Saturday, 30 December 2017

टाइम-लेस

कल के बाद सन् 2017 भी बीत जाएगा। जब से होश संभाला और चीज़ों को वक़्त के दायरे में देखना सिखाया गया तब से यही महसूस होता है कि वक़्त सच में उड़ना जानता है। यह लगता है कि व्यक्ति के जीवन का मध्य भाग बहुत तेज़ी से गुज़रता है। आदि और अंत धीमे-धीमे। शायद यह पूरा सच भी नहीं है। जब अपने अन्तर्मन और बाहर की दुनिया में संपर्क स्थापित होने लगता है तब वक़्त के मायने या तो बदल जाते हैं या फिर हमारा ध्यान वक़्त से हटकर उन बिदुओं पर केन्द्रित हो जाता है, जो बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। हम अपने जन्म के समय सबसे अधिक ख़ालिस होते हैं। पर समय के बीतते-बीतते एक सामाजिक व्यवहार की चादर ओढ़ने के कारण हम एक अजीब सी प्रजाति में बदल जाते हैं। इसलिए चुनौती यही है कि हम जब मरे तब भी ख़ालिस रहे जैसे अपने जन्म के समय थे। 

अख़बारों की परेशान कर देने वाली खबर से लेकर टीवी समाचार चैनलों के शोर तक में समय को किसी दूसरे की नज़र से समझा जा सकता है। मंदिर के घंटे और मस्जिद की आवाज़ से समय को हम जैसे लोग पकड़ लेते हैं। पिता के काम के जाने के समय से तो भाई के देर रात तक घर लौटने के समय को भी समय समझा जा सकता है। आम ज़िंदगियाँ सालों की घटना में सिमट कर जीने लगती हैं तो कुछ के लिए जन्मने, शादी होने, मरने की तारीखों में समय बैठा दिखाई देता है। 



पर इन सब से परे मुझे सपने ज़िंदगी अधिक करीब लगते हैं। समय की वहाँ बिसात नहीं है। आप हैं, आपके खयाल हैं, आपके किरदार हैं, आपकी परिस्थितियाँ हैं, आपका रंगमंच है, आपकी आवाज़ें हैं, आपकी मुश्किलें और खुशियाँ हैं और आपके लिए अटपटे परिदृश्य की बुनावट है, जिसे आपका दिमाग बखूबी रचना जानता है।
फिर भी सपने की बुनियाद आपके उसी जीवन से बनती है जहां आप समय के साथ रहते हैं। 

और कैसे समय को देखा जाये? यह हमेशा मौजूं सवाल है। जितने भी तर्क रख दिये जाएँ कि समय यहाँ नहीं हैं, वहाँ नहीं है...वो लगभग मन को बहलाने के लिए महज़ अच्छे खयाल ही हैं। अगला सवाल है यह होना चाहिए कि समय का शुद्ध रूप कहाँ मिलता है? वाज़िब है कला के अलग-अलग रूपों में समय के शुद्धतम रूप को देखा जाये। कला में या तो सबसे शुद्ध रूप होता है या फिर वह वहाँ होता ही नहीं। इस पर बहस हो सकती है। 

आगे आने वाली दस्तकों में इस बात को लेकर और समझा जाएगा और अपने मुताबिक लिखा जाएगा।

Saturday, 2 December 2017

पंक्चर

कुछ दिनों से लिखना बिलकुल बंद रहा। जब लोगों ने मुझसे मैसेज और फोन कर के पूछा कि क्या हुआ है तब मैंने सवाल बहुत हल्के में लेते हुए तुरंत जवाब दिया-"मेरा लैपटाप खराब हो गया है इसलिए आप लोगों को झेलने का अवसर नहीं मिल रहा है।" हालांकि जवाब मुझे बहुत खराब लगा। ऐसा नहीं  है कि दिमाग में आइडिया नहीं आए। काफी विषय सूझे और मैंने लिखने की भी कोशिश की। पर एक बैठक में हाथ से लिख नहीं पा रही थी।  यह आधुनिक लेखन के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण परेशानी लगी और एक दोस्त ने मुझे इसे लिखने का सुझाव भी दिया। 
पेन और कॉपी लेकर लिखने में मैंने एक अपने स्तर का संघर्ष किया और पाया कि अक्षरों  की बनावट पर मैं अपना शासन खो चुकी हूँ। धीरे लिख रही हूँ। लिखने पर भी जूझ रही हूँ। लय नहीं बन पा रही आदि आदि। कॉलेज और उसके बाद तक के लिखने के सफर में लिखना एक खुशी के साथ आता था। लिखते वक़्त लगता था कि शब्दों का एक झरना बह रहा है और हाथ के माध्यम से पन्नों पर उतर रहा है। लेकिन पिछले तीन साल में मैंने लगातार इस मशीन पर ही लिखने को लिखना समझा और एक घाटे का सौदा किया। हालांकि बीच बीच में डायरी लिखी पर डायरी में 5 या 6 पन्ने लिखने में बहुत बड़ी मुश्किल नहीं लगी। एक वजह यह भी है कि डायरी लेखन एक ऐसी आज़ादी का भी अहसास लेकर चलता है जिसमें बाध्यता बहुत बड़ी बात नहीं होती। डायरी मनमर्ज़ी शब्द से भी कई बार जुड़ जाती है।

बटन दब जाने पर अक्षरों का तुरंत उभर आना एक निहायती बेदिली का काम और उत्पादन है। हाथ और की-बोर्ड के बीच का रिश्ता जैसे को तैसा वाला है। जो बटन दबेगा वही उभरेगा। और यहाँ लिखने की बात ही नहीं है। टाइप करना शब्द युग्म इस्तेमाल किया जाता है। हाथ और की-बोर्ड एक के बीच एक ही एक्शन निरंतर चलता है और परिणाम में लिखा हुआ उभर आता है। जबकि हाथ से लिखने में हाथ और पन्ने के बीच मशीनी रिश्ता नहीं महसूस होता। दूसरी महत्वपूर्ण बात लिखते समय लिपि की बनावट हाथ को एक घुमाव और स्वाभाविक एक्शन मुहैया करवाती है। जो कि हम इन्सानों के खून में है। इसका बढ़िया उदाहरण अगर खोजा जाए तो आपको ऐसे लोग मिलेंगे जो पेन पेंसिल को कान या फिर अपने जुड़े में अटका कर रखते हैं। छोटे बच्चों को जब नई नई पेंसिल दी जाये तब उस पेंसिल का इस्तेमाल लिखने के अलावा मुंह में, सिर में और बाकी तरह से वे करते हुए दिखते हैं। यह सब एक बेहद स्वाभाविक हिस्सा लगता है। 

लेखन से जुड़े दो उदाहरण और देना चाहूंगी। चूंकि JNU में मेरे वक़्त का कुछ हिस्सा चाय पीने में जाता है तो वहाँ कुछ जगहों पर अपने आप ध्यान चला जाता है। वहाँ का माहौल निश्चित रूप से यह बतलाता है कि आप अभी तक इंसान ही हो। इसलिए दिमाग कि तनी हुई सिराएँ थोड़ा ध्यान इधर उधर करने की इजाजत भी दे देती हैं। वहाँ एक लाइब्रेरी के पीछे वाली कैंटीन और मामू का ढाबा है। जब मैं शुरू शुरू में पढ़ने गई थी तब लाइब्रेरी के पीछे वाली कैंटीन में हाथ से कैंटीन के खुलने और बंद होने का समय लिखा रहता था। अब ठीक इसकी जगह टाइप हुए पर्चे पर यही बात लिखी होती है। हालांकि एक आम समझ में यह साफ है कि जो सूचना देने का उद्देश्य था वह पूरा हो चुका है फिर भी थोड़ा गौर करें तो पाएंगे कि अब एक या दो पंक्ति को भी हाथ से नहीं लिखा जा रहा। वास्तव में हाथ का लिखा रिप्लेस होने का शिकार हो रहा है। ठीक वैसे ही जैसे 19+38 को कोई मुझे जोड़ने को कहे तो अमूमन मैं मोबाइल का गणक निकाल कर बैठ जाती हूँ।

                                                            By Justyna Kopania 

अब बात मामू के ढाबे की। यह जगह काफी लाजवाब है। खाना भी अच्छा है। लेकिन जो बात मुझे यहाँ बहुत अच्छी लगती है और मेरा ध्यान खींच लेती है वह अंग्रेज़ी में करसिव हैंड राइटिंग से लिखा हुआ मेन्यू। अगर आप कुछ ऑर्डर करने जाते हैं तब खाने के साथ साथ यह भी दिमाग में आता है कि क्या खूब लिखा है। कितनी सुंदर लिखाई के साथ। इसलिए बाहर कि दुनिया में जाते ही मुझे हर वह चीज जिस पर हाथ की लिखाई लिखी होती है, आकर्षित तो करती ही है और साथ ही दिलचस्प भी लगती है। आजकल डीटीसी की बसों में लहराते हुए शब्द दिखते हैं जो कहते हैं- जेबकतरों से सावधान!

जो सभ्यता नहीं लिखती थीं उनके इतिहास में बहुत झोल मौजूद है। एक झूठा और बनावटी इतिहास। मुझे 'बोलों' की दुनिया में यकीन है पर पूरा का पूरा इतिहास अगर उन पर टिका रहे तो मुझे आपत्ति है। आजकल हर चीज को मशीनों और कार्डों से जोड़ने के पीछे सुविधा की बात को ऊपर रखा जाता है। टीवी पर एक विज्ञापन आता है जिसमें सभी काम कार्ड-पेमेंट से किए जा रहे हैं पर जैसे ही एक व्यक्ति कैश रुपया निकलता है उसे हिकारत की नज़र से देखा जाता है। वह फास्ट लेनदेन में बाधा के रूप में दिखता है। लेकिन इसी विज्ञापन पर यह बहस भी की जा सकती है कि इंसानी दिमाग को लगभग पंक्चर करने की तैयारियां सरकार और कंपनियाँ ज़ोरों पर कर रही हैं। यही नहीं वे अपने काम में सफल भी हो रही हैं। चूंकि सभी पेमेंट कार्ड से हो रही हैं तो यह तय है कि आपसे हिसाब किताब करने का अभ्यास छिना जा रहा है। जहां अभी तक मशीनों से पेमेंट नहीं होता वहाँ हम खुद -ब-खुद जोड़ना शुरू करते हैं और दिमाग पर ज़ोर डालते हैं। इसलिए कई मर्तबा दिक्कत भी आती है। हमारे आसपास अब ऐसे लोगों की संख्या कम होती जा रही है जो मुंह-जुबानी हिसाब जोड़ लिया करते थे।

कितनी अजीब बात यह कि मैं यह सब फिर से उसी लैपटाप पर लिख रही हूँ जिससे अब थोड़ा सा डर लगता है। फिर भी मुझे अपने स्वाभाविक लिखने की रोज़मर्रा के छूटे हुए अभ्यास की तरफ दुबारा जाना चाहिए। इसलिए आजकल घरेलू खर्चों के हिसाब किताब की डायरी को मैंने अपने पिता से लेकर खुद लिखना शुरू किया है। शायद अधिक नहीं लिख पाऊँगी पर एक रोजनामचा (Journal) बनाना तो सीख ही जाऊँगी।  


21 बरस की बाली उमर को सलाम, लेकिन

  दो साल पहले प्रथम वर्ष में पढ़ने वाली लड़की से मेरी बातचीत बस में सफ़र के दौरान शुरू हुई थी। शाम को काम से थकी हारी वह मुझे बस स्टॉप पर मिल...