बहुत-सी कहानियों में कुछ दिलचस्प तथ्य मिल ही जाते
हैं. इस लेख की शुरुआत एक अजीबोगरीब कहानी से करना ठीक होगा. गाँवों में यह कहानी कही
जाती है, “पहले के जुग (युग) में हैजा-प्लेट(प्लेग) फैलता था तो बहुत लोग मर जाते
थे. गाँव के गाँव ख़त्म हो जाते थे. लोग अपना घरबार सब छोड़कर बचने की खातिर दूर चले
जाते थे...एक राजा था जो शान-ओ-शौकत से जीता था. उसके महल में एक चिड़िया भी पर
नहीं मार सकती थी. एक दिन किसी सुबह राजा के महल के भीतर एक विचित्र चिड़िया घुस
आई. राजा ने उससे पूछा, “तुम कौन हो?” वह बोली, “मैं हैजा-प्लेट हूँ.” राजा ने
कहा, “मुझे यकीन नहीं हो रहा. ज़रा मेरी हथेली पर बैठो तब तुम्हें पास से देखूं तो
यकीन करूँ.” चिड़िया चालाक राजा के झांसे में आ गई. वह जैसे ही राजा की हथेली पर
बैठी राजा ने उसे अपनी मुट्ठी में भींच लिया और अपना हाथ कटवा कर लोहे के बक्से
में बंद कर दिया. तब से उसके राज्य में ये बीमारियाँ नहीं फैलीं. लेकिन जब हमारे
देश में अंग्रेज़ आए तो रेलवे का काम शुरू हुआ और उसी दौरान किसी लालची आदमी ने
ख़जाना समझकर उस बक्से को खोल दिया और ये बीमारियाँ फिर से फ़ैल गईं.” इस कथा में
जीवन की चाह और उसे बनाए रखने के संकेत मिलते हैं.
इस रोचक कथा का एक तार जनसंख्या से भी जुड़ा है. बीमारियाँ और आपदाएँ
मनुष्य के अस्तित्व के लिए हमेशा ही चुनौतीपूर्ण रही हैं अतः उनसे बचे रहने के
उपाय निरंतर किए गए. इंसान अपनी एक नक़ल इस पृथ्वी पर छोड़ कर जाना चाहता है. इसलिए
वह अपने वंश को बढ़ाने में सम्मोहित रहता है. पुराने ज़माने की कहानियाँ उन साहसों
को बटोर कर कथा में पेश कर देती है जिनके सहारे इंसान बचा रहा. जिस बुज़ुर्ग ने
मेरी माँ को यह कथा सुनाई थी वह स्वयं कई भाई-बहन थे और उनमें कईयों की मृत्यु
तरह-तरह की बीमारियों और कुपोषण के चलते हुई. लेकिन आधुनिक समय जब औद्योगिक
क्रांति हुई और नए निर्माण हुए उससे रहन-सहन बदला और बीमारियों को काबू कर लेने की
क्षमता से जनसंख्या में ख़ासी वृद्धि हुई. इसके अलावा चिकित्सीय सुविधाओं ने भी
इंसानों को अच्छी उम्र का तोहफा दिया. भारत की आबादी अब तक एक अरब से बहुत अधिक बढ़
गई है. चीन और भारत पृथ्वी की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा अपने क्षेत्रफलों में
बसाए हुए हैं. आज आधुनिक समय में पूरा विश्व कोरोना संक्रमण की महामारी की चपेट
में और इसका सीधा असर जनसंख्या पर है. बड़ी मात्रा में मानव समाज कई विकराल परिस्थितियों
में उलझा हुआ है और लगातर जूझ रहा है. इसके पीछे की एक बड़ी वजह विशाल और बढ़ती
जनसंख्या को बताया जाता है. पर क्या वास्तव में जनसंख्या एक बहुत बड़ी वजह है और अब
क्या इससे जुड़ा कानून बना लेना ही चाहिए?
जनसंख्या का पेंच इतना जटिल है कि उससे समझने के लिए विस्तृत अध्ययन
की ज़रूरत होती है. पर दुर्भाग्य यह है कि बिना विस्तृत अध्ययन के प्रचलित बातों की
पूछ पकड़कर हम सब जनसंख्या की रेलगाड़ी में बैठकर छुक-छुक करना चाहते हैं. एक प्रतिष्ठित
जनरल की रिपोर्ट के मुताबिक अभी पूरे विश्व की जनसंख्या 7.8 अरब है जो वर्ष 2100
में 8.8 हो जाएगी.[1]
इस बढ़ती हुई जनसंख्या को बहुत सारी मुश्किलों का कारण माना जाता रहा है. शायद ही
भारत में कोई ऐसा व्यक्ति होगा जिसने ‘हम दो, हमारे दो’ या ‘छोटा परिवार, सुखी
परिवार’ का नारा न सुना होगा. अतः आती-जाती सरकारों में जनसंख्या को लेकर एक
संज्ञान तो ज़रूर रहा है. लेकिन कुछ वर्षों में सरकार ने जनसंख्या से जुड़े अभियानों
में उतनी दिलचस्पी नहीं दिखाई. या कम से कम उसे एक मुख्य मुद्दे की तरह नहीं लिया.
लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं कि जनता ने जनसंख्या को अपने दिल-दिमाग से हटाया हो.
छोटे परिवार की अहमियत लोगों के संज्ञान में है. वे अपने बच्चों को बेहतर शिक्षा
देना चाहते हैं इसलिए वे बड़े परिवार की कामना नहीं कर रहे. इसकी पुष्टि स्वयं
सरकार द्वारा जारी आंकड़ें कर रहे हैं. गत वर्ष दिसंबर 2020 में राष्ट्रीय परिवार
स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के आंकड़ों को जारी किया गया. पी.आई.बी. (Press
Information Bureau/ Government of India) के प्रेस नोट के अनुसार, “राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के तहत
पहले चरण में जिन राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों का सर्वे हुए किया गया उनमें
करीब-करीब सभी में कुल प्रजनन दर में कमी आई है. कुल 22 राज्यों में से 19 में यह
घटकर 2.1 पर आ गई है.”[2]
हाल ही में एक प्रदेश की सरकार द्वारा जनसंख्या स्थिरीकरण और कल्याण
विधेयक 2021, बिल को पेश किया है. इसलिए जनसंख्या नियंत्रण कानून पर बहस सियासी
गलियारों में तेज़ हुई है. सत्तारूढ़ सरकारें और विपक्ष, दोनों असली मुद्दे पर बहस
और समाधान के बजाय दूसरे मुद्दों में उलझी हुई दिखाई दे रही हैं. उत्तर प्रदेश के
इस जनसंख्या संबंधी बिल पर राय बंट गई है. ‘पापुलेशन फाउंडेशन ऑफ़ इंडिया’ की
निदेशिका पूनम मुत्तरेजा, ‘डेक्कन क्रॉनिकल’ में छपे अपने लेख में कहती हैं, “2011
की जनगणना के अनुसार जनसंख्या विकास दर में कमी आई है. 1991 से लेकर 2001 तक यह दर
21.5 थी तो वहीं 2001 से लेकर 2011 के बीच यह दर घटकर 17.7 हो गई. यह सभी धर्मों
के लोगों के साथ है.” [3] अतः
किसी एक मजहब के लोगों को निशाने पर लेना ग़लत होगा इसके साथ ही यह समझ आता है कि
जनसंख्या अपनी गति से घट भी रही है.
इसके अलावा पड़ोसी मुल्क चीन की जनसंख्या नीति का भी विश्लेष्ण कर
लेना चाहिए. चीन ने अपने देश में बढ़ती जनसंख्या पर लगाम लगाने के लिए सन् 1979 में
‘एक संतान नीति’ लागू की. इसके परिणाम अलग आए. बी.बी.सी. की एक खबर में कहा गया है
कि इस नीति को लाने के बाद चीन में लिंग अनुपात बिगड़ा और बेटे की चाह में कन्या
भ्रूण हत्याएँ भी अधिक की गईं.[4] भारत
में इस बात की कल्पना आसानी से की जा सकती है कि अगर जनसंख्या नियंत्रण कानून लागू
किया जाता है तो लिंगानुपात कितना बिगड़ सकता है! बेटे की चाह में बेटियों की जन्म
से पहले हत्या बड़ी मात्रा में होने लगेगी. सरकार ने तो ख़ुद जागरूकता के लिए नारा
भी लगवाया है, “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ!”
जनसंख्या नियंत्रण कानून के पक्ष में कई अन्य दलीलें दी जाती हैं. प्राकृतिक
संसाधनों का लगातार कम होना, जलवायु परिवर्तन, कार्बनडाइ ऑक्साइड गैस की अधिकता और
अमीरी-ग़रीबी में घोर असमानता के पीछे बड़ी जनसंख्या को एक महत्वपूर्ण कारक माना
जाता है. पर क्या वास्तव में ये सभी खतरनाक स्थितियाँ जनसंख्या के बढ़ने से जुड़ी
हैं? सवाल का जवाब हाँ अथवा न की बजाय समझने की कोशिश होनी चाहिए. पूंजीवाद समाज
में हमारा रहन-सहन तीव्रता से बदला है. उपभोग की बुनियादी शर्तें और नियम बदल गए
हैं. यह समझना बहुत जटिल नहीं है कि किस तरह से विज्ञापन की जरिए पानी की प्यास
अन्य पेय पदार्थों से बुझाई जा रही है. यदि किसी के पास कोई स्मार्टफोन न हो तो वह
कितने सरकारी कामों और लाभों से मरहूम रह जाएगा. संसाधन अंधाधुंध उपभोग के चलते भी
कम हो रहे हैं.
ऑनलाइन दुनिया में चुपचाप बैठे हुए आंकड़ों से बातें करें तो पता चलता
है कि चीन, अमेरिका, भारत, रूस और जापान क्रमशः पहले, दूसरे, तीसरे, चौथे और
पाँचवे स्थान पर कार्बनडाइ ऑक्साइड उत्सर्जित करने वाले देश हैं. यह आंकड़ा ‘ग्लोबल
कार्बन एटलस’ की वेबसाइट पर वर्ष 2019 के हवाले से पता चलता है. निश्चित रूप से
चीन और भारत इस सूची में हैं पर आंकड़ों को सूक्ष्मता से अध्ययन करने पर पता चलता
है कि इस गैस के एमिशन में कंपनियों का बड़ा हाथ है. एक रिपोर्ट के मुताबिक केवल सौ
कंपनियाँ 70% से ज़्यादा ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को बढ़ा रही हैं. यह सिलसिला
सन् 1988 से है.[5]
इसके अलावा अमीरों की जीवन शैली ने भी पृथ्वी को प्रभावित किया है. ऑक्सफेम की
न्यूज़ रिपोर्ट बताती है कि ये ग़रीब नहीं हैं जो जलवायु को नुक्सान पहुंचा रहे हैं,
बल्कि ये मुट्ठीभर धनवान लोग हैं जो कार्बन उत्सर्जन को बढ़ा रहे हैं.[6] इसलिए
बढ़ती आबादी की बजाय उन मुख्य कारकों भी समझने की ज़रूरत है जिनके कारण जलवायु
असंतुलन बढ़ रहा है. हाल ही में प्रकाशित ढेरों रिपोर्ट बताती हैं कि किस तरह इस
कोरोना महामारी में गरीब और गरीब हुआ है और अमीर उम्मीद से भी ज़्यादा अमीर.
अंत में यह सवाल पूछा जा सकता है, तो क्या बढ़ती जनसंख्या की भूमिका
को छोड़ दिया जाए? जवाब है, नहीं. जनसंख्या को नियंत्रित करने के दूसरे ऐसे क़दम और
उपाय आजमाए जा सकते हैं जिनसे देश की एक बड़ी और निर्धन जनता को नकारात्मकता का
सामना न करना पड़े. सरकार को ऐसी योजनाएं और कार्यक्रम लाने होंगे जिनमें ग़रीब तबके
को शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार के उचित अवसर मिलें. हम स्वयं अपने अनुभवों से जानते
हैं कि आज की पीढ़ी किस कद्र अलग है! युवाओं का एक बड़ा हिस्सा देर से शादी करने की
चाहत रखता है इतना ही नहीं वे अपना परिवार बनाने में भी वक़्त ले रहे हैं.
जनसंख्या का कानून यदि बनता है तो स्त्रियों पर इसका अधिक असर पड़ेगा.
यदि स्त्री की राजनीतिक भागीदारी अथवा सरकारी नौकरी में उनका आना, उनके द्वारा
जन्में गए बच्चों की संख्या से जोड़ा जाएगा तब निश्चित रूप से बहुत-सी महिलाएँ देश
की तरक्की में योगदान नहीं दे पाएंगी. यही नहीं गर्भ में ही लिंग परिक्षण कर
लड़कियों को मारने की घटनाएं बढ़ेंगी. महिलाओं पर ही चूँकि परिवार नियोजन की
जिम्मेदारी पितृसत्तात्मक समाज में अधिक है अतः, शहरी और ग्रामीण स्त्रियों के लिए
गर्भ निरोधक दवाएँ और अन्य तरीकों के इस्तेमाल को बढ़ावा देना होगा. इसके अलावा
जनसंख्या संबंधी जागरूक अभियानों की ज़रूरत पर बल दिया जा सकता है. बच्चों को
पाठ्यक्रम में शुरू से ही इसके प्रभावों को पढ़ाना होगा. शारीरिक संबंधों पर खुलकर
बातें करने की ज़रूरत है. अपनी परंपराओं और रीतियों को स्त्री के शरीर और मानिसक
स्वास्थ्य से बड़ा नहीं माना जा सकता. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-
2015-16 के मुताबिक 40% पुरुषों का मानना है कि गर्भ-निरोध सिर्फ औरतों की जिम्मेदारी
है. साथ में 20% पुरुष यह मानते हैं कि जो स्त्री गर्भ-निरोध का इस्तेमाल करती है
वह कई पुरुषों से संबंध बनाने वाली स्त्री होती है.[7] यह
दोहरापन समाज की सच्चाई है. सरकार को सभी महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर सोचकर ही किसी
कानून का निर्माण करना चाहिए. जनसंख्या नियंत्रण से जुड़ा कानून प्रत्येक नागरिक को
प्रभावित करेगा अतः इस पर पर्याप्त सोच व शोध करने की ज़रूरत है. कानून बनाने में
पर्याप्त संवेदनशील होने के साथ-साथ वैज्ञानिक सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक,
व्यावहारिकता की ज़रूरत होती है. यह भी याद रखने की ज़रूरत है कि कोई कानून ऐसा न
बना दिया जाए जो मौलिक अधिकारों और राज्य के कल्याणकारी रूप में दख़ल करे.
[3] https://www.deccanchronicle.com/lifestyle/culture-and-society/160719/population-regulation-bill-2019-misreading-of-indias-demographic.html
[5] https://www.business-humanrights.org/en/latest-news/100-companies-are-responsible-for-71-of-global-emissions-study-says/
[6] https://www.oxfam.org/en/press-releases/carbon-emissions-richest-1-percent-more-double-emissions-poorest-half-humanity
[7] https://www.bbc.com/hindi/india-57862212