कल के बाद सन् 2017 भी बीत जाएगा। जब से होश संभाला और चीज़ों को वक़्त के दायरे में देखना सिखाया गया तब से यही महसूस होता है कि वक़्त सच में उड़ना जानता है। यह लगता है कि व्यक्ति के जीवन का मध्य भाग बहुत तेज़ी से गुज़रता है। आदि और अंत धीमे-धीमे। शायद यह पूरा सच भी नहीं है। जब अपने अन्तर्मन और बाहर की दुनिया में संपर्क स्थापित होने लगता है तब वक़्त के मायने या तो बदल जाते हैं या फिर हमारा ध्यान वक़्त से हटकर उन बिदुओं पर केन्द्रित हो जाता है, जो बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। हम अपने जन्म के समय सबसे अधिक ख़ालिस होते हैं। पर समय के बीतते-बीतते एक सामाजिक व्यवहार की चादर ओढ़ने के कारण हम एक अजीब सी प्रजाति में बदल जाते हैं। इसलिए चुनौती यही है कि हम जब मरे तब भी ख़ालिस रहे जैसे अपने जन्म के समय थे।
अख़बारों की परेशान कर देने वाली खबर से लेकर टीवी समाचार चैनलों के शोर तक में समय को किसी दूसरे की नज़र से समझा जा सकता है। मंदिर के घंटे और मस्जिद की आवाज़ से समय को हम जैसे लोग पकड़ लेते हैं। पिता के काम के जाने के समय से तो भाई के देर रात तक घर लौटने के समय को भी समय समझा जा सकता है। आम ज़िंदगियाँ सालों की घटना में सिमट कर जीने लगती हैं तो कुछ के लिए जन्मने, शादी होने, मरने की तारीखों में समय बैठा दिखाई देता है।
पर इन सब से परे मुझे सपने ज़िंदगी अधिक करीब लगते हैं। समय की वहाँ बिसात नहीं है। आप हैं, आपके खयाल हैं, आपके किरदार हैं, आपकी परिस्थितियाँ हैं, आपका रंगमंच है, आपकी आवाज़ें हैं, आपकी मुश्किलें और खुशियाँ हैं और आपके लिए अटपटे परिदृश्य की बुनावट है, जिसे आपका दिमाग बखूबी रचना जानता है।
फिर भी सपने की बुनियाद आपके उसी जीवन से बनती है जहां आप समय के साथ रहते हैं।
और कैसे समय को देखा जाये? यह हमेशा मौजूं सवाल है। जितने भी तर्क रख दिये जाएँ कि समय यहाँ नहीं हैं, वहाँ नहीं है...वो लगभग मन को बहलाने के लिए महज़ अच्छे खयाल ही हैं। अगला सवाल है यह होना चाहिए कि समय का शुद्ध रूप कहाँ मिलता है? वाज़िब है कला के अलग-अलग रूपों में समय के शुद्धतम रूप को देखा जाये। कला में या तो सबसे शुद्ध रूप होता है या फिर वह वहाँ होता ही नहीं। इस पर बहस हो सकती है।
आगे आने वाली दस्तकों में इस बात को लेकर और समझा जाएगा और अपने मुताबिक लिखा जाएगा।