Tuesday, 13 June 2017

फिल्म 'हिन्दी मीडियम' माध्यम की समस्या को समझा भी नहीं पाई!

फ़िल्म 'हिन्दी मीडियम' उस खुरदरी और असली सतह को नहीं छू पाई जिसे छूना चाहिए था। माध्यम की समस्या की लोकप्रियता को यह फिल्म सिर्फ केश करती हुई प्रतीत होती है। फिल्म का शीर्षक बहुत हद तक इसकी सफलता का कारण है। जबकि फिल्म के चित्र कुछ और ही कहानी प्रस्तुत करते हैं। वास्तव में यह मनोरंजन करने पर ज़्यादा केन्द्रित हो गई है। मैंने यह फिल्म कुछ समय पहले देखी थी तब मुझे वह सिरा पकड़ में तो आ गया था जिसे मैं समझ पाई थी लेकिन शब्द संयोजन नहीं बना पा रही थी या फिर अपनी बात को रखने की झिझक भी थी। क्योंकि लोग इस फिल्म को बहुत पसंद कर रहे हैं इसलिए इसके बारे में एक अलग राय रखना थोड़ा मुश्किल ही है। लोगों को लगेगा कि हर अच्छी फिल्म में नुक्ता चीनी ही क्यों निकाली जाती है! फ़िल्म की कुछ बातें बेशक बहुत अच्छी हैं पर बहुत सी बातें अटपटी और बनावटी भी हैं। कुछ ऐसे किरदार हैं जिनका असली आरेख खींचा ही नहीं गया। फिल्म स्टूडेंट के पक्ष रखती ही नहीं। सबसे खराब बात यह लगी कि इस फ़िल्म ने असली मुद्दे को पकड़ा ही नहीं। हिन्दी माध्यम वास्तव में यह कतई नहीं होता।

'हिन्दी मीडियम' शब्द-युग्म के पीछे एक बड़ी चाहतों की तस्वीर है। यह  महज़ निजी स्कूल में दाख़िले की चाहत नहीं बल्कि अंग्रेज़ी के मार्फत भविष्य को बेहतर बनाने की ज़िद्द और उम्मीद है। उस धारा में शामिल हो जाने की ललक है जिसमें अंग्रेज़ी बोलना फख्र करने जैसा है। अपने व्यक्तित्व में अंग्रेज़ियत को जोड़ लेना है। सरकारी नौकर बनने के लिए 'अंग्रेज़ी का ज्ञान होने की शर्त' को पूरा करने जैसा है। कंप्यूटर पर अंग्रेज़ी सॉफ्टवेयर के साथ काम कर लेना है। लोगों से 'इंटेरक्ट' कर लेना है। अच्छा वेतन पैकेज़ मिलना भी इसी में शामिल है। इंटरव्यू या वाइवा में अंग्रेज़ी आने के अलावा फ्लूएनसी से जवाब देना है। और बहुत कुछ है हिन्दी मीडियम के पीछे। कभी सोच कर देखिये। इन बिन्दुओं पर यह फिल्म बिल्कुल खरी नहीं उतरती इसलिए मैं इसे सम्मोहन की नज़र से नहीं देख पा रही। मुझे जहां तक लगता है इसने हिन्दी मीडियम के मुद्दे को बहुत हद तक डायवर्ट ही कर दिया। निजी स्कूल में दाखिला तो एक पड़ाव भर है।



माध्यम हिन्दी या अन्य प्रादेशिक भाषा में होना हमारे देश में एक बहुत बड़ी समस्या है जिसे इस फिल्म में अमीर परिवार से जोड़ते हुए दाख़िले की तिकड़म में समेट दिया गया है। जबकि ऐसा बहुत ही कम प्रतिशत में होता है। इसके उलट हिन्दी माध्यम की समस्या बच्चों से होती हुई माता-पिता और पूरे परिवार को कैसे प्रभावित कर देती है इसको समझा जाना ज़रूरी है। पिछले दिनों में एक आलेख पढ़ रही थी। उनमें कुछ ऐसे दर्द भरे हादसों का ज़िक्र था जिनमें बड़े विश्वविद्यालय में क्षेत्रीय विद्यार्थियों के साथ हुए हादसों की जानकारी और वजहें बताई गई थीं। मैं उस लेख को खोज के जरूर लिंक साझा करूंगी।

बहरहाल उस आलेख में यह बताया गया था कि अपने अपने क्षेत्रीय स्तर पर और अपनी ही मातृ भाषा में अव्वल दर्जे का प्रदर्शन करने के बाद जब यही प्रतिभावान छात्र शहरों में जमे हुए बड़े पढ़ाई के केन्द्रों में जाते हैं तब उन्हें बहुत सी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। माध्यम से लेकर अपने आप को शहरी युवा और अमीर छात्रों के बीच तालमेल बैठा पाने में बहुत जद्दोजहद करनी पड़ती है। इसके अलावा उनका आत्मविश्वास बेहद कमजोर(बना दिया जाता है) हो जाता है और उनके स्वभाव में भी कई नकारात्मक बदलाव आ जाते हैं। उनके कपड़े लत्ते पहनने के व्यवहार से लेकर उनकी पूरी दिनचर्या तक में एक नए और खराब परिवर्तन आते हैं। उनकी स्वाभाविकता टूटने लगती है। इसके चलते वे तनाव का शिकार बनते हैं और अपने को मारने तक का प्रयास भी कर लेते हैं। कई मामलों में तो कई युवा छात्रों ने अपनी जान तक दे दी है। यह कहना यहाँ गलत न होगा कि यह सब एक ख़ास जाति के लोगों के युवाओं के साथ तो बहुत होता है।

मेरी एक दोस्त का क़िस्सा मुझे उसकी इजाजत के बगैर यहाँ लिखना पड़ रहा है। उसने अपनी ऊंची पढ़ाई के लिए भारत के कुछ कारोबारियों द्वारा स्थापित जानी मानी फ़ेलोशिप हेतु आवेदन दिया। इस फ़ेलोशिप के विवरण को पढ़कर यह पता चलता है कि इसकी स्थापना गरीब पढ़ने वाले बच्चों के लिए है। दिल्ली में ही इनका शानदार दफ्तर भी है।  टॉप 25 में उसकी योग्यता के अनुसार उसको चुन लिया गया। जब वह इंटरव्यू देने पहुंची तो उसने लिबास के तौर पर अपने आप को वहाँ आए 25 लोगों में सबसे गरीब पाया। बाकी लोग हवाई जहाज से 'ट्रैवल' कर के जो तथाकथित गरीब थे और सूट-बूट में थे, आए थे। इंटरव्यू में सोशल इशू पर एक पर्चा लिखवाया गया और उस पर्चे के आधार पर एक कमरे में भेजा गया, जहां आपका असली मूल्यांकन कर्ता इकलौता व्यक्ति बैठा था। उनका सरनेम उनके नाम पर हावी था। उस नफ़ासत से सराबोर आदमी ने मेरी दोस्त को रिजैक्ट करते हुए कहा- 'आपकी पढ़ाई लिखाई और काम बेमिसाल है पर हम आपको हिन्दी माध्यम के चलते दाखिला नहीं दे सकते।' मेरी दोस्त ने बिना कहे चेहरे से क्यों पूछा। वह बोले- 'हिन्दी माध्यम के बच्चे को दाखिला दे तो दिया जाता है पर बाद में वे बाक़ी बच्चों के साथ कंपीट नहीं कर पाते। चेहरा छुपाने लगते हैं। परफ़ोर्मेंस खराब होती है। डिप्रेस हो जाते हैं।' इस जवाब को सुनकर मेरी दोस्त के पैरों से ज़मीन निकल गई थी।



क्या आप इस वाकया से अंदाज़ा नहीं लगा सकते कि हिन्दी माध्यम कितना महत्वपूर्ण है मुद्दा है। मुझे याद आता है कि बहुत अरसा पहले मृणाल पाण्डे का अंग्रेज़ी अख़बार में एक लेख छपा था जिसमें उन्हों ने सरकार की शिक्षा नीति को लताड़ा था। उनका उसमें साफ कहना था कि स्कूली पढ़ाई हिन्दी में और ऊंची या फिर विज्ञान आदि की पढ़ाई अंग्रेज़ी में होने के कारण बच्चों को दिक्कत आ रही है। कई आत्महत्याओं के केस दर्ज़ हो चुके हैं। लेकिन अभी हाल ही में इसी लेखिका का 'शब्दांकन' नाम की लेखनी से जुड़ी वेबसाइट पर लेख पढ़ा जिसमें इन्हों ने अंग्रेज़ी सीख लेने की बात कही है। इस बात पर हैरानी भी नहीं होनी चाहिए।

कुछ समय पहले सरकारी स्कूलों में कक्षा पाँचवीं तक अंग्रेज़ी नहीं पढ़ाई जाती थी। मैं उसी जमात की हूँ। जब हम कक्षा छठी में दाख़िल हुए तब हमें अंग्रेज़ी की बड़ी भारी मोटी किताब पकड़ा कर एबीसी सिखाया गया और उसके बाद सीधे कहा गया -This is a dog. उसके बाद लंबी लंबी कहानियाँ और फलां ढमकाना पढ़ाया गया। मुझे आज भी सरकार की इस नीति से और पाठ्यक्रम बनाने वालों से बहुत खुन्नस है और उम्र भर रहेगी। क्योंकि इसके चलते हमारी काम की दुनिया में कोई कल्पना नहीं है। हाँ कुछ लोग सेटल हो गए हैं पर उसके पीछे अलग अलग वजहें हैं। इसके अलावा पिछली यूपीए सरकार में सिविल सर्विसेज़ में भाषा का मुद्दा रहा और भारी संख्या में छात्रों का प्रदर्शन भी हुआ।

अब अगर इस फिल्म की बात की जाये तब आप मुझसे और भी कई सवाल पूछ सकते हैं। लेकिन मैं फिर भी उन जवाबों को तैयार रखूंगी जिन्हें मैं अपने अनुभव से दे सकती हूँ। मैंने बहुत करीब से निजी स्कूल जो जन्नत के समान है (एक अंतरराष्ट्रीय निजी स्कूल का अनुभव है)भी देखा है और सरकारी स्कूल में तो पढ़ाई ही की है। यही वजह है कि मुझे अंतर समझ आ पाते हैं। सभी को आते हैं। ...यह फिल्म बच्चे के मनोविज्ञान को छूती तक नहीं। फिल्म में निजी स्कूल की प्रिन्सिपल की सोच को बेहद ऊपरी तौर पर दिखाकर छोड़ दिया गया है। जबकि वह किरदार बहुत से रहस्यों को छुपाकर बैठता है। इतनी भारी संख्या में क्यों चल रहे हैं यह निजी स्कूल जिसमें एसी के बिना बच्चे नहीं पढ़ते? ऐसे ही सवालों की शृंखला है जिन्हें हम सोचते नहीं। फिल्म के अंत में मुख्य किरदार द्वारा दिया गया भाषण भी न्याय नहीं करता दिखता। सबसे आखिर में माता पिता का अपनी बच्ची को सरकारी स्कूल में भेजने का फैसला चौंकाता है और मीठी समाधान की तरफ ले जाता है। लेकिन यह कितनी प्रतिशत में होता है, अपने आसपास नज़र भी नहीं आता। हिन्दी फिल्में अपनी आदर्श पेश करने की आदत को भी साथ रखकर चलती हैं। इस फिल्म का अंत ऐसा ही आदर्श है। लेकिन खुद सरकारी स्कूल के शिक्षक अपने बच्चे के लिए बढ़िया से बढ़िया स्कूल खोजते हैं और पढ़ाते हैं। जब सरकारी शिक्षक या कर्मचारी ही सरकारी स्कूल के प्रति नीरस हैं तब इन स्कूलों की पढ़ाई की गुणवत्ता पर सवालिया निशान भी लग जाता है।

  ... और भी बहुत बिन्दु दिमाग में है। दूसरी पोस्ट में लिखूँगी। फिलहाल यह मेरा नज़रिया है। फिल्म को जिस तरह से समझा जा रहा है मैंने सिर्फ उसे दूसरे कोण से समझने की कोशिश की है। मेरी समझदारी बेहद निचले दर्जे की है। लेकिन भारत के लोग बहुत समझदार हैं!






4 comments:

  1. समान चीज़ मुझे भी खटक रही थी।।।सतही तौर पर दिखाया गया है चीजों को।।।

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    1. फिल्म बेहतर बनाई जा सकती थी।

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  2. हिन्दी मिडियम देखने जाने से पहले सोंचा था कि इसमे हिन्दी मिडियम से पढाई करने वालो की परेशानियों को दिखाया होगा,पर उसमे किसी और ही मुददे को फोकस किया.तुमने बहुत सही लिखा है,मेरे मन मे भी कुछ‎ ऐसा ही सवाल था...

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    1. जी बिल्कुल। मुझे भी यही लगा था।

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