सन् २०२० किसी भी देश और मनुष्य जाति के लिए अभी तक बेहद दुखद और चुनौतियों से भरा हुआ साल है. कोरोना संक्रमण और चौपट होती अर्थव्यवस्था से जुड़ी ख़बरों ने अख़बार के हर ख़ाने को अपनी आगोश में ले लिया है. भारत में हर रोज़ कोरोना संक्रमण के मामले तेज़ी से रिकॉर्ड तोड़ रहे हैं. देश में मरने वाले लोगों की संख्या एक लाख होने की ओर जल्दी से बढ़ रही है. इस लेख को लिखे जाने तक कोविड-१९ से मरने वालों की संख्या ८३ हज़ार के पार हो गई है और संक्रमण के कुल मामले ५१ लाख के पार हो चुके हैं. वर्ल्डओमीटर वेबसाइट पर उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक़ पूरी दुनिया में कोरोना वायरस से संक्रमित लोगों की संख्या ३ करोड़ से अधिक है. भारत संक्रमित लोगों की संख्या के मामले में पूरी दुनिया में दूसरे स्थान पर मौज़ूद है. इसी वेबसाइट पर दिए गए आंकड़ों के अनुसार १७ सितम्बर तक विश्वशक्ति अमेरिका में कोरोना संक्रमण के ६८ लाख से अधिक मामले हैं और मरने वाले लोगों की संख्या २ लाख से अधिक है. दुखद यह है कि यह अंतिम आँकड़े नहीं हैं. इनमें प्रतिदिन तीव्र बढ़ोतरी हो रही है. इंसान, जो अपने को शक्तिशाली मान कर कुदरत को मुट्ठी में करने की ज़िद्द के साथ बढ़ रहा था, आज घुटनों के बल बैठा दिया गया. इंसान को घुटने के बल बैठाने वाला यह अदृश्य वायरस, नंगी आँखों से दिख भी नहीं रहा. क्या यह कुदरत की शक्ति का उदाहरण नहीं है?
इस महामारी के कारण इंसान को यह महसूस होना शुरू हो गया है कि वह
कुदरत से बढ़कर नहीं है बल्कि उसके द्वारा की गई संरचनाओं में से एक है. हर व्यक्ति
इस महामारी का गवाह बन रहा है. आगे आने वाले समय में कोरोना महामारी के दूरगामी
प्रभाव मनुष्य जाति पर पड़ेंगे और साथ ही साथ ये प्रभाव एक राष्ट्र और समाज के रूप
में पर्यावरण के बारे में गंभीरता से सोचने पर मजबूर करेंगे. हमें अब यह सोचना ही
होगा कि क्या यह महामारी कुदरत का एक संकेत है, “अभी भी वक़्त है संभल जाने का?”
कोरोना महामारी के मामले में अख़बारों और तमाम इलेक्ट्रोनिक मीडिया
घरानों की रिपोर्टिंग में केवल कुछ ही जगहों पर पर्यावरण और कोरोना महामारी को
जोड़कर देखा गया है.जबकि अधिकतर मीडिया स्रोतों को इस पर सोचने की फुर्सत भी नहीं
है. एक समझदार नागरिक और मनुष्य को यह सोचना ही चाहिए कि ख़बरों में गैप कहाँ-कहाँ
हैं और क्या छोड़ा जा रहा है. इस साल मार्च के महीने से सरकार हरक़त में आई. कोरोना
संक्रमण ने देश में पहले से चल रहे हलचल के माहौल में दस्तक दी. इससे पहले अमरीकी
राष्ट्रपति का भारत दौरा, दिल्ली में दंगे और सी. ए. ए. एक्ट के खिलाफ़ बड़े पैमाने
पर जगह-जगह विरोध प्रदर्शनों का दौर जारी था. इस बीच बीती सर्दियों में दिल्ली के
प्रदूषण को कोई नहीं भूल सकता जो लोगों की साँसों में जहर की तरह घुल रहा था. इन
सब भयावह परिस्थितियों के बाद भी पर्यावरण अभी तक माध्यमिक कक्षाओं में निबंध की
शक्ल में दबा पड़ा हुआ है. सरकारों ने इसे एक पाठ्यक्रम के रूप में तब्दील कर दिया
है. विद्यार्थियों ने भी इसे रट्टा लगाकर याद कर लिया है. यह अभी तक गंभीर चर्चा का
विषय भी नहीं बना है. वर्तमान में जब कई करोड़ लोगों की नौकरियाँ छुट रही हैं तब
वाजिब है कोरोना और अर्थव्यवस्था के बीच पर्यावरण के साथ जुड़ी मानुष हरक़त की
समस्याओं पर कौन ही सोचे और चर्चा करे?
इस वर्ष २३ मार्च को देशव्यापी लॉक डाउन का ऐलान हुआ और तमाम जन
गतिविधियाँ एक झटके में ही ‘पॉज़’ की स्थिति में आ गईं. राजधानी दिल्ली की हवा बीते
कई सालों से जहर में तब्दील हो चुकी थी. इस ‘पॉज़’ की स्थिति के चलते हवा और
वातावरण बिलकुल साफ़ हो गए. वातावरण में सौम्य पारदर्शिता को लोगों ने महसूस किया.
काला आसमान नीला दिखाई देने लगा. छोटे बच्चों को बादलों के अठखेलियों में तरह-तरह
की शक्लें दिखाई दीं. घरों में क़ैद लोगों को गहराई से यह आभास हुआ कि प्रकृति बहुत
अद्भुत और सुखमय है. लॉकडाउन के अन्तराल में पर्यावरण की स्थिति में बेहद अच्छे
बदलाव देखे गए. इसी वजह से पर्यावरणीय चर्चाओं और चिंताओं की समाज के हर वर्ग तक
लहर पहुंची. यह सच है कि कोरोना महामारी हमसे बहुत कुछ छीन रही है पर इसका दूसरा
पक्ष यह भी है कि इसने कहीं भीतर जाकर यह समझने की स्थिति और स्पेस बनाया है कि
मनुष्य को प्रकृति पर विजय के बजाय उसके संग अपने अस्तित्व को देखना चाहिए. प्रकृति
इस्तेमाल कर फेंकने से नहीं जुड़ी है.
दीवाली जैसे त्यौहार पर बम पटाखे फोड़े जाने पर लोगों में बहस कितने
ही सालों से चल रही है. एक बहस दिल्ली की सड़कों पर चलने वाले वाहनों को लेकर भी है
जिसके बारे में कहा जाता रहा है कि वायु और ध्वनि प्रदूषण का मुख्य स्रोत ये वाहन ही
हैं. कोरोना महामारी के चलते किये गए लॉकडाउन के कारण यह बहस अब पुष्ट हो चुकी है
कि भारी संख्या में सड़कों पर दौड़ती इंसानी जगत द्वारा ईजाद की गई मशीनें प्राण
वायु को नष्ट कर रही हैं. जैसे ही सड़कों पर दौड़ती गाड़ियों के पहियों पर लगाम लगी
वैसे ही हवा साफ़ होना शुरू हुई और ध्वनि प्रदूषण में गिरावट आई. आसमान का रंग जो
आसमानी था वह भुलाया जा चुका था. अब हर आँख और ज़ेहन में वह आसमानी रंग उभरा जो
आसमान की सच्चाई है. इसके साथ ही एयर क्वालिटी इंडेक्स में भारी बदलाव दर्ज़ किया
जा रहा है. पर्टिकुलेट मैटर २.५ और १० जैसे कण जो दिखाई नहीं देते, परन्तु उनमें धूल
और धातु के बेहद महीन कण शामिल होते हैं, साँसों में घुसकर हमारी ज़िंदगी की उम्र
घटा देते हैं. लॉकडाउन में पर्टिकुलेट मैटर में भारी गिरावट दर्ज़ की गई.
३ अप्रैल २०१९ को ‘बिज़नस स्टैण्डर्ड’ अख़बार में
छपी ख़बर के अनुसार, साल २०१७ में एक मिलियन से भी अधिक लोगों की मृत्यु वायु
प्रदूषण के कारण हुई. इसी ख़बर में एक बात यह भी कही गई है कि वायु प्रदूषण साइलेंट
किलर होता है और यूनाइटेड नेशन विशेषज्ञों के अनुसार हर वर्ष ७ मिलियन लोगों की
जान ले लेता है. बीबीसी समाचार वेबसाइट ने इसी संख्या को अपने एक लेख में ४ मिलियन
बताया है. इसके अलावा इंटरनेट पर मौज़ूद अन्य प्रकार की दिल दहला देने वाली जानकारी
मौज़ूद है जिसे पढ़कर पता चलता है कि प्रकृति का संतुलन किस हद तक इंसानों ने अपनी
गतिविधियों से बिगाड़ दिया है. लेकिन क्या बात यहीं ख़त्म होती है? जवाब है नहीं. पर्यावरण
की क्षति का विवरण हमारी आधुनिक जीवन शैली में छुपा हुआ है. ‘विकास’ शब्द के
इर्द-गिर्द दौड़ती जीवन शैली और विलासी समाज की सनक ने मनुष्य जगत को तो मौत के
क़रीब पहुँचाया ही है साथ ही सम्पूर्ण प्रकृति के जीव-जंतु और वनस्पति संसार को भी
भयानक हानि पहुंचाई है. इसका उदहारण बाढ़ की घटनाओं में बढ़ोतरी, भूकंप, बादल फटने
की घटनाएँ, जंगलों में लगने वाली आग, ग्लेशियरों का पिघलना, पृथ्वी के तापमान में
वृद्धि जैसे कारकों में देखा और अनुभव किया जा सकता है.
ख़बरों के मुताबिक़ कोरोना वायरस संक्रमण का पहले केस पिछले साल नवम्बर
में ही आ गया था. पहला केस चीन में हुआ. इसके बाद चर्चाओं और अफ़वाहों का जो दौर
शुरू हुआ वह अभी तक समाप्त नहीं हुआ है. ‘न्यूज़ 18’ की वेबसाइट पर, ९ मार्च तारीख
में लिखे लेख में १ दिसंबर २०१९ में चीनी शहर वुहान में कोविड-१९ के पहले केस की बात
लिखी गई है. यह बात ‘लैंसेट जर्नल’ में छपी एक रिपोर्ट के हवाले से लिखी गई है. लेकिन
कुछ विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि कोरोना संक्रमण नवम्बर में ही फैलना शुरू हो
गया था. इस वायरस का स्रोत क्या है और यह कैसे इंसानों तक पहुँचा, इसे लेकर भी कई
तरह की बातें सामने आ रही हैं. सोशल मीडिया पर वुहान शहर के जानवरों के बाज़ारों की
तस्वीरों को यह कह कर जम कर साझा किया गया कि इसी बाज़ार से वायरस इंसान तक पहुँचा
और दुनिया को अपनी चपेट में लेना शुरू कर दिया. सोशल मीडिया में साझा की जाने वाली
हर तस्वीर का सत्यापन करना मुश्किल है. महामारी में अफ़वाहों का बाज़ार गरम रहा है.
इसके अलावा लोगों पर नस्लीय हमले भी हुए. कुल मिलाकर आम समझ में यह बात तय है कि
यह महामारी प्रकृति की उस सीमा रेखा को लांघने का नतीजा है जो संतुलन बनाए रखता
है. मौज़ूद संतुलन को इंसानी गतिविधियों ने हानी पहुंचाई है. इंसान की शक्तिशाली
बनने की सनक ने अवश्य ही कुदरत के कुछ अटल नियम तोड़े हैं.
इस बात पर लगभग सभी का एक मत है कि कोरोना वायरस चीन से ही निकला है.
चर्चाओं के गुब्बारे में बहुत सारी बातें गैस बनकर यहाँ वहाँ घूम रही हैं. एक
कहानी यह है कि वुहान में स्थित वायरोलोजी केंद्र से यह वायरस किसी प्रयोग के
दौरान निकला और तबाही ले आया. दूसरी थ्योरी यह दी जा रही है कि यह वायरस किसी तरह
वुहान के जानवरों के मांस के बाज़ार से इंसानों में आया जिससे लोग संक्रमित होना
शुरू हो गए. इसके अलावा इस वायरस की कहानी में सियासत के दांव पेंच और कई अमीर
व्यक्तियों के नाम भी शामिल हैं. लेकिन इन सभी बातों का दूसरा पहलू पर्यावरण से ही
जुड़ा हुआ है. अगर यह वायरस लैब में बनाया जा रहा था तब इसके पीछे क्या मंशा थी?
आखिर इसके बनने के ख़तरे को जानते हुए भी ज़ोखिम क्यों उठाया गया? किन वजहों से ऐसा
हुआ? कुछ अमीर व्यक्तियों द्वारा टीका बनाकर करोड़ों रुपए कमाने की कहानियाँ भी
सोशल मीडिया पर पढ़ने को मिलीं.
इन उपर्युक्त बातों से अलग कोरोना संक्रमण महामारी के बीच प्रकृति से
जुड़ी हुई जिन बातों को हर व्यक्ति ने अनुभव किया वे ही हमारी इंसानी जाति के लिए
एक बहुत बड़ा सबक़ हैं. हम सब अब अपने अनुभवों से कह सकते हैं नीला आसमान देखने में
कितना अच्छा लगता है. दिल्ली के लोगों ने साफ़ यमुना नदी को देखा जो कई अरसे से
करोड़ों रूपयों के प्रोजेक्ट के चलते भी साफ़ नहीं हो पा रहा थी. कुछ शहरों से तो
पहाड़ों की चोटियों के साफ़ दिखने की तस्वीरें भी इंटरनेट पर वायरल हुईं. विजिबिलिटी
के चलते नज़रों ने स्पष्ट देखना जाना. जब लोग अपने-अपने घरों में क़ैद थे तब सड़कों
पर जंगली जानवरों को घूमते देखा गया. कुछ जानवरों के बारे में कहा गया कि वे लुप्त
प्राणी की श्रेणी में हैं. घरों के आँगन और छतों पर गोरैया को भी देखने का मौका
मिला जो गुमशुदा थीं. ओडिशा में मिले पीले कछुए की तस्वीरें कई दिनों तक सोशल
मीडिया में साझा की जाती रहीं जिसके बारे में बताया गया कि यह दुर्लभ प्रजाति से
है.
कोरोना महामारी के बीच बुरी घटनाओं ने झकझोरा है. देश के पूर्वी
हिस्से में विशेषरूप से पश्चिम बंगाल में अम्फन तूफ़ान ने भी देश की सरकार और जनता
को पर्यावरण के मुद्दों को गंभीरता से लेने के लिए मजबूर किया. उम्मीद से भी तेज़
हवाओं ने लोगों के घरों को एक झटके में उड़ा दिया साथ ही शीशे के घरों में रहने
वाले रईस लोगों को इशारा दिया कि पर्यावरण में होने वाले बदलावों से अमीर या ग़रीब,
कोई भी नहीं बच सकता. सब पर बदलती जलवायु के मिज़ाज का असर होगा. हो सकता है असर की
मात्रा कम या ज़्यादा हो, पर कोई भी कुदरत के बदलते मिज़ाज से बच नहीं सकेगा. इसी
साल असम और बिहार में आई बाढ़ को भले ही समाचार पत्रों और चैनलों में जगह नहीं दी
गई पर इसका मतलब यह नहीं है कि इस पर लोगों को ध्यान नहीं गया. लाखों लोगो कोरोना
महामारी में आई इस आपदा के कारण बुरी तरह प्रभावित हुए. बीबीसी की वेबसाइट पर छपी
२८ मई की रिपोर्ट के अनुसार अम्फन तूफान का विश्व धरोहर सुंदरबन में जैव विविधता
पर असर पड़ा और मेंग्रोव के जंगलों को भी भारी नुकसान हुआ. इलाक़े में अब पलायन की
दर के बढ़ने की आशंका भी जताई गई है. जून माह में भारतीय तट सीमा पर निसर्ग तूफान
ने दस्तक दी जिसके चलते भारी अव्यवस्था देखने में आई. तूफान का असर रायगढ़ में अधिक
देखने को मिला जिसमें धरती की गोद में सोई पेड़ों की मजबूत जडें भी उखड़ गईं.
हमारी पर्यावरण संबंधी समझ का दायरा सिमटा हुआ है. सक्रिय गतिविधि से
दूर जनता सोशल मीडिया में उन बेवजह की चर्चाओं में लिप्त हैं, जो महत्त्व नहीं
रखतीं. चालाक व्यवसायी और सरकारें इस असक्रियता का भरपूर फ़ायदा उठा रही हैं. जिन
विरोध प्रदर्शनों में जनता पर्यावरण के समर्थन में आई वहाँ बेहतर परिणाम मिले हैं
. लेकिन इतना काफी नहीं है. कोरोना वायरस ने यह तो समझा ही दिया है कि कुदरत के
बगैर इंसान का अस्तित्व न के बराबर है. कुदरत वह नहीं है जो मान पर चोट लगने पर
मानहानि का मुकद्दमा दायर करती है, बल्कि वह जब ग़ुस्सा होती है तब अपना बहुत कुछ
छीन लेती है. हमें अपनी प्रकृति संबंधी समझ-संग-सहयोग को विद्यालय में निबंध लिखने
से आगे बढ़ाना होगा. कड़वी ही सही सच्चाई यह है कि हम मानसिक रूप से बेकार समझ से
संक्रमित समाज बन गए थे. कोरोना महामारी ने केवल हमारे शरीर को संक्रमित किया है
और यह बताने का प्रयास किया है कि एक बेहतर दुनिया संभव है, बशर्तें इंसान अपनी
गतिविधि और भूमिका में बदलाव करे.
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