Thursday, 22 February 2018
Monday, 19 February 2018
पिंजड़ा तोड़- करेंगे पॉलिटिक्स और करेंगे प्यार तक और उससे आगे भी ...जीते रहो
पिंजड़ा तोड़ मुहिम को देखते हुए कुछ सवाल अपने आप ज़ेहन में आ जाते हैं:-
इसकी शुरुआत वजह, कब कैसे कब तक
पिंजड़ा तोड़ के मायने क्या हैं?
क्यों जरूरी है ?
इसकी प्रक्रिया क्या हैं?
इसका माध्यम क्या है?
क्या क्या निकल कर आ रहा है?
लोगों की क्या प्रतिक्रियाएँ हैं? (घर और पढ़ने वालों की भी)
अहसास क्या होते हैं?
किस तरह के व्यक्तिगत बदलाव समझ आते हैं खुद में?
दूसरों के अंदर क्या बदलाव अब दिखते हैं?
लड़कों का क्या सहयोग रहता है?
संस्थाओं मसलन कॉलेजों या विश्वविद्यालय का क्या और कैसा दबाव रहता है?
इन सवालों को जानना है तो एक बार गूगल पर जाकर पिंजड़ा तोड़ मुहिम के दिलचस्प वीडियो और तस्वीरें जरूर देखें। मुझे तो इस मुहिम से इश्क़ सा कुछ है इसलिए एक छोटा सा नोट लिखा है।
बात यह 100 टका सही है कि हमारा आसपास हमेशा गतिशील होता है। उसमें हलचल होती है। हमेशा कुछ न कुछ घट ही रहा होता है। यह हम पर होता है कि हम किन घटनाओं को देखते, जुड़ते, जूझते, सुलझाते, दूर भागते, नज़र चुराते हैं, हथियार डाल देते हैं, या फिर मैदान में अपनी शुरुआत को शुरू कर भीड़ जाते हैं।
कभी कभी हम तर्क और किताबों में इतने खो जाते हैं कि आसपास चल रही महत्वपूर्ण घटनाओं को समझ तो दूर उनकी पहचान करने से भी महरूम रह जाते हैं। अपनी बुद्धि और शोध को पॉलिश करने में हमें यह कतई नहीं भूलना चाहिए कि हम अपने को दर्ज़ ही नहीं कर पायें। किताबें उन लोगों ने ही अंजाम तक लिखी जिन लोगों ने अपने समय और उसकी हलचल को दर्ज़ कर लिया।
ऐसा ही एक विषय है जो अपने दिलचस्प रंगों और तौर तरीकों से कुछ लोगों द्वारा चलाया जा रहा है। मशीनों के जमाने में बदतमीजियाँ तो हो रही है पर न समझियाँ भी कुछ कम नहीं। बहुत ज़्यादा हो रही है। नारीवाद विषय या फेमिनिज़्म पर किताबों की रचना का प्रोडक्शन या उत्पादन खूब किया जा रहा है। लेकिन इन सब में नारी ही छूटती जा रही है। जीती जागती इंसान की फिक्र न के बराबर है और किताबों में उसकी शक्ल, सूरत, हैसियत और दिक्कत के नमूने गढ़े जा रहे हैं। है न अजीब?
दिल्ली शहर के कुछ विश्वविद्यालय की छात्राओं द्वारा चलाया जा रहा 'पिंजड़ातोड़ अभियान' अपने आप में एक महत्वपूर्ण और जीता जागता इंसानी समूह और गलत के खिलाफ के विद्रोह का एक दस्तावेज़ है। इसके बारे में टीवी पर कभी कभी एक या दो मिनट की कवरेज या झलक वाली खबर दिखाई जाती है। लेकिन हैरानी है कि इसे जितनी तवज्जो मिलनी चाहिए उतनी नहीं दी जाती। फिर भी यह दिन पर दिन बढ़ रहा है जो अच्छी बात है।
आज जब मशीन और इंटरनेट जैसी हाईटेक दुनिया में ज़िंदगी आसान और समान होनी चाहिए तब भी नतीजे और भी दुखद और चौंकाने वाले दिखलाई पड़ते हैं। जी हाँ 'द सेकंड सेक्स' बहुत अधिक जूझ रही है। अजीब किस्म के हालातों में पिंजड़ा तोड़ अभियान अपने अंदाज़ और विरोध की आवाज़ दर्ज़ भी करवा रहा है। यह सफर इतना आसान भी नहीं है।
इस अभियान की शुरुआत दिल्ली के (एक) विश्वविद्यालय की छात्राओं द्वारा की गई। एक बार फिर से लड़कियों को घड़ी की सुइयों को दिखाया गया और पाबंदी के कानून लागू कर दिये गए। हॉस्टल में आने और जाने के वक़्त की निगरानी और रोक के आदेशों के तानाशाही फरमान जारी हुए। इसके पीछे की वजहें ये बताई गईं कि शहर में आपके साथ कोई भी हादसा हो सकता है और अगर किसी लड़की के साथ कुछ भी हुआ तो इसमें विश्वविद्यालय फंस सकता है। उसकी शाख पर असर पड़ेगा। इतना ही नहीं नाम भी खराब होगा।
यह बात बहुत अजीब और दुखद है कि जहां हम सुपर पावर बनने के सपने देख रहे हैं वहीं हम यह भी तय कर रहे हैं कि लड़कियों के हॉस्टल में लौटने का समय क्या होगा। आपको अजीब नहीं लगता? किसी की आज़ादी पर सरेआम ताला लगाने के समान यह बात है। इतना ही नहीं यह बात और भी हैरानी वाली है कि लड़कियों के संदर्भ में एक खास विषय की पढ़ाई की बात निश्चित की गई है। पढ़ाई में भी रसोई गैस की व्यवस्था गृह विज्ञान के द्वारा सेट कर दी गई है। दिल्ली शहर के ही एक कॉलेज में एक प्रोजेक्ट के दौरान लड़कियों के लिए उनकी लैब में समयसीमा तय कर दी। जब बिटिया पढ़ेगी ही नहीं तो आगे कैसे बढ़ेगी? सोचिए ये सारे सवाल। जरूरी हैं। अगर हमने अपने हिस्से की लड़ाई नहीं लड़ी तब आप इतिहास में एक धब्बा बनने के हकदार हैं।
दिल्ली जैसे शहर में पढ़ने वाली छात्राओं के लिए तमाम तरह की एक रोक रूकावट की फेहरिश्त नज़र आ रही है तो सोच के भी डर लगता है कि देश के बाक़ी हिस्सों में क्या हाल होगा। समाज का परिवारों पर दबाव होता है। परिवारों का लड़कियों को 'अच्छी लड़की' में तब्दील करने अपना अलहदा अभियान है। साथ ही में 'इज्जत' जैसा शब्द भी कानों में डाला जाता है जो दिमाग में सेट होता जाता है। परिवार को एक इज्जत की जन्म जात घुट्टी का असर अपने सबसे खतरनाक तरीके से है। यह प्रभाव कुछ इस क़द्र है कि इस दबाव से कई लड़कियां उम्र भर नहीं निकल पातीं। ऐसे ही कई उदाहरण मिल जाएंगे। इसी दबाव का एक बड़ा और सार्वजनिक रूप स्कूल और कॉलेजों में भी जारी है। क्योंकि शहर सुरक्षित नहीं है, क्योंकि लोग अच्छे नहीं है, क्योंकि सरकार को मुआवज़ा देने के अलावा कुछ नहीं आता, क्योंकि पुलिस कुछ नहीं कर सकती इसलिए कछुए सा खोल बनाइये और बाहर मत निकलिए। बाकी लोग आपको नुकसान पहुंचा सकते हैं इसलिए आप फलां समय तक वापस लौट आएं। अगर आपके साथ कोई हादसा होता है तो शोर होगा, पचड़ा होगा। अच्छी और अच्छे घर की लड़कियां देर रात तक घुमा नहीं करतीं वाला पंच लाइन मुफ्त में पकड़ा दिया जाएगा।
आजकल पिंजड़ा तोड़ की नई मुहिम करेंगे पॉलिटिक्स और करेंगे प्यार है। इसलिए यह फिर से सुर्खियों में है और एक ऐसे स्पेस के रूप में दिख रहा है जहां आपको सुनना ही होगा।
Wednesday, 14 February 2018
संस्कृति और साड़ी
सव्यसाची वाली खबर पढ़ी जाये या फिर दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्रा की! दोनों ही ख़बरें सेकंड सेक्स से जुड़ी जरूर है पर इनको अंजाम लोगों की कूड़ेदान वाली सोच ने ही दिया है। छात्रा बस में सफर कर रही थी और जब एक सनकी उसे टॉर्चर कर रहा था तब उसने खुद आवाज़ उठाई पर बस में कोई नहीं बोला। यह एक उदाहरण है कि समाज के तौर पर हम मर रहे हैं। हालात ये हैं कि दिल्ली में जो अपना सा शहर है, बाहर जाकर पूरे दिन बिताना बिना मतलब एक ज़ंग लड़कर आने जैसा है। सुबह और शाम को दिल्ली की बसों में हम सफर करने वाले आम लोग किसी तरह का संघर्ष कर रहे होते हैं, यह सिर्फ हम ही जानते हैं। दिल्ली में सफर, सफर जैसा नहीं बल्कि सफर जैसा है।
परसों जब मैंने नैरोजी नगर से 442 नंबर की बस करीब पौने चार बजे शाम में ली तब दो घटनाएँ बस में हुईं जिन्हों ने मुझे चौंकाया नहीं। बल्कि ऐसी घटनाओं की आदत सी लग गई है। दाहिने ओर की दोनों सीटें जो निर्भया हादसे के बाद महिलाओं को शांत होने के लिए दी गई थीं उन दोनों सीटों पर दो हट्टे कट्टे व्यक्ति शान से बैठे हुए थे। ऊपर जहां महिलाएं लिखा होता है उसे काले मार्कर से काट कर अंग्रेज़ी में MEN लिखा गया था। जब दो महिलाओं ने जो काफी बुजुर्ग थीं, ने उनसे उठने को कहा तो वे दोनों अकड़ गए और उन्हें उंगली से ऊपर इशारा करने लगे। भीड़ में किसी ने पीछे से बोला इन औरतों को तो सब कुछ चाहिए...इस पंक्ति को सुनकर भी मुझे हैरानी नहीं हुई। इसके बाद बस में सफ़दर जंग अस्पताल और एंड्यूरूज़ गंज से बहुत से लोग चढ़े, जिससे बस में बेहद भीड़ बढ़ चली। लोग कसमस खड़े थे। औरतें जैसे तैसे खड़े होने की जगह बनाने की कोशिश कर रही थीं।
इसी हाल में दूसरी घटना घटी जब एक महिला, जो क़रीब पचास साल की रही होंगी आकर मेरे बगल में खड़ी हुईं। वह काफी हाँफ रही थीं। एक बैठी हुई लड़की ने उन्हें सीट देने की कोशिश की पर वे बोली- "संत नगर उतरना है। कोई बात नहीं पाँच मिनट के लिए क्या बैठूँ!" इतने में महिला के पीछे एक 37-38 साल का आदमी ज़बरन चिपकता हुआ दिखा जो बेहद भयानक बात दृश्य था। उनके दूसरी ओर एक और व्यक्ति भीड़ का नाजायज़ फायदा उठाते हुए अपनी कोहनियों को उनकी छाती से जबरन टिका रहा था। मुझे नहीं मालूम वह क्यों नहीं बोलीं पर मेरा खून पूरा खौल गया था और मैं चिल्ला पड़ी- "ठीक से खड़े नहीं हो सकते? क्या चिपके जा रहे हो?" हालांकि मेरा बहुत हल्का सा विरोध उन्हें दुरुस्त कर गया। लेकिन ऐसे हालातों में बहुत गुस्सा आता है और शायद मेरे पास कोई बेंत हो तो मैं उसका इस्तेमाल इन सनकियों पर कर भी दूँ, बुद्ध से माफी मांगते हुए।
लगभग हर लड़की और औरत के साथ इस तरह की घटनाएँ रोज़ ही बसों में होती रहती हैं। मैं भी उनमें से एक हूँ। इन हरकतों की आवृत्ति इतनी अधिक है कि कई बार बहुत सी लड़कियां या औरतें बोलने से भी परहेज़ करती हैं। एक वजह यह भी कि शिकायत पर तुरंत किसी भी तरह का एक्शन नहीं लिया जाता। या यूं कहूँ कि कुछ भी नहीं होता तो कई लोग कुछ न कहना ही मुनासिब समझते हैं। हम लड़कियों में तो एक डायलॉग मशहूर है - 'इग्नोर ही मारो!' इस से समझा जा सकता है कि हमारी व्यवस्था कितनी खराब है या फिर हमारे समाज में दीमक अच्छी तरह से लग चुकी है।
तसलीमा नसरीन के ट्वीट को भी मैं काफी देर से समझने की कोशिश कर रही हूँ लेकिन मुझे लगता है कि वह गलत हैं। उनके मुताबिक़ यह अपराध थोड़ा कम स्तर वाला है। इसके संदर्भ में उन्हो ने less victim जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया है। यह भयानक है। उसने जिसने कितनी ही किताबों में औरत के नज़रियों का रखा है। मुझे लगता है उन्हें अपने आप को उस लड़की की जगह रख कर सोचना चाहिए। वह एक लेखिका हैं और उन्हें ऐसा करने में परेशानी नहीं होनी चाहिए। उन्हें मालूम होना चाहिए कि उनका इस तरह का बयान बेहद खराब है।
तसलीमा नसरीन के ट्वीट को भी मैं काफी देर से समझने की कोशिश कर रही हूँ लेकिन मुझे लगता है कि वह गलत हैं। उनके मुताबिक़ यह अपराध थोड़ा कम स्तर वाला है। इसके संदर्भ में उन्हो ने less victim जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया है। यह भयानक है। उसने जिसने कितनी ही किताबों में औरत के नज़रियों का रखा है। मुझे लगता है उन्हें अपने आप को उस लड़की की जगह रख कर सोचना चाहिए। वह एक लेखिका हैं और उन्हें ऐसा करने में परेशानी नहीं होनी चाहिए। उन्हें मालूम होना चाहिए कि उनका इस तरह का बयान बेहद खराब है।
दूसरी अहम बात मशहूर डिज़ाइनर सव्यसाची से जुड़ी है, जिन्होने ऐसी बात की है जिससे मुझे इतनी शर्म आ रही है कि मैं यह पोस्ट भी उसी शर्म में लिख रही हूँ। सच में मुझे शर्म आती है जिस आदमी को यह लगता है कि वे महिलाएं या लड़कियां जो साड़ी पहनना नहीं जानती, उन्हें खुद पर शर्म आनी चाहिये। लो जी आ गई शर्म! मैंने आज तक साड़ी नहीं पहनी और न ही मुझे आगे इसका कोई शौकिया शौक है। उनके मुताबिक़ साड़ी संस्कृति का हिस्सा है। जब लोग भारतीय महिला जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं तब दिमाग में कतई साड़ी नहीं आती। न ही किसी एक महिला की छवि आती है। भारतीय महिला मतलब पूरब, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण सारी जगहों की औरतें। मैरी कॉम से लेकर पीवी सिंधु जैसी खिलाड़ियों का सोचती हूँ तब उनकी वही छवि दिखाई देती है जो वे खेल के मैदान में पहनती हैं या फिर जिस खेल के लिए वे मशहूर हैं, वही छवि समझ आती है।
मैंने जिस कॉलेज से पढ़ाई की है उस कॉलेज में अच्छी संख्या में उत्तर-पूर्व के साथी थे और किसी भी तरह के सांस्कृतिक कार्यक्रम में शानदार प्रस्तुति देते थे। उस समय जो वे लिबास पहनते थे, वे साड़ी नहीं बल्कि उनके पारंपरिक लिबास होते थे। हर रंग में। आँखों को सुकून देने वाले। फिर सव्यसाची के दिमाग में साड़ी का कीड़ा क्यों कुलबुला रहा है? पंजाबी सूट उन्हें क्यों नहीं दिखाई देता? कश्मीरी पहनावे में क्यों उन्हें भारतीय महिला नहीं दिखती? क्यों उन्हें जींस पहनी हुई लड़की में संस्कृति की महक नहीं आती? क्या आधुनिक या आरामदायक पोशाक में संस्कृति नहीं बसती। क्या यही जरूरी है कि हाथ में कड़छी ली हुई और पाँच मीटर साड़ी में लिपटी रसोई में खड़ी औरत में ही भारतीय संस्कृति रहती है?
इन उपर्युक्त बातों में मैंने साड़ी परिधान की आलोचना नहीं की है। जिसे जो पसंद हो वे, वही पहनावा पहने। लोगों में इतनी सामान्य बुद्धि तो जरूर है कि उन्हें कब क्या पहनना है। इसलिए सव्यसाची यह कतई न कहें कि जिसे साड़ी बांधनी नहीं आती उन्हें शर्म आनी चाहिए। वे जिन मुट्ठी भर लोगों के लिए साड़ी डिज़ाइन करते हैं उन्हें ही हजारों रुपयों में बेचे और अपना कारोबार बनाए रखें।
संस्कृति से जुड़े लिबास क्या हैं? यह सवाल भी उठना चाहिए। क्योंकर साड़ी हमारी संस्कृति की निशानी है? क्या सव्यसाची को नहीं पता कि बहुत सी कामगार महिलाएं साड़ी में पैर फँसने के दौरान बसों में, सीढ़ियाँ चढ़ते समय, मोटर साईकिल में पल्लू या दुपट्टा फँसने से दुर्घटनाओं की शिकार हो जाती हैं? इस तरह की घटनाओं के बारे में क्या कहा जाये? महिलाएं साड़ी में अच्छी लगती हैं, लंबे बाल में अच्छी लगती हैं, ढके कपड़ों में अच्छी लगती हैं...लड़कियों के मेहँदी वाले हाथ अच्छे लगते हैं, काजल वाली आँखें अच्छी लगती हैं, पतली कमर अच्छी लगती हैं, छातियों में अधिक उभार हो तो वे औरतें अच्छी लगती हैं, लड़कियों को गोरा होना ही चाहिए, उन्हें ही निखार की ज़रूरत होती है, उन्हें सुशील होना, उनकी आवाज़ सुरीली होनी चाहिए... मतलब किसी ऐसे पिटारे की कल्पना की गई है कि जो मर्ज़ी आए उड़ेल दिया जाये। यार अब बस करो, थोड़ा सांस ले लेने दो। छोड़ दो लोगों को जिसे जो पहनना है उसे वह पहनने दो। प्रलय नहीं आ गई अगर किसी को साड़ी बांधनी नहीं आती।
देशभक्ति की धारा में बहकर शायद वे ऐसा बयान दे गए। लेकिन उन्हें समझ आना चाहिए कि विचार रखने के बहाने विचार थोपे नहीं जाते। उन्हें अपने बयान का अर्थ समझ आ गया है, इसलिए वे अब सफाई भी दे रहे हैं। मुझे लगता है कि अगर वास्तव में आपको महिलाओं से जुड़े मुद्दे या पहनावे पर अपनी बात रखनी है तब बाकी महत्वपूर्ण मुद्दों पर भी रखें। सुरक्षा पर, उनके आर्थिक हालातों पर, नए अवसरों पर, शिक्षा और स्वास्थ्य पर आदि ढेरों मुद्दे हैं मौजूद हैं। क्यों नहीं आप सर्द रातों में बंगाल या किसी गाँव में जाकर गरीब औरतों को साड़ी का तोहफा बाँट आते? यह आपके लिए बहुत अच्छा रहेगा। क्यों हम औरतें रहेंगी तभी तो आपकी संस्कृति भी ज़िंदा होगी! हालात तो यह है कि बच्चियाँ भूख में मर रही हैं और आप हैं कि शर्म की बात रहे हैं!
मैंने जिस कॉलेज से पढ़ाई की है उस कॉलेज में अच्छी संख्या में उत्तर-पूर्व के साथी थे और किसी भी तरह के सांस्कृतिक कार्यक्रम में शानदार प्रस्तुति देते थे। उस समय जो वे लिबास पहनते थे, वे साड़ी नहीं बल्कि उनके पारंपरिक लिबास होते थे। हर रंग में। आँखों को सुकून देने वाले। फिर सव्यसाची के दिमाग में साड़ी का कीड़ा क्यों कुलबुला रहा है? पंजाबी सूट उन्हें क्यों नहीं दिखाई देता? कश्मीरी पहनावे में क्यों उन्हें भारतीय महिला नहीं दिखती? क्यों उन्हें जींस पहनी हुई लड़की में संस्कृति की महक नहीं आती? क्या आधुनिक या आरामदायक पोशाक में संस्कृति नहीं बसती। क्या यही जरूरी है कि हाथ में कड़छी ली हुई और पाँच मीटर साड़ी में लिपटी रसोई में खड़ी औरत में ही भारतीय संस्कृति रहती है?
इन उपर्युक्त बातों में मैंने साड़ी परिधान की आलोचना नहीं की है। जिसे जो पसंद हो वे, वही पहनावा पहने। लोगों में इतनी सामान्य बुद्धि तो जरूर है कि उन्हें कब क्या पहनना है। इसलिए सव्यसाची यह कतई न कहें कि जिसे साड़ी बांधनी नहीं आती उन्हें शर्म आनी चाहिए। वे जिन मुट्ठी भर लोगों के लिए साड़ी डिज़ाइन करते हैं उन्हें ही हजारों रुपयों में बेचे और अपना कारोबार बनाए रखें।
संस्कृति से जुड़े लिबास क्या हैं? यह सवाल भी उठना चाहिए। क्योंकर साड़ी हमारी संस्कृति की निशानी है? क्या सव्यसाची को नहीं पता कि बहुत सी कामगार महिलाएं साड़ी में पैर फँसने के दौरान बसों में, सीढ़ियाँ चढ़ते समय, मोटर साईकिल में पल्लू या दुपट्टा फँसने से दुर्घटनाओं की शिकार हो जाती हैं? इस तरह की घटनाओं के बारे में क्या कहा जाये? महिलाएं साड़ी में अच्छी लगती हैं, लंबे बाल में अच्छी लगती हैं, ढके कपड़ों में अच्छी लगती हैं...लड़कियों के मेहँदी वाले हाथ अच्छे लगते हैं, काजल वाली आँखें अच्छी लगती हैं, पतली कमर अच्छी लगती हैं, छातियों में अधिक उभार हो तो वे औरतें अच्छी लगती हैं, लड़कियों को गोरा होना ही चाहिए, उन्हें ही निखार की ज़रूरत होती है, उन्हें सुशील होना, उनकी आवाज़ सुरीली होनी चाहिए... मतलब किसी ऐसे पिटारे की कल्पना की गई है कि जो मर्ज़ी आए उड़ेल दिया जाये। यार अब बस करो, थोड़ा सांस ले लेने दो। छोड़ दो लोगों को जिसे जो पहनना है उसे वह पहनने दो। प्रलय नहीं आ गई अगर किसी को साड़ी बांधनी नहीं आती।
देशभक्ति की धारा में बहकर शायद वे ऐसा बयान दे गए। लेकिन उन्हें समझ आना चाहिए कि विचार रखने के बहाने विचार थोपे नहीं जाते। उन्हें अपने बयान का अर्थ समझ आ गया है, इसलिए वे अब सफाई भी दे रहे हैं। मुझे लगता है कि अगर वास्तव में आपको महिलाओं से जुड़े मुद्दे या पहनावे पर अपनी बात रखनी है तब बाकी महत्वपूर्ण मुद्दों पर भी रखें। सुरक्षा पर, उनके आर्थिक हालातों पर, नए अवसरों पर, शिक्षा और स्वास्थ्य पर आदि ढेरों मुद्दे हैं मौजूद हैं। क्यों नहीं आप सर्द रातों में बंगाल या किसी गाँव में जाकर गरीब औरतों को साड़ी का तोहफा बाँट आते? यह आपके लिए बहुत अच्छा रहेगा। क्यों हम औरतें रहेंगी तभी तो आपकी संस्कृति भी ज़िंदा होगी! हालात तो यह है कि बच्चियाँ भूख में मर रही हैं और आप हैं कि शर्म की बात रहे हैं!
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