Monday, 19 February 2018

पिंजड़ा तोड़- करेंगे पॉलिटिक्स और करेंगे प्यार तक और उससे आगे भी ...जीते रहो


पिंजड़ा तोड़ मुहिम को देखते हुए कुछ सवाल अपने आप ज़ेहन में आ जाते हैं:-
इसकी शुरुआत वजह, कब कैसे कब तक
पिंजड़ा तोड़ के मायने क्या हैं?
क्यों जरूरी है ?
इसकी प्रक्रिया क्या हैं?
इसका माध्यम क्या है?
क्या क्या निकल कर आ रहा है?
लोगों की क्या प्रतिक्रियाएँ हैं? (घर और पढ़ने वालों की भी)
अहसास क्या होते हैं?
किस तरह के व्यक्तिगत बदलाव समझ आते हैं खुद में?
दूसरों के अंदर क्या बदलाव अब दिखते हैं?
लड़कों का क्या सहयोग रहता है?
संस्थाओं मसलन कॉलेजों या विश्वविद्यालय का क्या और कैसा दबाव रहता है?

इन सवालों को जानना है तो एक बार गूगल पर जाकर पिंजड़ा तोड़ मुहिम के दिलचस्प वीडियो और तस्वीरें जरूर देखें। मुझे तो इस मुहिम से इश्क़ सा कुछ है इसलिए एक छोटा सा नोट लिखा है।





बात यह 100 टका सही है कि हमारा आसपास हमेशा गतिशील होता है। उसमें हलचल होती है। हमेशा कुछ न कुछ घट ही रहा होता है। यह हम पर होता है कि हम किन घटनाओं को देखते, जुड़ते, जूझते, सुलझाते, दूर भागते, नज़र चुराते हैं, हथियार डाल देते हैं, या फिर मैदान में अपनी शुरुआत को शुरू कर भीड़ जाते हैं।

कभी कभी हम तर्क और किताबों में इतने खो जाते हैं कि आसपास चल रही महत्वपूर्ण घटनाओं को समझ तो दूर उनकी पहचान करने से भी महरूम रह जाते हैं। अपनी बुद्धि और शोध को पॉलिश करने में हमें यह कतई नहीं भूलना चाहिए कि हम अपने को दर्ज़ ही नहीं कर पायें। किताबें उन लोगों ने ही अंजाम तक लिखी जिन लोगों ने अपने समय और उसकी हलचल को दर्ज़ कर लिया।

ऐसा ही एक विषय है जो अपने दिलचस्प रंगों और तौर तरीकों से कुछ लोगों द्वारा चलाया जा रहा है। मशीनों के जमाने में बदतमीजियाँ तो हो रही है पर न समझियाँ भी कुछ कम नहीं। बहुत ज़्यादा हो रही है। नारीवाद विषय या फेमिनिज़्म पर किताबों की रचना का प्रोडक्शन या उत्पादन खूब किया जा रहा है। लेकिन इन सब में नारी ही छूटती जा रही है। जीती जागती इंसान की फिक्र न के बराबर है और किताबों में उसकी शक्ल, सूरत, हैसियत और दिक्कत के नमूने गढ़े जा रहे हैं। है न अजीब?



दिल्ली शहर के कुछ विश्वविद्यालय की छात्राओं द्वारा चलाया जा रहा 'पिंजड़ातोड़ अभियान' अपने आप में एक महत्वपूर्ण और जीता जागता इंसानी समूह और गलत के खिलाफ के विद्रोह का एक दस्तावेज़ है। इसके बारे में टीवी पर कभी कभी एक या दो मिनट की कवरेज या झलक वाली खबर दिखाई जाती है। लेकिन हैरानी है कि इसे जितनी तवज्जो मिलनी चाहिए उतनी नहीं दी जाती। फिर भी यह दिन पर दिन बढ़ रहा है जो अच्छी बात है।

आज जब मशीन और इंटरनेट जैसी हाईटेक दुनिया में ज़िंदगी आसान और समान होनी चाहिए तब भी नतीजे और भी दुखद और चौंकाने वाले दिखलाई पड़ते हैं। जी हाँ 'द सेकंड सेक्स' बहुत अधिक जूझ रही है। अजीब किस्म के हालातों में पिंजड़ा तोड़ अभियान अपने अंदाज़ और विरोध की आवाज़ दर्ज़ भी करवा रहा है। यह सफर इतना आसान भी नहीं है।

इस अभियान की शुरुआत दिल्ली के (एक) विश्वविद्यालय की छात्राओं द्वारा की गई। एक बार फिर से लड़कियों  को घड़ी की सुइयों को दिखाया गया और पाबंदी के कानून लागू कर दिये गए। हॉस्टल में आने और जाने के वक़्त की निगरानी और रोक के आदेशों के तानाशाही फरमान जारी हुए। इसके पीछे की वजहें ये बताई गईं कि शहर में आपके साथ कोई भी हादसा हो सकता है और अगर किसी लड़की के साथ कुछ भी हुआ तो इसमें विश्वविद्यालय फंस सकता है। उसकी शाख पर असर पड़ेगा। इतना ही नहीं नाम भी खराब होगा।



यह बात बहुत अजीब और दुखद है कि जहां हम सुपर पावर बनने के सपने देख रहे हैं वहीं हम यह भी तय कर रहे हैं कि लड़कियों के हॉस्टल में लौटने का समय क्या होगा। आपको अजीब नहीं लगता? किसी की आज़ादी पर सरेआम ताला लगाने के समान यह बात है। इतना ही नहीं यह बात और भी हैरानी वाली है कि लड़कियों के संदर्भ में एक खास विषय की पढ़ाई की बात निश्चित की गई है। पढ़ाई में भी रसोई गैस की व्यवस्था गृह विज्ञान के द्वारा सेट कर दी गई है। दिल्ली शहर के ही एक कॉलेज में एक प्रोजेक्ट के दौरान लड़कियों के लिए उनकी लैब में समयसीमा तय कर दी। जब बिटिया पढ़ेगी ही नहीं तो आगे कैसे बढ़ेगी? सोचिए ये सारे सवाल। जरूरी हैं। अगर हमने अपने हिस्से की लड़ाई नहीं लड़ी तब आप इतिहास में एक धब्बा बनने के हकदार हैं।  

दिल्ली जैसे शहर में पढ़ने वाली छात्राओं के लिए तमाम तरह की एक रोक रूकावट की फेहरिश्त नज़र आ रही है तो सोच के भी डर लगता है कि देश के बाक़ी हिस्सों में क्या हाल होगा। समाज का परिवारों पर दबाव होता है। परिवारों का लड़कियों को 'अच्छी लड़की' में तब्दील करने अपना अलहदा अभियान है। साथ ही में 'इज्जत' जैसा शब्द भी कानों में डाला जाता है जो दिमाग में सेट होता जाता है। परिवार को एक इज्जत की जन्म जात घुट्टी का असर अपने सबसे खतरनाक तरीके से है। यह प्रभाव कुछ इस क़द्र है कि इस दबाव से कई लड़कियां उम्र भर नहीं निकल पातीं। ऐसे ही कई उदाहरण मिल जाएंगे। इसी दबाव का एक बड़ा और सार्वजनिक रूप स्कूल और कॉलेजों में भी जारी है। क्योंकि शहर सुरक्षित नहीं है, क्योंकि लोग अच्छे नहीं है, क्योंकि सरकार को मुआवज़ा देने के अलावा कुछ नहीं आता, क्योंकि पुलिस कुछ नहीं कर सकती इसलिए कछुए सा खोल बनाइये और बाहर मत निकलिए। बाकी लोग आपको नुकसान पहुंचा सकते हैं इसलिए आप फलां समय तक वापस लौट आएं। अगर आपके साथ कोई हादसा होता है तो शोर होगा, पचड़ा होगा। अच्छी और अच्छे घर की लड़कियां देर रात तक घुमा नहीं करतीं वाला पंच लाइन मुफ्त में पकड़ा दिया जाएगा।

आजकल पिंजड़ा तोड़ की नई मुहिम करेंगे पॉलिटिक्स और करेंगे प्यार है। इसलिए यह फिर से सुर्खियों में है और एक ऐसे स्पेस के रूप में दिख रहा है जहां आपको सुनना ही होगा।


 

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