गुमशुदा स्त्रियों का कोलाज
(1857 की क्रांति में महिलाओं की भूमिका)
सारांश: वर्तमान समय में स्त्रीवादी दृष्टि से लिखी जा
रही क़िताबों को यदि कुछ देर के लिए छोड़ दें तो इतिहास में शामिल सक्रिय स्त्रियों
की तमाम गतिविधियों का बेहद कम संज्ञान लिया गया है. कुछ स्त्रियों को (जिनका क़द
इतना ऊँचा था और बगैर उनके, इतिहास को लिखने वालों का काम
नहीं चल पाता था) ज़रूर किताबों में थोड़ी जगह दी गई है. लेकिन जिस मात्रा और
स्मृतियों की गहराई से ऐतिहासिक पुरुष किरदारों को याद कर लिया जाता है उतना
स्त्रियों के बारे में नहीं होता. स्कूलों, भवनों, अस्पतालों और संस्थानों के
नामों में स्त्रियों के योगदान को रेखांकित करने की सरकारी कोशिशों से परे
स्त्रियों के ऐतिहासिक योगदानों को रेखांकित करने की ज़रूरत है. किसी भी तरह के
इतिहास में यदि कोई एक जाति भी छूट जाती है तब वह इतिहास बार-बार ख़ाली जगहों को
भरे जाने की माँग करता है. भारतीय इतिहास में स्त्रियाँ, दलित, बच्चे, आम लोगों की
छवियाँ राजाओं के इतिहास में दबी हुई हैं. संभवतः ये अभी भी साँस ले रही हैं. 1857
के स्वतंत्रता संग्राम में शामिल स्त्रियों की वर्तमान समय में खोज हो रही है. इसी
के चलते नयी पीढ़ी अब इन स्त्रियों को जान पा रही है.
बीज शब्द: 1857 की क्रांति, स्त्रियाँ, आज़ादी, भागीदारी,
गुमशुदा, इतिहास
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एक ज़रूरी और दिलचस्प किताब, ‘भारत एक खोज’ में ‘भारतमाता’ से संबंधित
एक वृत्तांत शामिल है. नेहरु लिखते हैं कि जब वे जनसभाओं में वे जाते थे तब लोग
‘भारतमाता की जय’ कहकर स्वागत करते थे. तब वे लोगों से प्रश्न कर देते थे कि ये
भारतमाता कौन है? उस दौर में लोग जिससे भी भारत की समझ या जुड़ाव रखते थे, बता देते
थे कि यही ‘भारतमाता’ है.[1] इस
उद्धरण से इतना तो तय है कि उस समय साधारण ‘जन के मन’ अपने घर या ग्रामीण कुटिया
वाली ज़मीन को ही ‘भारतमाता’ का स्वरुप मान थे. इस मातृभूमि वाली कल्पना में गाँव
भी थे. नदियाँ, मिट्टी, और प्रकृति भी. ये सभी स्त्रीलिंग में समझी जाने वाली
प्रजाति है. कहा जा सकता है कि स्त्रियाँ आदर्श वाली कल्पना के क्षेत्र में कहीं
ऊँची जगहों पर थीं. फिर ऐसी क्या वजह रही है कि इन भारतमाताओं को इतिहास के नायकों
के गुणगान में कहीं छुपा दिया गया? हमें यह समझना होगा कि पुरुषत्व नज़र कला,
विज्ञान, इतिहास आदि में एक जमी हुई प्रवृत्ति है. यह बहुत गहराई में इसलिए
वर्तमान में भी जूझना जारी है.
ग़दर का इतिहास हो या अन्य ऐतिहासिक पुस्तकें, इतिहासकारों के लिए
स्त्रियाँ उनकी इतिहास की किताबों में ‘गेस्ट अपीयरेंस’ की तरह आती हैं. अक्सर
किताबों में ‘स्त्रियों की दशा’ अथवा ‘महिलाओं का योगदान’ जैसे स्तंभ बनाए जाते
हैं और आधी-आबादी का इतिहास तोड़-मरोड़कर उसमें फिट करने का प्रयास किया जाता है. ऐसा
सभी कालों के साथ है. प्राचीन और मध्यकालीन भारत में उंगलियों पर गिन लेने लायक ही
महिलाओं का संज्ञान लिया गया है. इतिहासकारों का यह मानना है कि स्त्रियों से जुड़े
बहुत सारे तथ्य अथवा प्रमाण नहीं मिलते. इसलिए बहुत-सी महिलाएं इतिहास-लेखन में दाख़िल
ही नहीं हो पाई हैं. दूसरा तर्क यह है कि इतिहास के क्षेत्र में अभी बहुत काम करने
की आवश्यकता है. इन तर्कों में वज़न भी है. समाज में जब जिस तरह की स्थिति रही है
वहां ब्राह्मणवादी पितृसत्ता ने स्त्रियों को क़ैद किया है. यह क़ैद लंबी उम्र की
है.
ग़दर 1857 में जिन स्त्रियों के नाम किताबों में खोजते-खोजते मिले,
उनमें अज़ीज़नबाई, झलकारी बाई, लक्ष्मीबाई, जीनत महल, हज़रत महल, अवंतीबाई, रानी
चेनम्मा, उदादेवी, रानी जिन्दान, बख्तावरी, इंद्रा कौर, जमीला खान, मान कौर,
राहिमी कौर, शोभा देवी, आशा देवी, भगवती देवी त्यागी आदि शामिल हैं. एक दो
स्त्रियों पर तो उपन्यास और कविताओं की काफी उपलब्धता है परंतु बाक़ी स्त्रियों के
रेखाचित्र और संग्राम में उनकी सक्रिय भागेदारी के वृत्तान्त जल्दी नहीं मिलते.
साधारण स्त्रियों के बारे में लोक में जनश्रुतियाँ मिलती हैं. अतः इन स्त्रियों की
भूमिका को समझने के लिए उस दौर में प्रवेश करना होगा.
अज़ीज़नबाई उन भूली-बिसरी शख्सियतों में शुमार कर दी गई हैं जिनमें
बाक़ी गुमशुदा औरतें भी साँस ले रही हैं. जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय की ‘सेंटर
फॉर विमेंस स्टडीज’ में एसोसिएट प्रोफेसर लता सिंह ने, ‘मेकिंग द मार्जिन विज़िबल’
नामक लेख में अज़ीज़नबाई को गुमनाम होने से बचाने का प्रयास किया है. लेख में वे
उनके बारे में अच्छा विवरण देते हुए लिखती हैं, “ऐसा माना जाता है कि इनका जन्म
1832 में हुआ था. इन्हें कम उम्र में लखनऊ के सतरंगी महल में लाया गया. लेकिन बाद
में इन्होंने लखनऊ को छोड़ दिया जो हर तरह से एक सांस्कृतिक शहर था. वहां सारी
तवायफ़ें ज़िंदगी का लुत्फ़ लेती थीं. यह स्पष्ट नहीं है क्यों इन्होंने छावनी वाला
शहर कानपुर चुना जहाँ काफ़ी मात्रा में बाज़ार थे.” इस छोटे से वृत्तान्त से यह तो
एहसास हो ही जाता है कि स्वतंत्र निर्णय लेने में अज़ीज़नबाई को कोई बाधा नहीं थी.
लेखिका आगे बताती हैं, “कानपुर में रहने के निर्णय के पीछे शायद एक कारण अज़ीज़न के
मन में आज़ादी के लिए तीव्र भावना (strong passion for independence) थी. नाना
साहेब और अज़ीमुल्लाह खान से इनका अच्छा ख़ासा परिचय था.”[2] लोगों
ने जो अपनी आँखों से देखा उसके मुताबिक़ उनके पास पिस्तौल रहती थी. ये सैनिक कपड़ों
में बख्तरबंद रहती थीं. इस लेख से यह भी पता चलता है कि अज़ीज़न ब्रितानियों के लिए
उन षड्यंत्रकारी विद्रोहियों में से एक थीं जिन्होंने लगातार अपने धन और जगहों का
इस्तेमाल षड्यंत्र करने के लिए किया. लता सिंह के इस लेख में एक अन्य स्त्री
हुसैनी का नाम भी आता है. बीबीघर में हुए जनसंहार में हुसैनी ने संभवतः ब्रितानी
बच्चों और औरतों को मारने के आदेश दिए थे.
इनकी रहने की जगहों को तवायफ़ख़ाना कहा जाता था. बाद में आगे चलकर ‘कोठा’
शब्द बनाया गया. कालांतर में इस शब्द को एक ख़राब जगह के नाम से समझा जाने लगा. पर
1857 में यही जगहें विद्रोहियों के लिए सुरक्षित जगहें हुआ करती थीं. यहाँ वे
ब्रितानियों से छुपते थे और अपनी तमाम योजनाओं को बनाया करते थे.[3] इतना
ही नहीं इन औरतों का समाज में जो रुतबा था, वह काफ़ी ऊँचा था. इनके पास संपत्ति हुआ
करती थी और अपने फ़न के दम पर मशहूर भी हुआ करती थीं. इतिहासकारों ने इन खोई हुई
औरतों पर जिन साक्ष्यों को जुटाया है उनसे पता चलता है कि इन हुनरमंद औरतों ने
विद्रोहियों को वित्तीय सहायता भी दी थी. वीना तलवार ओल्डेनबर्ग्स ने एक निबंध में
शोध के आधार पर बताया है कि 1858 से 1877 के तवायफें सबसे अधिक नागरिक कर अदा करने
वाले लोगों में से थीं. शहर में व्यक्तिगत तौर पर अत्यधिक आय प्राप्त करने वाली
यही औरतें थीं.[4]
अंग्रेजों द्वारा संग्राम को दबा देने के बाद के वर्षों में स्त्रियों की शक्ति और
कला में ह्रास देखने को मिलता है. अंग्रेज़ों ने 1857 के ग़दर के बाद उन जगहों और
लोगों की बारीकी से पहचान की जो आगे उनके शासन के लिए ख़तरा बन सकते थे. यही सबब था
कि उन्होंने इन तवायफ़ों और इनकी कला को कमतर करने के प्रयास भविष्य में किए.
ऐसा माना जाता है कि अवध के नवाब वाजिदअली शाह की बेग़म हज़रत महल,
उनकी बेग़म बनने से पहले पेशे से तवायफ़ थीं.[5] इनकी
ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी और नवाब ने इन्हें अपनाया. पिछले साल देश के
उपराष्ट्रपति श्री वेंकैया नायडू ने इनके बारे में एक फेसबुक पोस्ट लिखा था-
“वो
रुतबा पाया था हमने वतन में,
उसी
की बदौलत हुई ये लड़ाई
अदू
(दुश्मन) बनकर आए जो थे दोस्त अपने,
ना
थी जिसकी उम्मीद की वो बुराई”[6]
इन उपर्युक्त
पंक्तियों को हज़रत महल द्वारा लिखी हुई बताया गया है. हज़रत महल के बारे में जो
जानकारी उपलब्ध है, लगभग वही उपराष्ट्रपति भी इस पोस्ट द्वारा लिख रहे हैं. वे आगे
इनके बारे में लिखते हैं-
“अपनी नेतृत्व
क्षमता और सैन्य कौशल के बल पर, उन्होंने थोड़े समय में अवध की जनता की मदद से एक
बड़ी सेना खड़ी की जिसने आगे चलकर अंग्रेज़ों को टक्कर दी. इस युद्ध में उनका युद्ध
कौशल उभर कर आया...”[7]
इस विवरण से बेग़म हज़रत की कुशलता का पता चलता है. इसकी भी कल्पना की जा सकती है कि
बेग़म को देखकर कितनी साधारण स्त्रियों ने इस विद्रोह में उनका साथ दिया होगा! अफ़सोस
कि वे साधारण स्त्रियाँ खो चुकी हैं.
इसमें झाँसी की
रानी लक्ष्मीबाई का नाम साहित्य, इतिहास और समाज में प्रमुखता से लिया जाता है. जॉन
लैंग ने अपनी पुस्तक, ‘वॉन्डरिंग्स इन इंडिया एंड
अदर स्केचेज ऑफ़ लाइफ इन हिंदुस्तान’ में झाँसी की रानी से, विद्रोह के पहले हुई
मुलाक़ात का ज़िक्र किया है. एक जगह जब वे राजगद्दी के लिए अर्ज़ी दाख़िल करने के लिए
कहते हैं और साथ ही साठ हज़ार रुपए की पेंशन की रकम लेने का सुझाव देते हैं तब रानी
उत्साह से मना कर कहती हैं, “मैं अपनी झाँसी नहीं दूंगी.”[8] लक्ष्मीबाई
ने न सिर्फ अंग्रेज़ों से सामना किया बल्कि स्थानीय छोटे शासकों को भी खदेड़ा. 17
जून 1858 में लड़ते हुए झाँसी की रानी को मार दिया गया. झाँसी का किसी भी तरह
अंग्रेज़ों के सामने समर्पण उन्हें कतई मंज़ूर न था.
ऐसी ही पंजाब से
ताल्लुक रखने वाली एक अन्य रानी, रानी जिन्दान के बारे में भी बहादुरी वाला इतिहास
उभर कर आता है. ग़दर का इतिहास लिखने वालों ने लिखा है कि जिन्दान गवर्मेंट के
ख़िलाफ़ षड़यंत्र रच रही थीं और हेनरी लॉरेंस को जान से मरवाने का जाल उसने बनाया है.[9] महारानी
का देश निकाला भी आगे चलकर सिक्ख लड़ाई का एक कारण बना. ख़ालसा की सेना के सैनिकों
के मन में इनके प्रति स्नेह और सम्मान था. पर अंग्रेज़ों की कूटनीति से इनके पुत्र
को एक अलग ही छवि दे दी. लेकिन इतना पता चलता है कि ये अंग्रेज़ों के आगे झुकने को
तैयार नहीं थीं और अपने बेटे की अंग्रेज़ों से नजदीकियों को पसंद नहीं करती थीं.
ज़ीनत महल,
बहादुर शाह की सबसे कम उम्र की रानी बनी और जल्दी ही अपने दिमाग के बल पर पटरानी
भी. अपने प्रिय बेटे को तख़्त दिलवाने की तमाम कोशिशों के बाद भी वे हार गईं. उनके
बारे में ‘द लास्ट मुग़ल’ किताब में लिखा है कि अपने जीवन के आख़िरी दिनों में वे
सेवानिवृत्त व्यक्ति की तरह जीं. यही नहीं भारत आने के लिए उन्होंने कंपनी सरकार
को आवेदन भी किया पर उनके आवेदन को ठुकरा दिया गया.[10] लेकिन
जब तक वो जीं, अंग्रेज़ों से रणनीतिक तौर पर सक्रिय रहीं.
असग़री बेग़म ने पैंतालिस साल की उम्र में ब्रितानियों से युद्ध करना
बेहतर समझा. माना जाता है इनका जन्म 1811 में हुआ था. बहुत जानकारी नहीं मिलती, पर
यह पता लगता है कि आधुनिक उत्तर प्रदेश के पश्चिमी भाग में इन्होंने युद्ध में
भागीदारी की थी. सन् 1858 में इन्हें पकड़ लिया गया और ऐसा माना जाता है कि इन्हें
जिंदा जला दिया गया.[11] एक
अन्य क्रान्तिकारी वीरांगना हबीबा भी थीं. संभवतः ये मुस्लिम गुर्जर परिवार से
थीं. पकड़े जाने पर अन्य ग्यारह महिलाओं के साथ इन्हें फांसी पर चढ़ा दिया गया. उस
समय ये महज़ पच्चीस बरस की थीं.[12] गौरतलब हो कि इन महिलाओं की ब्रितानियों से कोई
निज़ी रंजिश नहीं थी. बल्कि थोड़े बहुत जो रिकार्ड्स मिलते हैं उनसे यही ज़ाहिर होता
है कि इनके मन में ग़दर में हिस्सा लेने का जुनून था. आज़ादी
की तमन्ना थी. इनकी चाहत मिट्टी से थी.
अंग्रेज़ों को बाहर निकालना इनका मकसद था.
‘झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई’ नामक एक मराठी उपन्यास है. इसके लेखक ने
काफी शोध करके इसे लिखा है. किताब में फुटनोट्स दिए गए हैं. एक ऐसे ही नोट में
किसी अंग्रेज़ी लेखक डी.एल.जी. के लिखे एक लेख के हवाले से टिप्पणी है कि ह्यू रोज़
के साथ हो रही लड़ाई में रानी की तरह ही सुंदर उनकी दो बहनें उनके साथ थीं. मराठी
उपन्यासकार ने इन दो लड़कियों को बहनें न मानकर उनकी दासियां ‘सुंदर और काशी’ माना
है. लेखक ने यह भी लिखा है कि वे दोनों मर्दाना पोषक में थीं और लड़ी भी थीं.[13] अतः
यह तय है कि ‘भुला दी गईं’ औरतों ने युद्ध में बड़ी संख्या में भाग लिया था.
इसके अलावा ‘झाँसी की रानी-लक्ष्मीबाई’ नामक एक अन्य उपन्यास, जिसे
वृन्दालाल वर्मा ने लिखा है, में झलकारी बाई का ज़िक्र आया है. तैयार होकर जब
झलकारी बाई बाहर निकलीं तब अंग्रेज़ी सैनिकों को लगा यही झाँसी की रानी है. उन्होंने
झलकारी बाई को पकड़ लिया.[14] इस
तरह से झलकारी बाई ने न सिर्फ़ रानी की मदद की बल्कि लड़ीं भी. जब इतिहास लिखा गया
तो भारतीय इतिहासकारों ने झलकारी बाई को भुला दिया. अब तो कई जगहों और शहरों के
केन्द्रों में इनकी मूर्तियाँ लगी हुई दिखती हैं, पर जानने वालों की संख्या अभी भी
कम है.
बी.बी.सी. की एक रिपोर्ट में ऊदा देवी का दिलचस्प वर्णन है. उनके
कारनामे को लिखा गया है कि उनके पति की युद्ध में मौत के बाद उन्होंने लगभग 36
अंग्रेज़ों को अपनी बंदूक से मारा. वे सैनिक कपड़ों में थीं.[15] इस
दलित महिला ने भले ही भारतीय और अंग्रेज़ों के रिकॉर्ड में जगह न बनाई हो, पर
जनश्रुतियों में वे बनी हुई हैं. उनके वंशज चाहते हैं कि इनके बारे में सरकारी
पाठ्यक्रम में पढ़ाया जाए. दलित महिलाएं बड़ी संख्या में ग़दर के इतिहास में छोड़ दी
गई हैं, जिनका संज्ञान भारतीय इतिहास मानस ने भी कम लिया है.
इतिहास का निर्माण सबके सहयोग से होता है. इसमें सबका हिस्सा होता
है. इतिहास में रहने वाले तथ्य मानव निर्मित होते हैं और इनमें एक बहुत बड़ा हिस्सा
प्रकृति के द्वारा बनाया-मिटाया जाता है. मानव ने जिन प्रमाणों और रिकार्ड्स को
बनाया या बचाया, वे उनके हित को साधने वाले अधिक हैं. जो जब सत्ता में आता है उसी
के मुताबिक तथ्य कहानी बयान करते हैं. 1857 ग़दर में स्त्रियाँ हर तरह से सक्रिय
हैं. फिर भी वे इतिहास में नहीं हैं. लैंगिक, धार्मिक और जातीय भेदभावों की सीमाओं
को लांघकर स्त्रियाँ बहादुरी के क़िस्से गढ़ रही थीं. युद्ध, संग्राम, युद्ध के
मैदान, सेना, बख्तर, तलवारें, बंदूकें, नीति-कूटनीति, भिड़ंत आदि सारे शब्दों को
पुरुषों ने अपनी छवियों के साथ चिपका लिया है. अतः आज जब हम इन स्त्रियों से रूबरू
होते हैं तब यह महसूस होता है कि हम अभी तक जो इतिहास पढ़ते रहे, वे ख़ुद को दुरुस्त
करने की माँग करता है.
[1] नेहरु, जवाहरलाल, सं./अनु. जैन, निर्मला, (1996),
भारत एक खोज, नयी दिल्ली: एन.सी.आर.टी., पृ. 14-15
[2] Singh Lata, Making the ‘Margin’
Visible (available on several online sites)
[4] वही
[5] वही
[8] Lang, John, (1859), Wanderings in India and Other Sketches of Life in Hindostan, Routledge, Warne, and Routledge, 94-95* (The conversations pages are missing in the book which is available on Internet Archive, but Hindi translation of this meeting is available on BBC’s website.)
[9] द्विवेदी, शिवनारायण, (1979), सन् 1857 के ग़दर
का इतिहास, कलकत्ता: हिंदी पुस्तक एजेंसी, पृ. 11
[10] Dalrymple,
William, The Last Mughal: The Fall of A Dynasty, Delhi, 1857, Bloomsbury, p. 427
[11] https://www.milligazette.com/news/Family-Kids/15010-the-forgotten-women-of-1857-azizun-bai-asghari-begum-habiba/
[12] https://www.milligazette.com/news/Family-Kids/15010-the-forgotten-women-of-1857-azizun-bai-asghari-begum-habiba/
[13] पारसनीस बलवंत, दत्तात्रेय, (संवत 1982), झाँसी
की रानी लक्ष्मीबाई, प्रयाग: गाँधी हिंदी पुस्तक भंडार, पृ. 216