 14 और 21 में समानता का अधिकार और सम्मान के साथ जीने के अधिकार के तहत मौज़ूदा 18 वर्ष की उम्र इन धाराओं के विरुद्ध जाती है.[5] भारत में लड़कों के विवाह की कानूनी उम्र 21 साल निश्चित की गई है। इन सभी बिंदुओं पर सरकार चर्चा कर रही है और सुझाव भी माँग रही है।

लेकिन यह क़दम जिस आधी आबादी के लिए उठाया जा रहा है वह तबका क्या सोचता है, बहुत महत्वपूर्ण है। मुझे याद है मेरी एक महिला टीचर मित्र ने एक मुलाक़ात में अपनी प्रथम वर्ष की एक नहीं कई छात्राओं के विवाह की बात बताई और अपनी चिंता भी जाहिर की। मैंने अपनी मित्र से पूछा- “आपने उन लड़कियों से इसके पीछे की वजह पूछी?” उसने जो बताया वह सब सोच के निम्नतम स्तर पर था। उन लड़कियों के माता-पिता (कुछ मामलों में भाई भी) का मानना था कि समाज में लड़कियों के साथ ग़लत घटनाएँ घट रही हैं, उनके बलात्कार किए जा रहे हैंउन्हें डर है कि उनकी बेटियों के साथ भी कुछ ग़लत न हो जाए। इसलिए शादी उनकी बेटियों की सुरक्षा का उपाय है। एक और कारण जो माता-पिता द्वारा दिया गया वह न सिर्फ चौंका देता है बल्कि परिवारों में मौज़ूद मानसिकता को प्रकट करता है। मेरी महिला मित्र ने उन लड़कियों के हवाले से बताया कि उनके माता-पिता का मानना है कि मोबाइल के इस्तेमाल के चलते लड़कियाँ बिगड़ रही हैं। वे लड़कों से बात करती हैं। कई बार वे ख़ुद की पसंद के लड़के के साथ घर छोड़ कर ‘भाग जाती’ हैं और घर-परिवार की ‘इज्जत’ का सत्यानाश कर देती हैं। इसलिए अगर उन्हें जल्दी शादी के बंधन में बाँध दिया जाए तो इज्जत बची रहती है। इस तरह की सोच ने लड़कियों के जीवन को अधर में अटका रखा है.

इज्जत का बोझ लड़कियां ताउम्र सिर पर उठाकर जीती हैं। लड़की के ख़ुद के लिए किए गए चुनावों को परिवार के सदस्यों में कभी मान्यता नहीं मिलती बल्कि किसी पुरुष से बात करने पर ही बवंडर उठ जाता है। इसके अतिरिक्त जो लड़कियाँ हिम्मत कर अपने लिए घर से बाहर का दरवाज़ा खोलती हैं, उनके लिए बाहर की व्यवस्था उतनी सुलभ, सरल और मददगार नहीं होती। अक्टूबर 2019 में ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ की ख़बर परेशान करने वाली है। अख़बार ने आंकड़ों के सहारे सूचना दी है कि महिला श्रम बल साझेदारी दर (female labor force participation rates) 2017-18 में 17.5% दर्ज़ की गई जो बीते वर्षों की तुलना में बेहद कम प्रतिशत है.[6] इसके पीछे कई कारण हैं जो एक महिला को वे स्थिति और स्पेस मुहैया नहीं होने देते जिसकी काम के लिए ज़रुरत होती है।

इसके अतिरिक्त महिला सुरक्षा को लेकर भले ही राजनीतिज्ञों ने निरंतर अपनी-अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकी हों पर ज़मीन पर कुछ हासिल नहीं है। महिला सुरक्षा अथवा यौन उत्पीड़न के मामलों में कोई कमी नहीं हुई है। महिलाओं को घर और बाहर, दोनों ही जगहों पर उत्पीड़न, अपराध और भेदभावों का शिकार होना पड़ता है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा जारी किये गए आँकड़े निराश करते हैं। वर्ष 2017 में महिलाओं के विरुद्ध किए गए अपराधों के मामलों में वृद्धि दर्ज़ की गई है। ‘द प्रिंट’ की एक ख़बर के मुताबिक़ सन् 2017 में महिलाओं के विरुद्ध किए गए अपराधों की संख्या 3,59,849 रही.[7] यह संख्या बीते वर्षों के मुक़ाबले अधिक है। ‘आज तक’ की वेबसाइट पर मौज़ूद एक और ख़बर सरकार और मंत्रियों की लापरवाही के बारे में साफ़ बताती है। पिछले वर्ष महिला और बाल विकास की मंत्री साहिबा ने संसद में बताया कि निर्भया फंड का कुछ राज्यों ने इस्तेमाल ही नहीं किया और कुछ राज्यों द्वारा ख़र्च की गई राशि बेहद कम रही.[8] ऐसे में विवाह की उम्र बढ़ाकर जिस समानता की बात सरकार कर रही है वह दूर की कौड़ी ही है।

मंशा, शंका और सवालों के बीच सरकार को स्थिति को बाक़ी आयामों के साथ जोड़कर देखना होगा। यदि विवाह की आयु 21 वर्ष की जाती है तब इसका एक अर्थ यह भी होगा कि 21 वर्ष की आयु के पूर्व बनने वाले यौनिक संबंध कानून की दृष्टि में दंडनीय अपराध की श्रेणी में आयेंगे। इस स्थिति से निपटने के लिए सरकार की नीति और रणनीति क्या होगी यह देखना भी महत्वपूर्ण होगा। मैंने ख़ुद युवा होती लड़कियों (19-20 वर्ष) से जो शहरी समाज का हिस्सा हैं, से जब जानना चाहा तब उनमें से बहुतों का मानना था कि उम्र बढ़ा देनी चाहिए। इससे उन्हें पढ़ने लिखने का मौका मिलेगा। करियर की ओर रुझान गहरा होगा। समझदारी ज़्यादा आएगी। एक लड़की ने कहा कि 21 साल उम्र कर देनी चाहिए क्योंकि मेरे माता-पिता मेरे लिए लड़का खोज रहे हैं। लेकिन कुछ अन्य लड़कियों की सोच अलग रही। उनका मानना है कि उम्र बढ़ा देने से कोई ख़ास असर नहीं होगा जब तक सरकार हमारे लिए कुछ करती नहीं। मसलन सुरक्षा, सुविधा, स्कूल कॉलेज अधिक खोलना और उनमें पढ़ाई के तमाम अवसर होना। इसके अलावा काम की दुनिया में भी महिलाएँ अपने लिए मुनासिब मौक़े चाहती हैं। अतः विवाह की उम्र 21 वर्ष अच्छा क़दम होगा पर मनोवांछित नतीजे तब तक नहीं मिलेंगे जब तक बाक़ी आयामों पर काम नहीं किया जाएगा। यदि विवाह की उम्र 21 वर्ष की जाती है तब लड़कियों को कुछ और वक़्त मिलेगा जिसमें वे ख़ुद के लिए ‘अपना कमरा’[9] तैयार कर सकेंगी। वह ऐसा कमरा होगा जहाँ लड़कियाँ अपनी पसंद के अनुसार जी सकेंगी। अपने कमाने के लिए ज़रिये तलाशेंगी। इसके साथ ही अपने बौद्धिक ज्ञान और विकास के लिए इत्मिनान से बैठकर पढ़ सकेंगी।       

 

 

 



[1] मदर इंडिया, कैथरीन मेयो, अनु.- कँवल भारती, फॉरवर्ड प्रेस, दिल्ली, 2019, पृ। 58

[2] https://www.thehindu.com/sci-tech/health/india-registers-a-steep-decline-in-maternal-mortality-ratio/article32106662.ece

[3] यह शब्द ‘भेज देना’ और ‘जाना’ क्रियाओं से अलग और गहरा अर्थ रखता है, विशेषरूप से लड़की के विवाह के संदर्भ में। प्रचलित कथन यह है कि अब बेटी/लड़की/बहू का विवाह के बाद शव ही ससुराल से वापस आएगा। लड़कियों के संदर्भ में ‘वापसी’ की कल्पना असहनीय है। अमृता प्रीतम द्वारा लिखे उपन्यास ‘पिंजर’ में जब नायिका वापस अपने पिता के घर आती है तब उसे स्वीकार नहीं किया जाता क्योंकि वह अब पवित्र नहीं रह गई है।    

[4] https://navbharattimes.indiatimes.com/india/in-ten-years-child-marriage-has-reduced-up-to-five-times/articleshow/67894747.cms

[5] https://indianexpress.com/article/explained/pm-modi-74th-independence-day-women-empowerment-marriage-age-6555937/

 

[6] https://timesofindia.indiatimes.com/blogs/irrational-economics/where-are-indias-working-women/

[7] https://hindi.theprint.in/india/crime-against-women-increase-ncrb-data-show/92132/  

[8] https://www.aajtak.in/india/story/most-of-the-nirbhaya-funds-remain-unused-says-women-child-development-ministry-990092-2019-11-30  

[9] यह वर्जीनिया वुल्फ द्वारा लिखी प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण किताब है सन् 1928 में वर्जीनिया वुल्फ ने ‘औरत और कथा-साहित्य’ विषय पर दो आख्यान दिए थे इस पर बहुत समय देकर उन्होंने सन् 1929 ‘अ रूम ऑफ़ वंस ओन’ ( A Room of One’s Own) नामक किताब लिखी जो स्त्री विमर्श की महत्वपूर्ण किताब है       

Tuesday, 15 November 2022

वेटिंग फॉर ए वीज़ा- डॉ. बी. आर. आंबेडकर (हिंदी अनुवाद)

 

वीज़ा की प्रतीक्षा में 

(वेटिंग फॉर ए वीज़ा का हिंदी अनुवाद)

छुआछूत के अस्तित्व के बारे में विदेशी जानते तो हैं पर उनका सामना इससे नहीं हुआ है. कहा जाए तो, वे यह महसूस नहीं कर सकते कि छुआछूत प्रथा अपनी वास्तविकता में कितनी उत्पीड़क है. उनके लिए यह समझना मुश्किल है कि यह कैसे संभव है कि कुछ अछूत, हिन्दुओं से भरे हुए गाँव के हाशिए पर रहते हैं. हर रोज़ उस गाँव में जाकर, उसकी घिनौनी गंदगी हटाते हैं और कई तरह के कामों को करते हैं. गाँव के हिन्दुओं के घरों की चौखटों से भोजन इकठ्ठा करते हैं, हिन्दू बनिया की दुकानों से दूरी बनाते हुए, मसाले और तेल ख़रीदते हैं, गाँव को हर तरह का आदर देते हैं जैसे यह उनका अपना घर हो, और इसके बाद भी वे गाँव की किसी वस्तु को न छूते हैं और न छुआते हैं. कठिनाई यह है कि कैसे बेहतरीन ढंग से जातिवादी हिन्दुओं के बारे में बताया जाए कि अछूत के साथ वे कैसा बर्ताव करते हैं. सामान्य विवरण या जातिवादी हिन्दुओं के अपने अनुसार किए गए बर्ताव वाले केसों के रिकॉर्ड्स, ऐसी दो विधियाँ जिससे यह उद्देश्य पाया जा सकता है. मैंने यह महसूस किया है कि इनमें से दूसरा तरीका पहले वाले से ज़्यादा असरदार होगा. इनके चित्रणों के चुनाव में, मैंने अपने और कुछ दूसरों के अनुभव में से कुछ-कुछ हिस्से लिए हैं. मैं उन घटनाओं से शुरुआत कर रहा हूँ जो मेरी ज़िंदगी में ख़ुद मेरे साथ हुई हैं.





एक

हमारा परिवार मूलतः बॉम्बे प्रेज़ीडेंसी में दापोली तालुका के रत्नागिरी जिले से आया था. ईस्ट इंडिया कंपनी के शुरुआती शासन में मेरे पूर्वजों ने अपना पुस्तैनी पेशा कंपनी की आर्मी के लिए छोड़ दिया था. मेरे पिता ने भी इसी पारिवारिक परंपरा को अपनाया और अपनी सेवा देने के लिए आर्मी में गए. एक अधिकारी के पद तक उन्होंने तरक्की की और जब सेवा निवृत्त हुए तब तक वे सूबेदार बन चुके थे. अपने रिटायरमेंट पर पिता परिवार को दापोली ले गए ताकि वहां रहने के लिए जगह को देख लिया जाए. लेकिन कुछ वजहों से पिता ने अपनी योजना बदल ली. परिवार दापोली को छोड़कर सतारा चला गया जहाँ हम सन् 1904 तक रहे. मैं पहली घटना को यहाँ दर्ज़ करते हुए याद भी कर सकता हूँ, यह सन् 1901 के आसपास हुई थी जब हम सतारा में रह रहे थे. मेरी माँ की मृत्यु हो चुकी थी. मेरे पिता कैशियर की नौकरी के चलते दूर कोरेगांव नामक जगह पर काम कर रहे थे. यह जगह खाटवा तालुके के सतारा जिले में थी, जहाँ सरकार ने एक टैंक खोदने का काम अकाल से पीड़ित लोगों को रोजगार देने के लिए शुरू किया था, जो हज़ारों की संख्या में मर रहे थे.   

जब मेरे पिता कोरेगांव गए तब मुझे, मेरे बड़े भाई और मेरी मर चुकी बड़ी बहन के दो बड़े लड़कों को मेरी काकी और कुछ अच्छे पड़ोसियों की देखरेख में छोड़ गए. मेरी काकी एक रहमदिल रूह थीं जिन्हें मैं जानता हूँ, लेकिन वे हमारी मदद नहीं कर पाती थीं. उनका क़द बेहद छोटा था और उनके पैरों में भी दिक्कत थी जिससे उन्हें बिना किसी की मदद के सहारे चलने फिरने में परेशानी होती थी. अक्सर उन्हें उठाना पड़ता था. मेरी बहनें थीं. वे विवाहिता थीं और वे अपने परिवारों के संग दूर रहा करती थीं. हमारे लिए अपना खाना पकाना एक बड़ी परेशानी बन गई, क्योंकि हमारी काकी खाना नहीं बना पाने में मजबूर थीं. फिर भी किसी तरह काम चलता रहा. हम चार बच्चे स्कूल जाते थे और अपना खाना भी बनाते थे. हम रोटी नहीं बना पाते थे. इसलिए अधिकतर हम पुलाव बना लिया करते जो हमारे लिए बनाना काफ़ी आसान था जिसमें चावल और गोश्त मिलाने भर की ज़रूरत थी.

कैशियर होने के चलते मेरे पिता अपने स्थान से हमें देखने सतारा नहीं आ सकते थे, इसलिए उन्होंने हमें ख़त लिखकर कोरेगांव आकर ही अपनी गर्मी की छुट्टियाँ उनके साथ बिताने के लिए कहा. हम सभी बच्चे बहुत ज़्यादा उत्साहित थे क्योंकि हममें से किसी ने भी अभी तक रेलगाड़ी नहीं देखी थी.

जाने की बेहतरीन तैयारियां की गईं. सफ़र के लिए नई इंग्लिश तहजीब की कमीजें, चमकदार और बढ़िया टोपियाँ, नए जूते और सिल्क बॉर्डर की धोतियाँ खरीदी गईं. मेरे पिता ने हमारे सफ़र का पूरा ब्यौरा दिया और कहा कि किस दिन आने की तैयारियां हैं, उन्हें ख़बर कर दी जाए. ख़बर होने से वे उस दिन अपने चपरासी को कोरेगांव रेलवे स्टेशन लेने के लिए भेज देंगे. इस योजना के तहत मैं, मेरा भाई और मेरी बहन का बेटा सतारा से सफ़र के लिए निकल पड़े. हमने पड़ोसियों को हमारी काकी की देखरेख करने के लिए भी कहा, जिन्होंने इसका वायदा भी किया. रेलवे स्टेशन हमारी जगह से दस मील की दूरी पर था. स्टेशन जाने के लिए एक घोड़ागाड़ी का इंतजाम किया गया था. हमने नए कपड़े पहने हुए थे, जो ख़ासतौर से इस यात्रा के लिए तैयार किए गए थे. हम काकी की रोने-धोने की आवाजों के बीच ही आनंद के साथ सफ़र के लिए निकले. हमारे बिछड़ने के दुःख में वह बेतहाशा रोती रहीं.

स्टेशन पहुँचने पर बड़े भाई ने टिकट ख़रीदे और मुझे और मेरी बहन के दोनों बेटों को दो-दो आने दिए ताकि हम अपने मज़े की चीज़ें ले सकें. हमने ख़ूब ख़र्च करना शुरू कर दिया. हमने शुरुआत में अपने लिए नींबूपानी की बोतल ख़रीदी. कुछ देर बाद ही ट्रेन के रवाना होने की सीटी बजी और इस डर से कि ट्रेन कहीं छूट न जाए हम जितना जल्दी रेल में चढ़ सकते थे चढ़ गए. हमें बोला गया था कि हमें मसूर पर उतरना है. यह कोरेगांव के लिए सबसे नजदीकी स्टेशन था.

ट्रेन मसूर शाम के करीब पांच बजे पहुंची. हम अपने सामान के साथ स्टेशन पर उतर गए. कुछ ही देर में जो भी यात्री ट्रेन से उतरे थे अपने-अपने गंतव्य स्थानों पर चले गए. अब हम ही चार बच्चे प्लेटफार्म पर बचे रह गए थे. हम अपने पिता की राह देख रहे थे. हम उस चपरासी का भी इंतज़ार कर रहे थे जिसके बारे में पिता ने वायदा किया था कि उसे लेने के लिए स्टेशन भेज देंगे. हमने लंबा इंतज़ार किया पर कोई भी नहीं दिखा. एक घंटा बीत गया. इसी बीच स्टेशन मास्टर पूछताछ के लिए आ गया. उसने हमसे टिकट दिखाने के लिए कहा. हमने उसे अपने टिकट दिखाए. उसने हमसे अभी तक रुकने का कारण पूछा., हमने उसे बताया कि हमें कोरेगांव जाना है इसलिए हम अपने पिता या उनके नौकर का इंतज़ार कर रहे हैं पर दोनों में से कोई नहीं आया. हमें यह भी नहीं पता कि कोरेगांव कैसे पहुंचा जा सकता है. हम अच्छे कपड़े पहने बच्चे थे. हमारे पहनावे और बातों से कोई भी यह अंदाज़ा नहीं लगा सकता कि हम अछूतों के बच्चे हैं. वास्तव में स्टेशन मास्टर को यह पक्का यकीन था कि हम ब्राह्मण बच्चे हैं और वह हमारे इस हालात पर द्रवित भी था. जैसा कि अक्सर हिन्दुओं में होता है, स्टेशन मास्टर ने भी पूछा कि हम कौन हैं. बिना एक पल की देरी किए मैंने तुरंत उगल दिया कि हम महार हैं. (बॉम्बे प्रेज़ीडेंसी में महार उन समुदायों में से एक हैं जिन्हें अछूत माना जाता है) वह हैरान हो गया. उसका चेहरा अचानक बदल गया. हम यह देख सकते थे कि वह अजीब-सी घृणा से भर गया था. जैसे ही उसने मेरा जवाब सुना वह अपने कमरे की ओर तेज़ क़दमों से जल्दी चला गया और हम वहीं खड़े रहे जहाँ हम पहले थे. पंद्रह से बीस मिनट बीत गए; सूरज लगभग अस्त हो रहा था. न तो पिता आए थे और न ही उन्होंने अपने नौकर को भेजा था, और अब स्टेशन-मास्टर भी हमें छोड़कर जा चुका था. हम काफ़ी व्यग्र थे. यात्रा की शुरुआत में जो आनंद और ख़ुशी थी वह अब अत्यधिक मायूसी में बदल गई थी.

आधे घंटे के बाद स्टेशन मास्टर लौटा और हम क्या करेंगे पूछने लगा. हमने कहा कि अगर हमें एक बैलगाड़ी मिल जाए तो हम कोरेगांव चले जाएंगे और अगर यह बहुत दूर नहीं है तो हम इसी पल चल देंगे. वहां ढेरों बैलगाड़ियाँ कहीं भी जाने के लिए खड़ी थीं. लेकिन मेरा स्टेशन-मास्टर को दिया गया जवाब गाड़ीवानों के बीच पहुँच चुका था कि हम महार हैं. इसलिए उनमें से एक भी अपनी बैलगाड़ी को दूषित होने और न ही अपने आप को अछूत वर्ग के यात्रियों को ले जाने के चलते नीच दिखने के लिए तैयार था. हम यात्रा का किराया दुगुना तक देने को तैयार थे लेकिन हमने पाया कि धन ने भी यहाँ काम नहीं किया. स्टेशन-मास्टर जो हमारे बदले बातचीत कर रहा था वह खामोश था और नहीं जानता था कि क्या करना है. अचानक लगा कि एक ख़याल उसके दिमाग में आया और उसने हमसे पूछा, “क्या तुम लोग बैलगाड़ी हांक सकते हो?” हमें लगा कि उसने हमारी दिक्कत का समाधान खोज लिया है, हम चिल्लाए, “जी हाँ, हम हांक सकते हैं.” इस जवाब के साथ वह बैलगाड़ी वाले के पास हमारी ओर से गया और यह पेशकश कि हम बैलगाड़ी वाले को दुगुना किराया देंगे और उसे हांकेंगे भी. साथ ही वह गाड़ी के साथ हमारे इस सफ़र में पैदल चलेगा. एक बैलगाड़ी वाला राज़ी हो गया क्योंकि उसे इस तरकीब से दुगुनी कमाई का मौका मिल गया और साथ ही वह दूषित होने से भी बच गया था.

शाम के लगभग साढ़े छ बजे थे, जब हमने गाड़ी हांकना शुरू किया. लेकिन हम स्टेशन न छोड़ने को लेकर चिंतित थे, जब तक कि यह तय न हो जाता कि हम कोरेगांव अँधेरा होने से पहले न पहुँच जाएंगे. इसलिए हमने गाड़ीवाले से कोरेगाँव की दूरी और उसमें लगने वाले वक़्त के बारे में पूछा. उसने हमको विश्वास दिलाया कि तीन घंटे से ज़्यादा नहीं लगेंगे. उसकी बातों पर यकीन कर हमने अपना सामान बैलगाड़ी पर लादा और स्टेशन-मास्टर को उसकी मदद के लिए शुक्रिया कह गाड़ी पर चढ़ गए. हममें से एक ने लगाम थामी और गाड़ी चल पड़ी. बैलगाड़ी वाला गाड़ी के साथ पैदल चल रहा था.

स्टेशन से कुछ ही दूरी पर एक नदी बह रही थी. यह काफ़ी सूखी हुई थी सिवाय कुछ गड्डों के जिनमें थोड़ा-थोड़ा पानी जमा था. बैलगाड़ी वाले ने कहा कि हमें यहीं रूक कर खाना खा लेना चाहिए क्योंकि आगे शायद हमें पानी न मिले. हम राज़ी हो गए. उसने तय भाड़े में से कुछ रुपया हमसे माँगा ताकि वह गाँव में जाकर खाना खा सके. मेरे भाई ने उसे कुछ रुपए दिए और वह जल्दी वापस आने का वायदा कर चल दिया. हम बहुत भूखे थे. हम ख़ुश हुए कि चलो हमें खाना खाने का मौका मिला. हमारी काकी ने पड़ोस की औरतों को कहकर रास्ते के लिए बढ़िया खाना तैयार करवाया था. हम अपने टिफिन बॉक्स को खोलकर खाना खाने लगे. हमें अपनी चीज़ों को धोने के लिए पानी की ज़रूरत थी. हममें से एक पास बह रही नदी के एक पोखर के पास गया. लेकिन वह पानी वास्तव में पानी नहीं था. उस पानी में कीचड़ घुला हुआ था जिससे वह ख़ूब गाढ़ा था और उसमें गाय-बैल व अन्य जानवरों का पेशाब और मल मिला हुआ था जो वहां पानी पीने आते थे. असल में वह पानी मनुष्यों के इस्तेमाल के लिए था ही नहीं. पानी में तेज़ बदबू होने से हम उसे पी ही न सके. इसलिए हमें अपना खाना आधे पेट ही समेटना पड़ा और इसके बाद हम बैलगाड़ी वाले का इंतजार करने लगे. वह बहुत देर तक नहीं आया. हम उसे हर दिशा में देखने के अलावा कुछ नहीं कर सकते थे. आख़िरकार वह आया और उसके बाद हमने अपनी यात्रा फिर शुरू कर दी. लगभग चार या पांच मील तक हमने बैलगाड़ी हांकी और वह हमारे संग पैदल चला. इसके बाद वह अचानक ही उछल कर बैलगाड़ी पर चढ़ा और लगाम हमारे हाथों से ले ली. हमें उसका यह बर्ताव बहुत अजीब लगा. जिस व्यक्ति ने बैलगाड़ी दूषित होने के डर से हमें ले जाने से मना कर दिया था, अब वही अपने धार्मिक संकोच को एक तरफ कर हमारे साथ उसी बैलगाड़ी में बैठने को राज़ी हो गया था. लेकिन हमें इस पल डर से उससे एक भी सवाल करने की हिम्मत न हुई. हम कोरेगांव जाने को लेकर बहुत चिंतित थे और किसी भी तरह जल्द से जल्द वहां पहुंचना चाहते थे. और इसके बाद हम कुछ देर गाड़ी के चलने में ही दिलचस्पी लेने लगे. लेकिन जल्दी हमारे चारों ओर अँधेरा छा गया. वहां कोई भी स्ट्रीट लाइट्स नहीं थीं जो अँधेरे से निजात दिलातीं. वहां से कोई मर्द, औरत या यहाँ तक कि जानवर भी नहीं गुज़र थे जो हमें यह एहसास दिलाते कि हम उनके बीच में हैं. अकेले होने से हम डर गए और इस डर ने हमें घेर लिया. हमारी चिंता बढ़े जा रही थी. हमने भरसक हिम्मत जुटाई. हम मसूर से काफ़ी दूर आ गए थे. तीन घंटे से ज़्यादा हो गए थे. लेकिन कोरेगांव का कोई निशान भी नहीं दिखा. हमारे भीतर एक अजीब विचार उठा. हमें शक़ हुआ कि बैलगाड़ी वाला धोखे से कहीं सुनसान जगह ले जाकर हमारी हत्या करना चाहता है. हमने काफ़ी सोना पहना हुआ था और इस बात से हमारा शक़ और पक्का हो गया. हम उससे पूछने लगे कि कोरेगांव अभी कितना दूर है, हमें पहुँचने में इतनी देर क्यों हो रही है. वह एक ही बात कहे जा रहा था, “ज़्यादा दूर नहीं है, हम वहां जल्दी ही पहुँच जाएंगे.” रात के क़रीब दस बजे जब हमने कोरेगांव का नामोनिशान तक नहीं पाया तब हमने रोना और गाड़ीवाले को कोसना शुरू कर दिया. हमारा रोना और चीख़ना-चिल्लाना लंबे समय तक हुआ. बैलगाड़ी वाले ने कोई जवाब ही नहीं दिया. तभी अचानक हमने कुछ दूरी पर रोशनी देखी. बैलगाड़ी वाले ने कहा, “वह रोशनी देख रहे हो? वह टोल-कलेक्ट करने वाले के यहाँ जल रही है. हम रात में आराम के लिए यहीं रुकेंगे.” हमने कुछ राहत महसूस की और रोना बंद किया. रोशनी दूर दिखाई पड़ रही थी, हमें यह नहीं लगा कि हम वहां पहुँच सकते हैं. टोल-कलेक्टर की कुटिया तक पहुँचने में हमें दो घंटे लग गए. इस दौरान हमारी चिंता और बढ़ गई और रास्ते भर हम गाड़ीवाले से तरह-तरह के सवाल पूछते रहे कि वहां पहुँचने में देर क्यों हो रही है, क्या हम उसी रास्ते पर हैं या नहीं, आदि-आदि?





आख़िरकार मध्यरात्रि को बैलगाड़ी टोल-कलेक्टर की कुटिया तक पहुँच गई. यह एक पहाड़ के तल पर स्थित थी लेकिन इसकी दूसरी तरफ पहाड़ था. जब हम वहां पहुंचे तब हमने बड़ी संख्या में बैलगाड़ियाँ देखीं जो वहां रात में ठहरकर आराम कर रहे थे. हम बहुत ही ज़्यादा भूखे थे और बस भोजन करना चाहते थे. लेकिन फिर से पानी का सवाल था. अतः हमने गाड़ीवाले से पूछा कि क्या पानी मिलने की संभावना है. उसने हमें चेताया कि टोल-कलेक्टर हिन्दू है और पानी मिलने की कोई संभावना नहीं है अगर हमने सच कहा और यह बताया कि हम महार हैं. उसने कहा, “जाकर कहो हम मुसलमान हैं और अपनी किस्मत आजमाओ.” उसके सुझाव पर मैं टोल-कलेक्टर के दफ़्तर पहुंचा और उससे कहा कि क्या हमें वह पानी दे सकता है. “तुम कौन हो?” उसने पूछताछ की. मैंने उसे जवाब दिया कि हम मुसलमान हैं. मैंने उससे उर्दू में बात की जो कि मैं अच्छी तरह जानता था, ताकि उसे कोई शक़ ही न रह जाए कि मैं असली मुसलमान नहीं हूँ. लेकिन तरकीब ने काम नहीं किया और उसका जवाब बहुत रुखा-सा था. “तुम्हारे लिए यहाँ किसने पानी रखा है? पहाड़ी पर पानी है, अगर तुम वहां जाकर लेना चाहो तो. मेरे पास तो नहीं है.” इस तरह उसने बातचीत ही खारिज़ कर दी. मैं अपनी बैलगाड़ी कि ओर वापस लौट आया और उसका जवाब अपने भाई को बताया. मुझे नहीं पता मेरे भाई ने क्या महसूस किया. यह सुनकर उसने हमें लेट जाने के लिए ही कहा.

बैलों को गाड़ी से हटा दिया गया और बचा हुआ लकड़ी का हिस्सा झुका कर ज़मीन से टिका दिया गया. हमने अपनी चादरें बैलगाड़ी के भीतर लकड़ी के तख़्त पर बिछाई और अपने-अपने शरीरों को आराम की खातिर लेटा लिया. अब हम सुरक्षित जगह पर थे और परवाह नहीं थी कि क्या हुआ है. लेकिन हमारे दिमाग उस घटना से हट ही नहीं पा रहे थे जो हाल में ही हुई थी. हमारे पास खाने के लिए पर्याप्त भोजन था. हम भीतर भूख से लगभग जल रहे थे; इसके बाद भी हम भूखे सो रहे थे; क्योंकि हमें पानी नहीं मिल सकता था, क्योंकि हम अछूत थे. यह अंतिम ख़याल ही दिमाग में घूम रहा था. इस दौरान मैंने कहा, हमें एक सुरक्षित जगह पर आना पड़ा. पर मेरे बड़े भाई ने स्पष्ट रूप से अपने संदेहों को उजागर किया. उसने कहा कि हम चारों का एक साथ सो जाना बुद्धिमता नहीं होगी. कुछ भो हो सकता है. उसने सुझाव दिया कि एक बार में दो लोग सो जाएं और दो लोग जाग कर चौकन्ने रहें. इस प्रकार पहाड़ के तल पर हमारी रात बीती.

अल-सुबह हमारा गाड़ीवान पांच बजे आया और हमें सुझाव दिया कि अब हमें अपनी कोरेगांव जाने की यात्रा को शुरू करना चाहिए. हमने साफ़ मना कर दिया. हमने उससे कहा कि हम आठ बजे के पहले यहाँ से नहीं हिलेंगे. हम कोई जोख़िम नहीं लेना चाहते थे. अतः हमने आठ बजे चलना शुरू किया और कोरेगांव ग्यारह बजे पहुंचे. हमारे पिता हमें देखकर हैरान हुए और बोले कि उन्हें हमारे आने की कोई सूचना नहीं मिली. उन्होंने बिल्कुल ही मना कर दिया. बाद में मालूम पड़ा कि ग़लती मेरे पिता के नौकर की है. उसे हमारी चिट्ठी मिली थी पर वह पिता को उसके बारे में बता ही नहीं पाया था.

मेरी ज़िन्दगी में यह घटना महत्वपूर्ण जगह रखती है. मैं नौ बरस का था जब यह घटना घटी. लेकिन इस घटना ने मेरे दिमाग पर अपनी अमिट छाप छोड़ी. इस घटना के पहले मैं जानता था कि मैं एक अछूत हूँ और यह अछूतपन का व्यवहार निश्चित ही अपमान और भेदभाव के विषय से जुड़ा है. मिसाल के तौर पर, मैं अपने पदानुसार स्कूल में अपनी क्लास के अन्य साथियों के साथ नहीं बैठ सकता था अतः मुझे एक कोने में बैठना पड़ता था. मैं यह जानता था कि स्कूल में मेरे पास एक अलग से बोरीनुमा कपड़ा रखना होता था जिस पर मुझे पालथी मारकर बैठना होता था. यह भी था कि जो स्कूल में सफाई का काम करते, वे मेरी उस बोरीनुमा चटाई को छूते नहीं. मेरे लिए यह तय था कि वह चटाई मैं शाम को घर वापस ले जाऊं और फिर अगले दिन अपने संग वापस लाऊं. स्कूल के दौरान मुझे यह मालूम था कि सछूत वर्ग के बच्चे प्यास लगने पर पानी के नल के पास जाकर उसे खोलकर अपनी प्यास बुझा सकते थे. उन्हें बस टीचर की इजाज़त की ज़रूरत थी. लेकिन मेरी स्थिति अलग थी. मैं पानी का नल नहीं छू सकता था जब तक कि कोई सवर्ण इसे न खोले, मेरे लिए अपनी प्यास बुझाना संभव नहीं था. मेरे संदर्भ में टीचर की इजाज़त काफ़ी नहीं थी. स्कूल के चपरासी की उपस्थिति अनिवार्य थी, वही अकेला व्यक्ति था जिसे क्लास टीचर इस काम के लिए नियुक्त कर सकता था. अगर चपरासी नहीं रहता तो मुझे बिना पानी के ही पूरा दिन गुज़ारना पड़ता. यह स्थिति एक वक्तव्य में समेटी जा सकती है- चपरासी नहीं तो पानी भी नहीं. मैं यह जानता था कि कपड़े धोने का काम घर में मेरी बहनों द्वारा किया जाता था. ऐसा नहीं था कि वहां धोबी नहीं थे. यह भी नहीं था कि हम धोबी को कपड़े धोने का पैसा दे सकते थे. कपड़े धुलाई का काम मेरी बहनों के द्वारा इसलिए किया जाता क्योंकि हम अछूत थे और कोई धोबी अछूतों के कपड़े नहीं धोता. बालों को काटने और मेरे समेत मेरे अन्य भाइयों की शेविंग का काम मेरी बड़ी बहन द्वारा किया जाता था जो लगभग एक नाई की तरह हमारे बाल काटकर और शेविंग करने में माहिर हो चुकी थी, इसलिए नहीं कि सतारा में नाई नहीं थे, या हम नाई को पैसा नहीं दे सकते थे. बाल काटने और शेविंग का काम इसलिए मेरी बहन द्वारा किया जाता था क्योंकि हम अछूत थे और कोई नाई हमारी हजामत बनाने के लिए राज़ी नहीं थे. मैं यह सब जानता था. लेकिन इस घटना ने मुझे जो झटका दिया. ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था. इस घटना ने मुझे छुआछूत के बारे में सोचने पर मज़बूर किया. इस घटना के पहले यह विषय मेरे लिए ऐसा था जैसे बाकी अन्यों के साथ होता आया था जिसमें सछूत और अछूत दोनों शामिल थे.          



दो

सन् 1918 में मैं भारत लौटा. मुझे हायर एजुकेशन के लिए बड़ौदा के महाराज द्वारा अमरीका भेजा गया था. मैंने न्यूयॉर्क स्थित कोलंबिया विश्वविद्यालय में सन् 1913 से 1917 तक पढ़ाई की. सन् 1917 में मैं लंदन आया और लंदन विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र विभाग में पोस्ट ग्रेजुएट में दाख़िल हुआ. सन् 1918 में पढ़ाई पूरी किए बगैर में भारत आने को बाध्य था. क्योंकि मुझे बड़ौदा राज्य द्वारा पढ़ाया गया था अतः मैं राज्य को अपनी सेवा देने के लिए बाध्य था. भारत पहुंचकर मैं पहले से तय योजना के अनुसार सीधे बड़ौदा पहुंचा. मैंने क्यों बड़ौदा को दी जाने वाली अपनी सेवाओं को छोड़ा, उसके कारण मेरे वर्तमान उद्देश्य में काफ़ी अप्रासंगिक हैं. इसलिए मैं उनका ज़िक्र यहाँ नहीं करना चाहता. मैं यहाँ सिर्फ बड़ौदा में हुए अपने सामाजिक अनुभवों के प्रति ही सचेत हूँ और उनका ही विवरण देने के लिए ख़ुद को यहाँ सीमित करूँगा.

मेरे पांच वर्षों के यूरोप और अमेरिका के प्रवास ने मेरे दिमाग और चेतना से यह पूरी तरह ही मिटा दिया था कि मैं एक अछूत हूँ और एक अछूत जब कभी भी भारत में जाता है तो वह ख़ुद और साथ ही दूसरों के लिए परेशानी बनता है. जब मैं स्टेशन से बाहर आया तब मैं एक सवाल से काफी परेशान था, “कहाँ जाऊं? मुझे कौन रखेगा?” मैं गहराई तक व्यथित था. वहां विशिस (संभवतः विशिष्ट) नाम के हिन्दू होटल्स भी थे जिन्हें मैं जानता था. वे मुझे अपने यहाँ नहीं ठहरने देते. अपनी  छद्म पहचान जैसे एक मात्र तरीके से ही वहां रहने-रुकने की व्यवस्था हो सकती थी. लेकिन मैं उसके लिए तैयार नहीं था क्योंकि मैं पहले से ही भयानक नतीजों के पुर्वानुमान लगा सकता था जो कि आने तय थे, अगर मेरी पहचान का पता लगवा लिया जाता और यह निश्चित भी था. बड़ौदा में मेरे मित्र थे जो अमरीका में पढ़ने के लिए आए थे. “अगर मैं उनके यहाँ गया तो क्या वे मेरा स्वागत करेंगे?” मैं अपने आप को इसका विश्वास नहीं दिला सकता था. शायद वे एक अछूत को घर में पनाह देने के लिए शर्मिंदगी महसूस कर सकते थे. मैं स्टेशन की छत के नीचे कुछ देर खड़ा सोचता रहा, कहाँ जाऊं, क्या करूँ! तभी मुझे ख़याल आया कि कैंप में किसी जगह के बारे में पता करना चाहिए. इस समय तक सभी यात्री जा चुके थे. मैं अकेला वहां रह गया था. कुछ किराए पर ले जाने वाले ड्राईवर जिन्हें अभी तक कोई सवारी नहीं मिली थी, मेरी ओर देख मेरा इन्तजार का रहे थे. मैंने उनमें से एक को बुलाया और पूछा कि क्या वह कैंप में किसी होटल के बारे में जानता है? उसने बताया कि वहां एक पारसी लोगों का सराय है और वहां वे मुसाफिरों द्वारा रुपए देने पर ठहरने देते हैं. यह सुनकर कि यह सराय पारसियों द्वारा संचालित होती है मेरा मन ख़ुश हुआ. पारसी लोग ज़रथुस्त्र के अनुयायी होते हैं. वहां मेरे अछूत होने से जुड़े उनके व्यवहार का कोई डर नहीं था क्योंकि उनका धर्म छुआछूत को नहीं मानता. ख़ुशी और उम्मीद के ह्रदय के साथ और दिमाग में बिना किसी डर के मैंने अपना सामान किराए की एक जगह पर रख दिया और ड्राईवर को कैंप में स्थित पारसी सराय जाने के लिए कहा.  

सराय दो मंजिला ईमारत थी जिसके ग्राउंड फ्लोर पर एक बुज़ुर्ग पारसी अपने परिवार के साथ रहता था. वे एक केयरटेकर था और जो टूरिस्ट सराय में कुछ दिनों के लिए ठहरने आते थे उनके खाने का प्रबंध करता था. गाड़ी पहुंची. इसके बाद पारसी केयरटेकर मुझे ऊपर की मंजिल पर ले गया. मैं जब तक ऊपर गया ड्राईवर मेरा सामान ले आया था. मैंने उसे रुपए दिए और वह चला गया. मैं ख़ुश था कि आख़िरकार मैंने अपनी समस्या का हल निकाल ठहरने की जगह खोज ली थी. मैं ख़ुद को आराम देना चाहता था इसलिए कपड़े उतार रहा था. इसी समय केयरटेकर अपने हाथों में एक किताब लिए आया. मैं अपने आधे कपड़े उतार चुका था. मैंने सदरी और कस्ती नहीं पहना था, जो यह साबित करते थे कि ये पहनने वाला पारसी होता है, यह देखकर उसने कड़ी आवाज़ में मुझसे पूछा कि मैं कौन हूँ? मुझे यह नहीं मालूम था कि पारसियों द्वारा संचालित यह पारसी सराय केवल पारसी लोगों के लिए के प्रयोग के लिए ही है, मैंने उसे बताया कि मैं एक हिन्दू हूँ. वह चौंक गया और कहने लगा कि मैं इस सराय में नहीं ठहर सकता. मैं उसके जवाब से पूरी तरह से हैरान हो सुन्न पड़ गया था. वही सवाल फिर मेरे सामने वापस आ गया कि कहाँ जाऊं? मैंने ख़ुद को कुछ शांत रखकर कहा कि हालाँकि मैं हिन्दू  हूँ और मुझे यहाँ रहने में कोई दिक्कत नहीं है अगर उसे भी कोई परेशानी न हो तो. उसने पूछा, “कैसे रूक सकते हो? मुझे उन लोगों का एक रजिस्टर मेन्टेन करना होता है जो लोग यहाँ आकर ठहरते हैं.” मैं उसकी दिक्कत समझ गया. मैंने उससे कहा कि मैं रजिस्टर पर दर्ज़ करने के लिए एक पारसी नाम लिख सकता हूँ. “तुमको क्या दिक्कत होगी अगर मुझे नहीं है, तुम कुछ खोने वाले नहीं हो बल्कि कुछ पैसे ही कमाओगे अगर मैं यहाँ ठहरा तो.” मैं देख सकता कि इस बात से वह मेरे पक्ष में झुकता हुआ दिखाई दे रहा था. यह बिलकुल साफ़ था कि उसके यहाँ लंबे समय से कोई मुसाफिर ठहरा नहीं था और कुछ रुपए कमाने का मौका वह गंवाना भी नहीं चाहता था. वह इस शर्त पर राज़ी हो गया कि मैं उसे हर दिन का डेढ़ रुपया खाने-पीने व ठहरने का दूँ और अपना पारसी नाम रजिस्टर पर लिखूं. वह सीढ़ियों से होता हुआ नीचे चला गया और इसके बाद मैंने एक राहत की साँस ली कि जैसे सिर से कोई बोझ उतर गया हो. समस्या सुलझ चुकी थी और मैं बहुत ख़ुश था. पर ओह! मैं उस समय यह नहीं जानता था कि यह प्रसन्नता कितने कम वक़्त के लिए थी. लेकिन इससे पहले कि मैं यह बताऊँ कि इस सराय में ठहरने का अंत कितना दुखांत था उससे पहले यहाँ मैंने अपना थोड़ा-सा समय कैसे बिताया, बताना चाहिए. 

इस सराय के पहले तल पर एक छोटा-सा बेडरूम था और उसी से सटा हुआ छोटा गुसलखाना था जिसमें नल लगा हुआ था. बाक़ी का हिस्सा एक बड़ा हॉल था. मेरे रहने के दौरान हॉल सभी तरह के कबाड़, तख्तों, बेंचों और टूटी कुर्सियों आदि से भरा पड़ा था. इस सब के बीच में मैं अकेला एकांत में रहा. केयरटेकर सुबह के समय चाय लेकर आता था. इसके बाद वह करीब साढ़े नौ बजे नाश्ता या सुबह का खाना लेकर आता था. तीसरी बार वह करीब रात के साढ़े आठ बजे डिनर लेकर आता था. वह तभी आता जब उसे लगता कि उसे आना ही पड़ेगा और इन अवसरों पर वह कभी बातों के लिए नहीं रूकता था. किसी तरह यह दिन बीते थे.

मैं, बड़ौदा महाराजा द्वारा अकाउंटेंट जनरल के कार्यालय में प्रोबेशनर नियुक्त किया गया था. मैं सराय से सुबह लगभग दस बजे निकलता और लगभग आठ बजे शाम को लौटता था. मैं इस प्रयास में रहता कि अधिक से अधिक समय दोस्तों के साथ रह सकूँ. सराय लौट कर वहां रात बिताने का विचार बहुत ही डराने वाला था. मैं सराय महज़ इसलिए ही लौटता था क्योंकि मेरे पास इस आसमान तले आराम करने की कोई और जगह ही नहीं थी. सराय के पहले तल के इस बड़े हॉल में बातें करने के लिए अन्य साथी व्यक्ति नहीं थे. मैं काफी अकेला था. पूरा हॉल अँधेरे से ढका हुआ मालूम पड़ता था. वहां कोई बिजली का बल्ब नहीं था और न ही कोई तेल का दीया था जो अँधेरे से राहत दिलाता. केयरटेकर एक हरिकेन लैंप मेरे इस्तेमाल के लिए लाया करता था. इसकी रोशनी कुछ इंच तक भी नहीं पहुँच पाती थी. मुझे महसूस होता कि मैं किसी तहख़ाने में हूँ. मैं अन्य व्यक्तियों के साथ और उनसे बातें करने के लिए लालायित रहता. लेकिन वहां कोई नहीं था. साथी इंसानों के साथ की अनुपस्थिति में मैं यह साथ किताबों में खोजता और पढ़ता, और सिर्फ पढ़ता. पढ़ने में पूरी तरह से घुल जाने में मैं अपना अकेलापन भूल जाता. लेकिन चमगादड़ों, जिन्होंने उस बड़े हॉल को अपना घर बना लिया था, की चहक और उड़ने की आवाज़, मेरा पढ़ने में लगा ध्यान भंग कर देती, उनकी आवाजें मुझे यह याद दिलाते हुए सिहरनें दे जातीं कि मैं क्या भूलने का प्रयास कर रहा था, कि मैं एक अजीब जगह पर अजीब हालातों के बीच था. कई दफ़ा मैं बहुत क्रोधित हो उठता. लेकिन मैं अपनी व्यथा और गुस्से को यह सोचकर शांत करता कि हालाँकि यह एक तहख़ाना है, पर यह एक शेल्टर है और कोई शेल्टर न होने से यह बेहतर था. मेरी स्थिति कुछ इस तरह शोक संतप्त थी कि जब मेरी बहन का बेटा बॉम्बे से मेरा बाक़ी सामान लाया, जो मैं पीछे छोड़ आया था, मेरी इस स्थिति को देखकर वह इतना ज़ोर से रोने लगा कि मुझे उसे फ़ौरन ही वापस भेजना पड़ा. मैं इस स्थिति में पारसी सराय में पारसी नाम के साथ रहा. मैं जानता था कि मैं लंबे समय तक इस गढ़े गए पारसी नाम के साथ सराय में रहना जारी नहीं सकता था क्योंकि एक न एक दिन मेरी असली पहचान खोज ली जाएगी. इसलिए मैं राज्य द्वारा दिए जाने वाले बंगले को पाने की कोशिश रहा था. लेकिन प्रधानमंत्री ने मेरी अर्ज़ी पर उस गंभीरता से विचार नहीं किया जितनी गंभीर मेरी स्थिति थी. मेरी याचिका एक अधिकारी से दूसरे अधिकारी तक जा रही थी और जब तक मुझे अंतिम जवाब मिलता उससे पहले मेरा क़यामत का दिन आ पहुंचा.

यह सराय में रहने का मेरा ग्यारहवां दिन था. मैं अपना सुबह का नाश्ता कर तैयार हो गया था और दफ्तर के लिए कमरे से बाहर निकलने ही वाला था. जब मैं कुछ किताबों को वापस करने के लिए उठा रहा था जिन्हें बीती रात मैंने पढ़ने के लिए लायब्रेरी से ली थीं, तभी मैंने क़दमों की आहट सुनी जो काफी संख्या में सीढ़ियों से ऊपर चले आ रहे थे. मुझे लगा वे टूरिस्ट हैं जो यहाँ रहने आए हैं इसलिए मैं उन्हें देखने बाहर निकला कि ये मित्र कौन हैं. तत्क्षण, मैंने दर्ज़न के करीब गुस्सैल दिख रहे, लंबे और तगड़े पारसियों को देखा, हर किसी के पास एक छड़ी थी और वे मेरे कमरे की तरफ ही चले आ रहे थे. मुझे पता लग चुका था कि ये साथी टूरिस्ट नहीं हैं क्योंकि इस बात का सबुत उन्होंने उसी वक़्त दे दिया था. मेरे कमरे के सामने वे पंक्ति बनाकर खड़े हो गए और अपने सवालों की झड़ी मुझ पर दागनी शुरू कर दी. “तुम कौन हो? तुम यहाँ क्यों आए हो? तुम्हारी पारसी नाम रखने की हिम्मत कैसे हुई?... धोखेबाज! तुमने इस पारसी सराय को दूषित कर दिया है!” मैं ख़ामोश खड़ा रहा. मैं कोई जवाब न दे सका. मैं गढ़ी गई पारसी पहचान से नहीं बच सकता था. बल्कि यह धोखाधड़ी थी और इसे अब पकड़ लिया गया था. मुझे इस बात का पक्का यकीन था कि जो खेल मैं पारसी बनकर खेल रहा था अगर उसी पर कायम रहता तो इस गुस्सैल और कट्टर पारसियों की भीड़ द्वारा मुझ पर हमला किया गया होता और संभवतः मैं मरने की कगार पर पहुँच गया होता. मेरी नम्रता और ख़ामोशी ने इस क़यामत को टाल दिया.उनमें से एक ने मुझसे पूछा कि मैंने कब कमरा ख़ाली करने का सोचा है. उस वक़्त मेरा यह आशियाना मेरी ज़िंदगी से बढ़कर था. इस सवाल में एक कब्रनुमा धमकी छुपी थी. यह सोचकर कि प्रधानमंत्री को मेरी बंगले की अर्ज़ी इस दरम्यां देखने का अनुकूल मौका मिल जाएगा, इसलिए अपनी चुप्पी तोड़ मैंने उन लोगों से गुजारिश की कि मुझे कम से कम एक हफ़्ता और रहने दिया जाए. लेकिन पारसी सुनने को तैयार ही नहीं थे. उन्होंने अल्टीमेटम जारी कर दिया कि मैं शाम तक इस सराय में न मिलूं. मुझे अपना सामान पैक करना चाहिए. वे गंभीर परिणाम निकलने की बात कह चल दिए. मेरा ह्रदय मेरे भीतर ही सिकुड़ गया. मैं उन सभी को बुरा-भला कह कड़वाहट के साथ रोया. आख़िरकार मुझे अपने कीमती आशियाने से वंचित कर दिया गया था. यह शेल्टर किसी क़ैदी के क़ैदख़ाने से बेहतर नहीं था पर फिर भी यह बेशकीमती था.

पारसियों के जाने के बाद मैं कुछ देर बैठ कर इस स्थिति से बाहर निकलने के बारे में सोचने लगा. मुझे उम्मीद थी कि मुझे जल्द ही राज्य द्वारा प्रदत्त बंगला मिल जाएगा और मेरी मुश्किलें ख़त्म हो जाएंगी. मेरी समस्या टेम्पररी थी इसलिए मैंने सोचा कि मित्रों के यहाँ जाना ठीक रहेगा. बड़ौदा राज्य में मेरे अछूत मित्र नहीं थे. लेकिन अलग वर्गों में मेरे मित्र थे. एक हिन्दू था और दूसरा भारतीय इसाई था. मैं सबसे पहले हिन्दू मित्र के पास गया और उसे बताया कि मेरे संग क्या घटित हुआ. वह एक अच्छी रूह वाला मेरा बहुत अच्छा मित्र था. वह दुखी और क्रोधित हुआ था. इसके बाद भी उसने अपनी एक दुविधा बताई. उसने कहा, “अगर तुम मेरे घर रहने आते हो तो मेरे नौकर चले जाएंगे.” मैं उसका संकेत समझ गया और मैंने उस पर मुझे रहने देने का दबाव नहीं डाला. मुझे भारतीय इसाई दोस्त के यहाँ जाना अच्छा नहीं लगा. एक बार उसने मुझे अपने साथ रहने के लिए आमंत्रित किया था. लेकिन मैंने पारसी सराय में रहने को तरजीह देते हुए उसके आमंत्रण को नकार दिया था. न जाने का कारण यह था कि हम दोनों की आदतें एक-दूसरे के अनुकूल नहीं थीं. अब उसके पास जाना प्रतिघात जैसा होता. इसलिए मैं अपने दफ्तर चला गया लेकिन मैंने शेल्टर पाने के इस मौके को पूरी तरह से नहीं छोड़ा था. एक मित्र से बात करने के उपरांत मैंने यह तय किया कि उसके पास जाकर उससे पूछता हूँ कि क्या वह मुझे अपने साथ रहने देगा. जब मैंने अपना यह सवाल उसके आगे रखा तो उसका जवाब था कि उसकी पत्नी कल ही बड़ौदा आ रही है और वह उससे इस बारे में विचार-विमर्श करके बताएगा. तत्पश्चात मैं समझ गया कि यह एक बहुत चतुर उत्तर था. वह और उसकी पत्नी मूल रूप से एक ऐसे परिवार से थे जो जाति से ब्राह्मण थे. हालाँकि ईसायत में धर्मांतरण के बाद पति विचारों से उदार था लेकिन पत्नी अभी भी अपनी तरह से रुढ़िवादी थी और किसी अछूत को अपने घर में टिकने देने के लिए राज़ी नहीं होती. इस तरह उम्मीद की आख़िरी किरण भी बुझ गई. शाम के चार बजे थे जब मैं अपने भारतीय इसाई दोस्त के घर से निकला. कहाँ जाऊं, यह सबसे बड़ा सवाल मेरे सामने था. मुझे सराय में लिया कमरा हर हाल में ख़ाली करना था और मेरा कोई मित्र नहीं था जिसके यहाँ जाकर रह सकूँ!! सिर्फ बॉम्बे वापस लौटने का ही विकल्प बचा था.

बॉम्बे की ट्रेन रात नौ बजे बड़ौदा से थी. अभी भी पांच घंटे बिताने थे. कहाँ बिताया जाए? क्या मुझे सराय जाना चाहिए? क्या मुझे अपने मित्र के पास जाना चाहिए? मैं सराय वापस जाने का साहस नहीं जुटा सकता था. मुझे डर था कि पारसी आकर मुझ पर हमला कर सकते थे. मैं अपने मित्र के पास नहीं जाना चाहता था. हालाँकि मेरी हालत दयनीय थी पर मैं नहीं चाहता था कि कोई मुझ पर दया करे. मैंने सार्वजनिक गार्डन में पांच घंटे बिताने का फैसला किया जिसे कमाठी बाग़ कहा जाता था. यह शहर और कैंप की सीमा पर स्थित था. मैं वहां आंशिक रूप से ख़ाली दिमाग, दुःख व उस विचार के साथ बैठा जो मेरे साथ हुआ था. मैंने पिता और माँ के बारे में सोचा जब वे बच्चे थे और लाचार स्थिति में थे. आठ बजे मैं गार्डन से बाहर निकला, सराय जाने के लिए एक गाड़ी ली और सामान नीचे उतार कर लाया. केयरटेकर बाहर आया लेकिन हम दोनों एक-दूसरे से एक शब्द भी न कह सके. उसे लग रहा था कि मुझे इस मुसीबत में लाने के लिए वही जिम्मेदार था. मैंने उसका बिल चुकता किया. उसने ख़ामोशी से लिया और ख़ामोशी से ही चला गया. मैं बड़ौदा बड़ी उम्मीदों के साथ गया था. मैंने कई ऑफर्स को ठुकरा दिया था. यह युद्ध का समय था. इंडियन एजुकेशनल सर्विस की कई जगहें ख़ाली पड़ी हुई थीं. मैं कई प्रभावकारी लोगों को लंदन में जानता था. लेकिन मैंने उनसे कोई बात नहीं की. मुझे लगा कि मेरा पहला कर्तव्य बड़ौदा के महाराजा को अपनी सेवाएं देने का है जिन्होंने मेरी शिक्षा हेतु वित्तीय सहायता की थी. लेकिन मुझे महज़ ग्यारह दिनों में ही बड़ौदा छोड़ बॉम्बे वापस लौटने पर मजबूर कर दिया था.

वह दृश्य जिसमें दर्ज़न भर पारसी मेरे आगे हाथों में छड़ी लिए ख़तरनाक मिजाज के साथ पंक्तिबद्ध खड़े हैं और मैं उनके सामने बेहद डरा हुआ, रहम की गुहार लगाता हुआ खड़ा हूँ, एक ऐसा दृश्य है जो अभी मेरे साथ बना हुआ है और अठारह सालों का लंबा समय उस दृश्य को धूमिल करने में सफल नहीं हो पाया है. मैं आज भी उस दृश्य को जीवंतता से याद कर सकता हूँ और कभी भी बिना आंसुओं के याद नहीं कर पाता. यह पहली बार था जब मुझे मालूम चला कि एक व्यक्ति जो हिन्दुओं के लिए अछूत है वह पारसियों के लिए भी अछूत है.  


तीन

साल 1929 का था. बॉम्बे गवर्मेंट ने अछूत लोगों की शिकायतों की जाँच के लिए एक कमिटी का गठन किया था. मुझे कमिटी के एक सदस्य के तौर पर नियुक्त किया गया था. कमिटी को सभी प्रांतों में अन्याय, उत्पीड़न और अत्याचार के आरोपों की जाँच के लिए जाना पड़ता था. कमिटी विभाजित हुई. मुझे और एक अन्य सदस्य को खानदेश के दो जिलों के काम को सौंपा गया. मेरे कुलीग और मैं अपने कार्यों को पूरा करने के बाद अलग हो गए. वह किसी हिन्दू संत को देखने चला गया. मैं बॉम्बे जाने वाली गाड़ी पकड़ने निकल पड़ा. मैं चालिसगांव पर धुलिया लाइन में एक गाँव में जातिवादी हिन्दुओं द्वारा गाँव के अछूतों के ख़िलाफ़ घोषित सामाजिक बहिष्कार से जुड़े एक केस की जाँच के लिए उतरा. चालिसगाँव के अछूत स्टेशन पर मुझे लेने आए और अपने साथ रात में ठहरने के लिए गुजारिश की. मेरी मूल योजना सामाजिक बहिष्कार के केस की जाँच के बाद सीधे बॉम्बे जाने की थी. लेकिन वे इच्छुक दिखाई दे रहे थे तो मैं रातभर रूकने के लिए राज़ी हो गया. मैंने उस गाँव में जाने के लिए धुलिया जाने वाली ट्रेन पकड़ ली, वहां गया, गाँव में उस प्रबल स्थिति के बारे में पता लगाया और अगली गाड़ी से वापस चालिसगांव लौट आया.

मैंने चालिसगांव के अछूत लोगों को स्टेशन पर अपने इंतजार में पाया. मेरा माला पहनाकर स्वागत किया गया. महारवाड़ा में अछूतों के आवास रेलवे स्टेशन से लगभग दो मील की दूरी पर थे और एक नदी पार करनी पड़ती थी जिसके ऊपर एक पुलिया बनी हुई थी. स्टेशन पर बहुत-सी घोड़ागाड़ियाँ जाने के लिए मौजूद थीं. स्टेशन से महारवाड़ा भी पैदल चलकर जाया जा सकता था. मुझे लगा कि तुरंत ही महारवाड़ा पहुंचा दिया जाऊंगा. लेकिन उस दिशा में कोई हलचल ही नहीं थी और मैं यह समझ नहीं सका कि क्यों मुझे इतना इंतजार करवाया जा रहा है. एक घंटे या कुछ इतने ही समय के बाद एक टांगा (एक घोड़े वाली गाड़ी) प्लेटफार्म के पास आया और मैं उसमें चढ़ गया. टांगे में सिर्फ मैं और टांगेवाला ही था. बाकी लोग पैदल ही छोटे रास्ते से निकल गए. टांगा अभी दो सौ कदम भी नहीं चला था तभी एक मोटरकार से लगभग टकरा ही गया था. मैं हैरान था कि जिस ड्राईवर को हर दिन जाने के लिए पैसा दिया जाता था वह इतना अधिक अनुभवहीन है. दुर्घटना सिर्फ इसलिए टल गई थी क्योंकि पुलिसकर्मी तेज़ चिल्लाया जिससे टाँगे वाले ने इसे पीछे की ओर वापस खींच लिया था.

हम किसी तरह नदी के पुल के पास पहुंचे. पुल पर किसी भी तरह की दिवारें सहारे के लिए नहीं थीं. बस पत्थरों से बनी पगडंडी पांच या दस फीट की दूरी के फासले पर बिछी थी. इसे पत्थरों से पक्का किया गया था. नदी पर बनी पुलिया रोड के राईट एंगल में थी जहाँ से हम आ रहे थे. रोड की तरफ से पुलिया तक आने के लिए एक खड़ी चढ़ाई ली जानी थी. पुलिया के नजदीक के पहले पत्थर के पास पहुँचते ही घोड़ा सीधे जाने के बजाय पीछे की तरफ मुड़कर कुलाच मार गया. बगल के पत्थर में घोड़ेगाड़ी का पहिया इतना मजबूती से फंस गया कि मैं उछलकर पुलिया पर बिछे पक्के पत्थरों पर गिर पड़ा और घोड़ा और साथ लगी हुई गाड़ी पुलिया से नदी में जा गिरे. मैं कुछ इतना तेज़ गिरा था कि सुन्न पड़ा हुआ था. महारवाड़ा नदी के दूसरे किनारे की तरफ ही था. जो लोग स्टेशन पर मेरा स्वागत करने आए थे वे मुझसे पहले पहुँच चुके थे. मुझे रोते और विलाप करते पुरुष, स्त्री व बच्चों के बीच से उठाकर महारवाड़ा ले जाया गया. इस दुर्घटना के चलते मुझे बहुत चोटें लगी थीं. मेरे पैर में फ्रैक्चर हुआ और कई दिनों तक चल नहीं पाया था. मैं यह नहीं समझ सका कि यह सब कैसे हुआ. टांगा हर दिन पुलिया के पार कितनी ही बार जाता है पर टांगेवाला कभी भी बिना सुरक्षा के पुलिया पर आने-जाने में असफल नहीं होता.

पूछताछ करने पर मुझे असल बातों के बारे में बताया गया. रेलवे स्टेशन पर देरी इस कारण हुई क्योंकि टाँगेवाले उस टाँगे को चलाने के लिए तैयार नहीं थे जिसमें बैठा यात्री एक अछूत था. यह उनकी मर्यादा के नीचे था. महार लोग यह नहीं सह सकते थे कि मैं उनके आवास तक पैदल चलकर जाता. यह उनके लिए मेरी गरिमा के ख़िलाफ़ था. इसलिए एक समझौता हुआ. इस समझौते के मुताबिक टाँगे का मालिक चलाने के लिए टांगा तो दे देगा पर चलाएगा नहीं. महार टांगा ले सकते हैं पर इसे चलाने के लिए किसी की तलाश करनी होगी. महारों ने सोचा कि यह एक बढ़िया समाधान है. लेकिन जाहिर तौर पर वे यह भूल गए कि यात्री की सुरक्षा उसकी गरिमा बनाए रखने से अधिक महत्त्व रखती है. अगर महारों ने इस बारे में सोचा होता तो वे विचार करते कि क्या वे एक ड्राईवर खोज पाते जो मुझे सुरक्षित गंतव्य तक पंहुचा पाता. वास्तव में उनमें से कोई भी टांगा नहीं चला सकता था क्योंकि यह उनका पेशा नहीं था. इसलिए उन लोगों ने अपने ही समुदाय में किसी को टांगा चलाने के लिए कहा. उस व्यक्ति ने लगाम अपने हाथों में ली और यह सोचने लगा कि इसमें कुछ भी नहीं है. पर जैसे ही वह इस पर चढ़ा उसे अपनी जिम्मेदारी का एहसास हुआ और वह इतना घबरा गया कि टाँगे को नियंत्रित करने के सारे प्रयास ही छोड़ दिए. मेरी गरिमा को बचाने के लिए चालिसगांव के महारों ने मेरे जीवन को ही ख़तरे में डाल दिया. मैंने तब जाना कि एक हिन्दू टांगेवाला, भले ही वह एक नौकर हो, उसकी एक शान है जिससे वह ख़ुद को एक व्यक्ति के रूप में सभी अछूत लोगों से बेहतर (उच्चतम) मानता है, फिर चाहे वह व्यक्ति बैरिस्टर-एट-लॉ[1] ही क्यों न हो.


[1] अंग्रेज़ी कानून के अंतर्गत उच्च न्यायालय में वकालत करने वाला 



चार

सन् 1934 में, मेरे साथ डिप्रेस्ड क्लास आंदोलन में काम करने वाले साथी वर्कर्स ने एक साईट पर घूमने जाने की इच्छा जताई कि अगर मैं उनके साथ जाने के लिए राज़ी हूँ तो. मैं तैयार हो गया. यह तय किया गया कि हमारी योजना में सभी जगहों के साथ एक विजिट वेरुल स्थित बौद्ध गुफाओं की भी होनी चाहिए. यह प्रबंध हुआ कि मैं नासिक जाऊंगा और बाकी लोग नासिक में ही मुझसे मिलेंगे. वेरुल जाने के लिए हमें औरंगाबाद जाना था. औरंगाबाद, हैदराबाद मुस्लिम स्टेट का एक शहर था और यह महाराजा निज़ाम के प्रभुत्व के अंतर्गत शामिल था. औरंगाबाद के रास्ते में हमें पहले दौलताबाद नाम के अन्य शहर से होकर गुज़रना था जो हैदराबाद स्टेट में ही शामिल था. दौलताबाद एक ऐतिहासिक शहर है और किसी ज़माने में प्रसिद्ध हिन्दू राजा रामदेव राय के राज्य की राजधानी हुआ करता था. दौलताबाद का क़िला एक प्रसिद्ध प्राचीन इमारत है और कोई भी टूरिस्ट इसके आसपास होने पर इसे देखने का मौका नहीं छोड़ता. इसलिए हमारे दल ने भी इस क़िले को देखना अपने कार्यक्रम में शामिल कर लिया.

हमने कुछ बसें व टूर कराने वाली कारों को किराए पर लिया. हम संख्या में करीब तीस लोग थे. हमने नासिक से येवला तक जाना शुरू किया क्योंकि येवला औरंगाबाद के रास्ते में है. हमारे टूर के इस कार्यक्रम की घोषणा नहीं की गई थी और ऐसा जानबूझकर किया गया था. हम चुपचाप घूमना चाहते थे ताकि उन मुश्किलों से बचें जो एक अछूत टूरिस्ट को इस मुल्क के दूर के बाहरी हिस्सों में घूमने के दौरान सामना करना पड़ता है. हमने अपने लोगों को केवल उन केन्द्रों के बारे में सूचित कर दिया था जहाँ हमने ठहरना तय किया था. इस तरह, हम निज़ाम के राज्य के कई गाँवों से होकर गुज़रे पर हमारे लोगों में से कोई भी हमसे मिलने नहीं आया. दौलताबाद स्वाभाविक रूप से भिन्न था. वहां हमारे लोगों को सूचित कर दिया गया था कि हम आ रहे थे. वे हमारा इंतज़ार कर रहे थे और शहर के प्रवेश द्वार पर इकठ्ठा हो गए थे. उन्होंने हमसे उतरकर पहले चाय और जलपान करने के बाद क़िले जाने को कहा. हमने उनके इस प्रस्ताव को नहीं माना. हमें उस समय चाय की गहरी तलब थी पर हम धुंधलका होने से पहले क़िला देखने का पर्याप्त समय भी चाहते थे. इसलिए हम क़िला देखने के लिए निकल पड़े और अपने लोगों से वापसी में चाय पीने के लिए कहा. योजना-अनुसार हमने अपने ड्राइवर्स को चलने के लिए कहाँ और कुछ ही मिनटों के भीतर हम क़िले के गेट पर थे.





रमजान का महिना था, मुस्लिमों के लिए यह उपवास का महिना है. क़िले के बाहर ही एक पानी की छोटी हौदी थी जो किनारे तक पानी से पूरी भरी हुई थी. उसके चारों ओर चोड़े पत्थरों को जमाया गया था. यात्रा के चलते हमारे चेहरे, शरीर और कपड़ों पर पूरी तरह से धूल जम गई थी हम सब इसे धोना चाहते थे. बिना ज़्यादा सोचे हमारे दल के कुछ सदस्यों ने अपने चेहरे और पैरों को बिछे हुए पत्थरों पर जाकर हौदी के पानी से धो लिया. इसके बाद थोड़ा ताज़ा होने पर हम क़िले के गेट पर गए. वहां भीतर हथियारबंद सैनिक थे. उन्होंने बड़ा गेट खोला और हमें मेहराबदार रास्ते में प्रवेश करने दिया. हमने अभी गार्ड से क़िले के भीतर जाने की अनुमति प्राप्त करने की प्रक्रिया के बारे पूछा ही था. इसी बीच लहराती सफ़ेद दाड़ी वाला मुसलमान पीछे से चिल्लाता हुआ आ रहा था, “ढेड़ों  (मतलब अछूत) ने हौदी को नापाक कर दिया है.” जल्दी ही नौजवान और बूढ़े मुसलमान, जो आसपास ही थे, उस बूढ़े के साथ इकठ्ठा हो हमें गाली देने लगे. “ढेड़ों में अकड़ आ गई है. ढेड़ अपनी औकात भूल गए हैं (निम्न और अपमानित ही बने रहना) इन ढेड़ों को सबक़ सिखाना चाहिए.” वे भयंकर गुस्से में थे. हमने उनको बताया कि हम बाहरी हैं और यहाँ के रीति-रिवाज़ के बारे में नहीं जानते थे. वे आगबबूला हो वहां के स्थानीय अछूत, जो इस समय तक गेट पर पहुँच चुके थे, की ओर मुखातिब थे. “तुम लोगों ने इन बाहरियों को क्यों नहीं बताया कि इस हौदी का अछूत इस्तेमाल नहीं कर सकते!” यही सवाल था जिसे वे बार-बार उनसे पूछ रहे थे. बेचारे लोग! ये लोग वहां नहीं थे जब हमने हौदी के पानी का इस्तेमाल किया. यह बिल्कुल ही हमारी ग़लती है क्योंकि बिना पूछताछ हमने यह काम किया. उन लोगों ने विरोध किया कि इसमें उनकी ग़लती नहीं थी. लेकिन मुस्लिम मेरा स्पष्टीकरण सुनने को राज़ी ही नहीं थे. वे लोग स्थानीय अछूतों और हमें गाली ही दिए जा रहे थे. गालियाँ इतनी गंदी थीं कि हम भी भड़क गए. वहां आसानी से दंगा या संभवतः क़त्ल हो जाने लायक हालात बन सकते थे. किसी तरह हमें ख़ुद पर नियंत्रण रखना था. हम किसी भी आपराधिक मामले में नहीं पड़ना चाहते थे जो हमारे इस छोटे से सफ़र का आकस्मिक और रूखा अंत कर देता.

एक नौजवान मुस्लिम भीड़ में से बार-बार यही कहता जा रहा था कि हर किसी को अपने धर्म के अनुरूप ही होना चाहिए, अर्थात् इस तरह से अछूतों को सार्वजनिक टंकियों से पानी इस्तेमाल नहीं करना चाहिए. मेरा सब्र जवाब दे गया और उससे गुस्से में पूछा, “क्या तुम्हारा धर्म यही सिखाता है? क्या तुम एक अछूत को इस टैंक से पानी लेने के लिए रोक दोगे अगर वह एक मुसलमान बन जाए?” इस तरह के सीधे सवालों का कुछ असर उन मुसलमानों पर पड़ता हुआ दिखा. उन्होंने कोई भी जवाब नहीं दिया और ख़ामोशी से खड़े रहे. गार्ड की तरफ मुखातिब हो मैंने गुस्से ही कहा, “क्या हम क़िले के अंदर जा सकते हैं या नहीं? हमें बताओ, अगर नहीं जा सकते तो हम यहाँ रूकना ही नहीं चाहते.”गार्ड ने मेरा नाम पूछा. एक काग़ज़ के टुकड़े पर मैंने अपना नाम लिखा. वह काग़ज़ सुपरीटेंडेंट के पास लेकर अंदर गया और वापस आया. हमें बताया गया कि हम क़िले के भीतर तो जा सकते हैं पर हम कहीं भी पानी नहीं छू सकते और एक हथियारबंद सैनिक को हमारे साथ जाने का आदेश दिया गया कि वह यह ध्यान रखे हम आदेश का उल्लंघन न करें.

मैंने एक उदाहरण यह दिखाने के लिए दिया था कि एक व्यक्ति जो हिन्दुओं के लिए अछूत है, वह पारसी के लिए भी एक अछूत ही है. यह दृष्टांत यह दिखाएगा कि वह व्यक्ति जो हिन्दुओं के लिए अछूत है, वह मुसलमान के लिए भी एक अछूत ही है.



पांच

अगला मामला भी उतना ही प्रकाश डालने वाला है. यह काठियावाड़ के एक गाँव के एक अछूत स्कूल टीचर का केस है जो निम्नलिखित पत्र के रूप में दर्ज़ किया गया था. यह पत्र श्रीमान गांधी द्वारा प्रकाशित ‘यंग इंडिया’ जरनल के 12 दिसंबर 1929 के अंक में सामने आया था. यह पत्र उन मुश्किलों को दिखाता है कि कैसे उसने एक हिन्दू डॉक्टर को अपनी पत्नी को देखने के लिए राज़ी किया, जिसकी हाल ही में जचगी हुई थी और कैसे माँ और नवजात शिशु चिकित्सीय उपचार के बगैर मर गए. पत्र कहता है:

 “इस महीने की 5 तारीख को मेरा एक बच्चा हुआ था. 7 तारीख को पत्नी बीमार हो गई और उसे पेचिस होने लगे. उसका जीवन प्राण क्षीण हो गया और उसकी छाती सूज गई. उसकी श्वास मुश्किल से चल रही थी और उसकी पसलियों में अत्यधिक दर्द था. मैं एक डॉक्टर को बुलाने भागा- लेकिन उसने कहा कि वह एक हरिजन के घर नहीं जाएगा और न ही वह नवजात बच्चे को देखने के लिए तैयार था. फिर मैं नगरसेठ और गरासिया दरबार गया और मदद की गुहार लगाई. नगरसेठ ने डॉक्टर को उसकी फीस के दो रुपए मेरे द्वारा देने का आश्वासन दिया. फिर डॉक्टर एक शर्त पर आया कि वह मरीजों को हरिजन बस्ती के बाहर से ही देखेगा. मैं अपनी पत्नी को नवजात शिशु के साथ बस्ती के बाहर ले गया. तब डॉक्टर ने अपना थर्मामीटर एक मुस्लिम को दिया, उसने थर्मामीटर मुझे दिया फिर मैंने इसे अपनी पत्नी को दिया. फिर थर्मामीटर उसी प्रक्रिया के तहत चेक करने के बाद वापस दिया. रात के क़रीब आठ बज रहे थे. डॉक्टर ने दीये के मद्धिम प्रकाश में थर्मामीटर को देखते हुए कहा कि मरीज निमोनिया से पीड़ित है. फिर डॉक्टर चला गया और दवा भेजी. मैं बाज़ार से कुछ अलसी के बीज ले आया और उन्हें मरीज को दिया. डॉक्टर ने पत्नी को बाद में देखने से मना कर दिया, हालाँकि मैंने उसकी फीस के दो रुपए दे दिए थे. बीमारी बहुत ख़तरनाक थी और केवल ईश्वर ही हमारी मदद करने वाला था.

मेरी ज़िन्दगी का दीया बुझ गया. वह इस दोपहर के क़रीब दो बजे चल बसी.”

अछूत स्कूल टीचर का नाम नहीं दिया गया. इसलिए डॉक्टर का नाम भी उल्लेखित नहीं है. उस अछूत स्कूल टीचर की गुजारिश पर नाम उल्लेखित नहीं किए गए क्योंकि उसे यह डर है कि उससे कहीं प्रतिशोध न ले लिया जाए. लेकिन दिए गए तथ्य निर्विवाद हैं.

स्पष्टीकरण ज़रूरत नहीं है. डॉक्टर, जिसने शिक्षित होने के बावजूद थर्मामीटर लगाने और एक गंभीर स्थिति वाली बीमार औरत का इलाज करने से इंकार कर दिया. उसके इलाज से इंकार के परिणामस्वरूप वह औरत मर गई. उसे अंतर्मन में अपने पेशे से बंधे आचार नियमों को एक ओर कर देने का कोई पछतावा महसूस नहीं हुआ. हिन्दू एक अछूत को छूने के बजाय अमानवीय बने रहने को तरजीह देंगे.



इससे भी बड़ी एक अन्य घटना है. 6 मार्च सन् 1938 के दिन कासरवाड़ी (ऊन की मिलों के पीछे) दादर, बॉम्बे में श्रीमान इंदुलाल याद्निक की अध्यक्षता में भंगियों की एक बैठक हुई. इस बैठक में एक भंगी युवक ने अपने अनुभव को निम्नलिखित शब्दों में बताया:

“मैंने सन् 1933 में वर्नाकुलर[1] की फायनल परीक्षा उत्तीर्ण की. मैंने चौथी कक्षा तक अंग्रेज़ी पढ़ी है. मैंने बॉम्बे नगरपालिका की स्कूलों की कमिटी में एक टीचर के रोजगार के लिए आवेदन किया लेकिन असफल रहा क्योंकि वहां कोई वैकेंसी नहीं थी. फिर मैंने अहमदाबाद में पिछड़े वर्गों के अधिकारी विभाग में तलाठी (गाँव का पटवारी) पद के लिए आवेदन किया और सफल रहा. 19 फरवरी सन् 1936 के दिन, खेड़ा जिला में स्थित बोरसद तालुका में मामलातदार के कार्यालय में मुझे तलाठी पद पर नियुक्त किया गया.

हालाँकि मेरा परिवार मूलतः गुजरात से आया, पर इससे पहले मैं कभी गुजरात नहीं गया. यह मेरा वहां पहला चिन्ह था. उसी प्रकार, मैं नहीं जानता था कि सरकारी कार्यालयों में छुआछूत बरता जाएगा. मेरे आवेदन के साथ ही मेरे एक हरिजन होने का तथ्य उल्लेखित था. इसलिए मुझे लगा कि कार्यलय में मेरे साथी कर्मचारी पहले से ही यह जानते होंगे कि मैं कौन था. ऐसी स्थिति में, जब मैंने ख़ुद को तलाठी पद का कार्यभार लेने के लिए प्रस्तुत किया तब मैं मामलातदार के दफ्तर के क्लर्क के रवैये से हैरान रह गया.

कारिंदे ने नफरत से पूछा, “तू कौन है?” मैंने जवाब दिया, “सर, मैं एक हरिजन हूँ.” उसने कहा, “दूर हट, दूरी पर खड़े रह. मेरे इतने पास खड़े होने की तेरी हिम्मत कैसे हुई. अभी तू कार्यालय के भीतर है, बाहर होता तो छ लातें मारता, यहाँ नौकरी के लिए आने की हिम्मत कैसे हुई?” तत्पश्चात उसने मेरा प्रमाणपत्र और तलाठी पद की नियुक्ति का आदेश पत्र ज़मीन पर गिराने को कहा. फिर उसने उन्हें उठाया.

बोरसद में मामलातदार के कार्यालय में काम के दौरान मैंने पानी पीने को लेकर बड़ी मुश्किलों का सामना किया. कार्यालय के बरामदे में पीने के पानी की केनें रखी गई थीं. वहां एक वॉटरमैन था जो इन केनों का इंचार्ज था. उसकी ड्यूटी कार्यालय के क्लर्क लोगों को ज़रूरत होने पर पानी पीने में मदद करने की थी. वॉटरमैन की अनुपस्थिति में क्लर्क ख़ुद से ही केनों में से पानी लेकर पी सकते थे. मेरे संदर्भ में यह असंभव था. मैं केनों को नहीं छू सकता था क्योंकि मेरा छूना पानी

को दूषित करता, इसलिए मुझे वॉटरमैन की दया पर ही निर्भर रहना पड़ता. मेरे इस्तेमाल के लिए एक छोटा-सा जंग लगा बर्तन रखा गया था. न कोई उसे छूता और न साफ करता सिवाय मेरे. यही बर्तन था जिसमें वॉटरमैन मेरे लिए खैरात की तरह पानी डालता. वॉटरमैन की उपस्तिथि में ही मैं पानी प्राप्त कर सकता था. वॉटरमैन को मुझे पानी देने का विचार पसंद नहीं आता था. मुझे पानी पीने आता देखकर वह खिसक जाता और इसके चलते मुझे बिना पानी के ही वापस जाना पड़ता. वे दिन जब मुझे पीने के लिए पानी नहीं मिला, वे दिन कम नहीं थे. 





निवास के मामले में भी मुझे इसी तरह की मुश्किलें आईं. मैं बोरसद में अजनबी था. कोई भी जाति का हिन्दू मुझे किराए पर मकान नहीं देता. बोरसद के अछूत भी हिन्दुओं को अप्रसन्न करने के डर से मुझे आवास देने के लिए राज़ी नहीं थे क्योंकि उन्हें मेरा क्लर्क के रूप में रहने का यह प्रयास पसंद नहीं आता था कि मैं अपने स्तर से ऊँचा रहूँ. भोजन के मामले में तो कहीं अधिक कठिनाइयां थीं. वहां कोई जगह अथवा व्यक्ति नहीं था जहाँ मैं अपना भोजन खा सकूँ. मैं सुबह-शाम ‘भाजा’ ख़रीदता, गाँव के बाहर एकांत जगहों पर उन्हें खाता और रात में मामलातदार के कार्यालय के बरामदे में बिछे पत्थरों पर आकर सो जाता था. इस तरह, मैंने चार दिन बिताए. यह सब मेरे लिए असहनीय बन गया. फिर मैं अपने पैतृक गाँव, जन्त्रल रहने चला गया. यह बोरसद से छ मील दूर था. हर दिन मुझे ग्यारह मील पैदल चलना पड़ता था. यह मैंने डेढ़ महीने किया.

इसके बाद मामलातदार ने मुझे एक तलाठी के पास काम सीखने के लिए भेजा. यह तलाठी तीन गांव, जन्त्रल, खांपुर और सैजपुर का प्रभारी था. जन्त्रल इसका मुख्यालय था. मैं इस तलाठी के साथ जन्त्रल में दो महीने था. उसने मुझे कुछ भी नहीं सिखाया और मैंने एक बार भी गाँव के कार्यालय में प्रवेश तक नहीं किया. गाँव का मुखिया ख़ासतौर पर द्वेषपूर्ण था. एक बार उसने कहा, “तू, तेरा बाप, तेरा भाई झाड़ू लगाने वाले हैं जो गाँव का दफ्तर साफ़ करते हैं और तू हमारे बराबर में बैठना चाहता है? अच्छा होगा, ये नौकरी छोड़ दे.”  

एक दिन तलाठी ने मुझे गाँव की जनसंख्या सारणी तैयार करने के लिए सैजपुर बुलाया. मैं जन्त्रल से सैजपुर गया. मैंने मुखिया और तलाठी को गाँव के कार्यालय में कुछ काम करते हुए पाया. मैं गया, कार्यालय के दरवाजे के पास खड़ा हो उन्हें ‘गुड मॉर्निंग’ का अभिवादन किया लेकिन उन दोनों ने मेरा कोई संज्ञान नहीं लिया. मैं बाहर क़रीब पंद्रह मिनटों तक खड़ा रहा. मैं ज़िंदगी से पहले ही थक चुका था. इस तरह नज़रन्दाज़ और अपमानित होने पर मैं गुस्से में आ गया. मैं वहां पड़ी एक कुर्सी पर बैठ गया. मुझे कुर्सी पर बैठा देख मुखिया और तलाठी मुझसे बिना कुछ कहे चुपचाप चले गए. थोड़ी देर बाद, लोग आना शुरू हुए और जल्दी ही एक बड़ी भीड़ ने मुझे घेर लिया. यह भीड़ गाँव की लाइब्रेरी के लाइब्रेरियन द्वारा नेतृत्व थी. मैं यह नहीं समझ सका कि क्यों एक शिक्षित व्यक्ति को इस भीड़ का नेतृत्व करना चाहिए. मुझे बाद में पता चला कि वह कुर्सी उसकी थी. वह मुझे बेहद ही गन्दी शब्दावली वाली गाली देने लगा. रवानिया (गाँव का नौकर) को संबोधित कर उसने कहा, “एक भंगी के इस गंदे कुत्ते को कुर्सी पर किसने बैठने की परमिशन दी?” रवानिया ने मुझे कुर्सी से उठाकर कुर्सी ले ली. मैं ज़मीन पर बैठ गया. इसके बाद भीड़ गाँव के कार्यालय में घुसी और मुझे घेर लिया. भीड़ में लोग आगबबुला थे, कुछ मुझे गाली दे रहे थे, कुछ मुझे धारीया (तलवार की तरह धारदार हथियार) से टुकड़ों में काट डालने की धमकी दे रहे थे. मैंने उनसे मुझे छोड़ देने और माफ़ कर देने की गुहार लगाई. लेकिन भीड़ पर इसका कुछ असर ही नहीं हुआ. मैं नहीं जानता था कि ख़ुद को कैसे बचाऊं.  लेकिन तभी मुझे मामलातदार को अपने इस अंजाम के बारे में लिखने और बताने का एक विचार आया कि अगर मैं भीड़ द्वारा मार दिया जाऊं तो मेरे शरीर को कैसे निपटाया जाए. संयोग से, यह मेरी उम्मीद थी कि भीड़ यह जान जाए कि मैं उनके ख़िलाफ़ वास्तव में मामलातदार को रिपोर्ट कर रहा हूँ तो वे कहीं अपने हाथों को रोक लें. मैंने रवानिया से एक पेज देने के लिए कहा और उसने दे दिया. फिर मैंने अपने फाउंटेन पेन से उस पेज पर बड़े-बड़े अक्षरों में निम्नलिखित बात लिखी ताकि सभी इसे पढ़ सकें:

 

“मामलातदार, बोरसद तालुका

सर,

परमार कालिदास शिवराम का विनम्र अभिवादन स्वीकार करने की कृपा करें. विनम्रतापूर्वक आपको सूचित किया जाता है कि आज मृत्यु का हाथ मुझपर गिर पड़ा है. ऐसा नहीं होता अगर मैंने अपने माता-पिता के शब्दों को सुना होता. यह बहुत अच्छा होगा अगर आप मेरी मृत्यु के बारे में मेरे माता-पिता को सूचित कर दें.”

जो मैंने लिखा था उसे लाइब्रेरियन ने पढ़ा और मुझसे उसे फाड़ देने के लिए कहा, मैंने यही किया. उन लोगों ने मुझ पर अपशब्दों की बौछार कर मुझे ख़ूब अपमानित किया. “तू हमसे चाहता है कि हम तुझे अपना तलाठी माने? तू एक भंगी है और तू चाहता है कि तो कार्यालय में घुसे और कुर्सी पर बैठे?” मैंने दया की गुहार लगाई और ऐसा दुबारा न करने का वायदा किया. इसके साथ ही इस नौकरी को छोड़ने का वायदा भी किया. मुझे शाम के सात बजे, भीड़ के जाने तक वहां रखा गया. तब तक तलाठी और मुखिया दोनों नहीं आए थे. इसके बाद मैंने पंद्रह दिनों का अवकाश लिया और अपने माता-पिता के पास बॉम्बे वापस लौट गया.       



[1] मातृभाषा या देसी भाषा


(हिंदीसमय.कॉम पर उपलब्ध अनुवाद को भी पढ़ा है. एक-समान कुछ वाक्य मिल भी जाएँ तो वह नक़ल नहीं है क्योंकि कुछ शब्दों काअनुवाद एक जैसा ही होता है. सभी फोटो गूगल से ली हैं, इन पर मेरा कोई अधिकार नहीं है. हिंदी अनुवाद अपनी और दुनिया की बहनों को समर्पित है.)  

21 बरस की बाली उमर को सलाम, लेकिन

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