Friday, 17 September 2021

भारत की बढ़ती जनसंख्या एक बोझ है?

 

बहुत-सी कहानियों में कुछ दिलचस्प तथ्य मिल ही जाते हैं. इस लेख की शुरुआत एक अजीबोगरीब कहानी से करना ठीक होगा. गाँवों में यह कहानी कही जाती है, “पहले के जुग (युग) में हैजा-प्लेट(प्लेग) फैलता था तो बहुत लोग मर जाते थे. गाँव के गाँव ख़त्म हो जाते थे. लोग अपना घरबार सब छोड़कर बचने की खातिर दूर चले जाते थे...एक राजा था जो शान-ओ-शौकत से जीता था. उसके महल में एक चिड़िया भी पर नहीं मार सकती थी. एक दिन किसी सुबह राजा के महल के भीतर एक विचित्र चिड़िया घुस आई. राजा ने उससे पूछा, “तुम कौन हो?” वह बोली, “मैं हैजा-प्लेट हूँ.” राजा ने कहा, “मुझे यकीन नहीं हो रहा. ज़रा मेरी हथेली पर बैठो तब तुम्हें पास से देखूं तो यकीन करूँ.” चिड़िया चालाक राजा के झांसे में आ गई. वह जैसे ही राजा की हथेली पर बैठी राजा ने उसे अपनी मुट्ठी में भींच लिया और अपना हाथ कटवा कर लोहे के बक्से में बंद कर दिया. तब से उसके राज्य में ये बीमारियाँ नहीं फैलीं. लेकिन जब हमारे देश में अंग्रेज़ आए तो रेलवे का काम शुरू हुआ और उसी दौरान किसी लालची आदमी ने ख़जाना समझकर उस बक्से को खोल दिया और ये बीमारियाँ फिर से फ़ैल गईं.” इस कथा में जीवन की चाह और उसे बनाए रखने के संकेत मिलते हैं.  

इस रोचक कथा का एक तार जनसंख्या से भी जुड़ा है. बीमारियाँ और आपदाएँ मनुष्य के अस्तित्व के लिए हमेशा ही चुनौतीपूर्ण रही हैं अतः उनसे बचे रहने के उपाय निरंतर किए गए. इंसान अपनी एक नक़ल इस पृथ्वी पर छोड़ कर जाना चाहता है. इसलिए वह अपने वंश को बढ़ाने में सम्मोहित रहता है. पुराने ज़माने की कहानियाँ उन साहसों को बटोर कर कथा में पेश कर देती है जिनके सहारे इंसान बचा रहा. जिस बुज़ुर्ग ने मेरी माँ को यह कथा सुनाई थी वह स्वयं कई भाई-बहन थे और उनमें कईयों की मृत्यु तरह-तरह की बीमारियों और कुपोषण के चलते हुई. लेकिन आधुनिक समय जब औद्योगिक क्रांति हुई और नए निर्माण हुए उससे रहन-सहन बदला और बीमारियों को काबू कर लेने की क्षमता से जनसंख्या में ख़ासी वृद्धि हुई. इसके अलावा चिकित्सीय सुविधाओं ने भी इंसानों को अच्छी उम्र का तोहफा दिया. भारत की आबादी अब तक एक अरब से बहुत अधिक बढ़ गई है. चीन और भारत पृथ्वी की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा अपने क्षेत्रफलों में बसाए हुए हैं. आज आधुनिक समय में पूरा विश्व कोरोना संक्रमण की महामारी की चपेट में और इसका सीधा असर जनसंख्या पर है. बड़ी मात्रा में मानव समाज कई विकराल परिस्थितियों में उलझा हुआ है और लगातर जूझ रहा है. इसके पीछे की एक बड़ी वजह विशाल और बढ़ती जनसंख्या को बताया जाता है. पर क्या वास्तव में जनसंख्या एक बहुत बड़ी वजह है और अब क्या इससे जुड़ा कानून बना लेना ही चाहिए?  

जनसंख्या का पेंच इतना जटिल है कि उससे समझने के लिए विस्तृत अध्ययन की ज़रूरत होती है. पर दुर्भाग्य यह है कि बिना विस्तृत अध्ययन के प्रचलित बातों की पूछ पकड़कर हम सब जनसंख्या की रेलगाड़ी में बैठकर छुक-छुक करना चाहते हैं. एक प्रतिष्ठित जनरल की रिपोर्ट के मुताबिक अभी पूरे विश्व की जनसंख्या 7.8 अरब है जो वर्ष 2100 में 8.8 हो जाएगी.[1] इस बढ़ती हुई जनसंख्या को बहुत सारी मुश्किलों का कारण माना जाता रहा है. शायद ही भारत में कोई ऐसा व्यक्ति होगा जिसने ‘हम दो, हमारे दो’ या ‘छोटा परिवार, सुखी परिवार’ का नारा न सुना होगा. अतः आती-जाती सरकारों में जनसंख्या को लेकर एक संज्ञान तो ज़रूर रहा है. लेकिन कुछ वर्षों में सरकार ने जनसंख्या से जुड़े अभियानों में उतनी दिलचस्पी नहीं दिखाई. या कम से कम उसे एक मुख्य मुद्दे की तरह नहीं लिया. लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं कि जनता ने जनसंख्या को अपने दिल-दिमाग से हटाया हो. छोटे परिवार की अहमियत लोगों के संज्ञान में है. वे अपने बच्चों को बेहतर शिक्षा देना चाहते हैं इसलिए वे बड़े परिवार की कामना नहीं कर रहे. इसकी पुष्टि स्वयं सरकार द्वारा जारी आंकड़ें कर रहे हैं. गत वर्ष दिसंबर 2020 में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के आंकड़ों को जारी किया गया. पी.आई.बी. (Press Information Bureau/ Government of India) के प्रेस नोट के अनुसार, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के तहत पहले चरण में जिन राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों का सर्वे हुए किया गया उनमें करीब-करीब सभी में कुल प्रजनन दर में कमी आई है. कुल 22 राज्यों में से 19 में यह घटकर 2.1 पर आ गई है.”[2]    



हाल ही में एक प्रदेश की सरकार द्वारा जनसंख्या स्थिरीकरण और कल्याण विधेयक 2021, बिल को पेश किया है. इसलिए जनसंख्या नियंत्रण कानून पर बहस सियासी गलियारों में तेज़ हुई है. सत्तारूढ़ सरकारें और विपक्ष, दोनों असली मुद्दे पर बहस और समाधान के बजाय दूसरे मुद्दों में उलझी हुई दिखाई दे रही हैं. उत्तर प्रदेश के इस जनसंख्या संबंधी बिल पर राय बंट गई है. ‘पापुलेशन फाउंडेशन ऑफ़ इंडिया’ की निदेशिका पूनम मुत्तरेजा, ‘डेक्कन क्रॉनिकल’ में छपे अपने लेख में कहती हैं, “2011 की जनगणना के अनुसार जनसंख्या विकास दर में कमी आई है. 1991 से लेकर 2001 तक यह दर 21.5 थी तो वहीं 2001 से लेकर 2011 के बीच यह दर घटकर 17.7 हो गई. यह सभी धर्मों के लोगों के साथ है.” [3] अतः किसी एक मजहब के लोगों को निशाने पर लेना ग़लत होगा इसके साथ ही यह समझ आता है कि जनसंख्या अपनी गति से घट भी रही है.

इसके अलावा पड़ोसी मुल्क चीन की जनसंख्या नीति का भी विश्लेष्ण कर लेना चाहिए. चीन ने अपने देश में बढ़ती जनसंख्या पर लगाम लगाने के लिए सन् 1979 में ‘एक संतान नीति’ लागू की. इसके परिणाम अलग आए. बी.बी.सी. की एक खबर में कहा गया है कि इस नीति को लाने के बाद चीन में लिंग अनुपात बिगड़ा और बेटे की चाह में कन्या भ्रूण हत्याएँ भी अधिक की गईं.[4] भारत में इस बात की कल्पना आसानी से की जा सकती है कि अगर जनसंख्या नियंत्रण कानून लागू किया जाता है तो लिंगानुपात कितना बिगड़ सकता है! बेटे की चाह में बेटियों की जन्म से पहले हत्या बड़ी मात्रा में होने लगेगी. सरकार ने तो ख़ुद जागरूकता के लिए नारा भी लगवाया है, “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ!”

जनसंख्या नियंत्रण कानून के पक्ष में कई अन्य दलीलें दी जाती हैं. प्राकृतिक संसाधनों का लगातार कम होना, जलवायु परिवर्तन, कार्बनडाइ ऑक्साइड गैस की अधिकता और अमीरी-ग़रीबी में घोर असमानता के पीछे बड़ी जनसंख्या को एक महत्वपूर्ण कारक माना जाता है. पर क्या वास्तव में ये सभी खतरनाक स्थितियाँ जनसंख्या के बढ़ने से जुड़ी हैं? सवाल का जवाब हाँ अथवा न की बजाय समझने की कोशिश होनी चाहिए. पूंजीवाद समाज में हमारा रहन-सहन तीव्रता से बदला है. उपभोग की बुनियादी शर्तें और नियम बदल गए हैं. यह समझना बहुत जटिल नहीं है कि किस तरह से विज्ञापन की जरिए पानी की प्यास अन्य पेय पदार्थों से बुझाई जा रही है. यदि किसी के पास कोई स्मार्टफोन न हो तो वह कितने सरकारी कामों और लाभों से मरहूम रह जाएगा. संसाधन अंधाधुंध उपभोग के चलते भी कम हो रहे हैं.  

ऑनलाइन दुनिया में चुपचाप बैठे हुए आंकड़ों से बातें करें तो पता चलता है कि चीन, अमेरिका, भारत, रूस और जापान क्रमशः पहले, दूसरे, तीसरे, चौथे और पाँचवे स्थान पर कार्बनडाइ ऑक्साइड उत्सर्जित करने वाले देश हैं. यह आंकड़ा ‘ग्लोबल कार्बन एटलस’ की वेबसाइट पर वर्ष 2019 के हवाले से पता चलता है. निश्चित रूप से चीन और भारत इस सूची में हैं पर आंकड़ों को सूक्ष्मता से अध्ययन करने पर पता चलता है कि इस गैस के एमिशन में कंपनियों का बड़ा हाथ है. एक रिपोर्ट के मुताबिक केवल सौ कंपनियाँ 70% से ज़्यादा ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को बढ़ा रही हैं. यह सिलसिला सन् 1988 से है.[5] इसके अलावा अमीरों की जीवन शैली ने भी पृथ्वी को प्रभावित किया है. ऑक्सफेम की न्यूज़ रिपोर्ट बताती है कि ये ग़रीब नहीं हैं जो जलवायु को नुक्सान पहुंचा रहे हैं, बल्कि ये मुट्ठीभर धनवान लोग हैं जो कार्बन उत्सर्जन को बढ़ा रहे हैं.[6] इसलिए बढ़ती आबादी की बजाय उन मुख्य कारकों भी समझने की ज़रूरत है जिनके कारण जलवायु असंतुलन बढ़ रहा है. हाल ही में प्रकाशित ढेरों रिपोर्ट बताती हैं कि किस तरह इस कोरोना महामारी में गरीब और गरीब हुआ है और अमीर उम्मीद से भी ज़्यादा अमीर.

अंत में यह सवाल पूछा जा सकता है, तो क्या बढ़ती जनसंख्या की भूमिका को छोड़ दिया जाए? जवाब है, नहीं. जनसंख्या को नियंत्रित करने के दूसरे ऐसे क़दम और उपाय आजमाए जा सकते हैं जिनसे देश की एक बड़ी और निर्धन जनता को नकारात्मकता का सामना न करना पड़े. सरकार को ऐसी योजनाएं और कार्यक्रम लाने होंगे जिनमें ग़रीब तबके को शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार के उचित अवसर मिलें. हम स्वयं अपने अनुभवों से जानते हैं कि आज की पीढ़ी किस कद्र अलग है! युवाओं का एक बड़ा हिस्सा देर से शादी करने की चाहत रखता है इतना ही नहीं वे अपना परिवार बनाने में भी वक़्त ले रहे हैं.  

जनसंख्या का कानून यदि बनता है तो स्त्रियों पर इसका अधिक असर पड़ेगा. यदि स्त्री की राजनीतिक भागीदारी अथवा सरकारी नौकरी में उनका आना, उनके द्वारा जन्में गए बच्चों की संख्या से जोड़ा जाएगा तब निश्चित रूप से बहुत-सी महिलाएँ देश की तरक्की में योगदान नहीं दे पाएंगी. यही नहीं गर्भ में ही लिंग परिक्षण कर लड़कियों को मारने की घटनाएं बढ़ेंगी. महिलाओं पर ही चूँकि परिवार नियोजन की जिम्मेदारी पितृसत्तात्मक समाज में अधिक है अतः, शहरी और ग्रामीण स्त्रियों के लिए गर्भ निरोधक दवाएँ और अन्य तरीकों के इस्तेमाल को बढ़ावा देना होगा. इसके अलावा जनसंख्या संबंधी जागरूक अभियानों की ज़रूरत पर बल दिया जा सकता है. बच्चों को पाठ्यक्रम में शुरू से ही इसके प्रभावों को पढ़ाना होगा. शारीरिक संबंधों पर खुलकर बातें करने की ज़रूरत है. अपनी परंपराओं और रीतियों को स्त्री के शरीर और मानिसक स्वास्थ्य से बड़ा नहीं माना जा सकता. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण- 2015-16 के मुताबिक 40% पुरुषों का मानना है कि गर्भ-निरोध सिर्फ औरतों की जिम्मेदारी है. साथ में 20% पुरुष यह मानते हैं कि जो स्त्री गर्भ-निरोध का इस्तेमाल करती है वह कई पुरुषों से संबंध बनाने वाली स्त्री होती है.[7] यह दोहरापन समाज की सच्चाई है. सरकार को सभी महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर सोचकर ही किसी कानून का निर्माण करना चाहिए. जनसंख्या नियंत्रण से जुड़ा कानून प्रत्येक नागरिक को प्रभावित करेगा अतः इस पर पर्याप्त सोच व शोध करने की ज़रूरत है. कानून बनाने में पर्याप्त संवेदनशील होने के साथ-साथ वैज्ञानिक सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, व्यावहारिकता की ज़रूरत होती है. यह भी याद रखने की ज़रूरत है कि कोई कानून ऐसा न बना दिया जाए जो मौलिक अधिकारों और राज्य के कल्याणकारी रूप में दख़ल करे.      

  

 

कोरोना महामारी और पर्यावरण विमर्श

 सन् २०२० किसी भी देश और मनुष्य जाति के लिए अभी तक बेहद दुखद और चुनौतियों से भरा हुआ साल है. कोरोना संक्रमण और चौपट होती अर्थव्यवस्था से जुड़ी ख़बरों ने अख़बार के हर ख़ाने को अपनी आगोश में ले लिया है. भारत में हर रोज़ कोरोना संक्रमण के मामले तेज़ी से रिकॉर्ड तोड़ रहे हैं. देश में मरने वाले लोगों की संख्या एक लाख होने की ओर जल्दी से बढ़ रही है. इस लेख को लिखे जाने तक कोविड-१९ से मरने वालों की संख्या ८३ हज़ार के पार हो गई है और संक्रमण के कुल मामले ५१ लाख के पार हो चुके हैं. वर्ल्डओमीटर वेबसाइट पर उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक़ पूरी दुनिया में कोरोना वायरस से संक्रमित लोगों की संख्या ३ करोड़ से अधिक है. भारत संक्रमित लोगों की संख्या के मामले में पूरी दुनिया में दूसरे स्थान पर मौज़ूद है. इसी वेबसाइट पर दिए गए आंकड़ों के अनुसार १७ सितम्बर तक विश्वशक्ति अमेरिका में कोरोना संक्रमण के ६८ लाख से अधिक मामले हैं और मरने वाले लोगों की संख्या २ लाख से अधिक है. दुखद यह है कि यह अंतिम आँकड़े नहीं हैं. इनमें प्रतिदिन तीव्र बढ़ोतरी हो रही है. इंसान, जो अपने को शक्तिशाली मान कर कुदरत को मुट्ठी में करने की ज़िद्द के साथ बढ़ रहा था, आज घुटनों के बल बैठा दिया गया. इंसान को घुटने के बल बैठाने वाला यह अदृश्य वायरस, नंगी आँखों से दिख भी नहीं रहा. क्या यह कुदरत की शक्ति का उदाहरण नहीं है?   

इस महामारी के कारण इंसान को यह महसूस होना शुरू हो गया है कि वह कुदरत से बढ़कर नहीं है बल्कि उसके द्वारा की गई संरचनाओं में से एक है. हर व्यक्ति इस महामारी का गवाह बन रहा है. आगे आने वाले समय में कोरोना महामारी के दूरगामी प्रभाव मनुष्य जाति पर पड़ेंगे और साथ ही साथ ये प्रभाव एक राष्ट्र और समाज के रूप में पर्यावरण के बारे में गंभीरता से सोचने पर मजबूर करेंगे. हमें अब यह सोचना ही होगा कि क्या यह महामारी कुदरत का एक संकेत है, “अभी भी वक़्त है संभल जाने का?”

कोरोना महामारी के मामले में अख़बारों और तमाम इलेक्ट्रोनिक मीडिया घरानों की रिपोर्टिंग में केवल कुछ ही जगहों पर पर्यावरण और कोरोना महामारी को जोड़कर देखा गया है.जबकि अधिकतर मीडिया स्रोतों को इस पर सोचने की फुर्सत भी नहीं है. एक समझदार नागरिक और मनुष्य को यह सोचना ही चाहिए कि ख़बरों में गैप कहाँ-कहाँ हैं और क्या छोड़ा जा रहा है. इस साल मार्च के महीने से सरकार हरक़त में आई. कोरोना संक्रमण ने देश में पहले से चल रहे हलचल के माहौल में दस्तक दी. इससे पहले अमरीकी राष्ट्रपति का भारत दौरा, दिल्ली में दंगे और सी. ए. ए. एक्ट के खिलाफ़ बड़े पैमाने पर जगह-जगह विरोध प्रदर्शनों का दौर जारी था. इस बीच बीती सर्दियों में दिल्ली के प्रदूषण को कोई नहीं भूल सकता जो लोगों की साँसों में जहर की तरह घुल रहा था. इन सब भयावह परिस्थितियों के बाद भी पर्यावरण अभी तक माध्यमिक कक्षाओं में निबंध की शक्ल में दबा पड़ा हुआ है. सरकारों ने इसे एक पाठ्यक्रम के रूप में तब्दील कर दिया है. विद्यार्थियों ने भी इसे रट्टा लगाकर याद कर लिया है. यह अभी तक गंभीर चर्चा का विषय भी नहीं बना है. वर्तमान में जब कई करोड़ लोगों की नौकरियाँ छुट रही हैं तब वाजिब है कोरोना और अर्थव्यवस्था के बीच पर्यावरण के साथ जुड़ी मानुष हरक़त की समस्याओं पर कौन ही सोचे और चर्चा करे?

इस वर्ष २३ मार्च को देशव्यापी लॉक डाउन का ऐलान हुआ और तमाम जन गतिविधियाँ एक झटके में ही ‘पॉज़’ की स्थिति में आ गईं. राजधानी दिल्ली की हवा बीते कई सालों से जहर में तब्दील हो चुकी थी. इस ‘पॉज़’ की स्थिति के चलते हवा और वातावरण बिलकुल साफ़ हो गए. वातावरण में सौम्य पारदर्शिता को लोगों ने महसूस किया. काला आसमान नीला दिखाई देने लगा. छोटे बच्चों को बादलों के अठखेलियों में तरह-तरह की शक्लें दिखाई दीं. घरों में क़ैद लोगों को गहराई से यह आभास हुआ कि प्रकृति बहुत अद्भुत और सुखमय है. लॉकडाउन के अन्तराल में पर्यावरण की स्थिति में बेहद अच्छे बदलाव देखे गए. इसी वजह से पर्यावरणीय चर्चाओं और चिंताओं की समाज के हर वर्ग तक लहर पहुंची. यह सच है कि कोरोना महामारी हमसे बहुत कुछ छीन रही है पर इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि इसने कहीं भीतर जाकर यह समझने की स्थिति और स्पेस बनाया है कि मनुष्य को प्रकृति पर विजय के बजाय उसके संग अपने अस्तित्व को देखना चाहिए. प्रकृति इस्तेमाल कर फेंकने से नहीं जुड़ी है.  

दीवाली जैसे त्यौहार पर बम पटाखे फोड़े जाने पर लोगों में बहस कितने ही सालों से चल रही है. एक बहस दिल्ली की सड़कों पर चलने वाले वाहनों को लेकर भी है जिसके बारे में कहा जाता रहा है कि वायु और ध्वनि प्रदूषण का मुख्य स्रोत ये वाहन ही हैं. कोरोना महामारी के चलते किये गए लॉकडाउन के कारण यह बहस अब पुष्ट हो चुकी है कि भारी संख्या में सड़कों पर दौड़ती इंसानी जगत द्वारा ईजाद की गई मशीनें प्राण वायु को नष्ट कर रही हैं. जैसे ही सड़कों पर दौड़ती गाड़ियों के पहियों पर लगाम लगी वैसे ही हवा साफ़ होना शुरू हुई और ध्वनि प्रदूषण में गिरावट आई. आसमान का रंग जो आसमानी था वह भुलाया जा चुका था. अब हर आँख और ज़ेहन में वह आसमानी रंग उभरा जो आसमान की सच्चाई है. इसके साथ ही एयर क्वालिटी इंडेक्स में भारी बदलाव दर्ज़ किया जा रहा है. पर्टिकुलेट मैटर २.५ और १० जैसे कण जो दिखाई नहीं देते, परन्तु उनमें धूल और धातु के बेहद महीन कण शामिल होते हैं, साँसों में घुसकर हमारी ज़िंदगी की उम्र घटा देते हैं. लॉकडाउन में पर्टिकुलेट मैटर में भारी गिरावट दर्ज़ की गई.

अप्रैल २०१९ को ‘बिज़नस स्टैण्डर्ड’ अख़बार में छपी ख़बर के अनुसार, साल २०१७ में एक मिलियन से भी अधिक लोगों की मृत्यु वायु प्रदूषण के कारण हुई. इसी ख़बर में एक बात यह भी कही गई है कि वायु प्रदूषण साइलेंट किलर होता है और यूनाइटेड नेशन विशेषज्ञों के अनुसार हर वर्ष ७ मिलियन लोगों की जान ले लेता है. बीबीसी समाचार वेबसाइट ने इसी संख्या को अपने एक लेख में ४ मिलियन बताया है. इसके अलावा इंटरनेट पर मौज़ूद अन्य प्रकार की दिल दहला देने वाली जानकारी मौज़ूद है जिसे पढ़कर पता चलता है कि प्रकृति का संतुलन किस हद तक इंसानों ने अपनी गतिविधियों से बिगाड़ दिया है. लेकिन क्या बात यहीं ख़त्म होती है? जवाब है नहीं. पर्यावरण की क्षति का विवरण हमारी आधुनिक जीवन शैली में छुपा हुआ है. ‘विकास’ शब्द के इर्द-गिर्द दौड़ती जीवन शैली और विलासी समाज की सनक ने मनुष्य जगत को तो मौत के क़रीब पहुँचाया ही है साथ ही सम्पूर्ण प्रकृति के जीव-जंतु और वनस्पति संसार को भी भयानक हानि पहुंचाई है. इसका उदहारण बाढ़ की घटनाओं में बढ़ोतरी, भूकंप, बादल फटने की घटनाएँ, जंगलों में लगने वाली आग, ग्लेशियरों का पिघलना, पृथ्वी के तापमान में वृद्धि जैसे कारकों में देखा और अनुभव किया जा सकता है. 

ख़बरों के मुताबिक़ कोरोना वायरस संक्रमण का पहले केस पिछले साल नवम्बर में ही आ गया था. पहला केस चीन में हुआ. इसके बाद चर्चाओं और अफ़वाहों का जो दौर शुरू हुआ वह अभी तक समाप्त नहीं हुआ है. ‘न्यूज़ 18’ की वेबसाइट पर, ९ मार्च तारीख में लिखे लेख में १ दिसंबर २०१९ में चीनी शहर वुहान में कोविड-१९ के पहले केस की बात लिखी गई है. यह बात ‘लैंसेट जर्नल’ में छपी एक रिपोर्ट के हवाले से लिखी गई है. लेकिन कुछ विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि कोरोना संक्रमण नवम्बर में ही फैलना शुरू हो गया था. इस वायरस का स्रोत क्या है और यह कैसे इंसानों तक पहुँचा, इसे लेकर भी कई तरह की बातें सामने आ रही हैं. सोशल मीडिया पर वुहान शहर के जानवरों के बाज़ारों की तस्वीरों को यह कह कर जम कर साझा किया गया कि इसी बाज़ार से वायरस इंसान तक पहुँचा और दुनिया को अपनी चपेट में लेना शुरू कर दिया. सोशल मीडिया में साझा की जाने वाली हर तस्वीर का सत्यापन करना मुश्किल है. महामारी में अफ़वाहों का बाज़ार गरम रहा है. इसके अलावा लोगों पर नस्लीय हमले भी हुए. कुल मिलाकर आम समझ में यह बात तय है कि यह महामारी प्रकृति की उस सीमा रेखा को लांघने का नतीजा है जो संतुलन बनाए रखता है. मौज़ूद संतुलन को इंसानी गतिविधियों ने हानी पहुंचाई है. इंसान की शक्तिशाली बनने की सनक ने अवश्य ही कुदरत के कुछ अटल नियम तोड़े हैं.

इस बात पर लगभग सभी का एक मत है कि कोरोना वायरस चीन से ही निकला है. चर्चाओं के गुब्बारे में बहुत सारी बातें गैस बनकर यहाँ वहाँ घूम रही हैं. एक कहानी यह है कि वुहान में स्थित वायरोलोजी केंद्र से यह वायरस किसी प्रयोग के दौरान निकला और तबाही ले आया. दूसरी थ्योरी यह दी जा रही है कि यह वायरस किसी तरह वुहान के जानवरों के मांस के बाज़ार से इंसानों में आया जिससे लोग संक्रमित होना शुरू हो गए. इसके अलावा इस वायरस की कहानी में सियासत के दांव पेंच और कई अमीर व्यक्तियों के नाम भी शामिल हैं. लेकिन इन सभी बातों का दूसरा पहलू पर्यावरण से ही जुड़ा हुआ है. अगर यह वायरस लैब में बनाया जा रहा था तब इसके पीछे क्या मंशा थी? आखिर इसके बनने के ख़तरे को जानते हुए भी ज़ोखिम क्यों उठाया गया? किन वजहों से ऐसा हुआ? कुछ अमीर व्यक्तियों द्वारा टीका बनाकर करोड़ों रुपए कमाने की कहानियाँ भी सोशल मीडिया पर पढ़ने को मिलीं.   

इन उपर्युक्त बातों से अलग कोरोना संक्रमण महामारी के बीच प्रकृति से जुड़ी हुई जिन बातों को हर व्यक्ति ने अनुभव किया वे ही हमारी इंसानी जाति के लिए एक बहुत बड़ा सबक़ हैं. हम सब अब अपने अनुभवों से कह सकते हैं नीला आसमान देखने में कितना अच्छा लगता है. दिल्ली के लोगों ने साफ़ यमुना नदी को देखा जो कई अरसे से करोड़ों रूपयों के प्रोजेक्ट के चलते भी साफ़ नहीं हो पा रहा थी. कुछ शहरों से तो पहाड़ों की चोटियों के साफ़ दिखने की तस्वीरें भी इंटरनेट पर वायरल हुईं. विजिबिलिटी के चलते नज़रों ने स्पष्ट देखना जाना. जब लोग अपने-अपने घरों में क़ैद थे तब सड़कों पर जंगली जानवरों को घूमते देखा गया. कुछ जानवरों के बारे में कहा गया कि वे लुप्त प्राणी की श्रेणी में हैं. घरों के आँगन और छतों पर गोरैया को भी देखने का मौका मिला जो गुमशुदा थीं. ओडिशा में मिले पीले कछुए की तस्वीरें कई दिनों तक सोशल मीडिया में साझा की जाती रहीं जिसके बारे में बताया गया कि यह दुर्लभ प्रजाति से है.      

कोरोना महामारी के बीच बुरी घटनाओं ने झकझोरा है. देश के पूर्वी हिस्से में विशेषरूप से पश्चिम बंगाल में अम्फन तूफ़ान ने भी देश की सरकार और जनता को पर्यावरण के मुद्दों को गंभीरता से लेने के लिए मजबूर किया. उम्मीद से भी तेज़ हवाओं ने लोगों के घरों को एक झटके में उड़ा दिया साथ ही शीशे के घरों में रहने वाले रईस लोगों को इशारा दिया कि पर्यावरण में होने वाले बदलावों से अमीर या ग़रीब, कोई भी नहीं बच सकता. सब पर बदलती जलवायु के मिज़ाज का असर होगा. हो सकता है असर की मात्रा कम या ज़्यादा हो, पर कोई भी कुदरत के बदलते मिज़ाज से बच नहीं सकेगा. इसी साल असम और बिहार में आई बाढ़ को भले ही समाचार पत्रों और चैनलों में जगह नहीं दी गई पर इसका मतलब यह नहीं है कि इस पर लोगों को ध्यान नहीं गया. लाखों लोगो कोरोना महामारी में आई इस आपदा के कारण बुरी तरह प्रभावित हुए. बीबीसी की वेबसाइट पर छपी २८ मई की रिपोर्ट के अनुसार अम्फन तूफान का विश्व धरोहर सुंदरबन में जैव विविधता पर असर पड़ा और मेंग्रोव के जंगलों को भी भारी नुकसान हुआ. इलाक़े में अब पलायन की दर के बढ़ने की आशंका भी जताई गई है. जून माह में भारतीय तट सीमा पर निसर्ग तूफान ने दस्तक दी जिसके चलते भारी अव्यवस्था देखने में आई. तूफान का असर रायगढ़ में अधिक देखने को मिला जिसमें धरती की गोद में सोई पेड़ों की मजबूत जडें भी उखड़ गईं.

हमारी पर्यावरण संबंधी समझ का दायरा सिमटा हुआ है. सक्रिय गतिविधि से दूर जनता सोशल मीडिया में उन बेवजह की चर्चाओं में लिप्त हैं, जो महत्त्व नहीं रखतीं. चालाक व्यवसायी और सरकारें इस असक्रियता का भरपूर फ़ायदा उठा रही हैं. जिन विरोध प्रदर्शनों में जनता पर्यावरण के समर्थन में आई वहाँ बेहतर परिणाम मिले हैं . लेकिन इतना काफी नहीं है. कोरोना वायरस ने यह तो समझा ही दिया है कि कुदरत के बगैर इंसान का अस्तित्व न के बराबर है. कुदरत वह नहीं है जो मान पर चोट लगने पर मानहानि का मुकद्दमा दायर करती है, बल्कि वह जब ग़ुस्सा होती है तब अपना बहुत कुछ छीन लेती है. हमें अपनी प्रकृति संबंधी समझ-संग-सहयोग को विद्यालय में निबंध लिखने से आगे बढ़ाना होगा. कड़वी ही सही सच्चाई यह है कि हम मानसिक रूप से बेकार समझ से संक्रमित समाज बन गए थे. कोरोना महामारी ने केवल हमारे शरीर को संक्रमित किया है और यह बताने का प्रयास किया है कि एक बेहतर दुनिया संभव है, बशर्तें इंसान अपनी गतिविधि और भूमिका में बदलाव करे.   

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21 बरस की बाली उमर को सलाम, लेकिन

  दो साल पहले प्रथम वर्ष में पढ़ने वाली लड़की से मेरी बातचीत बस में सफ़र के दौरान शुरू हुई थी। शाम को काम से थकी हारी वह मुझे बस स्टॉप पर मिल...