गुमशुदा स्त्रियाँ और उनका
साहित्य: एक झलक
(17वीं शती के विशेष संदर्भ में
)
किसी भी तरह की ऐतिहासिक छवियों और पाठों पर अलग अलग समय पर जो पुस्तकें या
विचार पेश किए जाते रहे हैं, पर यकीन कर लेना ठीक नहीं है. फिर वे चाहे किसी भी मुल्क़ की हों या उस
मुल्क़ के साहित्य से जुड़े प्रसिद्ध पाठ ही क्यों न हों. जिसके पास कलम थामने की
शक्ति और साधन रहे, उन्होंने अपनी ही जैसी छवियाँ और पाठ इतिहास बनाकर पेश कर दिए.
इसलिए अगर स्त्रियों, दलितों, तृतीय लिंगियों, आदिवासियों आदि समुदायों को इन
इतिहासों में अपना अक्स न दिखे तो इसमें हैरान होने की कोई बात नहीं है. इन
इतिहासों में शब्दों का लिंग और उनमें छुपी हुई भावना किसी राजा और उसके दौर की तो
है पर उसमें रानी और उसका दौर खोया हुआ है. कुछ रानियों और शहजादियों ने साहित्य
इतिहास में अपनी जगह बना भी ली है पर आम स्त्रियाँ अभी भी अपने खोजे जाने के
इंतिज़ार में हैं.
गाँव और स्त्रियों पर कवियों और शायरों ने हज़ारों हज़ारा शब्दों को
कुर्बान कर उन्हनें रूहानी बनाकर पेश किया है. जबकि सभी को पता है कि गाँव की हवा
में खाई की तरह भेदभाव और ग़ैर-बराबरी मौज़ूद है. यह शोषण की कहानियाँ रूमानी नहीं
हो सकतीं. कई गुमशुदा हैं. कई दबा दी गई हैं. कई चीख़ बनकर हवा में टंगी हुई हैं.
यही वजह है कि आज इतिहास को बार-बार देखना ज़रूरी है. हिंदी साहित्येतिहास में
स्त्री साहित्य इतिहास लेखन एक अहम कड़ी है. लोक साहित्य में कुछ हद तक स्त्रियों
के भावों ने अपनी जगह लोकगीतों में बनाई है. पर लिखित स्त्री साहित्य में अभी भी
गहन खोज की ज़रूरत है. अपनी ज़मीन और आधार को तलाश कर अपनी ऐतिहासिक ठोस आधारशिला को
खोजना किसी भी जाति और नस्ल को करने का हक़ है, जो ख़ासतौर से संघर्षशील और जिजीविषा
की मिसाल हैं.
आज 2019 का साल अपनी गति से दौड़ रहा है. तकनीक और सूचना से लैस हमारा वक़्त
काफ़ी आगे है. सभी को शिक्षा का हक़ है. ‘पढ़ेगा इंडिया तभी तो बढ़ेगा इंडिया’ टायप के
सरकारी नारों से विज्ञापन गूँज रहे हैं. लेकिन मसला जितना सुखद दिख रहा है उतना है
नहीं. यह जानकर हैरानी होगी कि दिल्ली के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय के नए हिंदी
पाठ्यक्रम में ‘पुरुष कलमों’ को पूरी जगह मिली है और जबकि स्त्रियों द्वारा लिखित
एक भी पाठ को पाठ्यक्रम में जगह नहीं मिली है. कुल चार खंडों में दो भाषा और हिंदी
साहित्य के इतिहास जुड़े हैं जबकि बाक़ी दो खंडों में क्रमश: कबीर, भूषण, बिहारी जैसे
मध्यकालीन कवि और आधुनिककाल से जयशंकर प्रसाद, नागार्जुन और रघुवीर सहाय जैसे
कवियों को जगह मिली है. और अंततः पाठ्यक्रम यहीं समाप्त हो जाता है. पुराने
पाठ्यक्रम में भी सिर्फ महादेवी वर्मा को जगह दी गई थी. इस तरह पुरुषीय विचार और
विमर्श कितनी मज़बूती से आज भी विद्यमान है, यह स्पष्ट हो जाता है. इनमें महिलाओं
की कितनी भागीदारी है, वह भी स्पष्तः दिख जाता है. ऐसे ही हाल में स्त्रियों का
इतिहास, साहित्येतिहास और उसके मूल चरित्र-चेहरों को जानना ज़रूरी हो जाता है. यह
मुद्दा पहचान का बन जाता है.
हिंदी साहित्य के इतिहास पर नज़र डालकर यह आभास होता है कि साहित्य इतिहासकारों ने अपनी-अपनी पसंद का इतिहास लिखा है. यह निजी पसंद के चुनाव जैसा है. जब व्यक्ति किसी कपड़े के स्टोर में जाता है तब अपनी जेबख़र्ची, सुविधा और पसंद के अनुसार कपड़े की ख़रीदारी करता है. इसमें और भी बातें हो सकती हैं- जैसे रंग और
साइज़ आदि. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि स्टोर में बाकी कपड़ों का अस्तित्व नहीं
था. ठीक ऐसे ही हिंदी साहित्य का इतिहास दीखता है. स्त्रियाँ हमेशा से तमाम
पढ़ने-लिखने, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक पाबंदियों के
बावजूद अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार कम-ज़्यादा लिख रही थीं. पर उस कम और ज़्यादा को
इतिहास की किताबों में दर्ज़ नहीं किया गया. उसका संज्ञान भी नहीं लिया गया. उनकी
रचनाओं को कम कर के आँका गया. कहा गया कि उनके काव्य में वह परिपक्वता नहीं
जितनी पुरुष कवियों या रचनाकारों में है. लेकिन मीराबाई के सम्बन्ध में यह अचरज
भरा लगता है. क्योंकि मीराबाई को नज़रन्दाज़ करने से साहित्य इतिहासकारों पर
स्त्रियों की उपेक्षा और भेदभाव के आरोप स्पष्ट उभर आते. मीराबाई का क़द भी इतना
बड़ा है कि उन्हें दरकिनार नहीं किया जा सकता था. जिंदा जलने के बाद भी स्त्रियों
की नस्ल में ऐसा बहुत कुछ ख़ास शामिल रहा है कि ये स्त्रियाँ अपने अस्तित्व और उसके
अलग-अलग रूपों के साथ हमेशा बनी रही हैं.
हिंदी साहित्य का इतिहास लिखने का शुरूआती उद्योग गहन दृष्टि वाली
आलोचना की माँग करते हैं. यह बात स्वयं हिंदी साहित्य के इतिहासकारों के संदर्भ
में है. फ्रेंच विद्वान तासी द्वारा लिखित हिंदी साहित्य के पहले इतिहास में कुछ
ही सही पर स्त्री कवयित्रियों को जगह मिली है. इनकी गिनती मात्र उंगली पर की जा
सकती है. उसके बाद के लिखे इतिहास में भी कुछ ही सही पर स्त्री लेखिकाओं को शामिल
किया गया. पर मामला तब गंभीर हो जाता है जब ‘शिवसिंह सरोज’ जैसे ग्रन्थ में
कृष्णभक्ति की लेखिका ताज और श्रृंगार की लेखिका शेख1 का उल्लेख एक या
दो शब्दों-पंक्तियों में निपटा दिया जाता है. यह हिंदी साहित्य की हैरान करने वाली
घटना है. इतनी भी क्या जल्दी थी जो स्त्री रचनाकारों के संदर्भ आते ही छुटकारा
पाने की प्रवृत्ति की झलक देती है? किसी भी इतिहासकार से यह उम्मीद लगाई जाती है
कि वह इतिहास के तमाम चरित्रों को तटस्थ होकर पेश करें. तथ्य जुटाकर उनको परिभाषित
करे. पर जब बात हिंदी साहित्य के इतिहास में स्त्री लेखन की आती है तब यह सब एक ओर
ही झुक सा जाता है. अचानक पुरुष वाला हिस्सा बड़ा दिखाई देने लगता है.
‘शिवसिंह सरोज’ में शेख का ज़िक्र कुछ यूँ है- ‘पीछे धनाढ्य ब्राह्मण
थे, किसी मुसलमान रंगरेजिन के इश्क़ में मुसलमान होकर मुअज्जम शाह के दरबार में
बहुत दिनों तक रहे.’2 इन पंक्तियों को कई बार पढ़ने से दुःख के सिवा कुछ
हाथ नहीं लगता. दूसरी दुःख की वजह यह है कि शेख का एक कवयित्री के रूप में ज़िक्र ही
नहीं हुआ जबकि शेख और आलम की संयुक्त लिखित पुस्तक ‘आलमकेलि’ के पुस्तक परिचय भाग
में संपादक लाला भगवानदीन ने लिखा है- ‘मुझे तो आलम की प्रतिभा से सेख की प्रतिभा
से कुछ ऊँची जंचती है.”3 इतना ही नहीं, संपादक महोदय आगे एक जग
प्रसिद्ध क़िस्से का ज़िक्र करते हैं जिससे शेख के हाज़िर जवाब होने की बात सिद्ध
होती है- “कहते हैं एक बार आलम के आश्रयदाता शाहजादा मुअज्जम ने मज़ाक में ‘शेख’ से
पूछा कि “आलम की बीवी आप ही हैं?” शेख ने हंसकर जवाब दिया “हाँ हुज़ूर! जहान की माँ
मैं ही हूँ.”4 (जहान उनके पुत्र का नाम था) इस प्रकार की रचनाकार को रामचंद्र
शुक्ल ने भी अपनी पुस्तक हिंदी साहित्य के इतिहास5 में आलम के साथ
संयुक्त रूप से पेश किया है. (हिंदी साहित्य का इतिहास पृष्ठ 329 नागरी
प्रचारिणी सभा, काशी) शेख के द्वारा लिखित एक रचना का उदाहरण है-
“नेह सो निहारि
नाहु नेकु आगे कीने बाहु,
छाहियों छुवत
नारि नाहियो करति है.
प्रीतम के पानि
पेलि आपनी भुजै सकेलि,
धरकि सकुचि हियौ
गाढ़ो कै धरति है.
‘सेख’ कहि आधे
बैना बोलि कर नाचे नैना,
हा हा करि मोहन
के मनहिं हरति है.
केलि के आरम्भ
खिन खेल के बढ़ायेब को,
प्रोढ़ा जो
प्रवीन सो नवोढ़ा ह्वै ढरति है.” 6
समूची साहित्य-परम्परा में स्त्री रचनाशीलता के दखल को कम करके
आंकना, या उसे भावुक, अबौद्धिक साहित्य कहकर दरकिनार करने की रणनीतियों को स्त्री
साहित्येतिहास लेखन ने समझा और अपने ढंग से इसे चुनौती दी है.7 वास्तव
में स्त्री की साहित्य सम्बन्धित व्यक्तित्व की समझ इसी परम्परा से होकर जाती है
जिसे कई साहित्य की बड़ी शख्सियतों ने नज़रन्दाज़ कर दिया है. सन् 1904 में मुंशी
देवी प्रसाद मुंसिफ ने एक अनूठे ग्रन्थ का संकलन किया. इस अनूठे ग्रन्थ का नाम
‘महिला मृदुवाणी’ है. इसमें विभिन्न हिंदी स्त्री रचनाकारों का न सिर्फ़ परिचय दिया
गया है बल्कि इसमें उन कई स्त्री रचनाकारों की रचनाओं को जगह दी गई है, जो अपने
अपने समय में पर्याप्त शिक्षित, अल्प शिक्षित और अपढ़ होते हुए भी लिखने की दिशा
में चलरही थीं. लेकिन कई वर्षों बाद लिखी गई हिंदी शब्द सागर की भूमिका, ‘हिंदी
साहित्य का इतिहास’ में शुक्ल इन स्त्री रचनाकारों के बारे में बिना कुछ निकल जाते
हैं.
डॉ. रमण प्रसाद सिंहा के शब्दों में, “यह तथ्य और भी आश्चर्यजनक तब
लगता है जब हम देखते हैं कि इसी नागरी प्रचारिणी सभा से जहाँ से यह इतिहास ग्रन्थ(हिंदी
साहित्य का इतिहास) पहले हिंदी शब्द सागर की भूमिका के रूप में प्रकाशित हुआ और
फिर स्वतंत्र पुस्तकाकार, वहीं से महिला मृदुवाणी का भी प्रकाशन हुआ था और वहीं से
हस्तलिखित ग्रंथों की खोज भी हो रही थी, जिसके आधार पर मिश्रबंधु विनोद (1913) में
पचास कवयित्रियों का उल्लेख हुआ.”8 स्त्रियों के सन्दर्भ में जितना
भेदभाव समाज ने किया उतना ही बुद्धिजीवी जमातों ने कर के दिखाया और साहित्य इतिहास
के एक ढर्रे को यूँ जमाया कि आज भी हिंदी साहित्य के अध्येता इससे बाहर नहीं निकल
पा रहे हैं. यह जमी हुई बर्फ इतनी मज़बूत है कि हिंदी साहित्य के विद्यार्थियों को
हिंदी साहित्य का इतिहास सबसे पहले पढ़ने का आग्रह किया जाता है और उसे एक मूल पाठ
भी माना जाता है. बिना इस बात की परवाह किए कि इस पुस्तक में ‘महिलावाणी’ पुस्तक की
कई कवयित्रियाँ (मीराबाई के अलावा) नहीं आ पाई हैं.
इसके बाद भी स्त्री साहित्य की रचनाओं के संकलन होते रहे हैं जिनमें,
ज्योति प्रसाद ‘निर्मल’ का स्त्री कवि कौमुदी और स्त्री कवि संग्रह, व्यथित ह्रदय
सम्पादित- हिंदी काव्य की कलामयी तारिकाएँ, सावित्री सिन्हा का शोध ग्रन्थ-
मध्यकालीन हिंदी कवयित्रियाँ आदि ग्रन्थ शामिल हैं. यह सूची और भी लम्बी है. जो यह
यह सूचना देती है कि हिंदी भाषा में स्त्रियों ने भरपूर लिखा है. स्त्रियों ने भी
भक्ति से लेकर श्रृंगार रस तक की रचनाओं में अपनी प्रतिभा दर्ज़ की है.
बख्तकुँवरि बाई, नाथी, शेख, ताज, बहिणाबाई, बयाबाई, छत्रकुँवरिबाई,
प्रवीणराय पातुर, सुजानराय पातुर, इन्द्रामती, केशवपुत्र वधू, खगनिया आदि जैसी
रचनाकार (17वीं शती की हिंदी लेखिकाएँ) शामिल हैं जिन्होंने हिंदी साहित्य के
इतिहास में रचनात्मक योगदान दिया और उसे स्त्री रचनाकार सूची में शून्य नहीं होने
दिया. इनमें से शेख, ताज, बख्तकुँवरि बाई, कृष्ण काव्य से जुड़ी हैं. प्रवीणराय
पातुर ने केशव जैसे महाकवि के एक प्रसिद्ध ग्रंथ में अपनी रचनाशीलता से सहयोग दिया
है. केशवदास ने प्रवीणराय पातुर की
प्रशंसा में ‘कवि प्रिया’ नामक ग्रन्थ लिखा था.9 प्रवीणराय पातुर की
रचना का एक नमूना पढ़ना उचित होगा-
मान कै बैठी है
प्यारी ‘प्रवीण’ सो देखै बनै नहि जात बनायो
आतुर ह्वै अति
कौतुक सों उत लाल चले अति मोद बढ़ायो
जोरि दोऊ कर
ठाढे भये करि कातर नैन सों सैन बतायो
देखत बेदी सखी
की लगी, मित हेर्यो नहीं इतयों बहरायो 10
सुजानराय पातुर ने घनानंद के समान ही विरह के गीत की रचना की,
इन्द्रामती ने अपने पति प्राणनाथ के पंथ धामी संप्रदाय में न सिर्फ योगदान दिया
बल्कि भाईचारे के सन्देश भी फैलाए, अमीर खुसरो द्वारा रचित पहेलियों के ज़ायके को
बरक़रार रखते हुए खगनिया ने भी दिलचस्प और सुन्दर पहेलियों की रचना की. खगनिया
द्वारा रचित की एक पहेली का स्वाद लेना ठीक रहेगा-
“नारी देखी एक
अनोखी, बंद न होती चलती चोखी
मरना जीना तुरत
बतलाती, कभी नहीं कुछ खाना खाती
सदा हाथ में
मेरे रहै, बासू केर खगनियाँ कहे” (नाड़ी) 11
भक्ति के स्वरुप
को और निखारते हुए बहिणाबाई और बयाबाई ने अपने अपने हिस्से की भूमिका को निभाया और
मराठी के साथ-साथ हिंदी पदों की भी रचना की. बहिणाबाई द्वारा रचित एक रचना देखिए-
अजब बात सुनाई भाई
गरुड़ पंख हिरावे कागा लक्ष्मी चरन
चुराई
ये सूरज की थींव अंधारे सोवे चंबर कू
भाग जलावे
राहु के गिरहो भोगी कहा रे अमृत ले भर
जावे
कुबेर सोवे धन के आस हनुमान नीर मंगावे
वैसे सबहि झूठा है निंदा की बात सुनावे
समीन्दर तान्हो चीरत कैसों साधु मांगत
दान
बहिनी कहे जन निंदक है रे वाको साँच न
मान12
कहना न होगा कि
समुचित और व्यवस्थित शिक्षा के अभाव में भी ये स्त्री रचनाकर कुछ न कुछ रच ही रही
थीं. इनके विषयों में प्रेम, वियोग, वीरता, प्रकृति, मानवता, श्रृंगार वात्सल्य,
ऋतु, आदि शामिल रहे जो पुरुष रचनाकारों के समान ही हैं. फिर ऐसे में वे कौन सी वजह
रहीं कि इन स्त्रियों को हिंदी साहित्य इतिहास में दर्ज़ ही नहीं किया गया. अधूरा
इतिहास कभी भी पूरा पूरे इतिहास की महक नहीं दे सकता. कम या ज़्यादा, अपने अपने
स्तर पर सभी ने लिखा. लेकिन हैरानी इसी बात है की है कि आज भी इन्हें हिंदी
साहित्य के इतिहास में ठीक प्रकार से जगह नहीं मिल रही है.
हिंदी साहित्य के इतिहास संबंधी कुछ पुस्तकों में स्त्रियों की
रचनाओं को जब थोड़ी बहुत जगह दी गई, तब आलोचकों के निशाने पर उन रचनाकारों के काव्य
सौष्ठव की बात उठाई जाती रही है. आलोचकों के मुताबिक़ उनकी रचनात्मक समझ पुरुष
रचनाकारों की तुलना में बेहद कम थी. उन्हें परम्परागत काव्य शास्त्र का ज्ञान नहीं
था और न ही उन्हें कोई ऐसी शिक्षा मिली थी जिससे वे उम्दा रचना कर पातीं. स्त्रियों
के लिए गंभीर शिक्षा चाहे वह जानबूझकर या बगैर जाने पितृसत्ता विवाह और घरेलू
व्यवस्था के लिए धमकी की तरह तो है ही साथ ही उससे बढ़कर यह पुरुष वर्चस्व,
अर्थव्यवस्था, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक स्तरों पर चुनौती भरा हो सकता है.13
इसलिए स्त्री शिक्षा का हाल वैदिक समय से लेकर उसके बाद के हजारों साल तक ऐसे
फ्रेम में रखा गया कि उन्हें एक अच्छी पत्नी, सेविका, बहन, माँ, पुत्री जैसी
भूमिकाएं अच्छी तरह निभानी आ जाएं.
विद्वान ऋग्वेद की स्त्री रचनाकारों की दुहाई देकर स्त्री शिक्षा और
स्त्री स्थिति को वैदिक युग में बेहतर बताते हैं. जबकि नजदीक से विश्लेषण कर यह अलग दीखता है.
ऋग्वेद के प्रथम मंडल में 2006 में से तीन मन्त्र स्त्रियों द्वारा लिखे गए हैं.
लोपामुद्रा द्वारा दो और रोमशा द्वारा एक.14 ऋषिका लोपामुद्रा कहती
हैं- अनेक वर्षों तक दिन-रात और उषाओं में करती हुई अब मैं बूढ़ी हो जाने के कारण
में थक गई हूँ. अब बुढ़ापा मेरे अंगों की शोभा को नष्ट कर रहा है इसलिए तरुण और
वीर्यवान व्यक्ति अपनी पत्नियों के साथ सहवास करें. अन्यथा उनको मेरी तरह कष्ट
उठाना पड़ेगा. ठीक इसी तरह रोमशा भी यही कुछ कहती हैं.15 आत्रेयी, घोषा,
उर्वशी, इन्द्राणी, आदि इसी तरह की बातें करती दिखाई देती हैं. इसलिए ऋग्वेद में
आईं इन ऋषिकाओं के आधार पर यह मान लेना कि ऋग्वेद कालीन स्त्रियों में शिक्षा का
उच्चतम स्तर था, थोड़ी जल्दबाज़ी ही होगी. ऋचाओं को पढ़कर लगता है कि वह पुरुष की
भोग्या ही बनी हुई थीं. हालाँकि काम पर इस तरह की रचनाओं के अनुसार यह भी समझा जा
सकता है कि उस दौर में स्त्रियाँ ये भाव भी जाहिर करने के लिए आज़ाद थीं जिसको आज
के समय में जाहिर करने पर उन्हें गालियाँ तक सुननी पड़ती है. स्त्री शिक्षा की
समुचित व्यवस्था के प्रमाण इतिहास में बार बार खोजने पर भी ठीक से नहीं मिलते.
हालाँकि मुग़लकालीन भारत में शहजादियों और अन्य राजशाही स्त्रियों को शिक्षा मिलने
के प्रमाण मिलते हैं पर वे भी क़ुरान और उसके इर्दगिर्द घूमते हुए दिखाई देते हैं.
जितना साहित्य का इतिहास पुराना है उतना ही स्त्रियों द्वारा रचित
साहित्य इतिहास भी पुराना है. कई मर्तबा यह सवाल गूंजा करता है कि अतीत में जाकर
क्या हासिल होगा या गढ़े मुर्दे खोदकर क्या मिलेगा? इन सवालों की फ़ितरत पर शक़ करना
आना चाहिए. गढ़े हुए मुर्दे अतीत में अदृश्य ज़िंदगी जी रहे हैं. इसलिए उनको किसी भी
प्रकार से एक व्यक्तित्व देते हुए उनके द्वारा किए गए काम को सबकी नज़र में लाना
उचित है. तभी इतिहास में सबका स्वर समझ आ पाएगा.
1.
शिवसिंह सरोज, पृष्ठ शेख के लिए- 380 और ताज के
लिए 430
2.
वही, पृष्ठ सं 380
3.
आलमकेलि, शेख और आलम, सं लाला भगवानदीन,
प्र.-उमाशंकर मेहता, पृष्ठ सं. 3
4.
वही, जीवन वृत्त, पृष्ठ सं.5
5.
हिंदी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल,
नागरी प्रचारिणी सभा, कशी, पृष्ठ 329
6.
हिंदी काव्य की कलामयी तारिकाएँ, सं. श्री
व्यथित ह्रदय, भूमिका एवं प्रस्तुति- गरिमा श्रीवास्तव, अनन्य प्रकाशन, 2018 दिल्ली
7.
वही, प्रस्तावना, पृष्ठ 21
8.
वही, पृष्ठ सं. 34
9.
वही, पृष्ठ सं. 35
10.
हिंदी
काव्य की कलामयी तारिकाएँ, सं. श्री व्यथित ह्रदय, भूमिका एवं प्रस्तुति-गरिमा
श्रीवास्तव, अनन्य प्रकाशन, दिल्ली 2018, पृष्ठ सं. 35
11.
स्त्री कवि संग्रह, ज्योतिप्रसाद ‘निर्मल’ भूमिका
एवं प्रस्तुति-गरिमा श्रीवास्तव, अनन्य प्रकाशन, दिल्ली 2018, पृष्ठ सं. 83
12.
हिंदी साहित्य को मराठी संतों की देन, आ. विनय
मोहन वर्मा, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, प्रथम संस्करण 1957
13.
Sexual
Politics, Kate Millett, University of Illinois Press, 1970, Page no. 127
14.
नारी का मुक्ति-संघर्ष, डॉ. अमरनाथ, रेमाधव
पब्लिकेशन्स, 2007, पृष्ठ सं. 50
15.
वही, पृष्ठ सं. 50
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