लैपटॉप के ठीक से चलने पर मेरा मन दुआओं से भर उठता है। लेकिन जब ख़राब हो तो डायरी के पन्ने भरती रहती हूँ। जो भी उट-पटांग दिमाग से होते हुए दिल में तरल बनता है, सब का सब डायरी के पन्नों पर उतार देती हूँ। छापती हूँ। लिख देती हूँ। मेरी इस सनक को घर में कई बार सनक की ही नज़रों से ही देखा जाता है। तब मैं यही जवाब देती हूँ, घर में किसी का तो सनकी होना बनता है। नॉर्मल होने में भी क्या कोई मज़ा है! कभी कभी लगता है कि एक सनक जरूर पालनी चाहिए। कैसी भी। कोई भी। कुछ नहीं तो यही जानने में कि 'मैं आख़िर इस धरती पर खुश रहने के लिए ही आई हूँ या फिर मेरे होने के क्या मायने हैं!' मुझे फिर भी इस बात पर यकीन है कि हमें हंसने के बहाने खोजने ही पड़ेंगे। मैं ऐसा मानती हूँ। कई मर्तबा यह मुमकिन नहीं। लेकिन कई बार यह जरूरी है।
मुझे आज फिर उसकी आखिरी बातें रह रह कर याद आ रही हैं। कोशिश कर रही हूँ सिलसिलेवार ढंग से याद कर पाऊँ। मैं बादाम भी तो नहीं खाती इसलिए मुश्किल हो रही है। खैर, आगे बढ़ते हैं।
"कभी जब बाहर के लोगों से टकराती हूँ तो अमूमन कड़वे ही होते हैं। उनके अंदर की झल्लाहट इतनी ख़राब होती है कि मेरा सिर दर्द हो जाता है। इसलिए अपने को लोगों से दूर रखने की कोशिश करती हूँ। खासतौर पर उनसे तो ज़रूर जो मुझे पढ़ने में माहिर हैं। इन सब बातों से परे मैं खुद में कुछ मजबूत स्तम्भ उगाने की कोशिश कर रही हूँ। मुझे मुश्किल वक़्त का अंदाज़ा हो चला है। जब आएगा तब यही स्तम्भ मुझे सहारा देंगे। बाहर के सहारे की ज़रूरत कम महसूस होती है।"
मैंने हैरानी से उसे देखते हुए पूछा, "क्या कहीं उपदेश की क्लास ले रही हो?''
बदले में मुस्कुरा दी।
खबर मिली की उसकी शादी हो रही है। मैंने उसे फोन किया... "बेटा मिठाई भी अब महंगी लगने लगी! न बताओ तो क्या न पता लगेगा?"
आवाज़ से वह कुछ खास उत्साही नहीं लगी। मुझे लगा। शायद भावुक होगी।

शादी के बाद पता चला कि वो घर आई हुई है। नई दुल्हन को देखने की इच्छा उसके न बुलाने पर भी उसके पास ले गई। वाकई में वह बहुत खूबसूरत लग रही थी। मैंने चींटी काटी। वो गुस्से से देखते हुए मेरा हाथ हटाने लगी।
मैंने पूछा, "हुआ क्या?"
"कुछ नहीं।"
मैंने उसे कहा नहीं। लेकिन उसके चेहरे पर मुर्दानी छाई हुई थी। मुझे घबराहट हुई सो मैंने ज़्यादा बात करना मुनासिब नहीं समझा।
कई दिनों मुलाकात नहीं हुई। एक रोज़ फिर ख़बर आई कि गाँव में बीमार है। उसकी बिदाई भी नहीं कारवाई गई। उसे वापस दिल्ली इलाज़ की ख़ातिर लाया जा रहा है।
कुछ दिन बाद मुझे बताया गया कि उसकी हालत बहुत खराब है। उसने अस्पताल में ही दम तोड़ दिया।
आह! मेरे अंदर कुछ टूट गया। मेरी कमर पर किसी ने मानो बड़ा पत्थर पटक दिया। जब तक मैं घर पहुंची उसे दुल्हन वाली मुर्दा का भेष दे दिया गया था। मुझे एक पल को लगा वहीं उल्टी हो जाएगी। लोगों का जमावड़ा लगा था। उसके पापा गमछा लिए सीढ़ियों पर बैठे छाती पर हाथ पटक पटक कर कुछ बोलते हुए रो रहे थे। मेरे कानों ने सदमे में उन्हें सुना नहीं।
मैंने पापा से पूछा, "मैं भी श्मशान घाट चलूँ? उसे डर लगता है ऐसी जगह पर जाने से।"
लोगों ने कहा,"ओह! आपकी लड़की आपा खो चुकी है। इसे घर ले जाइए।"
कुछ दिन बाद मुझे रह रह कर उसकी कही बात याद आने लगी।
"हंसने के बहाने खोजने होंगे!"
मुझे आज फिर उसकी आखिरी बातें रह रह कर याद आ रही हैं। कोशिश कर रही हूँ सिलसिलेवार ढंग से याद कर पाऊँ। मैं बादाम भी तो नहीं खाती इसलिए मुश्किल हो रही है। खैर, आगे बढ़ते हैं।
"कभी जब बाहर के लोगों से टकराती हूँ तो अमूमन कड़वे ही होते हैं। उनके अंदर की झल्लाहट इतनी ख़राब होती है कि मेरा सिर दर्द हो जाता है। इसलिए अपने को लोगों से दूर रखने की कोशिश करती हूँ। खासतौर पर उनसे तो ज़रूर जो मुझे पढ़ने में माहिर हैं। इन सब बातों से परे मैं खुद में कुछ मजबूत स्तम्भ उगाने की कोशिश कर रही हूँ। मुझे मुश्किल वक़्त का अंदाज़ा हो चला है। जब आएगा तब यही स्तम्भ मुझे सहारा देंगे। बाहर के सहारे की ज़रूरत कम महसूस होती है।"
मैंने हैरानी से उसे देखते हुए पूछा, "क्या कहीं उपदेश की क्लास ले रही हो?''
बदले में मुस्कुरा दी।
खबर मिली की उसकी शादी हो रही है। मैंने उसे फोन किया... "बेटा मिठाई भी अब महंगी लगने लगी! न बताओ तो क्या न पता लगेगा?"
आवाज़ से वह कुछ खास उत्साही नहीं लगी। मुझे लगा। शायद भावुक होगी।

शादी के बाद पता चला कि वो घर आई हुई है। नई दुल्हन को देखने की इच्छा उसके न बुलाने पर भी उसके पास ले गई। वाकई में वह बहुत खूबसूरत लग रही थी। मैंने चींटी काटी। वो गुस्से से देखते हुए मेरा हाथ हटाने लगी।
मैंने पूछा, "हुआ क्या?"
"कुछ नहीं।"
मैंने उसे कहा नहीं। लेकिन उसके चेहरे पर मुर्दानी छाई हुई थी। मुझे घबराहट हुई सो मैंने ज़्यादा बात करना मुनासिब नहीं समझा।
कई दिनों मुलाकात नहीं हुई। एक रोज़ फिर ख़बर आई कि गाँव में बीमार है। उसकी बिदाई भी नहीं कारवाई गई। उसे वापस दिल्ली इलाज़ की ख़ातिर लाया जा रहा है।
कुछ दिन बाद मुझे बताया गया कि उसकी हालत बहुत खराब है। उसने अस्पताल में ही दम तोड़ दिया।
आह! मेरे अंदर कुछ टूट गया। मेरी कमर पर किसी ने मानो बड़ा पत्थर पटक दिया। जब तक मैं घर पहुंची उसे दुल्हन वाली मुर्दा का भेष दे दिया गया था। मुझे एक पल को लगा वहीं उल्टी हो जाएगी। लोगों का जमावड़ा लगा था। उसके पापा गमछा लिए सीढ़ियों पर बैठे छाती पर हाथ पटक पटक कर कुछ बोलते हुए रो रहे थे। मेरे कानों ने सदमे में उन्हें सुना नहीं।
मैंने पापा से पूछा, "मैं भी श्मशान घाट चलूँ? उसे डर लगता है ऐसी जगह पर जाने से।"
लोगों ने कहा,"ओह! आपकी लड़की आपा खो चुकी है। इसे घर ले जाइए।"
कुछ दिन बाद मुझे रह रह कर उसकी कही बात याद आने लगी।
"हंसने के बहाने खोजने होंगे!"