दो
साल पहले प्रथम वर्ष में पढ़ने वाली लड़की से मेरी बातचीत बस में सफ़र के दौरान शुरू
हुई थी। शाम को काम से थकी हारी वह मुझे बस स्टॉप पर मिलती थी और दुनिया जहान की
बातें, बातों-बातों
में बताया करती थी। उसकी बातों में दफ़्तर में मालिक को कोसने के अतिरिक्त घरेलू
सदस्यों से भी शिकायतें थीं। हमारी सफ़र वाली दोस्ती थी। उसका विश्वास मुझ पर कुछ
इस क़द्र था कि वह मुझे ‘दीदी’ कहकर पुकारने लगी थी। कुछ ही समय बाद, एक दिन वह
शादीशुदा लड़की के वेश में मिली। मुझे हैरानी हुई। मैंने कहा- “शादी में बुलाया भी
नहीं!” उसने कहा- “मेरी मर्ज़ी से नहीं हुई। अब शायद काम भी नहीं करुँगी।” हर तरह
के श्रृंगार से सजी वह लड़की उदास चेहरे के साथ थी। उसकी उम्र 19 या 20 के बीच थी। बाद
के सालों में सफ़र का रिश्ता सफ़र बनकर ही रह गया। मेरी मुलाक़ात उससे फिर कभी नहीं
हुई।
भारतीय
कानून के मुताबिक़ लड़कियों की विवाह की उम्र 18 साल है। यदि लड़की 18 वर्ष की है तो
वह विवाह के योग्य मानी जाती है। अंटी-अंकल उर्फ़ माता-पिता बातचीत का क़रीब से
विश्लेषण किया जाए तब कुछ ख़ास तरह की पंक्तियाँ सुनने को मिलती हैं। जैसे, हमारी
लड़की की शादी हो जाए तो चिंता ख़त्म हो, ये तो पराया धन है, लड़कियाँ सिल की तरह
हैं, जो छाती पर धरी रहती हैं, हम एक अच्छा-सा लड़का खोज रहे हैं, इसकी शादी के लिए
बचत कर रहे हैं, आजकल ज़माना बहुत ख़राब है, इन्हें क्या आगे पढ़ाएँ, नौकरी थोड़ी
करवानी है, अपने घर जाकर जो मर्ज़ी आए वो करना, हमने तो अपनी लड़की शादी जल्दी कर
दी, अब हम चैन से हैं, जवान लड़की घर में पड़ी हो तो नींद कहाँ आती है, सिलाई वगैरह
का कोर्स करवाना है, लड़कियों में घरेलू काम करने का हुनर होना चाहिए, आदि-आदि। ये
सब आज भी मध्यम वर्गीय परिवारों में सुनने को मिल जाता है। इस तरह की पंक्तियाँ
मोहल्ले से लेकर दफ़्तरों में मौज़ूद माताओं और पिताओं के मुँह से सुनी जा सकती है। इन
पंक्तियों में एक नागरिक को उसके संपूर्ण व्यक्तित्व के लिहाज़ से न देखकर किसी वस्तु
की तरह देखने के प्रयास है, क्योंकि वह एक स्त्री है। ये प्रयास एक दिन में तैयार
नहीं हुए हैं। संस्कृतियों ने इन प्रयासों को और इस तरह के व्यवहारों को पोसा है। इक्कसवीं
शताब्दी में आज भी बहुत से लोगों की सोच का दायरा कुएँ के पानी की तरह ही है। उसमें
बदलाव की झलक नहीं है और यह बात परेशान करने वाली है। गाँव और शहर के बीच बँटे
भारत में आज भी आबादी का एक बड़ा हिस्सा गाँवों में रहता है और चुनौतियों का सामना
कर रहा है।
हिंदी
सिनेमा की यात्रा में महबूब खान द्वारा निर्मित फ़िल्म ‘मदर इंडिया’ (1957) को जो
प्रसिद्धि मिली उसे कौन नहीं जानता! क़िस्सों की दुनिया में कहा जाता है कि वास्तव
में उस फ़िल्म का निर्माण कैथरीन मेयो द्वारा लिखी पुस्तक ‘मदर इंडिया’ के जवाब के
तौर पर किया था। इस पुस्तक का प्रकाशन सन् 1927 में हुआ था। पुस्तक में उन्होंने
भारत में स्त्रियों की स्थिति पर गौर किया है। उस समय इस पुस्तक का काफी विरोध हुआ
था। लेकिन इस पुस्तक के कुछ अंशों को झुठलाया नहीं जा सकता। पुस्तक के पहले भाग के
अंतिम अध्याय में एक अस्पताल में भर्ती महिला मरीज़ों का वर्णन किया गया है। वे लिखती
हैं कि डॉक्टर ने उन्हें एक हिंदू अधिकारी की पत्नी के बारे में बताया। इस महिला
के पहले प्रसव में ही बच्चा जीवित नहीं रह सका था। इसलिए जब तीन दिन पहले उसके
दूसरे प्रसव का दर्द शुरु हुआ तो उसका पति उसे अस्पताल ले आया था। महिला को दिल की
बीमारी और दमे की शिकायत थी। उसकी एक टाँग में भी परेशानी थी। डॉक्टर ने टाँग का
इलाज करके उस महिला का प्रसव कराया। जुड़वाँ बच्चे हुए, पर वे जीवित नहीं थे। अंदरूनी
संक्रमण होने से कोख नष्ट हो गई। अब यह महिला दुबारा बच्चे को जन्म नहीं दे सकती। इस
महिला की उम्र 13 वर्ष थी। इस महिला को इस बात की जानकारी नहीं थी कि वह अब माँ
नहीं बन सकती वरना उसे सदमा लग सकता है.[1] ऐसे
ही अन्य उदहारण पुस्तक में दिए गए हैं जिन्हें पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। सरकारी
दावों और आंकड़ों में वर्तमान में स्थिति को नियंत्रण में बताया जा रहा है। सरकारी
आंकड़ें कहते हैं कि भारत में मातृ मृत्यु अनुपात (Maternal
Mortality Ratio) गिर रहा है।[2] ये
आंकड़ें वाकई में सुखद हैं पर ज़मीनी सच्चाई यह भी है कि आज भी कई इलाक़ों में बच्चे
को जन्म देने की प्रक्रिया दाई द्वारा घरों में ही संपन्न करवाई जाती है। सुविधाओं
का न होना, महिलाओं की मृत्यु की वजह बन रहा है। अख़बारों में तो अस्पताल के बाहर
ही जच्चगी हो जाने की ख़बरें भी प्रकाशित होती रहती हैं।
कैथरीन
मेयो की विदेशी आँखों के अनुभवों की भरपूर आलोचना हुई थी। पर इस बात से इंकार नहीं
कि कम उम्र में विवाह के बाद एक लड़की को बहुत-सी मानसिक और शारीरिक परेशानी उठानी
पड़ती है। उत्तर प्रदेश और बिहार के कुछ क्षेत्रों में गौना नामक प्रथा का आज भी
निर्वाह होता है। इस प्रथा के अंतर्गत लड़की का कम उम्र में विवाह होने के बाद गौना
किया जाता है। उसके द्वारा एक निश्चित आयु प्राप्त करने के बाद ही उसे पति के साथ
‘विदा’[3] किया
जाता है। इस प्रथा के बाद भी कम उम्र में विवाह के चलते लड़कियों को कई परेशानियों
से गुज़रना पड़ता था। समय ने अपने भीतर स्त्रियों से जुड़े कई दर्दनाक अनुभवों को
समेटकर रखा है। परंपरा और प्रथा के नाम पर उनके साथ सलूक के तौर पर की जाती रही कई
दुखद रीतियाँ अब तक जारी हैं। साल 2019 में फरवरी के महीने नवभारत टाइम्स की
मौज़ूदा ऑनलाइन ख़बर कहती है कि शहरों में बाल विवाह का औसत 6.9 फीसदी है और गाँवों
में 14.1 फीसदी है।[4]
बाल विवाह एक कड़वी सच्चाई अभी भी है।
भारतीय
शिक्षा प्रणाली में 10+2 की संरचना को भी गौर से देखना चाहिए। आज से काफी वर्ष
पहले प्री-स्कूलिंग या नर्सरी कक्षाओं का बहुत चलन नहीं था। इसलिए विद्यालयों में
दाख़िले पाँच वर्ष की आयु से लिए जाते थे। बारहवीं कक्षा को पास करते समय लड़की और
लड़के की उम्र 17 से 18 वर्ष होती है। बारहवीं के बाद लड़के के लिए दुनिया के दरवाजे
खुल जाते हैं, जिसमें कॉलेज जाना, किसी तरह का कोर्स करना, किसी अन्य परीक्षा की तैयारी
करना, बड़े भाई या पुत्र की भूमिका में आना, परिवार में क़द के साथ हैसियत का बढ़ना
भी अनुभव किया जा सकता है। यदि कोई लड़का कॉलेज में दाख़िला लेता है तब उसके पास
पूरे तीन वर्ष मौज़ूद हैं जिसमें वह अपने करियर को एक आकार देता है और दुनियादारी
की समझ विकसित करता है। लेकिन इसके विपरीत लड़कियों के संदर्भ में घोर पारिवारिक और
सामाजिक बदलाव आता है। लड़कियों का बड़ा होना मतलब, ढेरों क़ायदों का बनकर तैयार होना
है। इसके अलावा उन्हें निगरानी के भीतर भी रहना पड़ता है।
अपने
सामाजिक कार्य के दौरान एक लड़की जिसने बारहवीं कक्षा पास की थी, मुझसे मिलने आई। मैंने
उसे शुभकामना दी और आगे की पढ़ाई के बारे में उससे जानना चाहा। उसने कहा- “नहीं... अब
घरवाले शादी करेंगे!” मैंने हैरानी से कहा- “अभी तो तुम छोटी हो। शादी से ज़्यादा ज़रूरी
कुछ बनना है।” इसके बाद उसका चेहरा उदास ही बना रहा। अगले दिन जब उसकी माँ मुझसे
मिलने आईं तब भी मैंने उन्हें यही कहा। उसकी माँ बोलीं- “बस अब बहुत हो गई
पढ़ाई-वढ़ाई, इसे कौन-सी नौकरी करनी है! मैं तो मान भी जाऊँ पर इसके पापा और भाई
नहीं सुनने के। लड़का भी खोज लिया है। ठीक ही है। सही सलामत अपने घर चली जाए, अब और
क्या चाहिए!” मैंने उनसे कई बार बात की पर वे अपनी मानसिक पितृसत्तात्मक ज़मीन पर
टिकी रहीं। उसके कुछ ही महीने बाद उस लड़की की शादी हो गई। पितृसत्ता संरचना में
लड़की ख़ुद का चुनाव तो दूर अपने लिए फैसले भी नहीं ले सकती। इसलिए यदि कानून का
दबाव हो तो शायद बहुत-सी लड़कियों को अपने करियर के बारे में सोचने का वक़्त मिल जाए।
सरकार
की ओर से लड़कियों की विवाह की उम्र को 21 साल करने के मंथन के लिए एक कमिटी भी
गठित की गई है। इस कमिटी की रिपोर्ट इसी साल आने वाली थी लेकिन कोरोना महामारी के
चलते हो सकता है इसमें अभी और वक़्त लगे। बहरहाल सरकार लड़कियों के लिए 21 साल की उम्र
करने के पीछे कुछ बातों को सामने रख रही है। जेंडर समानता, लड़कियों का कम उम्र में
शीघ्र गर्भवती होना और और जोख़िम का बढ़ना, लड़कियों के स्वास्थ्य पर असर होना,
कुपोषण का शिकार होना और बाल मृत्यु दर का अधिक होना आदि कारण, सरकार बता रही है। इसके
अलावा संविधान की धारा 14 और 21 में समानता का अधिकार और सम्मान के साथ जीने के
अधिकार के तहत मौज़ूदा 18 वर्ष की उम्र इन धाराओं के विरुद्ध जाती है.[5] भारत
में लड़कों के विवाह की कानूनी उम्र 21 साल निश्चित की गई है। इन सभी बिंदुओं पर
सरकार चर्चा कर रही है और सुझाव भी माँग रही है।
लेकिन
यह क़दम जिस आधी आबादी के लिए उठाया जा रहा है वह तबका क्या सोचता है, बहुत
महत्वपूर्ण है। मुझे याद है मेरी एक महिला टीचर मित्र ने एक मुलाक़ात में अपनी
प्रथम वर्ष की एक नहीं कई छात्राओं के विवाह की बात बताई और अपनी चिंता भी जाहिर
की। मैंने अपनी मित्र से पूछा- “आपने उन लड़कियों से इसके पीछे की वजह पूछी?” उसने
जो बताया वह सब सोच के निम्नतम स्तर पर था। उन लड़कियों के माता-पिता (कुछ मामलों
में भाई भी) का मानना था कि समाज में लड़कियों के साथ ग़लत घटनाएँ घट रही हैं, उनके
बलात्कार किए जा रहे हैं। उन्हें
डर है कि उनकी बेटियों के साथ भी कुछ ग़लत न हो जाए। इसलिए शादी उनकी बेटियों की
सुरक्षा का उपाय है। एक और कारण जो माता-पिता द्वारा दिया गया वह न सिर्फ चौंका
देता है बल्कि परिवारों में मौज़ूद मानसिकता को प्रकट करता है। मेरी महिला मित्र ने
उन लड़कियों के हवाले से बताया कि उनके माता-पिता का मानना है कि मोबाइल के
इस्तेमाल के चलते लड़कियाँ बिगड़ रही हैं। वे लड़कों से बात करती हैं। कई बार वे ख़ुद
की पसंद के लड़के के साथ घर छोड़ कर ‘भाग जाती’ हैं और घर-परिवार की ‘इज्जत’ का
सत्यानाश कर देती हैं। इसलिए अगर उन्हें जल्दी शादी के बंधन में बाँध दिया जाए तो
इज्जत बची रहती है। इस तरह की सोच ने लड़कियों के जीवन को अधर में अटका रखा है.
इज्जत
का बोझ लड़कियां ताउम्र सिर पर उठाकर जीती हैं। लड़की के ख़ुद के लिए किए गए चुनावों
को परिवार के सदस्यों में कभी मान्यता नहीं मिलती बल्कि किसी पुरुष से बात करने पर
ही बवंडर उठ जाता है। इसके अतिरिक्त जो लड़कियाँ हिम्मत कर अपने लिए घर से बाहर का
दरवाज़ा खोलती हैं, उनके लिए बाहर की व्यवस्था उतनी सुलभ, सरल और मददगार नहीं होती।
अक्टूबर 2019 में ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ की ख़बर परेशान करने वाली है। अख़बार ने आंकड़ों
के सहारे सूचना दी है कि महिला श्रम बल साझेदारी दर (female
labor force participation rates)
2017-18 में 17.5% दर्ज़ की गई जो बीते वर्षों की तुलना में बेहद कम प्रतिशत है.[6] इसके
पीछे कई कारण हैं जो एक महिला को वे स्थिति और स्पेस मुहैया नहीं होने देते जिसकी
काम के लिए ज़रुरत होती है।
इसके
अतिरिक्त महिला सुरक्षा को लेकर भले ही राजनीतिज्ञों ने निरंतर अपनी-अपनी राजनीतिक
रोटियाँ सेंकी हों पर ज़मीन पर कुछ हासिल नहीं है। महिला सुरक्षा अथवा यौन उत्पीड़न
के मामलों में कोई कमी नहीं हुई है। महिलाओं को घर और बाहर, दोनों ही जगहों पर
उत्पीड़न, अपराध और भेदभावों का शिकार होना पड़ता है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो
द्वारा जारी किये गए आँकड़े निराश करते हैं। वर्ष 2017 में महिलाओं के विरुद्ध किए
गए अपराधों के मामलों में वृद्धि दर्ज़ की गई है। ‘द प्रिंट’ की एक ख़बर के मुताबिक़
सन् 2017 में महिलाओं के विरुद्ध किए गए अपराधों की संख्या 3,59,849 रही.[7] यह
संख्या बीते वर्षों के मुक़ाबले अधिक है। ‘आज तक’ की वेबसाइट पर मौज़ूद एक और ख़बर
सरकार और मंत्रियों की लापरवाही के बारे में साफ़ बताती है। पिछले वर्ष महिला और
बाल विकास की मंत्री साहिबा ने संसद में बताया कि निर्भया फंड का कुछ राज्यों ने
इस्तेमाल ही नहीं किया और कुछ राज्यों द्वारा ख़र्च की गई राशि बेहद कम रही.[8] ऐसे
में विवाह की उम्र बढ़ाकर जिस समानता की बात सरकार कर रही है वह दूर की कौड़ी ही है।
मंशा,
शंका और सवालों के बीच सरकार को स्थिति को बाक़ी आयामों के साथ जोड़कर देखना होगा। यदि
विवाह की आयु 21 वर्ष की जाती है तब इसका एक अर्थ यह भी होगा कि 21 वर्ष की आयु के
पूर्व बनने वाले यौनिक संबंध कानून की दृष्टि में दंडनीय अपराध की श्रेणी में
आयेंगे। इस स्थिति से निपटने के लिए सरकार की नीति और रणनीति क्या होगी यह देखना
भी महत्वपूर्ण होगा। मैंने ख़ुद युवा होती लड़कियों (19-20 वर्ष) से जो शहरी समाज का
हिस्सा हैं, से जब जानना चाहा तब उनमें से बहुतों का मानना था कि उम्र बढ़ा देनी
चाहिए। इससे उन्हें पढ़ने लिखने का मौका मिलेगा। करियर की ओर रुझान गहरा होगा। समझदारी
ज़्यादा आएगी। एक लड़की ने कहा कि 21 साल उम्र कर देनी चाहिए क्योंकि मेरे माता-पिता
मेरे लिए लड़का खोज रहे हैं। लेकिन कुछ अन्य लड़कियों की सोच अलग रही। उनका मानना है
कि उम्र बढ़ा देने से कोई ख़ास असर नहीं होगा जब तक सरकार हमारे लिए कुछ करती नहीं। मसलन
सुरक्षा, सुविधा, स्कूल कॉलेज अधिक खोलना और उनमें पढ़ाई के तमाम अवसर होना। इसके
अलावा काम की दुनिया में भी महिलाएँ अपने लिए मुनासिब मौक़े चाहती हैं। अतः विवाह
की उम्र 21 वर्ष अच्छा क़दम होगा पर मनोवांछित नतीजे तब तक नहीं मिलेंगे जब तक बाक़ी
आयामों पर काम नहीं किया जाएगा। यदि विवाह की उम्र 21 वर्ष की जाती है तब लड़कियों
को कुछ और वक़्त मिलेगा जिसमें वे ख़ुद के लिए ‘अपना कमरा’[9] तैयार
कर सकेंगी। वह ऐसा कमरा होगा जहाँ लड़कियाँ अपनी पसंद के अनुसार जी सकेंगी। अपने
कमाने के लिए ज़रिये तलाशेंगी। इसके साथ ही अपने बौद्धिक ज्ञान और विकास के लिए
इत्मिनान से बैठकर पढ़ सकेंगी।
[1] मदर इंडिया,
कैथरीन मेयो, अनु.- कँवल भारती, फॉरवर्ड प्रेस, दिल्ली, 2019, पृ। 58
[2]
https://www.thehindu.com/sci-tech/health/india-registers-a-steep-decline-in-maternal-mortality-ratio/article32106662.ece
[3] यह शब्द ‘भेज
देना’ और ‘जाना’ क्रियाओं से अलग और गहरा अर्थ रखता है, विशेषरूप से लड़की के विवाह
के संदर्भ में। प्रचलित कथन यह है कि अब बेटी/लड़की/बहू का विवाह के बाद शव ही
ससुराल से वापस आएगा। लड़कियों के संदर्भ में ‘वापसी’ की कल्पना असहनीय है। अमृता
प्रीतम द्वारा लिखे उपन्यास ‘पिंजर’ में जब नायिका वापस अपने पिता के घर आती है तब
उसे स्वीकार नहीं किया जाता क्योंकि वह अब पवित्र नहीं रह गई है।
[4] https://navbharattimes.indiatimes.com/india/in-ten-years-child-marriage-has-reduced-up-to-five-times/articleshow/67894747.cms
[5] https://indianexpress.com/article/explained/pm-modi-74th-independence-day-women-empowerment-marriage-age-6555937/
[6] https://timesofindia.indiatimes.com/blogs/irrational-economics/where-are-indias-working-women/
[7] https://hindi.theprint.in/india/crime-against-women-increase-ncrb-data-show/92132/
[8] https://www.aajtak.in/india/story/most-of-the-nirbhaya-funds-remain-unused-says-women-child-development-ministry-990092-2019-11-30
[9] यह
वर्जीनिया वुल्फ द्वारा लिखी प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण किताब है। सन् 1928 में वर्जीनिया वुल्फ ने ‘औरत और
कथा-साहित्य’ विषय पर दो आख्यान दिए थे। इस पर बहुत समय देकर उन्होंने सन् 1929 ‘अ रूम
ऑफ़ वंस ओन’ (
A Room of One’s Own) नामक
किताब लिखी जो स्त्री विमर्श की महत्वपूर्ण किताब है।