Wednesday, 21 December 2016

द सिटी लाइट्स मुहब्बत...प्यार ऐसा भी होता है

चार्ली की फिल्में तमाम दुखों के बाद भी जीने की एक वजह के साथ हमारे सामने उपस्थित होती हैं. उनके यहाँ जीवन के कटु सत्य हैं उसके बाद भी जीवन में हास्य और प्रेम के सहारे बने रहने का भाव सुंदरतम है.  

                                         दुनिया की पहली बोलती फिल्म 'द जैज़ सिंगर' का पोस्टर 

फिल्में जब बनना शुरू हुई होंगी तो उनका जादू सिर चढ़कर बोला होगा. ऐसे में जब चैप्लिन ने पर्दे पर ख़ुद को पेश किया तो वह अद्भुत मिलन गज़ब हुआ होगा. 

                                         पहली हिन्दी सवाक् फिल्म 'आलमआरा' का पोस्टर
                                              
मैंने मन से चार्ली चैप्लिन की मशहूर फिल्म 'सिटी लाइट्स' देख ली। गज़ब फिल्म है। हर किसी को एक बार ज़रूर देखनी चाहिए। देखकर ठंडा ठंडा-कूल कूल लगा। फिल्म के अंत के दृश्य में आंखों में भी पानी भी आ गया। जब फिल्म के बारे में और जानकारी इकट्ठा की तब पाया कि आंखों में पानी महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन के भी आया था। वे भी इसी अंत के दृश्य में अपनी आंखों का पानी पोंछ रहे थे। ऐसा करते हुए उन्हें खुद चार्ली चैप्लिन ने देखा था।

सिटी लाइट्स को बेमिसाल फिल्मों की सूची में भी जगह दी गई है। इस फिल्म ने उस समय कमाई भी बहुत ज़्यादा की थी। 'द जैज़ सिंगर' पहली अंग्रेज़ी बोलती हुई फिल्म थी। हमारे यहाँ यानि हिन्दी में यही जगह 1931 में आई फिल्म 'आलम आरा' को प्राप्त है। दोनों फिल्मों के बारे में आगे कभी जानकारी दूँगी। फ़िलहाल अभी विषय कुछ और है। ऐसा मैंने पढ़ा है कि सिटी लाइट्स' का 'सेंट्रल आइडिया' चेतना का अस्थाई होना है। आप फिल्म देखिये। ऐसा हो सकता है। आप भी सहमत होंगे। पर मुझे इस फिल्म के उस अंत के दृश्य ने ही चैन नहीं लेने दिया जिसमें मुहब्बत का चेहरा मौजूद था। मुझे सच में नहीं मालूम कि आखिर प्यार, इश्क़, प्रेम, लव, मुहब्बत किसे कहते हैं! मेरे लिए अजनबी शब्द हैं क्योंकि मैंने इनके अंदर मौजूद अहसास को नहीं जीया। पर जब इस फिल्म को देखा तो मूक अभिनय से ही जान लिया कि प्यार क्या होता है!


                                                    ट्रैम्प की लड़की से पहली मुलाक़ात का दृश्य

जब चार्ली चैप्लिन यह फिल्म  बना रहे थे तब सवाक् (वाणी सहित) फिल्में बनने का दौर शुरू हो गया था और निर्वाक् यानि मूक फिल्मों की तरफ लोगों का रूझान कम होना शुरू हो गया था। इसलिए चार्ली चैप्लिन के लिए यह एक चुनौती थी कि मूक फिल्में आखिरकार क्यों अलग और उम्दा होती है, साबित किया जाये। उन्होंने इसे बनाने और लिखने में लगभग ढाई बरस का समय लिया था। इसी फिल्म में पहली बार उन्होंने ध्वनि का इस्तेमाल भी किया था। यह फिल्म सन् 1931 में आई थी। जब अमरीका में महामंदी ने दस्तक भी दे दी थी। इसी हालात में ट्रैम्प आता है और छा जाता है। फिल्म का एक एक दृश्य करोड़ का है। इससे से भी अनमोल चार्ली चैप्लिन के चेहरे के भाव।

फिल्म की कहानी में आवारा ट्रैम्प और न देख पाने वाली एक फूल बेचने वाली लड़की की कहानी है। एक और अमीर चरित्र है जिसके पास पैसा, घर और नौकर चाकर सब कुछ हैं। जब यह अमीर आदमी नशे में डूबा हुआ आत्महत्या करने जा रहा होता है तब ट्रैम्प उसे बचाता है। इस काम से खुश होकर एक आवारा को अमीर व्यक्ति दोस्त बनाकर अपने घर लेकर जाता है और उसकी खूब सेवा करता है। पर जैसे ही उसे होश आता है वह अपने नौकरों से उसे धक्केमार कर बाहर फिकवाने से भी परहेज़ नहीं करता। यही सिलसिला चलता है फिल्म में। ट्रैम्प की मुलाक़ात उस न देख सकने वाली लड़की से होती है और वह उसे धीरे धीरे पसंद करने लगता है। लड़की को यह ग़लतफ़हमी होती है कि ट्रैम्प अमीर है। वह अपने दोस्त से मिले पैसों से लड़की की मदद करता है। इतने में पुलिस ट्रैम्प को लूटमार का आरोपी समझकर जेल में बंद कर देती है। दूसरी तरफ लड़की ने ट्रैम्प के रुपयों की मदद से आँखें ठीक करवा कर एक फूल की बड़ी दुकान खोल ली है। कई सालों बाद जब ट्रैम्प जेल से बाहर आता है तब उसकी दशा पहले से भी अधिक खराब है। लड़की उसे जब फूल देती है तब उसका हाथ पकड़ लेती है। छूने के अहसास से वह उसे पहचान लेती है। फिल्म इसी दृश्य पर खत्म होती है।


                                                    सिटी लाइट्स फिल्म का अंत का दृश्य

इस फिल्म में लड़की भूमिका बेहद मज़बूत है। उसकी आँखें नहीं है फिर भी वह फूल बेचती है। वह किसी पर आश्रित नहीं है। उसे ज़रूर यह ग़लतफ़हमी है कि ट्रैम्प अमीर है पर अंत में वह उसे छूकर पहचान लेती है और साबित करती है कि प्यार में स्तर मायने नहीं रखता। दोनों किरदारों की तरफ से प्रेम के महान होने का बहाव दिखता है। बिना रंग और चमक दमक की ऐसी मुहब्बत मैंने पहले नहीं देखी और न समझी थी। चार्ली चैप्लिन का मानना था कि मूक सिनेमा अपने आप में एक मुकम्मल सिनेमा है। यहाँ भाषा की दीवार नहीं है। कोई भी, कैसा भी औरत, आदमी, बच्चे, युवा आदि इनसे से जुड़ सकते हैं। शायद यही वजह है कि फिल्म चित्रित इस प्रेम को मैं समझ पाई हूँ। दुनिया की महान भावना शब्दरहित होती है। मुझे यह अब पता चल चुका है। ठीक ऐसे ही अपनी हिन्दी मूक फिल्में भी ऐसी होंगी। मुझे इस बात से इंकार नहीं पर बदकिस्मती से कूल 1288 मूक फिल्मों में से केवल चार फिल्मों के हो फूटेज़्स हमारे पास मौजूद हैं।


आगे जब कभी फिर वापस आऊँगी तब ढेर सारी जानकारी लेकर आने की कोशिश करूंगी। फ़िलहाल तो ग़र मेरी यह पोस्ट पढ़कर आपको भी 'सिटी लाइट्स' देखने की इच्छा उभर आई है तब ज़रूर देखिये और बाँटिए कि फिल्म आपको कैसी लगी। किस बात ने आपको छूआ। यदि आप किसी की मुहब्बत में गिरफ़्तार हैं तब तो यह फिल्म आपको बताएगी कि आप कितने खुशकिस्मत हैं। प्यार के एक अलग रंग से मुलाक़ात करने का मन है तो यह फिल्म आपके लिए ही है।  



2 comments:

  1. दुनिया की महान भावना शब्दरहित होती है। बहुत बड़ी से बड़ी बात को कम शब्दों में कह जाना ही ज्योति की ख़ासियत है। बहुत दिनों बाद आज फिर आपकी गली में आया। मालामाल होकर जा रहा हूँ।

    धन्यवाद बेहतरीन लेखन के लिए।

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    1. नहीं पता लेखन क्या है, बस लिखती हूँ जो अटपटा ख़याल आता है उसे। सुलझे ख़याल नहीं लिखे जाते। ...शुक्रिया के साथ।

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