मुझसे ऐसे सवाल नहीं पूछे जाते. लेकिन आज पूछा गया-
"हम अपने आख़िरी वक़्त में अपनी ख्वाहिशों को छोटा क्यों कर लेते हैं? ताउम्र बड़ी-बड़ी ख्वाहिशों को पूरा करने में अपना जीवन गुज़ार देते हैं और अंत में जब मौत बेहद नज़दीक होती है तब एक चॉकलेट का टुकड़ा माँगते हैं या फिर पार्क में बैठना चाहते हैं या फिर अम्मी की गोद में सिर रखना चाहते हैं. ऐसा क्यों है?"
ये सवाल एक बड़ा होता हुआ बच्चा मुझसे पूछ रहा है. मुझे ऐसी उम्मीद नहीं थी कि वह इस तरह का सवाल मुझसे पूछ लेगा.
मेरे पास वास्तव में जवाब नहीं था. लेकिन बैठे बैठे मैं उस पूरी उम्र में तैरने लगी जो मुझे बचपन से याद है. स्कूल जाना,लड़की होना, ये नहीं करना और सिर्फ वही करना, नौकरी करना, फिर छोड़ देना, कई बार हार जाना और कुछ बार जीत जाना. अंत में सब बराबर हो रहा है. और एक दिन मेरा इस शहर से और इस जगह से द्रव्यमान भी ग़ायब हो जाएगा. छू मंतर!
मैंने जवाब देने की कोशिश की. मुझे नहीं पता वो बच्चा मेरे जवाब से कितना संतुष्ट हुआ. लेकिन मैंने उसे बताया-
"मुझे लगता है जन्म से जिस दुनिया में हम दाख़िल होते हैं, उस दुनिया के हम निर्माता नहीं होते. वो एक बना बनाया पैकेज होता है. उसमें न हमारी पसंद होती है और न ही हमारी नापसंद शामिल होती है. कई बार यह लगता है कि ये हमें पसंद है या फिर वो हमें नापसंद है, लेकिन आख़िर में वो सब कुछ हमसे कृत्रिम रूप से जुड़ा हुआ है. हमारे इस दुनिया में आने के साथ ही बनने की प्रक्रिया शुरू होती है. यह तय होने लगता है कि हमें क्या और कैसा बनना है जबकि इस बात पर हम बात नहीं करते कि जिस जगह हम कुछ बनने की तैयारी ले रहे हैं उस जगह की भूमिका आख़िर किसने तय की और वही क्यों हमारे लिए तय की गई है.
इस पूरी प्रक्रिया के दौरान क़ुदरत अपना हस्तक्षेप करती रहती है. उदाहरण के लिए चीज़ों के जन्म के बाद उसके खात्मे तक या फिर किसी फल को खाने के बाद उसका स्वाद या फिर समुद्र को देखने के बाद एक उचाट/खुशनुमा एहसास...यह दृश्य भी हो सकता है या फिर न दिखने वाला भी. मुझे यह बिलकुल नहीं पता कि हम अपने आसपास के भीतर ही सोचते रह जाते हैं या फिर उससे बाहर भी. कुछ लोगों ने मुझे बताया कि हिमालय में जोगी रहते हैं. मेरे लिंग की वजह से मेरे भीतर यह पहला सवाल आता है कि जोगिनें क्यों नहीं? खैर, उन जोगियों के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने संसार को त्याग दिया है. इसलिए वह स्व या फिर उस शक्ति की खोज में तप में ध्यान लगा देते हैं. लेकिन दो मिनट को रूककर मैं यह सवाल फिर से सोचती हूँ कि जोगी को भी तो एक बनाई हुई दुनिया मिली है. हाँ, दोनों में फ़र्क होगा. जोगी भी कोई नयी दुनिया नहीं रचते, वे उसी दुनिया में जा रहे हैं, जिसकी संकल्पना अतीत के किन्हीं टुकड़ों में हुई है.
फ़र्ज़ कीजिए जब हम जन्म लेते तब अमीर और ग़रीब के कांसेप्ट की बजाय कुछ और होता तब हम क्या एयर कैसे बनते?
इस बनने के अभियान में हम ख़ुद को खो देते हैं. जीना भूल जाते हैं. इसलिए जब ज़िंदगी हाथ से फिसलने लगती है तब क़ुदरत के मैसेज को समझने लगते हैं. हमको मालूम चलता है कि किसी बगीचे में बैठना कहीं बेहतर और मूल ख़ुशनुमा एहसास है बजाय किसी ऊँची इमारत के किसी एसी घर में बैठना..."
मैं और जवाब खोज रही हूँ. आप को क्या लगता है मैं ठीक बोल रही हूँ?