मुझे अभी क्या याद रह गया है? मेरी समस्या और सुविधा यही है कि मुझे
सब कुछ याद नहीं रहता. सामान्य इंसानी दिमाग है. दिमाग को स्टोर हाउस नहीं बनाना
चाहती. कई बार सोचती हूँ कि दिमाग को यादख़ाना बना लिया जाए तो क्या हश्र हो. अक्सर
होता भी है, ‘हश्र’, जो मानसिक तौर पर परेशान करता है. दो दिन पहले छत्तीसगढ़ से
होकर आई हूँ. जिस जगह गई थी उसका नाम सिरपुर है. वहाँ अंतर्राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी
थी. बहुत सारे लोग, बहुत सारी बातें कर रहे थे. कुछ को ध्यान से सुना कईयों को
ध्यान से सुनने की कोशिश की!
मैं अब बहुत सामाजिक नहीं रह गई हूँ. पब्लिक स्पेस में जाते ही एक
बिखराव शुरू हो जाता है और भीतर एक कुंआ तैयार होता है. पहले बाह्यमुखी थी पर वो
सब नकली था जिसमें मुझे इत्मिनान नहीं मिलता था. पहले के मुकाबले बहुत अधिक
अन्तर्मुखी हो चुकी हूँ. हालाँकि इसमें भी अपनी तरह की दिक्कतें हैं फिर भी यह
दायरा मुझे पसंद है. जब कोई अपनी जगह को बदलता है तब शायद वह बाह्यमुखी होने की
स्थितियों से टकराता है. यह बुरा नहीं है. भीतर की दुनिया का बड़ा हिस्सा बाहर की
दुनिया से निर्मित होता है पर बाद में वो सब अपनी तरह से परिष्कृत होता है. इसकी
बड़ी दिलचस्प प्रक्रिया होती है. लेकिन बात इस पर नहीं करनी है.
मुझे अपनी सिरपुर की यात्रा में जो याद रह गया है उसमें जंगल सबसे
पहले है. कमल है कि मुझे बुद्ध, बौद्ध विहार, मूर्तियाँ, खाना, भाषा, सेमिनार,
विषय और लोगों से अधिक जंगल ज्यादा याद है. यात्रा के आखिरी दिन हमें जंगल घुमाया
गया. बहुत बड़ा जंगल. मुझे जो जानकारी मिली, उससे यह पता चलता है कि यह जंगल तीन सौ
किलोमीटर में फैला हुआ है. अभी भी सोच रही हूँ कि रंगों की दुनिया को करीब से
प्यार करने वाली मैं जंगल को ही क्यों याद कर रही हूँ?
जंगल मेरे पूर्वज हैं. जंगल में कितनी कहानियाँ घूमती होंगी. कार के
भीतर से एक फ्रेम बनता है और उसी फ्रेम में आपको जो दीखता है उसे हम देखना मान
लेते हैं. मैंने भी यही माना. घर पर बैठकर सोच रही हूँ अगर कार की खिड़की वाला
फ्रेम नहीं होता तो मैं क्या क्या देख पाती? कितना बड़ा फ्रेम मेरी दोनों आँखें
बनाती? मिट्टी जो उड़कर मेरे चेहरे पर आती तब क्या होता? खिड़की से जो दिखे वो पेड़
थे. बुलंद पेड़. जिनकी पत्तियाँ तलाक के मूड में थीं और बिना कुछ कहे नीचे गिरने को
बेताब दिख रही थी. बादल से जैसे बूँदें उसकी इजाजत के बगैर गिर जाती हैं ठीक उसी
तरह पत्तियाँ पेड़ों से गिर रही थीं. पेड़ों की लंबाई काफी थी. इतनी कि उनका तना ही
दिखाई दे रहा था. लंबा और पतला होता हुआ. जाने वे पेड़ किसे चूमना चाह रहे हों.
कुछ छोटे छोटे पेड़ भी थे. पेड़ मुझे इतनी मात्रा में दिखे कि मैंने
उनमें कुछ और देखना शुरू कर दिया. मिसाल के तौर पर एक जगह छोटे बड़े पेड़ दिखाई दिए.
उनकी टहनियाँ कुछ इस तरह थीं कि मुझे लगा कि छोटा पेड़ उछल रहा है और बड़ा पेड़ उसका
पिता है. उछलते हुए बच्चे को गिरने से बचाने के लिए बड़े पिता-पेड़ ने अपनी टहनियां
यानी बाहें फैला ली हैं.
हाँ, हमने पेड़ों से बहुत कुछ सिखा है. पेड़ों ने हमसे क्या सिखा है,
ये मुझे नहीं मालूम. पेड़ों के पास बैठकर हम उस पुराने रिश्तों को महसूस करते हैं
जब हम दोनों आदिम अवस्था में रहे होंगे. फेलिनी की एक और खुबसूरत फिल्म ‘द नाईट ऑफ़
किबैरिया’ में जंगल और सड़क एक मुख्य स्पेस की तरह उभरते हैं. जंगल में उसका होने
वाला पति उसे लूट लेता है. लेकिन इस लूट के दृश्य से पहले वही लड़की उसमें छोटे
छोटे फूल इकठ्ठा करती है और बहार की तरह इठलाती है. इन दोनों दृश्यों के बाद वो
सबसे बड़ा आइकोनिक दृश्य आता है जब अदाकारा/किरदार, सड़क पर चले जा रहे बैंड के साथ
जाती है और आँखों में पानी होठों पर मुस्कराहट आती है.
लेकिन में तो छत्तीसगढ़ के जंगल में थी फिर फिल्म पर कैसे आ गई?
छत्तीसगढ़ की इस बेहद कम दिन की यात्रा में मैंने आवाजों को सुनने में
भी ध्यान दिया. सेमिनार और कार्यक्रम में तो ‘हेलो टेस्टिंग टेस्टिंग’ ज़्यादा चलता
है और फिर माइक की वही लम्बी बहती हुई ख़राब आवाज़ जिसे कोई नहीं सुनना चाहता.
गाँवों में एक खास आवाजों की क़िस्में होती हैं. मिसाल के तौर पर सुबह के वक़्त. अगर
आपको थोड़ी हरियाली के आसपास कमरा नसीब हुआ है तो जंगली जानवरों और तरह तरह की
चिड़ियों की आवाज़ आपके कानों में आ जाएगी. ऐसा यहाँ भी था. जो आवाजें प्रकृति से
आती हैं उन पर हम इंसानों ने कम ध्यान दिया है. वो आवाजें हमारे व्यक्तित्व में या
तो घुल गई हैं या फिर उन्हें हमने सुनना छोड़ दिया है. मैंने अभी सुनना शुरू किया
है.