Monday, 2 October 2017

ये जो प्रेम है

प्रेम एक ऐसा शब्द है जिसके बोलते ही कितनी हलचल मच जाती है। किसी को बॉलीवुड की फिल्म याद आ जाएगी किसी को कोई गीत याद आ जाएगा। किसी को अपना प्यार याद आ जाएगा। किसी को टूटा दिल या बेवफ़ाई याद आ जाएगी। कहने का मतलब यह है कि यह शब्द खाली रहने नहीं देगा। यह ऐसा विषय भी है जिस पर बोलने या लिखने से बचती रही हूँ। पर आज मैं लिखूँगी कि मैं किन किन लोगों की प्रेम दीवानी रही हूँ। हम जैसी बात बात पर शर्मा जाने वाली लड़कियों के अपने ढेरों कोने होते हैं और वहाँ बहुत से लोग ऐसे रहते हैं जिन्हें हम दुनिया की बुरी नज़र से छुपा कर रखना चाहते हैं। पहले पहल मुझे यह लगता था कि किसी को प्यार करना बदनाम हो जाने वाली वजह बन जाती है। लेकिन प्रेम पूर्वाग्रहों से संचालित नहीं होता। इस बात का संतोष और खुशी दोनों है। 

सन् 1972 में हिन्दी की दुनिया को एक बेहतरीन उपन्यास मिला था। उसका नाम है- धरती धन न अपना।  इसके लेखक जगदीश चंद्र हैं। जब मैं इग्नू से अपने एम.ए. हिन्दी की पढ़ाई कर रही थी तब यह उपन्यास कोर्स में लगा था। अधिक समय नहीं हुआ इस बात को। क्योंकि मेरा पूरा समय अपनी नौकरी में गुज़र जाता था इसलिए उपन्यासों को खरीदने की ज़िम्मेदारी मेरे पिता के जिम्मे हो गई थी। वे ही पुरानी दिल्ली के नई सड़क पर लगने वाले बाज़ार से मेरे लिए उन किताबों को खोज खोज कर लाये थे। मैंने उन्हें सभी उपन्यासों की फेहरिश्त दी थी और वे एक ही बार में कम से कम आठ उपन्यास खरीदकर ले आए थे। शाम को जब मैं घर पहुंची तब नई नई किताबों को देखकर एक खुशी अंदर मिनट में पैदा हो गई। मैंने किताबों को देखते हुए कहा- 'ये तो सारी नई लग रही हैं!' वे बोले- 'हाँ,  नई ही हैं। कला मंदिर नामक दुकान से लाया हूँ।' इतनी देर में मैंने कुछ उपन्यासों को उलट पलट कर देख लिया। वो बोले- 'तुम्हें काफी मेहनत करनी होगी।' मैंने किताबों पर हाथ फेरते हुए कहा- 'सो तो है।...पापा आप को कौन सी किताब अच्छी लग रही है?' वो आठों किताबों पर नज़र फेरने के बाद एक किताब मेरे आगे करते हुए बोले- 'ये वाली!' जब मैंने उस किताब को हाथ में लिया तो वह यही उपन्यास निकला- 'धरती धन न अपना'। 

लेकिन मैंने इस किताब को पहले नहीं पढ़ा। इससे पहले मैंने 'गोदान' को और इसके बाद 'सूखा बरगद' पढ़ा। दोनों ठीक-ठाक थे। इस उपन्यास की बारी तीसरी रही और पढ़ने के बाद अफसोस हुआ कि यह पहले क्यों नहीं पढ़ा। वास्तव में यह उपन्यास दिल में उतर जाने वाला लगा। लिखने की शैली ऐसी थी कि पाठक को एक पल को लगता है कि वह 'चमादड़ी' में ही पहुँच गया है। अगर मैं अपनी निजी पसंद कि बात करूँ तो 'गोदान' से पहले मैं इस उपन्यास का नाम लूँगी। फिर भी तुलना बेकार ही है। सभी किताब अपने महत्व को पारित ही करती हैं। खैर इस उपन्यास के चरित्रों 'काली और ज्ञानो' का प्रेम मुझे आज तक सुपर डुपर प्रेम लगता है। ज्ञानो का मरना मुझे एक झटके जैसा लगा था। हमारा खुद का समाज ही प्रेम की स्थापना नहीं करने देता। खैर इस उपन्यास की कहानी नहीं बताना चाहती। लोग खुद से पढ़ें तो अच्छा रहेगा। बात तो प्रेम पर होगी और आकर्षण पर।

इस किताबी प्रेम-कहानी से पहले लड़कियों के जीवन में प्रेम कहाँ-कहाँ से प्रवेश करता है यह भी बड़ा दिलचस्प होता है। मुझे नहीं मालूम की बड़े घर की बेटी का जीवन कैसा होता है पर अपने जैसे घर की लड़की के बारे में कह सकती हूँ कि इनकी रोज़मर्रा बहुत उथल-पुथल वाली होती है। आज भी तकनीक के आ जाने से कुछ खास बदलाव नहीं आया है। 13 या 14 बरस की उम्र में छाती को ढकने वाला दुपट्टा रिशतेदारों से तोहफे में मिलना शुरू हो जाता है। स्कूल की ड्रेस या तो लंबी हो जाती है या फिर वह सीधे सूट में तब्दील हो जाती है। बालों की चमक तैल में चुपड़े हुए बालों में बदल जाती है। और कसकर दो चोटियाँ बना दी जाती है कि बालों का दम घुटने लग जाता है। फिर भी आकर्षण, हिंदुओं की किताब में दिये गए आत्मा के गुण को धारण कर उस सूट सलवार वाली लड़की के जीवन में आ ही जाता है। यही खास खासियत भी है। 



स्कूल के आने जाने के रास्ते कम मोहक नहीं होते! कुछ छोटी उम्र की कहानियाँ वहाँ जन्म ले लेती हैं। कोई लड़का है अजनबी सा जो साथ जाने की ज़िद्द करता है। सुबह 7:30 के समय में वह लंबी वाली सड़क के एक कोने में मोशन में खड़ा है। वह चाहता है कि यह सूट वाली लड़की आए तो साथ रास्ता कट जाये। लड़की अंजान बनी हुई भी सब जानती है। धीरे धीरे जान पहचान मुस्कुराहटों से हो ही जाती है। आह! क्या अहसास है। वह कम उम्र का लड़का अब प्रेमी है और वह लड़की प्रेमिका। कितना केयरिंग नेचर है उस लड़के का। इतना अच्छा अहसास। लड़की को उसका जन्मदिन याद है। वह कुछ ऐसा सामान जो तोहफा हो, देना चाहती है कि वह लड़का अपने साथ उसकी निशानी बनाकर रख सके। वह क्या दे सकती है, सोचने में कई रातें जाग कर बिता देती है। पिछले हफ्ते पिता ने एक बात कही थी कि इंसान को एक घड़ी का साथ रखना चाहिए। उसे यहीं से तोहफे के बारे में इशारा मिल गया। बचे हुए रुपयों से उसने चोरी चुपके एक काले पट्टे वाली घड़ी खरीद ली। उसका खयाल था कि इससे अच्छा तोहफा कुछ हो नहीं सकता। उसने दिया। लड़का हैरानी और प्यार के मिले जुले भाव से घड़ी देखता रह गया। शायद उसकी आँखों में एक आँसू भी तैर गया था। उसने उस पल सोचा-क्या लड़कियां ऐसी होती हैं!' उसने उस लड़की जिसको वह अब प्यार करने लगा है, के भी एक तोहफा खरीदने की बात सोचनी शुरू की। लेकिन जब तक शोर मच गया। बस एक बात जो आसपास होती रही, वह थी- 'लड़की का चक्कर चल रहा है, लड़की का चक्कर चल रहा है!

एक वो वाला प्यार भी होता है जो ट्यूशन में होता है। वहाँ स्कूल ड्रेस या दो चोटियों की ज़िद्द नहीं होती। वहाँ बहाने से छू भी सकते हैं। बात भी हो सकती है। नज़रें भी मिल सकती हैं। यहाँ भी लड़की का दिल अभी सीने से बाहर आने को हुआ होता है। a+b का स्क्व्यर वाला सूत्र कितना अच्छा लगने लगता है। टेस्ट होगा मैथ्स का। एक सवाल गलत नहीं होना चाहिए। टेस्ट का दिन आया। कुल छ सवाल दिये गए। सब अकेले अकेले बैठेंगे। कोई किसी का नहीं देखेगा। लेकिन ये जो आकर्षण है, यह सब कुछ देखता और समझता है। मुंह में केडबरी चॉकलेट की तरह घुल जाता है। लड़के ने लड़की को जितना हो सका दिखाया। दोनों टेस्ट में पास हो गए। अभी तक आकर्षण की भनक किसी बड़ी नज़र को नहीं लगी। यहाँ अभी कोई बदनाम नहीं हुआ है। अच्छा है। सब ठीक ठाक है। 

एक मैगज़ीन वाला प्यार भी होता है। बड़ी होती लड़कियों की जानकारी देने वाली पत्रिका। इसके अलावा वहाँ 'पहला प्यार' वाला किस्सा भी होता है। कितना अच्छा लगता है इस पेज़ को छूकर। आत्मा तृप्त होती है। अगर उस लड़की को अपने पहले प्यार के बारे में कुछ लिखना होता क्या लिखेगी? वह सोच रही है। किससे प्यार हुआ है उस। कोई क्लास का लड़का भी नहीं है, क्योंकि कॉलेज ही लड़कियों वाला है। ट्यूशन है नहीं तो कहाँ और किस्से प्यार होगा। चान्स ही नहीं। मौका है कहाँ! फिर कॉमिक्स के हीरो से। कौन अच्छा लगता है। फिलहाल तो सुपरमैन! अरे वही जो पेंट के ऊपर चड्डी पहनता है, वो भी लाल रंग वाली। कुछ भी कहो अच्छा तो लगता ही है। क्रिप्टन से आया है। अपनी धरती का मुसाफिर नहीं है। चक्कर चला तो किसी को पता भी नहीं चलेगा। हाँ, यह अच्छा वाला विकल्प है। कोई पूछेगा तो कह दूँगी कि है मेरा भी कोई। यहाँ का रहने वाला नहीं है... नहीं यह बताने की ज़रूरत नहीं है। है बस कोई, इतना काफी है। 

दूसरी तरफ उस बेचारे सुपरमैन को नहीं मालूम कि कितनी लड़कियों का वह प्रेमी है। कितने प्रेम पत्रों की वह वजह है। कितनी आँखों के गुलाबी हो जाने का वह कारण है। कितनी सारी डायरियों के पन्नो में वह चिपका हुआ उड़ रहा है, कहीं न जाने के लिए। यह डायरी वही खजाना है जिसके ऊपर सूरज की रोशनी नहीं पड़ा करती। जिसके बारे में कोई भी 'कैप्टन जैक स्पेरॉ' नहीं जानता। वह खोज नहीं सकता इस खजाने को। आज भी ऐसे खजाने रोज़ अहसासों की ज़मीन में छुपाए जा रहे हैं। अच्छा है। यह दुनिया खजाना रहित नहीं होगी। खोजने के लिए कुछ न भी रहा तो कम से कम ये अहसास तो रहेंगे ही न।




Sunday, 1 October 2017

अटेन्शन प्लीज़

जब तक बात 'अजीब' न हो वह ध्यान नहीं खींचती। अजीब का मतलब कुछ भी ऐसा जो जाना-पहचाना न हो या फिर मेरे दायरे से बाहर का हो। और भी बहुत मतलब हैं सभी को मालूम है कि अजीब होता क्या है! मुझे एक बैठक याद आ रही है। बहुत से अनुभवी लोग थे वहाँ, मेरे अलावा। उस आदमी ने कहा- "अपने कम्फर्ट ज़ोन से निकलना अपने आप को सबसे बड़ी चुनौती देने की औकात होती है। अगर आप लगातार उसी में रहते हैं तब मुमकिन है कि कुछ समय अच्छा लगे, पर बाद में खामियाज़ा भुगतना ही पड़ता है। बदलावों के लिए अपनी आराम तलबी तोड़नी ही पड़ती है। ...कैसे मुमकिन है कि सोचने भर से सब कुछ खुद से हो जाएगा! अगर आप पर वार हो रहे हैं तो हो सकता है आप कुछ न कहकर बेकार के पचड़ों में न पड़ने का रास्ता चुनें, पर अगर जवाब देंगे तो मुमकिन है सामने वाला सोचे।... कहने से पहले सोचे।... हो सकता है बोल ही न पाये। ...बच्चों और औरतों पर अपराध इसलिए नहीं बढ़ रहे कि अपराधी बढ़ रहे हैं, बल्कि उस पर प्रतिक्रियाएँ न के बराबर हैं। हमें सीखना और सिखाना होगा कि कैसे पलटवार किया जाता है। यह जरूरी है। अपराध का शिकार हो जाने पर दुबकना किस समाज का बर्ताव है? ऐसे तो घुटन हो जाएगी। कौन जिएगा ऐसे?..."

उसकी बातों में बहुत सी अच्छी बातों को समझा जा सकता है।आज उसकी बातों में से व्यवहार और आदत को ले सकते हैं। अपने व्यवहार को बर्ताव से समझा जा सकता है। यह एक मज़ेदार गतिविधि है। कई बार ऐसे ही पागलपन वाले काम कर लेने चाहिए। कुछ सीखने को मिल जाता है।

 
मुझे लगता है, मैंने बहुत सी बातें छोड़ दी हैं। बात काफी साल पहले की है सो याद रह जाने लायक ही याद आ रहा है। इस आदमी को मैं नहीं जानती थी। जानती थी तो बस इतना कि वह भी किसी संस्था में बच्चों को रेसक्यू करने का काम करता है। वह इतने सामान्य तरीके से बोल रहा था कि मुझे एक पल को अटपटा लगा। भला इतने संवेदनशील मुद्दे पर भी इस तरह कोई बोलता है। बैठक खत्म हो जाने के बाद वह अपना कोना तलाश कर सिगरेट फूँक रहा था। मन में आया, ये आदमी बड़े अजीब होते हैं। पैक पर लिखे होने के बाद भी क्यों सिगरेट पीते हैं! मुझेअपनी तरफ देख वह थोड़ा सा मुस्कुराया। बैठक में जिस लड़की के जिस लड़की के साथ आया था, उसके चाय खत्म करने के बाद तुरंत निकल गया। मैं बात नहीं कर पाई। लेकिन उसकी बातें याद तो है। सही है कि हम सब का अपना अपना एक कोना है। चाहे सीलन हो या बदबू आ जाए हम नहीं निकलना चाहते उस कोने से। बात आराम की नहीं, बात आराम पसंद हो जाने की है। उस डर की है जो हममें कितनी खूबसूरती से अदृश्य रहता है। मैं भी इस डर से अभी तक मुक्त नहीं हो पाई। बहुत डर का असर यह हुआ कि लोगों की बातों के या हमलों के निशाने पर जल्दी आ जाती हूँ।

कुछ दिनों पहले सोशल साइट्स पर माहिरा खान की खुली पीठ और हाथों की सिगरेट का ऐसा तूफान आया था कि वह सभी संस्कारी लोगों के निशाने पर आ गई थीं। पहली नज़र में जब मैंने उन तस्वीरों को देखा था तब मुझे कोई खास और बड़ी बात नहीं लगी थी।आज भी नहीं लगती। लेकिन अजीब मुझे वे लोग लगे थे जो उनको गाली दे रहे थे। जो उनको इस्लाम का हवाला देते हुए नसीहत दे रहे थे। ठीक ऐसा ही वाकया प्रियंका चोपड़ा के साथ हुआ था जब वह जर्मनी में प्रधानमंत्री से मिलने गई थीं और तस्वीरों में उनके पैर दिख रहे थे। लोगों ने कहा कि उन्हें प्रधानमंत्री से मिलने साड़ी पहनकर जाना चाहिए था। कुछ ने यह भी कहा कि उन्हें कम से कम संस्कार तो नहीं भूलने चाहिए थे। अभी कुछ दिन पहले हादिया का भी एक मामला आया था जो मन से अखिला से हादिया हो गई हैं। लेकिन वहाँ के न्यायलाय और समाज को बहुत असर पड़ चुका है। 

जब मैं स्नातक में थी तब अंग्रेज़ी की मैम ने पूरी क्लास को एक पेपर लिखने को कहा। यह बहुत दिलचस्प काम था। उन्होने कहा कि आप अपनी आठ दिनों के बारे में रोज़ लिखें और वही आपका पेपर होगा। उसी पर नंबर मिलेंगे। मेरा रोल नंबर ओड(विषम) था इसलिए मुझे और भी खुशी होती थी क्योंकि यही टीचर हमें पढ़ाया करती थी। बहरहाल उस वक़्त तक मैं कम से कम रोज़ डायरी लिखने की अभ्यासी नहीं थी। लिखती थी पर दिनों के अन्तराल में। इसलिए जब यह काम मिला तब मैंने अपने दिन में होने वाली बातों पर गहरी निगाह रखनी शुरू कर दी। इतना ही नहीं अपनी माँ और भाई, बहन और पिता को भी इस नज़र के दायरे में लेना शुरू कर दिया। एक तरफ मुझे अच्छे नंबर की लालसा था तो दूसरी तरफ उस महत्वपूर्ण चीज को दर्ज़ कर लेने की जद्दोजहद भी थी जो बहुत खास हो...अलग हो। 



मेरे घर में मेरे होश संभालने से पहले ही चम्पक, नन्दन और अखबारों का गहरा प्रभाव था। कभी कभी किसी माह की पत्रिका रह जाती तब पढ़ी हुई पत्रिका ही दुबारा पढ़ लेती। इसलिए शब्द और खयाल वहाँ से भी मुझे अपने कॉलेज के दिये काम में मिल रहे थे। मैंने आठ दिनों में वह सब नोट किया या फिर अपने कच्ची बुद्धि के संज्ञान में ले लिया जो मैं ले सकती थी। परिणाम हैरान करने वाला था। मैंने एक बात को बार बार लिखा था। वह यह बात थी कि हम दूसरों को हर 10 या 20 मिनट में जज करते हैं। लगभग हर रोज़। किसी को कैसा बर्ताव करना चाहिए या फिर कैसा नहीं यह हममें तय करने की लगभग एक ज़िद्द है। घर और क्लास में ये बातें बड़े ही सामान्य तरीकों से होती थीं। इनका होना ऐसा है जो हमारा ध्यान भी नहीं खिंचतीं। जैसे मेरे घर में खाने में नमक की हल्की सी बात पर ही हम माँ को नसीहत थमाते चलते थे कि कम है तो कभी ज़्यादा हो गया। बहन के लिए था कि वह खाने में दिल रखकर नहीं पकाती। पकाना चाहिए। दीदी को घर जल्दी लौट आना चाहिए। भाई को पढ़कर अकाउंटैंट बन ही जाना चाहिए। मझला भाई देरी से आता है। जल्दी आना चाहिए। ज़रूर आवारागर्दी करता होगा। ठीक ऐसा ही क्लास में मेरे मन में होता था जो मस्ती करते थे आ फिर मेरे लिंक-अप्स की खबरें यहाँ वहाँ उछालते थे। मन में आता था कि एक एक को पकड़कर कूट डालूँ। कॉलेज में कुछ ऐसे लोगों को भी हल्का फुल्का सुना कि जो लड़की कम कपड़ों में हो वह जरा ऐसी वैसी होती है। 

ऊपर वाले पैरे का पूरा मतलब यह है कि हम किसी को भी एकदम से पोथी लेकर जज करने बैठ जाते हैं। यह हमारी आदतों में से एक गंदी वाली आदत है। कौन क्या पहन रहा है, कौन क्या कर रहा है, कौन क्या खा रहा है, आदि को जानने के लिए हमारी ताक झांक कुछ इस कद्र बढ़ जाती है कि यह एक बहुत बड़े ऐब में तब्दील हो जाती है। समाजों में ऐब ही अपराधों की वजह बन जाते हैं। मैंने पाया है कि हममें अपनी आदतों पर काम करने की बेतरह कमी भी है। व्यक्तिगत से लेकर सरकार तक अब आधार कार्ड के जरिये हमारे निजी जीवन में ताक झांक कर रही है। अगर आप एक औरत हो तो यह बात लोगों के लिए बहुत ही मज़ेदार और आसानी से निशाना साधने लायक बन जाती है। यह व्यक्तिगत गिरावट की निशानी है।  

इसका मैं एक ऐसा उदाहरण देती हूँ जिससे हम अपने व्यवहार को आदत बनते देख और समझ सकते हैं। आजकल मेट्रो का सफर अधिक होता है इसलिए वहाँ से उदाहरण लेना ठीक रहेगा। जब मैं महिलाओं के डिब्बे में जाकर सफर करती हूँ तब ऐसे हर उम्र की औरतों लड़कियों को एक दूसरे को घूरते और कानों में फुसफुसाते हुए पाती हूँ। हमें हंसी भी आ जाती है। उस दिन एक लड़की खूबसूरत सी स्कर्ट पहनकर खड़ी थी तभी कुछ लड़कियां उसकी स्कर्ट को देखकर हंसी और फुसफुसाई। जब मैंने उस स्कर्ट वाली लड़की को ठीक से देखा तो पता चला कि स्कर्ट में एक लंबा कट था जिससे उसके पैर दिख रहे थे। लेकिन फिर भी मुझे यह बात कोई विषय नहीं लगी। ऐसा पढ़ी लिखी लड़कियां बहुत करती हैं। मैंने देखा है कि मज़दूरीनें तो आराम से बैठकर सफर को सफर की तरह कर रही होती हैं। 

ठीक कोई शॉर्ट ड्रेस में लड़की मेट्रो के जनरल डिब्बे में आ जाये तब तो हाहाकार ही मच जाता है। जो लोग मोबाइल में सफ़ेद कमीज पहने हुए हनुमान चालीसा पढ़ रहे होते हैं या फिर टोपी लगाकर दीन के बारे में सोच रहे होते हैं, वे सभी नज़र उठा उठाकर उसे देखते भी हैं और लड़की के स्टेशन पर उतर जाने पर कहते हैं अब तो जमाना ही खराब हो गया है। कोई शरमों हया नहीं बची। वास्तव में जमाना अपने मुताबिक ठीक ही है, दोष तो नज़रों का ही है। खैर मैंने अपने पर बहुत काम किया है कि किसी के जीवन में अपनी नाक न अड़ाऊँ। मैं चाहती हूँ कि यह जज न करने की शैली ताउम्र बनी रहे। 

टिप्पणी के तौर पर यह भी कहूँगी कि बहुत से मसलों पर हमें अच्छा बुरा जज करना ही पड़ता है। इसलिए उन जगहों पर यह शैली भी खुद से विकसित करनी चाहिए। पढ़ने वाले लोग इतने दिमागदार तो होंगे ही कि वे समझेंगे कि मेरा मतलब और मकसद कौन सी बातों के लिए है। 



21 बरस की बाली उमर को सलाम, लेकिन

  दो साल पहले प्रथम वर्ष में पढ़ने वाली लड़की से मेरी बातचीत बस में सफ़र के दौरान शुरू हुई थी। शाम को काम से थकी हारी वह मुझे बस स्टॉप पर मिल...