Thursday, 22 February 2018

गुमशुदा (कहानी)

एक लंबी सुबह वाली उबासी लेते हुए... टाइम तो देखूँ! ...हे भगवान! दस बज गए। छुट्टी के दिन टाइम बहुत भागता है। कमबख़्त कहीं का! एक दिन तो मिलता है कमर सीधी करने का...आराम करने का...तय समय से थोड़ा आधिक सोने का...अपने हाथ की एक गरम चाय बनाकर एक प्याली सुरूर से पीने का...! शर्मिला के मन में यही वाक्य आ जा रहे थे।  

सुबह के दस बज चुके थे। शर्मिला अब पूरी तरह से जाग चुकी थी। बिस्तर में बगल पर कोई नहीं था। इसका साफ मतलब था कि मानव अपने काम पर जा चुका था। उसकी रविवार को छुट्टी नहीं होती। उसने बिस्तर पर बैठे बैठे बगल में हाथ फेरा। उसने शायद मानव को महसूस करने की कोशिश की। उसने एक लंबी सांस भरी। तभी दरवाजे पर घंटी बजी।

उसने अपनी अस्त व्यस्त मैक्सी को दुरुस्त किया। बालों को दोनों हाथों से संभालते हुए जुड़ा कसा। लेकिन उनमें तैल न लगा होने के कारण जुड़ा ढीला बंधा। इस बात पर ध्यान दिये बिना वह उठी और दरवाज़े की तरफ बढ़ी। दरवाजे पर दो कुंडियाँ लगी थीं। उसने अपना दम लगाते हुए जैसे तैसे उन्हें खोला और अपने सामने अक्षर को पाया। वह शर्मिला को देखते ही बोला- “शर्मिला दीदी... मैं कितनी बार आ चुका हूँ। और आप हैं कि दरवाजा खोल ही नहीं रही हैं। ...लाइये जल्दी से कूड़ा दीजिये...नीचे बड़ा भाई खड़ा रिक्शा लेकर..!” शर्मिला जो थकावट महसूस कर रही थी, ने अनमना चेहरा बनाते हुए कहा- “अक्षर अब तू भी डाँटेगा क्या? पता नहीं सनडे है। थकावट से नींद आ जाती है। सर्दियों में तो और। ...आजा(पीछे हटते हुए) घर में बैठ कुछ देर। चाय पिएगा। तू भी कितना मेहनती है। जब नया नया आया था तब कितना छुटकू सा था। आज तेरी लंबाई मेरी लंबाई से भी ऊपर जा रही है।” पीछे मुड़कर देखते हुए शर्मिला ने थोड़ा ज़िद्द करते हुए कहा- “आ भी जा। कार्ड भेजूँ!”

अक्षर ने बड़ा सा थैला बाहर रखते हुए रसोई की ओर रुख किया और फटाफट कूड़े की पोलिथीन उठाकर दरवाज़े की ओर लपका। शर्मिला ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई। अक्षर बाहर जाते हुए बोला- “दीदी मार्च में पेपर शुरू होंगे। इसलिए जल्दी जल्दी काम कर के मुझे पढ़ाई करनी होती है। जब आपकी लगातार छुट्टी होगी तब आऊँगा। आप चाय अच्छा बनाते हो।” ऐसा कहते हुए वह फटाफट सीढ़ियाँ उतरने लगा। शर्मिला दरवाज़े तक आई और अक्षर के कदमों की आवाज को सुनती रही। जब आवाज़ गायब हो गई तब वह दरवाजे की सिर्फ एक कुंडी लगाकर वापस अपने घर के बीच वाले हिस्से में खड़ी हो गई। उसने चारों तरफ नज़रें दौड़ाई। उसे लगा कि यह किसी अजनबी का घर है। फिर वह अपने सोने के कमरे में गई। बिस्तर की मुड़ी-तुड़ी बेतरतीब चादर और कंबल को देखकर उसे अजीब लगा। उसने सिर्फ कंबल ठीक किया और धड़ाम से सर्दी को महसूस करते हुए कंबल में घुस गई। बालों का ढीला जुड़ा खुल गया और वह आँखें बंद कर लेट गई। उसे याद आया कि इतनी अधिक सर्दी में वह मैक्सी में कैसे अभी तक रह गई थी। उसे अपने पर खिन्न आई। उसने अपनी करवट बदली और मानव के हिस्से पर अपना हाथ कंबल से निकालकर उसे सहलाने लगी। उसने अपनी करवट को फिर सीधा किया और आँखें बंद ही करे रही। चार साल पहले का एक दृश्य दिखा जिसमें वह मानव के साथ कोर्ट में शादी कर रही है। घर वालों में कोई नहीं है। महज कुछ दोस्त हैं। वह रजिस्टर पर दस्तख़त कर रही है। उसने नीली साड़ी पहनी है। मानव ने सफ़ेद कमीज़। दोनों गंभीर दिख रहे हैं। उसके चेहरे पर इस दृश्य को देखकर भी कोई भाव नहीं आया।  

 
सिरहाने के पास पड़ी छोटी मेज पर अपनी और मानव की शादी का फोटो फ्रेम रखा हुआ था। उसने चुपके से उस फोटो को निहारा। चार साल हो गए। वह हैरान हो गई। वह धप से अचानक उठकर बैठ गई। उसके बाल फिर से चेहरे के ऊपर आ गए। उसने गुस्से से उन्हें पीछे किया। वह बड़बड़ाई। अजीब मुसीबत हैं ये बाल। इनसे तो आज छुटकारा पाकर ही रहूँगी चाहे मानव कुछ भी कहता रहे। मैंने क्या उसकी पसंद की चीजों को ढोने का ठेका लिया हुआ है। वह लड़खड़ाती हुई कंबल से फुर्र से उठ खड़ी हुई। गुसलखाने की तरफ लपकी। न जाने उसे क्या याद आया और अलमारी की ओर मुड़ी। चर्र की आवाज़ हुई और हाथ में उसके एक कैंची नज़र आई। वह घुसी तो कैंची से कुछ खर्र खर्र काटने की आवाज़ आई और उसके बाद नल से गिरते हुए पानी का बाल्टी में अपना आयतन बनाना ही समझ आया। 

शर्मिला नहाकर जब बाहर निकली तब वह अपने आप को बहुत हल्का महसूस कर रही थी। वह सीधे आईने के सामने गई। उसने तौलिये से फिर से बालों का टपकता हुआ पानी पोंछा। वह पहली बार आज मुसकुराई। वह बहुत खुश हुई। उसने खुशी से एक उछाल लगाई और बोली- येएएए..! उसे सर्दी का अहसास हुआ। उसने अलमारी के चरमराते हुए दरवाजे को फिर खोला और मरून शाल निकाल कर जल्दी से अपने चारों ओर लपेट ली। इसके बाद गुसलखाने की तरफ जल्दी जल्दी गई। लंबे लबे कटे हुए बेजान बालों को रसोई में रखे कूड़े के बड़े डिब्बे में ऐसा पटका जैसे कोई बेहद घिन्न की वस्तु हो। उसे इस काम से फिर राहत महसूस हुई। 

वह सोने के कमरे में वापस लौटी। कंबल तय कर बिस्तर ठीक किया। वह कमरे से बाहर निकल ही रही थी तभी उसने शादी की फोटो को औंधे मुंह रख दिया। वह बड़बड़ाई- “चौबीस घंटे एक ही फ्रेम को देखकर कितनी अजब सा अनुभव होता है। ज़िंदगी भी बड़ी चिपचिपी हो जाती है। मानव को आने दो। रात को कहूँगी कोई नई फोटो फ्रेम करवा ले। बदलाव भी तो जरूरी है।” फिर कमरे की दीवारों पर नज़र फेरते हुए बोली- “इसका रंग भी बदलवा लेंगे। थोड़ी सर्दी कम हो जाये। बिस्तर के सामने वाली दीवार पर वॉन गॉग की सूरजमुखी वाली पेंटिंग लगाएंगे... बड़ी सी। क्या शानदार लगेगा कमरा फिर।” वह थोड़ा उत्साहित हो गई थी। उसे सर्दी महसूस हुई और उसने दीवार घड़ी पर नज़र दौड़ाई। अब तक बारह बजने में दस मिनट शेष थे। वह जल्दी जल्दी कमरे निकल कर रसोई की तरफ बढ़ी। अपने लिए चाय का पानी गैस जलाकर रखा। सब्ज़ी की छोटी से प्लास्टिक की टोकरी में से अदरक खोजकर बेलन से कपड़े पर रख कूट-कूट कर चाय के बरतन में डाल दी। उसने इसके बाद चीनी और चायपत्ती डाली। चाय थोड़ी देर में खोलने लगी। शर्मिला ने चाय के निखार को देखा। भूरी भूरी। दमकती। उसे खाना पकाना नहीं सुहाता पर चाय की तो उसे नशेबाजी है। उसने बड़ा सा चाय का मग लिया। उसमें सारी चाय उड़ेलकर वह सोने के कमरे के बाहर वाले बैठक में पहुँच गई। वहाँ सोफ़े पर वह आहिस्ता से बैठी। चाय को सामने ही रखी छोटी टेबल पर रखकर उसने दोनों पैर ऊपर कर पालथी बनाई। बाल अभी भी नम थे। शाल को कसकर ठीक से लपेटा। फिर मग उठाकर चाय की एक घूंट को अपने अंदर लिया। उसे बेहद अच्छा लगा। उसे लगा कि उसे कितने बरस हो गए हैं कहीं लौटे हुए। वह कहाँ से लौट रही है उसे मालूम नहीं चला। 


 
उसे हफ्ते के छ दिन तो गुम रहने का अहसास होता है। दिन दफ्तर में कट जाता है। कंप्यूटर की स्क्रीन कितनी उकताहट दे देती है। लेकिन जब महीने में बैंक में सैलरी का मैसेज आता है तब उसे अपनी मेहनत के ऊपर नाज होता है। ख़र्चे का दोनों बंटवारा करते हैं। ताकि दोनों एक दूसरे पर बोझ जैसे अहसास न छोड़ें। उसे अहसास हुआ कि घुटने मोड़े हुए उसे काफी देर हो गई है और दर्द हो रहा है। उसने पैर पसार दिये। चाय पीने के बाद उसे क़रार मिला। उसे कुछ खयाल आया कि वह कुछ करे। उसे लगा कि वह चिट्ठियाँ लिखना चाहती है। पर किसे? वह यह नहीं जानती। वह फटाफट उठी और अलमारी के नीचे दराज़ में खोजबीन करने लगी।
 
नीचे के दराज़ में इस खोजबीन के दौरान उसने सोचा- “मैंने अपनी रचनात्मकता को कितनी तहों में दबा दिया है। भूल गई हूँ कितना कुछ! उसके हाथ में धूल चढ़ीं कुछ किताबें आ गईं। कुछ उपन्यास। कुछ कहानियों की किताबें। उसके चेहरे पर दूसरी बार ख़ालिस मुस्कान उतर आई। उसे फिर से बेहद अच्छा लगा। बहुत अच्छा। शाल के एक किनारे से ही उसने उन किताबों की धूल हटाई। उसकी पसंद की सारी किताबें थीं। उसने कई पढ़ी भी थीं। पर उससे कोई गर कोई पूछे की कौन सी किताब में लिखा हुआ है तो उसकी ज़ुबान लड़खड़ा जाएगी। सुबह से दूसरी बार था जो उसने अपने आप को खोजा था। पहली दफा बाल काटने में दूसरी दफा धूल से सनी किताबों में।  

उसे तलब हुई कि वह फिर कुछ लिखे। पर किसे? उसे इस बार भी अहसास नहीं हुआ। उसने सारी किताबों को ठीक से साफ किया और सोने के कमरे में रखी कपड़ों की अलमारी में ऐसी जगह सजा आई कि जब भी वह अलमारी खोले उसे कपड़ों से पहले ये किताबें पहले दिखें। उसे खयाल आया कि मानव गुस्सा करेगा। उसने इस बात पर ध्यान नहीं दिया। सोचा- “जाने दो, वह कब मेरी बातों पर खुश होता है! जब देखो उसे कुछ कुछ न परेशानी सालती रहती है। वह हमेशा बाहर खुशी को खोजता है। खुशी को मैकडोनाल्ड और पिज्जा हट में खोजता है। महंगे कपड़ों पर टिकी दूसरों की भौंचक नज़रों में वह अपने को तलाशता है। कभी कभी मानव मुझे मेरा हमसाया नहीं लगता। बल्कि वह, वह साया बन रहा है जिससे कि पीछा छूटे।” उसने कमरे को फिर से चारों तरफ से देखा और मायूस होकर वापस सोफ़े के पास लौट आई। वह धड़ाम से सोफ़े पर बैठी न हो जैसे गिर पड़ी हो। थोड़ी देर बाद वह सोफ़े पर ही लेट गई।  

लेटे लेटे उसने छत के पंखें को कुछ मिनट तक घूरा। इस बीच वह कुछ सोच नहीं पाई। उसने पंखे की पंखुड़ियों पर नज़र दौड़ाई। कितनी धूल जमा थी। उसे घिन्न आई। उसे लगा कि वह अपने घर को कभी ठीक से जान समझ नहीं पाई। जिस बिल्डिंग में उनका यह फ्लैट है उसका नाम चाँद बिल्डिंग है। उसे तुरंत बिल्डिंग का नाम सोचकर हंसी आई। उसका यह फ्लैट उर्फ घर पांचवें माले पर है। शादी के अगले साल वह यहाँ रहने आई थी। तब वह काम नहीं करती थी। तब मानव पर ही सारी ज़िम्मेदारी थी। किस्तों को भरने के लिए और बेहतर ज़िंदगी के लिए उसने काम करना शुरू किया। 

वह उस समय ऐसी नहीं थी। वह गाती थी। झूमती थी। घूमने की लालच लिए वह अपने कुँवारेपन में कहाँ कहाँ नहीं भटक आई थी। उसे बाहर जाने के लिए किसी के साथ की ज़रूरत नहीं पड़ती थी। लोगों के बीच उसका दम घुट जाता था। उसे यह मालूम था कि खुद को कैसे चाहा जाता है। वह जानती थी कि वह किस क़िस्म की इंसान है। 

उसे मानव से प्यार था क्योंकि मानव भी उसे चाहता था। उसे लगा मानव भी एक इंसान ही है। सो उसने शादी के लिए हाँ कर दी। पर कहीं दिल में एक धुकधुकी बाक़ी रह गई कि क्या मानव सच में मुझे भी मानव समझेगा। पता नहीं शहर में रहने का श्राप है या फिर कर्मों का दोष कि वह चार साल के अंदर गुम हो चुकी है। वह धीरे-धीरे गुमशुदा हो रही है। उसे लेटे लेटे याद आया कि उसे खुद को खोजने की एक रिपोर्ट दर्ज़ करनी होगी, वह भी खुद के अन्तर्मन में। यही अलख उसे मानव के अन्तर्मन में भी जगानी होगी। 

उसे तीव्र तलब हुई कि वह एक चिट्ठी लिखे। इस बार उसे पता है कि उसे चिट्ठी किसे लिखनी होगी। वह तपाक से उठी और अलमारी के दराज से कॉपी निकाल लाई। उसने लिखा- “मैं भी कमबख़्त हूँ। कितना सोती हूँ! ज़िंदगी की नींद अब खुली है। लग रहा था कि मैं कितना सो गई हूँ कि अब उठना नामुमकिन है। पर नहीं कुछ मानसिक धक्के लगने ज़रूरी होते हैं। हमारा मन, हमारा तन और हमारी इंद्रिया कितना जगाती हैं पर हम... कान होते हुए भी बहरे हो चुके हैं। मुझे मानव के कंधे पर सिर रख आँखें बंद कर बैठे हुए कितना समय गुज़र गया है। न उसे होश रहता है और न मैं उसे तलाशती हूँ। मुझे होश ही नहीं  होता कि उस आदिम के तन मन में झांक आने का मौका खोजूँ। उसकी तरल कल्पना तक में मैं अब गायब हो चुकी हूँ। ...एक दूसरे में दिलचस्पियों का मर जाना ज़िंदगी में ऊब मन की पैदाइश करना होता है। एक ही जगह गर्दन टिकाये बैठे हैं। दफ़्तर की मुश्किलों को हम दोनों ख़ूबी के साथ हल कर लेते हैं पर अपनी ज़िंदगियों को हम कठिन सवाल में तब्दील कर रहे हैं।...।” 

शर्मिला अपने लिए लिखने वाली चिट्ठी को तीन घंटे तक लगातार लिखती रही। बदहवाश सी वह पेन को कागज पर चलाती रही। जब उसने दीवार पर टंगी घड़ी पर नज़र दौड़ाई तो वक़्त शाम के पाँच बजने की ओर जा रहा था। उसे ज़ोरों की भूख लगी। उसे याद आया कि उसने सुबह से सिर्फ एक प्याला चाय को ही गले से नीचे उतारा है। वह कॉपी और पेन को टेबल पर आराम से रखकर उठी और रसोई की तरफ बढ़ी। उसे पहली बार रसोई में बिखरे हुए सामान से और गंदगी से तेज़ बदबू का अहसास हुआ। उसने जल्दी से उस सर्दी वाले दिन में खिड़की खोली और साफ सफाई में तल्लीन हो गई। उसे लगभग 2 घंटे लगे इस काम में। उसे अपनी छोटी सी रसोई को साफ करके फिर से बहुत खुशी का अहसास हुआ। सुबह से तीसरी बार। अब उसने अपने लिए एक प्याली चावल लेकर ज़ायकेदार खिचड़ी बनाने की तैयारी की। इस दौरान उसने मोबाइल में आशिक़ी फिल्म के गाने डाउनलोड किए। उसने बस एक सनम चाहिए आशिक़ी के लिए गाने को बार बार सुना। खिचड़ी के पक जाने पर उसे एक प्लेट में रखकर वह वापस पेन और कॉपी के पास आ गई। उसने जब चम्मच से पहला खिचड़ी का कौर मुंह में लिया तब उसे अपने पर हैरानी हुई कि वह भी अच्छा खाना पका लेती है। वह फिर से बेहद खुश हुई। उसे लगा कि छुट्टी के दिन उसने अपने को पा लिया है। वह अपने को प्रेम करना फिर से जान गई है। 

इसी बीच पलंग के सिरहाने के पास छोटी मेज पर रखी अलार्म खड़ी तेज़ी से बज उठी। शर्मिला को अपने कंधे पर किसी के हाथ रखे जाने का अहसास हुआ। जाना पहचाना स्पर्श। “शर्मिला उठो...जाना नहीं है क्या...पाँच बज रहे हैं...फिर कहोगी देरी हो गई। मानव तुमने उठाया नहीं..!” वह झटके से उठ बैठी। मानव को लगा कोई डरावना सपना देखा है उसने। उसने शर्मिला को गले से लगाते हुए कहा- “कुछ नहीं हुआ। सपना देख रही थीं तुम शायद।” उसके माथे को चूमा। उसके माथे पर आए बालों को ठीक करते हुए बोला- “तुम्हारे बाल बेजान से हो गए हैं। कटवा क्यों नहीं लेतीं। ढोती रहती हो।” ...मानव कुछ बोलता जा रहा था। इधर शर्मिला अपने सपने के बारे में सोच सोच कर अपने पर हैरान हो रही थी। उसने मानव को और कसते हुए कहा- “हाँ अब बोझ नहीं ढोऊँगी! वह कुछ देर मानव में खोई रही। उसे लगा जैसे उस के अंदर सीने में एक रोशनी का गोला फूट रहा है। वह गुमशुदा होते होते बच गई।      
                         
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चित्र गूगल से साभार

Monday, 19 February 2018

पिंजड़ा तोड़- करेंगे पॉलिटिक्स और करेंगे प्यार तक और उससे आगे भी ...जीते रहो


पिंजड़ा तोड़ मुहिम को देखते हुए कुछ सवाल अपने आप ज़ेहन में आ जाते हैं:-
इसकी शुरुआत वजह, कब कैसे कब तक
पिंजड़ा तोड़ के मायने क्या हैं?
क्यों जरूरी है ?
इसकी प्रक्रिया क्या हैं?
इसका माध्यम क्या है?
क्या क्या निकल कर आ रहा है?
लोगों की क्या प्रतिक्रियाएँ हैं? (घर और पढ़ने वालों की भी)
अहसास क्या होते हैं?
किस तरह के व्यक्तिगत बदलाव समझ आते हैं खुद में?
दूसरों के अंदर क्या बदलाव अब दिखते हैं?
लड़कों का क्या सहयोग रहता है?
संस्थाओं मसलन कॉलेजों या विश्वविद्यालय का क्या और कैसा दबाव रहता है?

इन सवालों को जानना है तो एक बार गूगल पर जाकर पिंजड़ा तोड़ मुहिम के दिलचस्प वीडियो और तस्वीरें जरूर देखें। मुझे तो इस मुहिम से इश्क़ सा कुछ है इसलिए एक छोटा सा नोट लिखा है।





बात यह 100 टका सही है कि हमारा आसपास हमेशा गतिशील होता है। उसमें हलचल होती है। हमेशा कुछ न कुछ घट ही रहा होता है। यह हम पर होता है कि हम किन घटनाओं को देखते, जुड़ते, जूझते, सुलझाते, दूर भागते, नज़र चुराते हैं, हथियार डाल देते हैं, या फिर मैदान में अपनी शुरुआत को शुरू कर भीड़ जाते हैं।

कभी कभी हम तर्क और किताबों में इतने खो जाते हैं कि आसपास चल रही महत्वपूर्ण घटनाओं को समझ तो दूर उनकी पहचान करने से भी महरूम रह जाते हैं। अपनी बुद्धि और शोध को पॉलिश करने में हमें यह कतई नहीं भूलना चाहिए कि हम अपने को दर्ज़ ही नहीं कर पायें। किताबें उन लोगों ने ही अंजाम तक लिखी जिन लोगों ने अपने समय और उसकी हलचल को दर्ज़ कर लिया।

ऐसा ही एक विषय है जो अपने दिलचस्प रंगों और तौर तरीकों से कुछ लोगों द्वारा चलाया जा रहा है। मशीनों के जमाने में बदतमीजियाँ तो हो रही है पर न समझियाँ भी कुछ कम नहीं। बहुत ज़्यादा हो रही है। नारीवाद विषय या फेमिनिज़्म पर किताबों की रचना का प्रोडक्शन या उत्पादन खूब किया जा रहा है। लेकिन इन सब में नारी ही छूटती जा रही है। जीती जागती इंसान की फिक्र न के बराबर है और किताबों में उसकी शक्ल, सूरत, हैसियत और दिक्कत के नमूने गढ़े जा रहे हैं। है न अजीब?



दिल्ली शहर के कुछ विश्वविद्यालय की छात्राओं द्वारा चलाया जा रहा 'पिंजड़ातोड़ अभियान' अपने आप में एक महत्वपूर्ण और जीता जागता इंसानी समूह और गलत के खिलाफ के विद्रोह का एक दस्तावेज़ है। इसके बारे में टीवी पर कभी कभी एक या दो मिनट की कवरेज या झलक वाली खबर दिखाई जाती है। लेकिन हैरानी है कि इसे जितनी तवज्जो मिलनी चाहिए उतनी नहीं दी जाती। फिर भी यह दिन पर दिन बढ़ रहा है जो अच्छी बात है।

आज जब मशीन और इंटरनेट जैसी हाईटेक दुनिया में ज़िंदगी आसान और समान होनी चाहिए तब भी नतीजे और भी दुखद और चौंकाने वाले दिखलाई पड़ते हैं। जी हाँ 'द सेकंड सेक्स' बहुत अधिक जूझ रही है। अजीब किस्म के हालातों में पिंजड़ा तोड़ अभियान अपने अंदाज़ और विरोध की आवाज़ दर्ज़ भी करवा रहा है। यह सफर इतना आसान भी नहीं है।

इस अभियान की शुरुआत दिल्ली के (एक) विश्वविद्यालय की छात्राओं द्वारा की गई। एक बार फिर से लड़कियों  को घड़ी की सुइयों को दिखाया गया और पाबंदी के कानून लागू कर दिये गए। हॉस्टल में आने और जाने के वक़्त की निगरानी और रोक के आदेशों के तानाशाही फरमान जारी हुए। इसके पीछे की वजहें ये बताई गईं कि शहर में आपके साथ कोई भी हादसा हो सकता है और अगर किसी लड़की के साथ कुछ भी हुआ तो इसमें विश्वविद्यालय फंस सकता है। उसकी शाख पर असर पड़ेगा। इतना ही नहीं नाम भी खराब होगा।



यह बात बहुत अजीब और दुखद है कि जहां हम सुपर पावर बनने के सपने देख रहे हैं वहीं हम यह भी तय कर रहे हैं कि लड़कियों के हॉस्टल में लौटने का समय क्या होगा। आपको अजीब नहीं लगता? किसी की आज़ादी पर सरेआम ताला लगाने के समान यह बात है। इतना ही नहीं यह बात और भी हैरानी वाली है कि लड़कियों के संदर्भ में एक खास विषय की पढ़ाई की बात निश्चित की गई है। पढ़ाई में भी रसोई गैस की व्यवस्था गृह विज्ञान के द्वारा सेट कर दी गई है। दिल्ली शहर के ही एक कॉलेज में एक प्रोजेक्ट के दौरान लड़कियों के लिए उनकी लैब में समयसीमा तय कर दी। जब बिटिया पढ़ेगी ही नहीं तो आगे कैसे बढ़ेगी? सोचिए ये सारे सवाल। जरूरी हैं। अगर हमने अपने हिस्से की लड़ाई नहीं लड़ी तब आप इतिहास में एक धब्बा बनने के हकदार हैं।  

दिल्ली जैसे शहर में पढ़ने वाली छात्राओं के लिए तमाम तरह की एक रोक रूकावट की फेहरिश्त नज़र आ रही है तो सोच के भी डर लगता है कि देश के बाक़ी हिस्सों में क्या हाल होगा। समाज का परिवारों पर दबाव होता है। परिवारों का लड़कियों को 'अच्छी लड़की' में तब्दील करने अपना अलहदा अभियान है। साथ ही में 'इज्जत' जैसा शब्द भी कानों में डाला जाता है जो दिमाग में सेट होता जाता है। परिवार को एक इज्जत की जन्म जात घुट्टी का असर अपने सबसे खतरनाक तरीके से है। यह प्रभाव कुछ इस क़द्र है कि इस दबाव से कई लड़कियां उम्र भर नहीं निकल पातीं। ऐसे ही कई उदाहरण मिल जाएंगे। इसी दबाव का एक बड़ा और सार्वजनिक रूप स्कूल और कॉलेजों में भी जारी है। क्योंकि शहर सुरक्षित नहीं है, क्योंकि लोग अच्छे नहीं है, क्योंकि सरकार को मुआवज़ा देने के अलावा कुछ नहीं आता, क्योंकि पुलिस कुछ नहीं कर सकती इसलिए कछुए सा खोल बनाइये और बाहर मत निकलिए। बाकी लोग आपको नुकसान पहुंचा सकते हैं इसलिए आप फलां समय तक वापस लौट आएं। अगर आपके साथ कोई हादसा होता है तो शोर होगा, पचड़ा होगा। अच्छी और अच्छे घर की लड़कियां देर रात तक घुमा नहीं करतीं वाला पंच लाइन मुफ्त में पकड़ा दिया जाएगा।

आजकल पिंजड़ा तोड़ की नई मुहिम करेंगे पॉलिटिक्स और करेंगे प्यार है। इसलिए यह फिर से सुर्खियों में है और एक ऐसे स्पेस के रूप में दिख रहा है जहां आपको सुनना ही होगा।


 

Wednesday, 14 February 2018

संस्कृति और साड़ी

सव्यसाची वाली खबर पढ़ी जाये या फिर दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्रा की! दोनों ही ख़बरें सेकंड सेक्स से जुड़ी जरूर है पर इनको अंजाम लोगों की कूड़ेदान वाली सोच ने ही दिया है। छात्रा बस में सफर कर रही थी और जब एक सनकी उसे टॉर्चर कर रहा था तब उसने खुद आवाज़ उठाई पर बस में कोई नहीं बोला। यह एक उदाहरण है कि समाज के तौर पर हम मर रहे हैं। हालात ये हैं कि दिल्ली में जो अपना सा शहर है, बाहर जाकर पूरे दिन बिताना बिना मतलब एक ज़ंग लड़कर आने जैसा है। सुबह और शाम को दिल्ली की बसों में हम सफर करने वाले आम लोग किसी तरह का संघर्ष कर रहे होते हैं, यह सिर्फ हम ही जानते हैं। दिल्ली में सफर, सफर जैसा नहीं बल्कि सफर जैसा है। 

परसों जब मैंने नैरोजी नगर से 442 नंबर की बस करीब पौने चार बजे शाम में ली तब दो घटनाएँ बस में हुईं जिन्हों ने मुझे चौंकाया नहीं। बल्कि ऐसी घटनाओं की आदत सी लग गई है। दाहिने ओर की दोनों  सीटें जो निर्भया हादसे के बाद महिलाओं को शांत होने के लिए दी गई थीं उन दोनों सीटों पर दो हट्टे कट्टे व्यक्ति शान से बैठे हुए थे। ऊपर जहां महिलाएं लिखा होता है उसे काले मार्कर से काट कर अंग्रेज़ी में MEN लिखा गया था। जब दो महिलाओं ने जो काफी बुजुर्ग थीं, ने उनसे उठने को कहा तो वे दोनों अकड़ गए और उन्हें उंगली से ऊपर इशारा करने लगे। भीड़ में किसी ने पीछे से बोला इन औरतों को तो सब कुछ चाहिए...इस पंक्ति को सुनकर भी मुझे हैरानी नहीं हुई। इसके बाद बस में सफ़दर जंग अस्पताल और एंड्यूरूज़ गंज से बहुत से लोग चढ़े, जिससे बस में बेहद भीड़ बढ़ चली। लोग कसमस खड़े थे। औरतें जैसे तैसे खड़े होने की जगह बनाने की कोशिश कर रही थीं। 



इसी हाल में दूसरी घटना घटी जब एक महिला, जो क़रीब पचास साल की रही होंगी आकर मेरे बगल में खड़ी हुईं। वह काफी हाँफ रही थीं। एक बैठी हुई लड़की ने उन्हें सीट देने की कोशिश की पर वे बोली- "संत नगर उतरना है। कोई बात नहीं पाँच मिनट के लिए क्या बैठूँ!" इतने में महिला के पीछे एक 37-38 साल का आदमी ज़बरन चिपकता हुआ दिखा जो बेहद भयानक बात दृश्य था। उनके दूसरी ओर एक और व्यक्ति भीड़ का नाजायज़ फायदा उठाते हुए अपनी कोहनियों को उनकी छाती से जबरन टिका रहा था। मुझे नहीं मालूम वह क्यों नहीं बोलीं पर मेरा खून पूरा खौल गया था और मैं चिल्ला पड़ी- "ठीक से खड़े नहीं हो सकते? क्या चिपके जा रहे हो?" हालांकि मेरा बहुत हल्का सा विरोध उन्हें दुरुस्त कर गया। लेकिन ऐसे हालातों में बहुत गुस्सा आता है और शायद मेरे पास कोई बेंत हो तो मैं उसका इस्तेमाल इन सनकियों पर कर भी दूँ, बुद्ध से माफी मांगते हुए।  

लगभग हर लड़की और औरत के साथ इस तरह की घटनाएँ रोज़ ही बसों में होती रहती हैं। मैं भी उनमें से एक हूँ। इन हरकतों की आवृत्ति इतनी अधिक है कि कई बार बहुत सी लड़कियां या औरतें बोलने से भी परहेज़ करती हैं।  एक  वजह  यह भी कि शिकायत पर तुरंत किसी भी तरह का एक्शन नहीं लिया जाता। या यूं कहूँ कि कुछ भी नहीं होता तो कई लोग कुछ न कहना ही मुनासिब समझते हैं। हम लड़कियों में तो एक डायलॉग मशहूर है - 'इग्नोर ही मारो!' इस से समझा जा सकता है कि हमारी व्यवस्था कितनी खराब है या फिर हमारे समाज में दीमक अच्छी तरह से लग चुकी है।

तसलीमा नसरीन के ट्वीट को भी मैं काफी देर से समझने की कोशिश कर रही हूँ लेकिन मुझे लगता है कि वह गलत हैं। उनके मुताबिक़ यह अपराध थोड़ा कम स्तर वाला है। इसके संदर्भ में उन्हो ने less victim जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया है। यह भयानक है। उसने जिसने कितनी ही किताबों में औरत के नज़रियों का रखा है। मुझे लगता है उन्हें अपने आप को उस लड़की की जगह रख कर सोचना चाहिए। वह एक लेखिका हैं और उन्हें ऐसा करने में परेशानी नहीं होनी चाहिए। उन्हें मालूम होना चाहिए कि उनका इस तरह का बयान बेहद खराब है।


दूसरी अहम बात मशहूर डिज़ाइनर सव्यसाची से जुड़ी है, जिन्होने ऐसी बात की है जिससे मुझे इतनी शर्म आ रही है कि मैं यह पोस्ट भी उसी शर्म में लिख रही हूँ। सच में मुझे शर्म आती है जिस आदमी को यह लगता है कि वे महिलाएं या लड़कियां जो साड़ी पहनना नहीं जानती, उन्हें खुद पर शर्म आनी चाहिये। लो जी आ गई शर्म! मैंने आज तक साड़ी नहीं पहनी और न ही मुझे आगे इसका कोई शौकिया शौक है। उनके मुताबिक़ साड़ी संस्कृति का हिस्सा है। जब  लोग भारतीय महिला जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं तब दिमाग में कतई साड़ी नहीं आती। न ही किसी एक महिला की छवि आती है। भारतीय महिला मतलब पूरब, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण सारी जगहों की औरतें। मैरी कॉम से लेकर पीवी सिंधु जैसी खिलाड़ियों का सोचती हूँ तब उनकी वही छवि दिखाई देती है जो वे खेल के मैदान में पहनती हैं या फिर जिस खेल के लिए वे मशहूर हैं, वही छवि समझ आती है।

मैंने जिस कॉलेज से पढ़ाई की है उस कॉलेज में अच्छी संख्या में उत्तर-पूर्व  के साथी थे और किसी भी तरह के सांस्कृतिक कार्यक्रम में शानदार प्रस्तुति देते थे। उस समय जो वे लिबास पहनते थे, वे साड़ी नहीं बल्कि उनके पारंपरिक लिबास होते थे। हर रंग में। आँखों को सुकून देने वाले। फिर सव्यसाची के दिमाग में साड़ी का कीड़ा क्यों कुलबुला रहा है? पंजाबी सूट उन्हें क्यों नहीं दिखाई देता? कश्मीरी पहनावे में क्यों उन्हें भारतीय महिला नहीं दिखती? क्यों उन्हें जींस पहनी हुई लड़की में संस्कृति की महक नहीं आती? क्या आधुनिक या आरामदायक पोशाक में संस्कृति नहीं बसती। क्या यही जरूरी है कि हाथ में कड़छी ली हुई और पाँच मीटर साड़ी में लिपटी रसोई में खड़ी औरत में ही भारतीय संस्कृति रहती है?

इन उपर्युक्त बातों में मैंने साड़ी परिधान की आलोचना नहीं की है। जिसे जो पसंद हो वे, वही पहनावा पहने। लोगों में इतनी सामान्य बुद्धि तो जरूर है कि उन्हें कब क्या पहनना है। इसलिए सव्यसाची यह कतई न कहें कि जिसे साड़ी बांधनी नहीं आती उन्हें शर्म आनी चाहिए। वे जिन मुट्ठी भर लोगों के लिए साड़ी डिज़ाइन करते हैं उन्हें ही हजारों रुपयों में बेचे और अपना कारोबार बनाए रखें। 

संस्कृति से जुड़े लिबास क्या हैं? यह सवाल भी उठना चाहिए। क्योंकर साड़ी हमारी संस्कृति की निशानी है? क्या सव्यसाची को नहीं पता कि बहुत सी कामगार महिलाएं साड़ी में पैर फँसने के दौरान बसों में, सीढ़ियाँ  चढ़ते समय, मोटर साईकिल में पल्लू या दुपट्टा फँसने  से दुर्घटनाओं की शिकार हो जाती हैं? इस तरह की घटनाओं के बारे में क्या कहा जाये? महिलाएं साड़ी में अच्छी लगती हैं, लंबे बाल में अच्छी लगती हैं, ढके कपड़ों में अच्छी लगती हैं...लड़कियों के मेहँदी वाले हाथ अच्छे लगते हैं, काजल वाली आँखें अच्छी लगती हैं, पतली कमर अच्छी लगती हैं, छातियों में अधिक उभार हो तो वे औरतें अच्छी लगती हैं, लड़कियों को गोरा होना ही चाहिए, उन्हें ही निखार की ज़रूरत होती है, उन्हें सुशील होना, उनकी आवाज़ सुरीली होनी चाहिए... मतलब किसी ऐसे पिटारे की कल्पना की गई है कि जो मर्ज़ी आए उड़ेल दिया जाये। यार अब बस करो, थोड़ा सांस ले लेने दो। छोड़ दो लोगों को  जिसे  जो पहनना  है  उसे वह पहनने दो। प्रलय नहीं आ गई अगर किसी को साड़ी बांधनी नहीं आती।

देशभक्ति की धारा में बहकर शायद वे ऐसा बयान दे गए। लेकिन उन्हें समझ आना चाहिए कि विचार रखने के बहाने विचार थोपे नहीं जाते। उन्हें अपने बयान का अर्थ समझ आ गया है, इसलिए वे अब सफाई भी दे रहे हैं। मुझे लगता है कि अगर वास्तव में आपको महिलाओं से जुड़े मुद्दे या पहनावे पर अपनी बात रखनी है तब बाकी महत्वपूर्ण मुद्दों पर भी रखें। सुरक्षा पर, उनके आर्थिक हालातों पर, नए अवसरों पर, शिक्षा और स्वास्थ्य पर आदि ढेरों मुद्दे हैं मौजूद हैं। क्यों नहीं आप सर्द रातों में बंगाल या किसी गाँव में जाकर गरीब औरतों को साड़ी का तोहफा बाँट आते? यह आपके लिए बहुत अच्छा रहेगा। क्यों हम औरतें रहेंगी तभी तो आपकी संस्कृति भी ज़िंदा होगी! हालात तो यह है कि बच्चियाँ भूख में मर रही हैं और आप हैं कि शर्म की बात रहे हैं! 







 

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