Wednesday, 15 December 2021

गुमशुदा स्त्रियों का कोलाज

 

गुमशुदा स्त्रियों का कोलाज

(1857 की क्रांति में महिलाओं की भूमिका)


 

सारांश: वर्तमान समय में स्त्रीवादी दृष्टि से लिखी जा रही क़िताबों को यदि कुछ देर के लिए छोड़ दें तो इतिहास में शामिल सक्रिय स्त्रियों की तमाम गतिविधियों का बेहद कम संज्ञान लिया गया है. कुछ स्त्रियों को (जिनका क़द इतना ऊँचा था और बगैर उनके, इतिहास को लिखने वालों का काम नहीं चल पाता था) ज़रूर किताबों में थोड़ी जगह दी गई है. लेकिन जिस मात्रा और स्मृतियों की गहराई से ऐतिहासिक पुरुष किरदारों को याद कर लिया जाता है उतना स्त्रियों के बारे में नहीं होता. स्कूलों, भवनों, अस्पतालों और संस्थानों के नामों में स्त्रियों के योगदान को रेखांकित करने की सरकारी कोशिशों से परे स्त्रियों के ऐतिहासिक योगदानों को रेखांकित करने की ज़रूरत है. किसी भी तरह के इतिहास में यदि कोई एक जाति भी छूट जाती है तब वह इतिहास बार-बार ख़ाली जगहों को भरे जाने की माँग करता है. भारतीय इतिहास में स्त्रियाँ, दलित, बच्चे, आम लोगों की छवियाँ राजाओं के इतिहास में दबी हुई हैं. संभवतः ये अभी भी साँस ले रही हैं. 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में शामिल स्त्रियों की वर्तमान समय में खोज हो रही है. इसी के चलते नयी पीढ़ी अब इन स्त्रियों को जान पा रही है. 

बीज शब्द: 1857 की क्रांति, स्त्रियाँ, आज़ादी, भागीदारी, गुमशुदा, इतिहास

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एक ज़रूरी और दिलचस्प किताब, ‘भारत एक खोज’ में ‘भारतमाता’ से संबंधित एक वृत्तांत शामिल है. नेहरु लिखते हैं कि जब वे जनसभाओं में वे जाते थे तब लोग ‘भारतमाता की जय’ कहकर स्वागत करते थे. तब वे लोगों से प्रश्न कर देते थे कि ये भारतमाता कौन है? उस दौर में लोग जिससे भी भारत की समझ या जुड़ाव रखते थे, बता देते थे कि यही ‘भारतमाता’ है.[1] इस उद्धरण से इतना तो तय है कि उस समय साधारण ‘जन के मन’ अपने घर या ग्रामीण कुटिया वाली ज़मीन को ही ‘भारतमाता’ का स्वरुप मान थे. इस मातृभूमि वाली कल्पना में गाँव भी थे. नदियाँ, मिट्टी, और प्रकृति भी. ये सभी स्त्रीलिंग में समझी जाने वाली प्रजाति है. कहा जा सकता है कि स्त्रियाँ आदर्श वाली कल्पना के क्षेत्र में कहीं ऊँची जगहों पर थीं. फिर ऐसी क्या वजह रही है कि इन भारतमाताओं को इतिहास के नायकों के गुणगान में कहीं छुपा दिया गया? हमें यह समझना होगा कि पुरुषत्व नज़र कला, विज्ञान, इतिहास आदि में एक जमी हुई प्रवृत्ति है. यह बहुत गहराई में इसलिए वर्तमान में भी जूझना जारी है.

ग़दर का इतिहास हो या अन्य ऐतिहासिक पुस्तकें, इतिहासकारों के लिए स्त्रियाँ उनकी इतिहास की किताबों में ‘गेस्ट अपीयरेंस’ की तरह आती हैं. अक्सर किताबों में ‘स्त्रियों की दशा’ अथवा ‘महिलाओं का योगदान’ जैसे स्तंभ बनाए जाते हैं और आधी-आबादी का इतिहास तोड़-मरोड़कर उसमें फिट करने का प्रयास किया जाता है. ऐसा सभी कालों के साथ है. प्राचीन और मध्यकालीन भारत में उंगलियों पर गिन लेने लायक ही महिलाओं का संज्ञान लिया गया है. इतिहासकारों का यह मानना है कि स्त्रियों से जुड़े बहुत सारे तथ्य अथवा प्रमाण नहीं मिलते. इसलिए बहुत-सी महिलाएं इतिहास-लेखन में दाख़िल ही नहीं हो पाई हैं. दूसरा तर्क यह है कि इतिहास के क्षेत्र में अभी बहुत काम करने की आवश्यकता है. इन तर्कों में वज़न भी है. समाज में जब जिस तरह की स्थिति रही है वहां ब्राह्मणवादी पितृसत्ता ने स्त्रियों को क़ैद किया है. यह क़ैद लंबी उम्र की है.

ग़दर 1857 में जिन स्त्रियों के नाम किताबों में खोजते-खोजते मिले, उनमें अज़ीज़नबाई, झलकारी बाई, लक्ष्मीबाई, जीनत महल, हज़रत महल, अवंतीबाई, रानी चेनम्मा, उदादेवी, रानी जिन्दान, बख्तावरी, इंद्रा कौर, जमीला खान, मान कौर, राहिमी कौर, शोभा देवी, आशा देवी, भगवती देवी त्यागी आदि शामिल हैं. एक दो स्त्रियों पर तो उपन्यास और कविताओं की काफी उपलब्धता है परंतु बाक़ी स्त्रियों के रेखाचित्र और संग्राम में उनकी सक्रिय भागेदारी के वृत्तान्त जल्दी नहीं मिलते. साधारण स्त्रियों के बारे में लोक में जनश्रुतियाँ मिलती हैं. अतः इन स्त्रियों की भूमिका को समझने के लिए उस दौर में प्रवेश करना होगा.         

अज़ीज़नबाई उन भूली-बिसरी शख्सियतों में शुमार कर दी गई हैं जिनमें बाक़ी गुमशुदा औरतें भी साँस ले रही हैं. जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय की ‘सेंटर फॉर विमेंस स्टडीज’ में एसोसिएट प्रोफेसर लता सिंह ने, ‘मेकिंग द मार्जिन विज़िबल’ नामक लेख में अज़ीज़नबाई को गुमनाम होने से बचाने का प्रयास किया है. लेख में वे उनके बारे में अच्छा विवरण देते हुए लिखती हैं, “ऐसा माना जाता है कि इनका जन्म 1832 में हुआ था. इन्हें कम उम्र में लखनऊ के सतरंगी महल में लाया गया. लेकिन बाद में इन्होंने लखनऊ को छोड़ दिया जो हर तरह से एक सांस्कृतिक शहर था. वहां सारी तवायफ़ें ज़िंदगी का लुत्फ़ लेती थीं. यह स्पष्ट नहीं है क्यों इन्होंने छावनी वाला शहर कानपुर चुना जहाँ काफ़ी मात्रा में बाज़ार थे.” इस छोटे से वृत्तान्त से यह तो एहसास हो ही जाता है कि स्वतंत्र निर्णय लेने में अज़ीज़नबाई को कोई बाधा नहीं थी. लेखिका आगे बताती हैं, “कानपुर में रहने के निर्णय के पीछे शायद एक कारण अज़ीज़न के मन में आज़ादी के लिए तीव्र भावना (strong passion for independence) थी. नाना साहेब और अज़ीमुल्लाह खान से इनका अच्छा ख़ासा परिचय था.”[2] लोगों ने जो अपनी आँखों से देखा उसके मुताबिक़ उनके पास पिस्तौल रहती थी. ये सैनिक कपड़ों में बख्तरबंद रहती थीं. इस लेख से यह भी पता चलता है कि अज़ीज़न ब्रितानियों के लिए उन षड्यंत्रकारी विद्रोहियों में से एक थीं जिन्होंने लगातार अपने धन और जगहों का इस्तेमाल षड्यंत्र करने के लिए किया. लता सिंह के इस लेख में एक अन्य स्त्री हुसैनी का नाम भी आता है. बीबीघर में हुए जनसंहार में हुसैनी ने संभवतः ब्रितानी बच्चों और औरतों को मारने के आदेश दिए थे.   

इनकी रहने की जगहों को तवायफ़ख़ाना कहा जाता था. बाद में आगे चलकर ‘कोठा’ शब्द बनाया गया. कालांतर में इस शब्द को एक ख़राब जगह के नाम से समझा जाने लगा. पर 1857 में यही जगहें विद्रोहियों के लिए सुरक्षित जगहें हुआ करती थीं. यहाँ वे ब्रितानियों से छुपते थे और अपनी तमाम योजनाओं को बनाया करते थे.[3] इतना ही नहीं इन औरतों का समाज में जो रुतबा था, वह काफ़ी ऊँचा था. इनके पास संपत्ति हुआ करती थी और अपने फ़न के दम पर मशहूर भी हुआ करती थीं. इतिहासकारों ने इन खोई हुई औरतों पर जिन साक्ष्यों को जुटाया है उनसे पता चलता है कि इन हुनरमंद औरतों ने विद्रोहियों को वित्तीय सहायता भी दी थी. वीना तलवार ओल्डेनबर्ग्स ने एक निबंध में शोध के आधार पर बताया है कि 1858 से 1877 के तवायफें सबसे अधिक नागरिक कर अदा करने वाले लोगों में से थीं. शहर में व्यक्तिगत तौर पर अत्यधिक आय प्राप्त करने वाली यही औरतें थीं.[4] अंग्रेजों द्वारा संग्राम को दबा देने के बाद के वर्षों में स्त्रियों की शक्ति और कला में ह्रास देखने को मिलता है. अंग्रेज़ों ने 1857 के ग़दर के बाद उन जगहों और लोगों की बारीकी से पहचान की जो आगे उनके शासन के लिए ख़तरा बन सकते थे. यही सबब था कि उन्होंने इन तवायफ़ों और इनकी कला को कमतर करने के प्रयास भविष्य में किए.

ऐसा माना जाता है कि अवध के नवाब वाजिदअली शाह की बेग़म हज़रत महल, उनकी बेग़म बनने से पहले पेशे से तवायफ़ थीं.[5] इनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी और नवाब ने इन्हें अपनाया. पिछले साल देश के उपराष्ट्रपति श्री वेंकैया नायडू ने इनके बारे में एक फेसबुक पोस्ट लिखा था-

“वो रुतबा पाया था हमने वतन में,

उसी की बदौलत हुई ये लड़ाई

अदू (दुश्मन) बनकर आए जो थे दोस्त अपने,

ना थी जिसकी उम्मीद की वो बुराई”[6]

 

इन उपर्युक्त पंक्तियों को हज़रत महल द्वारा लिखी हुई बताया गया है. हज़रत महल के बारे में जो जानकारी उपलब्ध है, लगभग वही उपराष्ट्रपति भी इस पोस्ट द्वारा लिख रहे हैं. वे आगे इनके बारे में लिखते हैं-

 

“अपनी नेतृत्व क्षमता और सैन्य कौशल के बल पर, उन्होंने थोड़े समय में अवध की जनता की मदद से एक बड़ी सेना खड़ी की जिसने आगे चलकर अंग्रेज़ों को टक्कर दी. इस युद्ध में उनका युद्ध कौशल उभर कर आया...”[7] इस विवरण से बेग़म हज़रत की कुशलता का पता चलता है. इसकी भी कल्पना की जा सकती है कि बेग़म को देखकर कितनी साधारण स्त्रियों ने इस विद्रोह में उनका साथ दिया होगा! अफ़सोस कि वे साधारण स्त्रियाँ खो चुकी हैं.

 

इसमें झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का नाम साहित्य, इतिहास और समाज में प्रमुखता से लिया जाता है. जॉन लैंग ने अपनी पुस्तक, ‘वॉन्डरिंग्स इन इंडिया एंड अदर स्केचेज ऑफ़ लाइफ इन हिंदुस्तान’ में झाँसी की रानी से, विद्रोह के पहले हुई मुलाक़ात का ज़िक्र किया है. एक जगह जब वे राजगद्दी के लिए अर्ज़ी दाख़िल करने के लिए कहते हैं और साथ ही साठ हज़ार रुपए की पेंशन की रकम लेने का सुझाव देते हैं तब रानी उत्साह से मना कर कहती हैं, “मैं अपनी झाँसी नहीं दूंगी.”[8] लक्ष्मीबाई ने न सिर्फ अंग्रेज़ों से सामना किया बल्कि स्थानीय छोटे शासकों को भी खदेड़ा. 17 जून 1858 में लड़ते हुए झाँसी की रानी को मार दिया गया. झाँसी का किसी भी तरह अंग्रेज़ों के सामने समर्पण उन्हें कतई मंज़ूर न था.

 

ऐसी ही पंजाब से ताल्लुक रखने वाली एक अन्य रानी, रानी जिन्दान के बारे में भी बहादुरी वाला इतिहास उभर कर आता है. ग़दर का इतिहास लिखने वालों ने लिखा है कि जिन्दान गवर्मेंट के ख़िलाफ़ षड़यंत्र रच रही थीं और हेनरी लॉरेंस को जान से मरवाने का जाल उसने बनाया है.[9] महारानी का देश निकाला भी आगे चलकर सिक्ख लड़ाई का एक कारण बना. ख़ालसा की सेना के सैनिकों के मन में इनके प्रति स्नेह और सम्मान था. पर अंग्रेज़ों की कूटनीति से इनके पुत्र को एक अलग ही छवि दे दी. लेकिन इतना पता चलता है कि ये अंग्रेज़ों के आगे झुकने को तैयार नहीं थीं और अपने बेटे की अंग्रेज़ों से नजदीकियों को पसंद नहीं करती थीं.  

 

ज़ीनत महल, बहादुर शाह की सबसे कम उम्र की रानी बनी और जल्दी ही अपने दिमाग के बल पर पटरानी भी. अपने प्रिय बेटे को तख़्त दिलवाने की तमाम कोशिशों के बाद भी वे हार गईं. उनके बारे में ‘द लास्ट मुग़ल’ किताब में लिखा है कि अपने जीवन के आख़िरी दिनों में वे सेवानिवृत्त व्यक्ति की तरह जीं. यही नहीं भारत आने के लिए उन्होंने कंपनी सरकार को आवेदन भी किया पर उनके आवेदन को ठुकरा दिया गया.[10] लेकिन जब तक वो जीं, अंग्रेज़ों से रणनीतिक तौर पर सक्रिय रहीं.     

       

असग़री बेग़म ने पैंतालिस साल की उम्र में ब्रितानियों से युद्ध करना बेहतर समझा. माना जाता है इनका जन्म 1811 में हुआ था. बहुत जानकारी नहीं मिलती, पर यह पता लगता है कि आधुनिक उत्तर प्रदेश के पश्चिमी भाग में इन्होंने युद्ध में भागीदारी की थी. सन् 1858 में इन्हें पकड़ लिया गया और ऐसा माना जाता है कि इन्हें जिंदा जला दिया गया.[11] एक अन्य क्रान्तिकारी वीरांगना हबीबा भी थीं. संभवतः ये मुस्लिम गुर्जर परिवार से थीं. पकड़े जाने पर अन्य ग्यारह महिलाओं के साथ इन्हें फांसी पर चढ़ा दिया गया. उस समय ये महज़ पच्चीस बरस की थीं.[12]  गौरतलब हो कि इन महिलाओं की ब्रितानियों से कोई निज़ी रंजिश नहीं थी. बल्कि थोड़े बहुत जो रिकार्ड्स मिलते हैं उनसे यही ज़ाहिर होता है कि इनके मन में ग़दर में हिस्सा लेने का जुनून था. आज़ादी की तमन्ना थी. इनकी चाहत मिट्टी से थी. अंग्रेज़ों को बाहर निकालना इनका मकसद था.

‘झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई’ नामक एक मराठी उपन्यास है. इसके लेखक ने काफी शोध करके इसे लिखा है. किताब में फुटनोट्स दिए गए हैं. एक ऐसे ही नोट में किसी अंग्रेज़ी लेखक डी.एल.जी. के लिखे एक लेख के हवाले से टिप्पणी है कि ह्यू रोज़ के साथ हो रही लड़ाई में रानी की तरह ही सुंदर उनकी दो बहनें उनके साथ थीं. मराठी उपन्यासकार ने इन दो लड़कियों को बहनें न मानकर उनकी दासियां ‘सुंदर और काशी’ माना है. लेखक ने यह भी लिखा है कि वे दोनों मर्दाना पोषक में थीं और लड़ी भी थीं.[13] अतः यह तय है कि ‘भुला दी गईं’ औरतों ने युद्ध में बड़ी संख्या में भाग लिया था.

इसके अलावा ‘झाँसी की रानी-लक्ष्मीबाई’ नामक एक अन्य उपन्यास, जिसे वृन्दालाल वर्मा ने लिखा है, में झलकारी बाई का ज़िक्र आया है. तैयार होकर जब झलकारी बाई बाहर निकलीं तब अंग्रेज़ी सैनिकों को लगा यही झाँसी की रानी है. उन्होंने झलकारी बाई को पकड़ लिया.[14] इस तरह से झलकारी बाई ने न सिर्फ़ रानी की मदद की बल्कि लड़ीं भी. जब इतिहास लिखा गया तो भारतीय इतिहासकारों ने झलकारी बाई को भुला दिया. अब तो कई जगहों और शहरों के केन्द्रों में इनकी मूर्तियाँ लगी हुई दिखती हैं, पर जानने वालों की संख्या अभी भी कम है.

बी.बी.सी. की एक रिपोर्ट में ऊदा देवी का दिलचस्प वर्णन है. उनके कारनामे को लिखा गया है कि उनके पति की युद्ध में मौत के बाद उन्होंने लगभग 36 अंग्रेज़ों को अपनी बंदूक से मारा. वे सैनिक कपड़ों में थीं.[15] इस दलित महिला ने भले ही भारतीय और अंग्रेज़ों के रिकॉर्ड में जगह न बनाई हो, पर जनश्रुतियों में वे बनी हुई हैं. उनके वंशज चाहते हैं कि इनके बारे में सरकारी पाठ्यक्रम में पढ़ाया जाए. दलित महिलाएं बड़ी संख्या में ग़दर के इतिहास में छोड़ दी गई हैं, जिनका संज्ञान भारतीय इतिहास मानस ने भी कम लिया है.  

इतिहास का निर्माण सबके सहयोग से होता है. इसमें सबका हिस्सा होता है. इतिहास में रहने वाले तथ्य मानव निर्मित होते हैं और इनमें एक बहुत बड़ा हिस्सा प्रकृति के द्वारा बनाया-मिटाया जाता है. मानव ने जिन प्रमाणों और रिकार्ड्स को बनाया या बचाया, वे उनके हित को साधने वाले अधिक हैं. जो जब सत्ता में आता है उसी के मुताबिक तथ्य कहानी बयान करते हैं. 1857 ग़दर में स्त्रियाँ हर तरह से सक्रिय हैं. फिर भी वे इतिहास में नहीं हैं. लैंगिक, धार्मिक और जातीय भेदभावों की सीमाओं को लांघकर स्त्रियाँ बहादुरी के क़िस्से गढ़ रही थीं. युद्ध, संग्राम, युद्ध के मैदान, सेना, बख्तर, तलवारें, बंदूकें, नीति-कूटनीति, भिड़ंत आदि सारे शब्दों को पुरुषों ने अपनी छवियों के साथ चिपका लिया है. अतः आज जब हम इन स्त्रियों से रूबरू होते हैं तब यह महसूस होता है कि हम अभी तक जो इतिहास पढ़ते रहे, वे ख़ुद को दुरुस्त करने की माँग करता है.     

         



[1] नेहरु, जवाहरलाल, सं./अनु. जैन, निर्मला, (1996), भारत एक खोज, नयी दिल्ली: एन.सी.आर.टी., पृ. 14-15

[2] Singh Lata, Making the ‘Margin’ Visible (available on several online sites)

[4] वही

[5] वही

[8] Lang, John, (1859), Wanderings in India and Other Sketches of Life in Hindostan, Routledge, Warne, and Routledge, 94-95* (The conversations pages are missing in the book which is available on Internet Archive, but Hindi translation of this meeting is available on BBC’s website.)    

[9] द्विवेदी, शिवनारायण, (1979), सन् 1857 के ग़दर का इतिहास, कलकत्ता: हिंदी पुस्तक एजेंसी, पृ. 11

[10] Dalrymple, William, The Last Mughal: The Fall of A Dynasty, Delhi, 1857, Bloomsbury, p. 427

[13] पारसनीस बलवंत, दत्तात्रेय, (संवत 1982), झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, प्रयाग: गाँधी हिंदी पुस्तक भंडार, पृ. 216

Wednesday, 20 October 2021

रंग बेरंग

 


हाल ही में ब्रिटिश राजघराने की एक शाही दंपत्ति ने एक इंटरव्यू में अपने दर्द उजागर किए. पत्नी ने बताया कि जब वे अपने पहले बच्चे से गर्भवती थीं तब उनके इस बच्चे की त्वचा के रंग को लेकर बातें की जाती थीं कि बच्चे का रंग काला होगा या गोरा! क्योंकि शाही खानदान का मुख्य अंग बनी यह स्त्री अफ़्रीकी मूल माँ की संतान हैं और इनका रंग गहरा है, इसलिए ब्रिटेन के राजघराने में अपनी त्वचा की शुद्धता को लेकर चिंता की गई. ब्रिटिश शाही राजघराने की त्वचा के रंग को लेकर यह सोच है तो आम लोगों की क्या होगी! आज सन् 2021 है. रंग को लेकर इस तरह का भेदभाव अचानक या एकाएक तैयार नहीं हुआ है. इस तरह के भेदभावों का एक लंबा इतिहास और परंपरा है. यह घटना बताती है कि तमाम आधुनिक और तकनीकी शिक्षा व सोच के बाद भी इंसानों के विकसित दिमाग किस तरह भेदभाव को अपने भीतर करीने से सहेज कर रखते हैं.

विविधताओं की जगह भारत, एक ऐसा देश है जो आज भी कई तरह की दिक्कतों से गुज़र रहा है. यहाँ इतनी अधिक जैविक विभिन्नताएँ हैं कि किसी भी वैज्ञानिक को आश्चर्य करने की वजह मिल जाएगी. पर क्या वास्तव में भारत अपनी इस विविधताओं पर गुमान करता है? भारतीय समाज में जब आप उतरेंगे तब इस सवाल से जुड़े जवाब आपको निराशा कर देंगे. कई बार यहाँ एक दूसरे से भिन्न होने की ख़ासियत का उत्सव नहीं मनाया जाता. रंग के आधार पर भेदभाव इसका एक उदाहरण है. भारतीय महिला क्रिकेट टीम की एक प्रसिद्ध खिलाड़ी झूलन गोस्वामी पर फिल्म बनाई जा रही है. जो अदाकारा उनका चरित्र निभा रही हैं वे गोरी हैं. झूलन गोस्वामी काले रंग की स्वामिनी हैं. जब अदाकारा ने फिल्म से जुड़ी अपनी कुछ तस्वीरों को सोशल मीडिया मंच पर साझा किया तब लोगों ने उन्हें ट्रोल कर दिया. कारण, अदाकारा को काले रंग का दिखाने के लिए उनके चेहरे को काला लुक दिया गया था. जब झूलन गोस्वामी और अदाकारा की तस्वीरों को एक साथ देखते हैं तब झूलन बिल्कुल प्राकृतिक रंग की नज़र आ रही हैं जबकि अदाकारा हास्यास्पद चेहरे के साथ उपस्थित होती हैं.

यह कोई एक घटना नहीं है. इस तरह की बहुत सी घटनाएँ हमारे समाज का हिस्सा हैं जहाँ कई लोगों को उनके त्वचा के रंग के आधार पर अपमानित किया जाता है. रंग के आधार पर लोगों को कमतर महसूस करवाया जाता है. गोरे और काले व्यक्ति के बीच इतना बड़ा अंतर बना दिया गया है कि गहरे रंग के व्यक्ति अपने व्यक्तित्व में इस रंग को ख़ामी की तरह देखते हैं. गोरे वर्ण का न होना एक नकारात्मक शारीरिक स्थिति मानी जाती है. जबकि बात यह है कि कुदरत की संरचना में हर रंग के व्यक्तियों का महत्त्व है. जिस तरह से हमारे इर्द-गिर्द हर तरह के रंग अपनी छटा के साथ बिखर कर खूबसूरत दुनिया बनाते हैं ठीक उसी तरह काले, गोरे और साँवले रंग के व्यक्ति मनुष्य समाज में खूबसूरत विविधता का निर्माण करते हैं.     

हिंदी सिनेमा के क्षेत्र में भी त्वचा के रंग को लेकर समय-समय पर फिल्में बनाई गई हैं. एक पहलू यह भी है कि हिंदी सिनेमा ने ही नायिकाओं के सौंदर्य के प्रतिमानों को गोरे रंग से जोड़कर जमाए भी हैं. धूप में निकला न करो रूप की रानी...गोरा रंग काला न पड़ जाए, गोरे रंग पर इतना गुमान न कर...गोरा रंग दो दिन में ढल जाएगा, ये काली-काली आँखें...ये गोरे-गोरे गाल, गोरी तेरा गाँव बड़ा प्यारा...मैं तो गया मारा आके यहाँ रे, हम काले हैं तो क्या हुआ दिलवाले हैं, चिट्टियाँ कलाईयां वे...ओ बेबी मेरी वाइट कलाईयां वे, काला चश्मा जंचदा ए... गोरे मुखड़े पे, इस तरह के अन्य हिंदी गीत और भी हैं जो अपने आप में भयानक भेदभाव लेकर चलते हैं. हैरत की बात यह है कि इन गीतों को भारतीय समाज में खूब सुना जाता है.

इतना ही नहीं, हिंदी सिनेमा की अनुपम फिल्म ‘मदर इंडिया’ (1957) में ‘बिरजू’ का क़िरदार काले रंग की त्वचा से सना हुआ दिखाया गया है. बिरजू का मिजाज गुस्सैल, बिगड़ैल, लड़ाई झगड़े वाला दिखाया गया है. जबकि उसका भाई ‘रामू’ जिसका रंग साफ़ है वह शांत मिजाज का है. उसका स्वभाव सौम्य है. इसके अलावा अपने समय की बेहद सफल और लोकप्रिय फिल्म ‘मि. इंडिया’ (1987) के एक गीत में दिक्कत देखी जा सकती है. इस फिल्म के हर गीत बहुत ही अधिक लोकप्रिय हैं और अब भी यहाँ-वहाँ सुनाई दे जाते हैं. सबसे अधिक लोकप्रिय गीत ‘हवा हवाई’ है. इसका फिल्मांकन दिवंगत अदाकारा श्री देवी पर किया गया था. गीत कुछ दृश्यों में जब वे नाचती हैं तब उनके पीछे ‘एक्स्ट्रा’ कलाकारों की त्वचा का रंग इतना काला कर दिया जाता है जिससे फिल्म की अदाकारा पर अधिक ध्यान जाता है. गीत का अंतिम सीक्वेंस तो और भी परेशान करता है. यह सब आम दर्शकों पर गहरी छाप छोड़ता है. लोगों के मन में यह बात घर करने लगती है कि गोरा रंग सच में अच्छाई और सुंदरता का प्रतीक है. नायिकाओं का रंग गोरा ही होना चाहिए.   


        

लेकिन कुछ ऐसी फिल्में भी बनाई गई हैं जो वास्तव में ईमानदारी से समाज में फैली समस्याओं को उठाती रही हैं. मीना कुमारी और धर्मेंद्र अभिनीत फिल्म ‘मैं भी लड़की हूँ’ (1964) त्वचा के रंग से जुड़ी समाज-व्यवहार की समस्या को उठाती है. स्त्री के त्वचा के रंग और उस पर आधारित सुंदरता के विषय को, सीरत के बजाय सूरत को अधिक महत्त्व प्रदान करने के चलन को और स्त्री-शिक्षा जैसे विषयों को फिल्म बखूबी दिखाती है. फिल्म में नायिका की त्वचा के रंग के लिए उसे, काली, अमावस्या की रात, कलूटी, चुड़ैल, मनहूस भूतनी आदि संज्ञाओं के साथ पुकारा जाता है. नायिका इस बात से दुखी है. वह बहुत से दृश्यों में अपने रंग को लेकर दुःख उठाती है और रोती है. वह यह सवाल भी करती है कि काले कृष्ण देव रूप में स्वीकार्य और पूजनीय हैं पर वह समाज द्वारा धिक्कारी जा रही है, क्योंकि उसका रंग काला है.    

नायिका ने यह स्वीकार भी कर लिया है कि यदि लोग उसे मनहूस मानते हैं तो इसके पीछे उसका काला रंग है. यहाँ इस बिंदु पर वह लंबी प्रक्रिया दिखती है जहाँ एक स्त्री को इस तरह से सांस्कृतिक वातावरण में तैयारी दी जाती है कि वह उन बातों को भी स्वीकार कर लेती है जो उसके साथ अन्याय के रूप में की जा रही हैं. फिल्म की नायिका अबला नारी से पढ़ी-लिखी और आत्मविश्वास रखने वाली नारी के रूप में बदलती हुई दिखती है. फिल्म की शुरुआत में ही कला, खूबसूरती और चरित्र जैसे विषय पर कुछ संवादों को पेश किया गया है. फिल्म शुरुआत से ही सूरत और सीरत की बहस को लेकर साथ चलती है.

बहुत से कलाकारों अथवा विद्वानों ने कला को सुंदरता से जोड़ दिया है. जबकि कला महज सुंदरता का प्रदर्शन नहीं है. फिल्म का नायक चित्रकार है जो गोरे रंग की स्त्रियों के चित्र बनाता है और उसकी चाहत रखता है. चित्रकला (painting art) को बहुत से लोग सुंदर छवियों का निर्माण भर मानते हैं जबकि यह उससे बढ़कर है. प्रसिद्ध डच पेंटर और ‘स्टारी नाईट’ पेंटिंग के चित्रकार विन्सेंट वैन गोग की एक और प्रसिद्ध पेंटिंग ‘पटेटो इटर्स’ (आलू खाने वाले) सुंदरता के पैमाने तोड़कर उन गरीब किसानों के दिन ढलने के बाद के उस पल को उजागर करती है जब खेतों से थककर लौटा परिवार कॉफ़ी और आलू को एक साथ बैठकर खाता है. इस चित्र में श्रम की थकावट है. चित्र की सुंदरता उसमें श्रम के चित्रण में है. वास्तव में कला अपने अलग-अलग पक्षों के माध्यम से व्यक्ति के अंदर कुछ बुनियादी और रचनात्मक परिवर्तन करने की ईमानदार कोशिश करती है. इसके अतिरिक्त किसी कलाकार की अभिव्यक्ति तो शामिल है ही. उपर्युक्त फिल्म का नायक एक कलाकार होने के बाद भी त्वचा के रंग को लेकर सहज नहीं हो पाता. हालाँकि फिल्म के अंत में उसका ह्रदय परिवर्तन होते हुए दिखाया गया है. इस फिल्म में अंत में यही बात उभर कर आती है कि मन की खूबसूरती ही सबसे अच्छी सच्चाई है.  

अख़बारों में शादी के छपने वाले विज्ञापन त्वचा और जाति के भेदभाव को सुबह चाय की मेज पर कई सालों से रखते आ रहे हैं. यह इतना सहज और स्वीकार्य है कि किसी को यह गहरा भेदभाव बुरा नहीं लगता. शादी दो व्यक्तियों के बीच की समझदारी का मामला है. वे अपने जीवन को एक-दूसरे के साथ बिताने का आपसी फैसला करते हैं. इसमें दोनों के बीच प्रेम और आपसी समझदारी की बात अधिक महत्वपूर्ण है. साथ ही एक दूसरे को पसंद करना भी इसमें शामिल है. स्नेह या प्रेम के धागे का कोई रंग नहीं होता. किसी माँ का बच्चा यदि गोरा नहीं है तो वह इस बात के लिए अपने शिशु से नफरत या भेदभाव नहीं करती कि बच्चा रंग में काला है. बल्कि ममता का पूरा आवरण तैयार होता है जहाँ, बच्चे के रोने को भी माँ समझ जाती है.

फेयर एंड लवली, हिंदुस्तान यूनिलीवर का एक बड़ी माँग वाला उत्पाद है. यह इतना मशहूर है कि इसके क्रीम पाउच या ट्यूब भारत के छोटे से छोटे घर या गाँव-देहात में मिल जाते हैं. जनवरी 2018 में हिंदू अखबार में ख़बर छपी थी कि हिंदुस्तान यूनिलीवर के छ उत्पादों (प्रोड्क्ट्स) ने सलाना 2000 करोड़ की रिकॉर्ड बिक्री दर्ज़ की है. जी हाँ, उसमें फेयर एंड लवली भी एक उत्पाद था. लेकिन ठीक इसके दो साल बाद जनवरी 2020 में अंग्रेज़ी पत्रिका आउटलुक (Outlook) ने वेबसाइट पर खबर छापी है कि नॉर्वे ने फेयर एंड लवली को बैन कर दिया. उनके मुताबिक इसमें हानिकारक तत्व पाए गए हैं. कंपनी ने कहा कि वह इस मसले को देखेगी और हो सकता है वे नकली उत्पाद हों. कंपनियों का यही खेल है. वास्तव में यह एक भयानक मज़ाक है जो मासूम जनता के साथ खेला जा रहा है. यदि कंपनियों से यह पूछ लिया जाए कि गोरेपन की ज़रूरत ही क्या है तो ये जवाब देंगे कि हम किसी पर क्रीम का इस्तेमाल करने के लिए दबाव नहीं डालते. लोग अच्छा दिखना चाहते हैं. यह उनका निजी फैसला है, वगैरह वगैरह. वास्तव में कंपनी का यह विश्वास है कि अच्छा दिखने का मतलब गोरा होना है. पिछले साल पुलिस द्वारा एक काले अमेरिकी की निर्मम हत्या के बाद बहुत बड़े जन आन्दोलन हुए. दुनियाभर में नस्लवाद से जुड़े भेदभाव पर नए सिरे से बहस शुरू हुई. इसका प्रभाव यह भी हुआ कि ‘फेयर एंड लवली’ का नाम बदलकर अब ‘ग्लो एंड लवली’ रखा जा रहा है. पर फिर भी मुद्दा वही है. आम जन जो उपभोक्ता है, उन्हें क्रीम के माध्यम से गोरा रंग बेचा जा रहा है.     

इस क्रीम ने 1975 में भारत में दस्तक दी थी. जब कॉलोनी बनाने की प्रथा ख़त्म हुई तब तक कुछ शोध हो चुके थे. कंपनियों ने इंसान की असुरक्षा या इंफेरियोरोरिटी की भावना को अच्छी तरह से समझा. स्त्रियों के ‘सिम्बल ऑफ ब्यूटी’ के दर्ज़े को और बढ़ाया जिसे लिटरेचर या शिल्पकला के संदर्भ में भारत में समझा जा सकता है. लाभ कमाने के लिए दिमाग़ की चाभी खोजनी ही पड़ती है. वही हुआ भी. नयी आर्थिक नीति ने साम्राज्यवाद को फिर से वह जगह बनाकर और लगभग तोहफे में दी जो इससे पहले देशों को गुलाम बनाकर तैयार होती थी. 90 के दशक और उसके बाद विश्व सुंदरी जैसी बिना सिर पैर की प्रतियोगिताओं ने सौंदर्य के पैमाने जमाने शुरू कर दिए. इसे इतना प्रतिष्ठित और प्रचारित किया जाता है कि भारत समेत दुनियाभर का एक बड़ा युवा वर्ग इन प्रतियोगिताओं से न सिर्फ प्रभावित होता है बल्कि इन प्रतियोगिताओं में शामिल लोगों जैसा दिखना भी चाहता है. आज हम सभी साक्षी हैं कि फिल्म जगत के बड़े से बड़े स्त्री-पुरुष अदाकार कैसे गोरा होना है, कैसे महकना है, कैसे दिखना आदि से जुड़े उत्पाद और विज्ञापनों में दिखाई देते हैं. क्योंकि भारत में सिनेमा कलाकारों का अधिक प्रभाव है इसलिए बहुत से लोग उनकी बात को मानते हुए उत्पाद खरीदते भी हैं.

प्राचीन, मध्य और आधुनिक समय में स्त्रियों के शारीरिक सौन्दर्य में उनके गोरे रंग को लेकर बहुत सा साहित्य और व्यवहार दिखाई पड़ता है. हिन्दू मिथकों में स्त्री देवियाँ अधिकांशतः गोरे वर्ण की हैं. उनका रंग उज्जवल और बिल्कुल चंद्रमा के समान माना गया है. राजा रवि वर्मा की चित्रकारी में भी देवियों ने गोरा रंग ही पाया है. लेकिन बंगाल के मानुष जन में माँ काली देवी का देह काला है. काला रंग यहाँ सौंदर्य के पक्ष में नहीं है. अपितु देवी का क्रोध कुछ ऐसा है कि उनका रंग क्रोध में काला हो जाता है. क्रोध पूजनीय है पर रंग काला? समानता जैसे शब्द के संदर्भ में कई विचार पिरोए जाते हैं. ईश्वर शब्द में ही कहीं देह और मुख नहीं है. स्वर की शक्ति में ही ईश्वर है. किताबों और फिल्मों में यह बताया भी जाता रहा है कि ईश्वर ‘कलर ब्लाइंड’ होता है. उसे अपनी तमाम रचनाओं में कोई रंग नज़र नहीं आता. ईश्वर रंग के मामले में अँधा होता है.

त्वचा के रंग के आधार पर किया जाने वाला भेदभाव किसी भी व्यक्ति की गरिमा से खिलवाड़ और उसके साथ की जाने वाली हिंसा है. ज़रूरत मानसिकता बदलने की है. सुंदरता के पैमाने को बदलने की भी है. कभी पेड़ों के तनों के बारे में पत्तियां शिकायत नहीं करतीं कि उनका रंग इतना गहरा क्यों है. स्वयं पेड़ों में कितनी विभिन्नताएँ होती हैं. वे छोटे-बड़े, आड़े-टेढ़े, पतले-मोटे होते हैं. ठीक इसी तरह से मनुष्य भी है. मनुष्यों में शारीरिक भिन्नताएँ हैं जिसका किसी समाज को संतुलित उत्सव मनाना चाहिए. एक स्वस्थ समाज में किसी भी तरह के भेदभावों की कोई जगह नहीं होनी चाहिए.   

गुमशुदा स्त्रियाँ

 

गुमशुदा स्त्रियाँ और उनका साहित्य: एक झलक

(17वीं शती के विशेष संदर्भ में )

किसी भी तरह की ऐतिहासिक छवियों और पाठों पर अलग अलग समय पर जो पुस्तकें या विचार पेश किए जाते रहे हैं, पर यकीन कर लेना ठीक नहीं है. फिर वे चाहे किसी भी मुल्क़ की हों या उस मुल्क़ के साहित्य से जुड़े प्रसिद्ध पाठ ही क्यों न हों. जिसके पास कलम थामने की शक्ति और साधन रहे, उन्होंने अपनी ही जैसी छवियाँ और पाठ इतिहास बनाकर पेश कर दिए. इसलिए अगर स्त्रियों, दलितों, तृतीय लिंगियों, आदिवासियों आदि समुदायों को इन इतिहासों में अपना अक्स न दिखे तो इसमें हैरान होने की कोई बात नहीं है. इन इतिहासों में शब्दों का लिंग और उनमें छुपी हुई भावना किसी राजा और उसके दौर की तो है पर उसमें रानी और उसका दौर खोया हुआ है. कुछ रानियों और शहजादियों ने साहित्य इतिहास में अपनी जगह बना भी ली है पर आम स्त्रियाँ अभी भी अपने खोजे जाने के इंतिज़ार में हैं.

गाँव और स्त्रियों पर कवियों और शायरों ने हज़ारों हज़ारा शब्दों को कुर्बान कर उन्हनें रूहानी बनाकर पेश किया है. जबकि सभी को पता है कि गाँव की हवा में खाई की तरह भेदभाव और ग़ैर-बराबरी मौज़ूद है. यह शोषण की कहानियाँ रूमानी नहीं हो सकतीं. कई गुमशुदा हैं. कई दबा दी गई हैं. कई चीख़ बनकर हवा में टंगी हुई हैं. यही वजह है कि आज इतिहास को बार-बार देखना ज़रूरी है. हिंदी साहित्येतिहास में स्त्री साहित्य इतिहास लेखन एक अहम कड़ी है. लोक साहित्य में कुछ हद तक स्त्रियों के भावों ने अपनी जगह लोकगीतों में बनाई है. पर लिखित स्त्री साहित्य में अभी भी गहन खोज की ज़रूरत है. अपनी ज़मीन और आधार को तलाश कर अपनी ऐतिहासिक ठोस आधारशिला को खोजना किसी भी जाति और नस्ल को करने का हक़ है, जो ख़ासतौर से संघर्षशील और जिजीविषा की मिसाल हैं.

आज 2019 का साल अपनी गति से दौड़ रहा है. तकनीक और सूचना से लैस हमारा वक़्त काफ़ी आगे है. सभी को शिक्षा का हक़ है. ‘पढ़ेगा इंडिया तभी तो बढ़ेगा इंडिया’ टायप के सरकारी नारों से विज्ञापन गूँज रहे हैं. लेकिन मसला जितना सुखद दिख रहा है उतना है नहीं. यह जानकर हैरानी होगी कि दिल्ली के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय के नए हिंदी पाठ्यक्रम में ‘पुरुष कलमों’ को पूरी जगह मिली है और जबकि स्त्रियों द्वारा लिखित एक भी पाठ को पाठ्यक्रम में जगह नहीं मिली है. कुल चार खंडों में दो भाषा और हिंदी साहित्य के इतिहास जुड़े हैं जबकि बाक़ी दो खंडों में क्रमश: कबीर, भूषण, बिहारी जैसे मध्यकालीन कवि और आधुनिककाल से जयशंकर प्रसाद, नागार्जुन और रघुवीर सहाय जैसे कवियों को जगह मिली है. और अंततः पाठ्यक्रम यहीं समाप्त हो जाता है. पुराने पाठ्यक्रम में भी सिर्फ महादेवी वर्मा को जगह दी गई थी. इस तरह पुरुषीय विचार और विमर्श कितनी मज़बूती से आज भी विद्यमान है, यह स्पष्ट हो जाता है. इनमें महिलाओं की कितनी भागीदारी है, वह भी स्पष्तः दिख जाता है. ऐसे ही हाल में स्त्रियों का इतिहास, साहित्येतिहास और उसके मूल चरित्र-चेहरों को जानना ज़रूरी हो जाता है. यह मुद्दा पहचान का बन जाता है.  

हिंदी साहित्य के इतिहास पर नज़र डालकर यह आभास होता है कि साहित्य इतिहासकारों ने अपनी-अपनी पसंद का इतिहास लिखा है. यह निजी पसंद के चुनाव जैसा है. जब व्यक्ति किसी कपड़े के स्टोर में जाता है तब अपनी जेबख़र्ची, सुविधा और पसंद के अनुसार कपड़े की ख़रीदारी करता है. इसमें और भी बातें हो सकती हैं- जैसे रंग और साइज़ आदि. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि स्टोर में बाकी कपड़ों का अस्तित्व नहीं था. ठीक ऐसे ही हिंदी साहित्य का इतिहास दीखता है. स्त्रियाँ हमेशा से तमाम पढ़ने-लिखने, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक पाबंदियों के बावजूद अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार कम-ज़्यादा लिख रही थीं. पर उस कम और ज़्यादा को इतिहास की किताबों में दर्ज़ नहीं किया गया. उसका संज्ञान भी नहीं लिया गया. उनकी रचनाओं को कम कर के आँका गया. कहा गया कि उनके काव्य में वह परिपक्वता नहीं जितनी पुरुष कवियों या रचनाकारों में है. लेकिन मीराबाई के सम्बन्ध में यह अचरज भरा लगता है. क्योंकि मीराबाई को नज़रन्दाज़ करने से साहित्य इतिहासकारों पर स्त्रियों की उपेक्षा और भेदभाव के आरोप स्पष्ट उभर आते. मीराबाई का क़द भी इतना बड़ा है कि उन्हें दरकिनार नहीं किया जा सकता था. जिंदा जलने के बाद भी स्त्रियों की नस्ल में ऐसा बहुत कुछ ख़ास शामिल रहा है कि ये स्त्रियाँ अपने अस्तित्व और उसके अलग-अलग रूपों के साथ हमेशा बनी रही हैं.

हिंदी साहित्य का इतिहास लिखने का शुरूआती उद्योग गहन दृष्टि वाली आलोचना की माँग करते हैं. यह बात स्वयं हिंदी साहित्य के इतिहासकारों के संदर्भ में है. फ्रेंच विद्वान तासी द्वारा लिखित हिंदी साहित्य के पहले इतिहास में कुछ ही सही पर स्त्री कवयित्रियों को जगह मिली है. इनकी गिनती मात्र उंगली पर की जा सकती है. उसके बाद के लिखे इतिहास में भी कुछ ही सही पर स्त्री लेखिकाओं को शामिल किया गया. पर मामला तब गंभीर हो जाता है जब ‘शिवसिंह सरोज’ जैसे ग्रन्थ में कृष्णभक्ति की लेखिका ताज और श्रृंगार की लेखिका शेख1 का उल्लेख एक या दो शब्दों-पंक्तियों में निपटा दिया जाता है. यह हिंदी साहित्य की हैरान करने वाली घटना है. इतनी भी क्या जल्दी थी जो स्त्री रचनाकारों के संदर्भ आते ही छुटकारा पाने की प्रवृत्ति की झलक देती है? किसी भी इतिहासकार से यह उम्मीद लगाई जाती है कि वह इतिहास के तमाम चरित्रों को तटस्थ होकर पेश करें. तथ्य जुटाकर उनको परिभाषित करे. पर जब बात हिंदी साहित्य के इतिहास में स्त्री लेखन की आती है तब यह सब एक ओर ही झुक सा जाता है. अचानक पुरुष वाला हिस्सा बड़ा दिखाई देने लगता है.

‘शिवसिंह सरोज’ में शेख का ज़िक्र कुछ यूँ है- ‘पीछे धनाढ्य ब्राह्मण थे, किसी मुसलमान रंगरेजिन के इश्क़ में मुसलमान होकर मुअज्जम शाह के दरबार में बहुत दिनों तक रहे.’2 इन पंक्तियों को कई बार पढ़ने से दुःख के सिवा कुछ हाथ नहीं लगता. दूसरी दुःख की वजह यह है कि शेख का एक कवयित्री के रूप में ज़िक्र ही नहीं हुआ जबकि शेख और आलम की संयुक्त लिखित पुस्तक ‘आलमकेलि’ के पुस्तक परिचय भाग में संपादक लाला भगवानदीन ने लिखा है- ‘मुझे तो आलम की प्रतिभा से सेख की प्रतिभा से कुछ ऊँची जंचती है.”3 इतना ही नहीं, संपादक महोदय आगे एक जग प्रसिद्ध क़िस्से का ज़िक्र करते हैं जिससे शेख के हाज़िर जवाब होने की बात सिद्ध होती है- “कहते हैं एक बार आलम के आश्रयदाता शाहजादा मुअज्जम ने मज़ाक में ‘शेख’ से पूछा कि “आलम की बीवी आप ही हैं?” शेख ने हंसकर जवाब दिया “हाँ हुज़ूर! जहान की माँ मैं ही हूँ.”4 (जहान उनके पुत्र का नाम था) इस प्रकार की रचनाकार को रामचंद्र शुक्ल ने भी अपनी पुस्तक हिंदी साहित्य के इतिहास5 में आलम के साथ संयुक्त रूप से पेश किया है.  (हिंदी साहित्य का इतिहास पृष्ठ 329 नागरी प्रचारिणी सभा, काशी) शेख के द्वारा लिखित एक रचना का उदाहरण है-

“नेह सो निहारि नाहु नेकु आगे कीने बाहु,

छाहियों छुवत नारि नाहियो करति है.

प्रीतम के पानि पेलि आपनी भुजै सकेलि,

धरकि सकुचि हियौ गाढ़ो कै धरति है.

‘सेख’ कहि आधे बैना बोलि कर नाचे नैना,

हा हा करि मोहन के मनहिं हरति है.

केलि के आरम्भ खिन खेल के बढ़ायेब को,

प्रोढ़ा जो प्रवीन सो नवोढ़ा ह्वै ढरति है.” 6

      

समूची साहित्य-परम्परा में स्त्री रचनाशीलता के दखल को कम करके आंकना, या उसे भावुक, अबौद्धिक साहित्य कहकर दरकिनार करने की रणनीतियों को स्त्री साहित्येतिहास लेखन ने समझा और अपने ढंग से इसे चुनौती दी है.7 वास्तव में स्त्री की साहित्य सम्बन्धित व्यक्तित्व की समझ इसी परम्परा से होकर जाती है जिसे कई साहित्य की बड़ी शख्सियतों ने नज़रन्दाज़ कर दिया है. सन् 1904 में मुंशी देवी प्रसाद मुंसिफ ने एक अनूठे ग्रन्थ का संकलन किया. इस अनूठे ग्रन्थ का नाम ‘महिला मृदुवाणी’ है. इसमें विभिन्न हिंदी स्त्री रचनाकारों का न सिर्फ़ परिचय दिया गया है बल्कि इसमें उन कई स्त्री रचनाकारों की रचनाओं को जगह दी गई है, जो अपने अपने समय में पर्याप्त शिक्षित, अल्प शिक्षित और अपढ़ होते हुए भी लिखने की दिशा में चलरही थीं. लेकिन कई वर्षों बाद लिखी गई हिंदी शब्द सागर की भूमिका, ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में शुक्ल इन स्त्री रचनाकारों के बारे में बिना कुछ निकल जाते हैं.

डॉ. रमण प्रसाद सिंहा के शब्दों में, “यह तथ्य और भी आश्चर्यजनक तब लगता है जब हम देखते हैं कि इसी नागरी प्रचारिणी सभा से जहाँ से यह इतिहास ग्रन्थ(हिंदी साहित्य का इतिहास) पहले हिंदी शब्द सागर की भूमिका के रूप में प्रकाशित हुआ और फिर स्वतंत्र पुस्तकाकार, वहीं से महिला मृदुवाणी का भी प्रकाशन हुआ था और वहीं से हस्तलिखित ग्रंथों की खोज भी हो रही थी, जिसके आधार पर मिश्रबंधु विनोद (1913) में पचास कवयित्रियों का उल्लेख हुआ.”8 स्त्रियों के सन्दर्भ में जितना भेदभाव समाज ने किया उतना ही बुद्धिजीवी जमातों ने कर के दिखाया और साहित्य इतिहास के एक ढर्रे को यूँ जमाया कि आज भी हिंदी साहित्य के अध्येता इससे बाहर नहीं निकल पा रहे हैं. यह जमी हुई बर्फ इतनी मज़बूत है कि हिंदी साहित्य के विद्यार्थियों को हिंदी साहित्य का इतिहास सबसे पहले पढ़ने का आग्रह किया जाता है और उसे एक मूल पाठ भी माना जाता है. बिना इस बात की परवाह किए कि इस पुस्तक में ‘महिलावाणी’ पुस्तक की कई कवयित्रियाँ (मीराबाई के अलावा) नहीं आ पाई हैं.

इसके बाद भी स्त्री साहित्य की रचनाओं के संकलन होते रहे हैं जिनमें, ज्योति प्रसाद ‘निर्मल’ का स्त्री कवि कौमुदी और स्त्री कवि संग्रह, व्यथित ह्रदय सम्पादित- हिंदी काव्य की कलामयी तारिकाएँ, सावित्री सिन्हा का शोध ग्रन्थ- मध्यकालीन हिंदी कवयित्रियाँ आदि ग्रन्थ शामिल हैं. यह सूची और भी लम्बी है. जो यह यह सूचना देती है कि हिंदी भाषा में स्त्रियों ने भरपूर लिखा है. स्त्रियों ने भी भक्ति से लेकर श्रृंगार रस तक की रचनाओं में अपनी प्रतिभा दर्ज़ की है.   

बख्तकुँवरि बाई, नाथी, शेख, ताज, बहिणाबाई, बयाबाई, छत्रकुँवरिबाई, प्रवीणराय पातुर, सुजानराय पातुर, इन्द्रामती, केशवपुत्र वधू, खगनिया आदि जैसी रचनाकार (17वीं शती की हिंदी लेखिकाएँ) शामिल हैं जिन्होंने हिंदी साहित्य के इतिहास में रचनात्मक योगदान दिया और उसे स्त्री रचनाकार सूची में शून्य नहीं होने दिया. इनमें से शेख, ताज, बख्तकुँवरि बाई, कृष्ण काव्य से जुड़ी हैं. प्रवीणराय पातुर ने केशव जैसे महाकवि के एक प्रसिद्ध ग्रंथ में अपनी रचनाशीलता से सहयोग दिया है.  केशवदास ने प्रवीणराय पातुर की प्रशंसा में ‘कवि प्रिया’ नामक ग्रन्थ लिखा था.9 प्रवीणराय पातुर की रचना का एक नमूना पढ़ना उचित होगा-

मान कै बैठी है प्यारी ‘प्रवीण’ सो देखै बनै नहि जात बनायो

आतुर ह्वै अति कौतुक सों उत लाल चले अति मोद बढ़ायो

जोरि दोऊ कर ठाढे भये करि कातर नैन सों सैन बतायो

देखत बेदी सखी की लगी, मित हेर्यो नहीं इतयों बहरायो 10    

 

सुजानराय पातुर  ने घनानंद के समान ही विरह के गीत की रचना की, इन्द्रामती ने अपने पति प्राणनाथ के पंथ धामी संप्रदाय में न सिर्फ योगदान दिया बल्कि भाईचारे के सन्देश भी फैलाए, अमीर खुसरो द्वारा रचित पहेलियों के ज़ायके को बरक़रार रखते हुए खगनिया ने भी दिलचस्प और सुन्दर पहेलियों की रचना की. खगनिया द्वारा रचित की एक पहेली का स्वाद लेना ठीक रहेगा-

 

“नारी देखी एक अनोखी, बंद न होती चलती चोखी

मरना जीना तुरत बतलाती, कभी नहीं कुछ खाना खाती

सदा हाथ में मेरे रहै, बासू केर खगनियाँ कहे” (नाड़ी) 11

 

भक्ति के स्वरुप को और निखारते हुए बहिणाबाई और बयाबाई ने अपने अपने हिस्से की भूमिका को निभाया और मराठी के साथ-साथ हिंदी पदों की भी रचना की. बहिणाबाई द्वारा रचित एक रचना देखिए-

 

अजब बात सुनाई भाई

गरुड़ पंख हिरावे कागा लक्ष्मी चरन चुराई

ये सूरज की थींव अंधारे सोवे चंबर कू भाग जलावे

राहु के गिरहो भोगी कहा रे अमृत ले भर जावे

कुबेर सोवे धन के आस हनुमान नीर मंगावे

वैसे सबहि झूठा है निंदा की बात सुनावे

समीन्दर तान्हो चीरत कैसों साधु मांगत दान

बहिनी कहे जन निंदक है रे वाको साँच न मान12

 

 

कहना न होगा कि समुचित और व्यवस्थित शिक्षा के अभाव में भी ये स्त्री रचनाकर कुछ न कुछ रच ही रही थीं. इनके विषयों में प्रेम, वियोग, वीरता, प्रकृति, मानवता, श्रृंगार वात्सल्य, ऋतु, आदि शामिल रहे जो पुरुष रचनाकारों के समान ही हैं. फिर ऐसे में वे कौन सी वजह रहीं कि इन स्त्रियों को हिंदी साहित्य इतिहास में दर्ज़ ही नहीं किया गया. अधूरा इतिहास कभी भी पूरा पूरे इतिहास की महक नहीं दे सकता. कम या ज़्यादा, अपने अपने स्तर पर सभी ने लिखा. लेकिन हैरानी इसी बात है की है कि आज भी इन्हें हिंदी साहित्य के इतिहास में ठीक प्रकार से जगह नहीं मिल रही है.

           

हिंदी साहित्य के इतिहास संबंधी कुछ पुस्तकों में स्त्रियों की रचनाओं को जब थोड़ी बहुत जगह दी गई, तब आलोचकों के निशाने पर उन रचनाकारों के काव्य सौष्ठव की बात उठाई जाती रही है. आलोचकों के मुताबिक़ उनकी रचनात्मक समझ पुरुष रचनाकारों की तुलना में बेहद कम थी. उन्हें परम्परागत काव्य शास्त्र का ज्ञान नहीं था और न ही उन्हें कोई ऐसी शिक्षा मिली थी जिससे वे उम्दा रचना कर पातीं. स्त्रियों के लिए गंभीर शिक्षा चाहे वह जानबूझकर या बगैर जाने पितृसत्ता विवाह और घरेलू व्यवस्था के लिए धमकी की तरह तो है ही साथ ही उससे बढ़कर यह पुरुष वर्चस्व, अर्थव्यवस्था, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक स्तरों पर चुनौती भरा हो सकता है.13 इसलिए स्त्री शिक्षा का हाल वैदिक समय से लेकर उसके बाद के हजारों साल तक ऐसे फ्रेम में रखा गया कि उन्हें एक अच्छी पत्नी, सेविका, बहन, माँ, पुत्री जैसी भूमिकाएं अच्छी तरह निभानी आ जाएं.

विद्वान ऋग्वेद की स्त्री रचनाकारों की दुहाई देकर स्त्री शिक्षा और स्त्री स्थिति को वैदिक युग में बेहतर बताते हैं. जबकि नजदीक से विश्लेषण कर यह अलग दीखता है. ऋग्वेद के प्रथम मंडल में 2006 में से तीन मन्त्र स्त्रियों द्वारा लिखे गए हैं. लोपामुद्रा द्वारा दो और रोमशा द्वारा एक.14 ऋषिका लोपामुद्रा कहती हैं- अनेक वर्षों तक दिन-रात और उषाओं में करती हुई अब मैं बूढ़ी हो जाने के कारण में थक गई हूँ. अब बुढ़ापा मेरे अंगों की शोभा को नष्ट कर रहा है इसलिए तरुण और वीर्यवान व्यक्ति अपनी पत्नियों के साथ सहवास करें. अन्यथा उनको मेरी तरह कष्ट उठाना पड़ेगा. ठीक इसी तरह रोमशा भी यही कुछ कहती हैं.15 आत्रेयी, घोषा, उर्वशी, इन्द्राणी, आदि इसी तरह की बातें करती दिखाई देती हैं. इसलिए ऋग्वेद में आईं इन ऋषिकाओं के आधार पर यह मान लेना कि ऋग्वेद कालीन स्त्रियों में शिक्षा का उच्चतम स्तर था, थोड़ी जल्दबाज़ी ही होगी. ऋचाओं को पढ़कर लगता है कि वह पुरुष की भोग्या ही बनी हुई थीं. हालाँकि काम पर इस तरह की रचनाओं के अनुसार यह भी समझा जा सकता है कि उस दौर में स्त्रियाँ ये भाव भी जाहिर करने के लिए आज़ाद थीं जिसको आज के समय में जाहिर करने पर उन्हें गालियाँ तक सुननी पड़ती है. स्त्री शिक्षा की समुचित व्यवस्था के प्रमाण इतिहास में बार बार खोजने पर भी ठीक से नहीं मिलते. हालाँकि मुग़लकालीन भारत में शहजादियों और अन्य राजशाही स्त्रियों को शिक्षा मिलने के प्रमाण मिलते हैं पर वे भी क़ुरान और उसके इर्दगिर्द घूमते हुए दिखाई देते हैं.   

जितना साहित्य का इतिहास पुराना है उतना ही स्त्रियों द्वारा रचित साहित्य इतिहास भी पुराना है. कई मर्तबा यह सवाल गूंजा करता है कि अतीत में जाकर क्या हासिल होगा या गढ़े मुर्दे खोदकर क्या मिलेगा? इन सवालों की फ़ितरत पर शक़ करना आना चाहिए. गढ़े हुए मुर्दे अतीत में अदृश्य ज़िंदगी जी रहे हैं. इसलिए उनको किसी भी प्रकार से एक व्यक्तित्व देते हुए उनके द्वारा किए गए काम को सबकी नज़र में लाना उचित है. तभी इतिहास में सबका स्वर समझ आ पाएगा.     

 

1.       शिवसिंह सरोज, पृष्ठ शेख के लिए- 380 और ताज के लिए 430

2.       वही, पृष्ठ सं 380

3.       आलमकेलि, शेख और आलम, सं लाला भगवानदीन, प्र.-उमाशंकर मेहता, पृष्ठ सं. 3

4.       वही, जीवन वृत्त, पृष्ठ सं.5

5.       हिंदी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल, नागरी प्रचारिणी सभा, कशी, पृष्ठ 329

6.       हिंदी काव्य की कलामयी तारिकाएँ, सं. श्री व्यथित ह्रदय, भूमिका एवं प्रस्तुति- गरिमा श्रीवास्तव, अनन्य प्रकाशन, 2018 दिल्ली       

7.       वही, प्रस्तावना, पृष्ठ 21

8.       वही, पृष्ठ सं. 34

9.       वही, पृष्ठ सं. 35

10.     हिंदी काव्य की कलामयी तारिकाएँ, सं. श्री व्यथित ह्रदय, भूमिका एवं प्रस्तुति-गरिमा श्रीवास्तव, अनन्य प्रकाशन, दिल्ली 2018, पृष्ठ सं. 35

11.    स्त्री कवि संग्रह, ज्योतिप्रसाद ‘निर्मल’ भूमिका एवं प्रस्तुति-गरिमा श्रीवास्तव, अनन्य प्रकाशन, दिल्ली 2018, पृष्ठ सं. 83

12.    हिंदी साहित्य को मराठी संतों की देन, आ. विनय मोहन वर्मा, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, प्रथम संस्करण 1957

13.    Sexual Politics, Kate Millett, University of Illinois Press, 1970, Page no. 127 

14.    नारी का मुक्ति-संघर्ष, डॉ. अमरनाथ, रेमाधव पब्लिकेशन्स, 2007, पृष्ठ सं. 50

15.    वही, पृष्ठ सं. 50    

21 बरस की बाली उमर को सलाम, लेकिन

  दो साल पहले प्रथम वर्ष में पढ़ने वाली लड़की से मेरी बातचीत बस में सफ़र के दौरान शुरू हुई थी। शाम को काम से थकी हारी वह मुझे बस स्टॉप पर मिल...