Sunday, 1 October 2017

अटेन्शन प्लीज़

जब तक बात 'अजीब' न हो वह ध्यान नहीं खींचती। अजीब का मतलब कुछ भी ऐसा जो जाना-पहचाना न हो या फिर मेरे दायरे से बाहर का हो। और भी बहुत मतलब हैं सभी को मालूम है कि अजीब होता क्या है! मुझे एक बैठक याद आ रही है। बहुत से अनुभवी लोग थे वहाँ, मेरे अलावा। उस आदमी ने कहा- "अपने कम्फर्ट ज़ोन से निकलना अपने आप को सबसे बड़ी चुनौती देने की औकात होती है। अगर आप लगातार उसी में रहते हैं तब मुमकिन है कि कुछ समय अच्छा लगे, पर बाद में खामियाज़ा भुगतना ही पड़ता है। बदलावों के लिए अपनी आराम तलबी तोड़नी ही पड़ती है। ...कैसे मुमकिन है कि सोचने भर से सब कुछ खुद से हो जाएगा! अगर आप पर वार हो रहे हैं तो हो सकता है आप कुछ न कहकर बेकार के पचड़ों में न पड़ने का रास्ता चुनें, पर अगर जवाब देंगे तो मुमकिन है सामने वाला सोचे।... कहने से पहले सोचे।... हो सकता है बोल ही न पाये। ...बच्चों और औरतों पर अपराध इसलिए नहीं बढ़ रहे कि अपराधी बढ़ रहे हैं, बल्कि उस पर प्रतिक्रियाएँ न के बराबर हैं। हमें सीखना और सिखाना होगा कि कैसे पलटवार किया जाता है। यह जरूरी है। अपराध का शिकार हो जाने पर दुबकना किस समाज का बर्ताव है? ऐसे तो घुटन हो जाएगी। कौन जिएगा ऐसे?..."

उसकी बातों में बहुत सी अच्छी बातों को समझा जा सकता है।आज उसकी बातों में से व्यवहार और आदत को ले सकते हैं। अपने व्यवहार को बर्ताव से समझा जा सकता है। यह एक मज़ेदार गतिविधि है। कई बार ऐसे ही पागलपन वाले काम कर लेने चाहिए। कुछ सीखने को मिल जाता है।

 
मुझे लगता है, मैंने बहुत सी बातें छोड़ दी हैं। बात काफी साल पहले की है सो याद रह जाने लायक ही याद आ रहा है। इस आदमी को मैं नहीं जानती थी। जानती थी तो बस इतना कि वह भी किसी संस्था में बच्चों को रेसक्यू करने का काम करता है। वह इतने सामान्य तरीके से बोल रहा था कि मुझे एक पल को अटपटा लगा। भला इतने संवेदनशील मुद्दे पर भी इस तरह कोई बोलता है। बैठक खत्म हो जाने के बाद वह अपना कोना तलाश कर सिगरेट फूँक रहा था। मन में आया, ये आदमी बड़े अजीब होते हैं। पैक पर लिखे होने के बाद भी क्यों सिगरेट पीते हैं! मुझेअपनी तरफ देख वह थोड़ा सा मुस्कुराया। बैठक में जिस लड़की के जिस लड़की के साथ आया था, उसके चाय खत्म करने के बाद तुरंत निकल गया। मैं बात नहीं कर पाई। लेकिन उसकी बातें याद तो है। सही है कि हम सब का अपना अपना एक कोना है। चाहे सीलन हो या बदबू आ जाए हम नहीं निकलना चाहते उस कोने से। बात आराम की नहीं, बात आराम पसंद हो जाने की है। उस डर की है जो हममें कितनी खूबसूरती से अदृश्य रहता है। मैं भी इस डर से अभी तक मुक्त नहीं हो पाई। बहुत डर का असर यह हुआ कि लोगों की बातों के या हमलों के निशाने पर जल्दी आ जाती हूँ।

कुछ दिनों पहले सोशल साइट्स पर माहिरा खान की खुली पीठ और हाथों की सिगरेट का ऐसा तूफान आया था कि वह सभी संस्कारी लोगों के निशाने पर आ गई थीं। पहली नज़र में जब मैंने उन तस्वीरों को देखा था तब मुझे कोई खास और बड़ी बात नहीं लगी थी।आज भी नहीं लगती। लेकिन अजीब मुझे वे लोग लगे थे जो उनको गाली दे रहे थे। जो उनको इस्लाम का हवाला देते हुए नसीहत दे रहे थे। ठीक ऐसा ही वाकया प्रियंका चोपड़ा के साथ हुआ था जब वह जर्मनी में प्रधानमंत्री से मिलने गई थीं और तस्वीरों में उनके पैर दिख रहे थे। लोगों ने कहा कि उन्हें प्रधानमंत्री से मिलने साड़ी पहनकर जाना चाहिए था। कुछ ने यह भी कहा कि उन्हें कम से कम संस्कार तो नहीं भूलने चाहिए थे। अभी कुछ दिन पहले हादिया का भी एक मामला आया था जो मन से अखिला से हादिया हो गई हैं। लेकिन वहाँ के न्यायलाय और समाज को बहुत असर पड़ चुका है। 

जब मैं स्नातक में थी तब अंग्रेज़ी की मैम ने पूरी क्लास को एक पेपर लिखने को कहा। यह बहुत दिलचस्प काम था। उन्होने कहा कि आप अपनी आठ दिनों के बारे में रोज़ लिखें और वही आपका पेपर होगा। उसी पर नंबर मिलेंगे। मेरा रोल नंबर ओड(विषम) था इसलिए मुझे और भी खुशी होती थी क्योंकि यही टीचर हमें पढ़ाया करती थी। बहरहाल उस वक़्त तक मैं कम से कम रोज़ डायरी लिखने की अभ्यासी नहीं थी। लिखती थी पर दिनों के अन्तराल में। इसलिए जब यह काम मिला तब मैंने अपने दिन में होने वाली बातों पर गहरी निगाह रखनी शुरू कर दी। इतना ही नहीं अपनी माँ और भाई, बहन और पिता को भी इस नज़र के दायरे में लेना शुरू कर दिया। एक तरफ मुझे अच्छे नंबर की लालसा था तो दूसरी तरफ उस महत्वपूर्ण चीज को दर्ज़ कर लेने की जद्दोजहद भी थी जो बहुत खास हो...अलग हो। 



मेरे घर में मेरे होश संभालने से पहले ही चम्पक, नन्दन और अखबारों का गहरा प्रभाव था। कभी कभी किसी माह की पत्रिका रह जाती तब पढ़ी हुई पत्रिका ही दुबारा पढ़ लेती। इसलिए शब्द और खयाल वहाँ से भी मुझे अपने कॉलेज के दिये काम में मिल रहे थे। मैंने आठ दिनों में वह सब नोट किया या फिर अपने कच्ची बुद्धि के संज्ञान में ले लिया जो मैं ले सकती थी। परिणाम हैरान करने वाला था। मैंने एक बात को बार बार लिखा था। वह यह बात थी कि हम दूसरों को हर 10 या 20 मिनट में जज करते हैं। लगभग हर रोज़। किसी को कैसा बर्ताव करना चाहिए या फिर कैसा नहीं यह हममें तय करने की लगभग एक ज़िद्द है। घर और क्लास में ये बातें बड़े ही सामान्य तरीकों से होती थीं। इनका होना ऐसा है जो हमारा ध्यान भी नहीं खिंचतीं। जैसे मेरे घर में खाने में नमक की हल्की सी बात पर ही हम माँ को नसीहत थमाते चलते थे कि कम है तो कभी ज़्यादा हो गया। बहन के लिए था कि वह खाने में दिल रखकर नहीं पकाती। पकाना चाहिए। दीदी को घर जल्दी लौट आना चाहिए। भाई को पढ़कर अकाउंटैंट बन ही जाना चाहिए। मझला भाई देरी से आता है। जल्दी आना चाहिए। ज़रूर आवारागर्दी करता होगा। ठीक ऐसा ही क्लास में मेरे मन में होता था जो मस्ती करते थे आ फिर मेरे लिंक-अप्स की खबरें यहाँ वहाँ उछालते थे। मन में आता था कि एक एक को पकड़कर कूट डालूँ। कॉलेज में कुछ ऐसे लोगों को भी हल्का फुल्का सुना कि जो लड़की कम कपड़ों में हो वह जरा ऐसी वैसी होती है। 

ऊपर वाले पैरे का पूरा मतलब यह है कि हम किसी को भी एकदम से पोथी लेकर जज करने बैठ जाते हैं। यह हमारी आदतों में से एक गंदी वाली आदत है। कौन क्या पहन रहा है, कौन क्या कर रहा है, कौन क्या खा रहा है, आदि को जानने के लिए हमारी ताक झांक कुछ इस कद्र बढ़ जाती है कि यह एक बहुत बड़े ऐब में तब्दील हो जाती है। समाजों में ऐब ही अपराधों की वजह बन जाते हैं। मैंने पाया है कि हममें अपनी आदतों पर काम करने की बेतरह कमी भी है। व्यक्तिगत से लेकर सरकार तक अब आधार कार्ड के जरिये हमारे निजी जीवन में ताक झांक कर रही है। अगर आप एक औरत हो तो यह बात लोगों के लिए बहुत ही मज़ेदार और आसानी से निशाना साधने लायक बन जाती है। यह व्यक्तिगत गिरावट की निशानी है।  

इसका मैं एक ऐसा उदाहरण देती हूँ जिससे हम अपने व्यवहार को आदत बनते देख और समझ सकते हैं। आजकल मेट्रो का सफर अधिक होता है इसलिए वहाँ से उदाहरण लेना ठीक रहेगा। जब मैं महिलाओं के डिब्बे में जाकर सफर करती हूँ तब ऐसे हर उम्र की औरतों लड़कियों को एक दूसरे को घूरते और कानों में फुसफुसाते हुए पाती हूँ। हमें हंसी भी आ जाती है। उस दिन एक लड़की खूबसूरत सी स्कर्ट पहनकर खड़ी थी तभी कुछ लड़कियां उसकी स्कर्ट को देखकर हंसी और फुसफुसाई। जब मैंने उस स्कर्ट वाली लड़की को ठीक से देखा तो पता चला कि स्कर्ट में एक लंबा कट था जिससे उसके पैर दिख रहे थे। लेकिन फिर भी मुझे यह बात कोई विषय नहीं लगी। ऐसा पढ़ी लिखी लड़कियां बहुत करती हैं। मैंने देखा है कि मज़दूरीनें तो आराम से बैठकर सफर को सफर की तरह कर रही होती हैं। 

ठीक कोई शॉर्ट ड्रेस में लड़की मेट्रो के जनरल डिब्बे में आ जाये तब तो हाहाकार ही मच जाता है। जो लोग मोबाइल में सफ़ेद कमीज पहने हुए हनुमान चालीसा पढ़ रहे होते हैं या फिर टोपी लगाकर दीन के बारे में सोच रहे होते हैं, वे सभी नज़र उठा उठाकर उसे देखते भी हैं और लड़की के स्टेशन पर उतर जाने पर कहते हैं अब तो जमाना ही खराब हो गया है। कोई शरमों हया नहीं बची। वास्तव में जमाना अपने मुताबिक ठीक ही है, दोष तो नज़रों का ही है। खैर मैंने अपने पर बहुत काम किया है कि किसी के जीवन में अपनी नाक न अड़ाऊँ। मैं चाहती हूँ कि यह जज न करने की शैली ताउम्र बनी रहे। 

टिप्पणी के तौर पर यह भी कहूँगी कि बहुत से मसलों पर हमें अच्छा बुरा जज करना ही पड़ता है। इसलिए उन जगहों पर यह शैली भी खुद से विकसित करनी चाहिए। पढ़ने वाले लोग इतने दिमागदार तो होंगे ही कि वे समझेंगे कि मेरा मतलब और मकसद कौन सी बातों के लिए है। 



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