मेरे पास तीन फिल्में थीं और मैंने यह फैसला किया कि मैं उनमें से सबसे पहले 'हरामखोर' फिल्म को देखूँगी। कल टुकड़ों में यह फिल्म देख ली। फिल्म की शुरुआत में ही यह घोषणा कर दी जाती है कि फिल्म किस मुद्दे को उठा रही है। फिल्म माइनर असॉल्ट, खासतौर से लड़कियों के साथ हो रहे दुराचार के मुद्दे को उठाती है। फिल्म ऐसी नहीं है जिसे देखकर अंत में आप बोल सकें कि क्या ग़ज़ब फिल्म है। बल्कि आप जहां है वहाँ कुछ देर बैठेंगे रह जाएंगे और पुछेंगे- फिल्म का कौन सा सिरा आपने पकड़े रखा और किसे छोड़ बैठे। असमंजस में डालने वाली इस फिल्म में दृश्य बहुत ही आराम से आँखों के आगे से गुज़रते हैं। फिल्मकार ने इस फिल्म को इस तरीके से बनाया है कि दर्शक इस फिल्म में बुरे पात्र से भी हमदर्दी करने लगते हैं।
("डिस्क्लैमर- इस फ़िल्म में माइनर और खासतौर से लड़कियों के साथ हो रहे असॉल्ट(यौनिक) को दिखाने की कोशिश की गई है जिन पर उनको पोषित, शिक्षित और सुरक्षा देने की ज़िम्मेदारी है।")
इतना तय है कि जिस उल्लास से इस फिल्म को देखने के लिए आप बैठेंगे वह उल्लास फिल्म के अंत में मात्र चौथाई रह जाता है। यही बात इस फिल्म की सबसे बेहतरीन भी है। इस बात को भी मानना होगा कि यह फिल्म एक बेहतर संवाद को रच भी रही है।
फिल्म पर आते हैं। फिल्म में 15 बरस की छात्रा का आकर्षण और टीचर का कम उम्र अपनी ही स्टूडेंट का फायदा उठाना, फिल्म का मुख्य पहलू है। छात्रा, संध्या के पिता पुलिस में अफ़सर हैं और माँ छोड़ के जा चुकी हैं। इस कारण वह एक तनाव में जीने वाली लड़की है। अकेलेपन में रहने वाली लड़की। उसके पिता अपनी लिव इन साथी को घर ले आते हैं। वह कई सालों से उन्हें जानते हैं और साथ रखना चाहते हैं को देखकर, संध्या और भी तनाव में आ जाती है। इस तनाव का परिणाम यह होता है कि वह अपने टीचर से संबंध बनाती है। उसका झुकाव श्याम की तरफ और भी ज़्यादा हो जाता है। संध्या इसे एक जगह प्यार का नाम देती है...कहती है प्यार किया तो डरना क्या!
टीचर श्याम घर में, स्कूल के बाद बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ाता है। संध्या बाक़ी बच्चों के साथ वहाँ ट्यूशन पढ़ती है। फिल्म में दो छोटे लड़के और हैं जो साथ में ट्यूशन पढ़ते हैं, कमल और मींटू। दोनों पक्के दोस्त हैं। कमल, संध्या को पसंद करता है जिसे वह 'प्यार करना' कहता है। मींटू, अपने दोस्त कमल की हर तरह से उसके प्यार को पाने में मदद करता है। फ़िल्म में ये दोनों चरित्र हंसने की वजह भी बनते हैं। ऐसा ही एक और चरित्र शक्तिमान है। वह हमेशा शक्तिमान की वेश भूषा में ही रहता है। महज़ कुछ ही मिनटों के दृश्यों में शक्तिमान को सिनेमा हाल से साथ लाया जा सकता है।
अब बात माइनर असॉल्ट की करनी चाहिए। फिल्म खुद इस बात को शुरू में ही बता देती है। फिल्म में किस किस तरह की असॉल्ट को दिखाया गया है माइनर के संदर्भ में, उस पर गौर किया जाना चाहिए। फिल्म की पृष्ठभूमि में कोई बड़ा शहर नहीं है बल्कि एक गाँव है। माइनर पात्र दो जगह दिखाये गए हैं। एक स्कूल में दूसरे ट्यूशन में। यही वो दोनों जगहें हैं, जहां उन्हें छोटी या बड़ी दिक्कतें हैं। श्याम, स्कूल के में लड़कियों को पीटता है। एक दृश्य में तो इतना पीटता है कि उसे स्कूल से कुछ दिनों के लिए निकाल दिया जाता है। संध्या को भी वह एक जगह थप्पड़ लगाता है। इस टीचर की भाषा तक में ताना और बेइज्ज़ती झलकती है। वह गाली का भी भरपूर इस्तेमाल करता है। इसके अलावा वह अपनी ही स्टूडेंट का 'यौन शोषण' करता है। इसके लिए वह संध्या के घर में भी आ जाता है। दिलचस्प यह है कि संध्या को यह श्याम का प्यार लगता है। इसलिए वह इसका विरोध नहीं करती बल्कि जब तब उसके पास रहने या उसके बचाव में दिखाई देती है। उसके पिता के तबादले की बात पर वह दुखी है और इसके बारे में श्याम को भी बताती है।
श्याम के चरित्र में मौजूद इस तरह की हरकतें सीधे तौर पर उन तमाम तरह के दुर्व्यवहार का चेहरा सामने ले आती है जो अक्सर घटता ही रहता है। तारीफ करनी होगी फ़िल्मकर और कलाकार की कि कहीं भी वह घृणा का पात्र नहीं बनता। कुछ इस तरह से वह अपनी हरकतों को अंजाम देता है जिसे देखकर लगता ही नहीं कि फ़िल्म का शीर्षक इसी चरित्र से चिपका हुआ है। वह अपने हर तरह के फायदे का एक भी मौक़ा नहीं छोड़ता। वह दिलफेंक है। उसकी पत्नी भी उसकी पुरानी स्टूडेंट है।
श्लोक शर्मा ने बड़ी ही सफाई से फिल्म को और पृष्ठभूमि-संगीत को 'क्राइम पेट्रोल और सावधान इंडिया' से अलग रखा है। जब इन सीरियलों के एपिसोड शुरू होते हैं तब ही दर्शकों को म्यूजिक से ही पता चल जाता है कि कुछ गलत घटने वाला है। लेकिन इस फिल्म में सब गलत हो रहा है वह भी बड़े स्वाभाविक तरीके से। लेकिन संगीत मधुर ही बजता रहता है। देखा जाए तो यह बहुत सही भी है। अक्सर हमारे आसपास वे लोग हैं जो बच्चों का इस्तेमाल बड़े ही स्वाभाविक ढंग से कर जाते हैं और बड़ों को कुछ मालूम ही नहीं चलता। संध्या और उसके पिता में बातचीत का इतना गैप है कि वह कुछ शेयर ही नहीं कर पाती। संध्या की स्कूल में कोई पक्की दोस्त भी नहीं दिखाई गई। कोई ऐसा रिश्तेदार नहीं दिखाया गया जिससे वह साझा करने का रिश्ता स्थापित कर पाये। शायद इस तरह की वजहें उसे टीचर श्याम के क़रीब ले जाती हैं।
एक अहम बात जो मुझे लगी है और यह कि बढ़ती हुई उम्र की संध्या के रोज़मर्रा में 'वैक्यूम' तो दिखता ही है साथ ही अहसासों के स्तर पर भी 'भावुक वैक्यूम' दिखाई देता है। इसे अंडरलाईन करने की ज़रूरत भी है। यही एक वजह भी जब वह 'हरामखोर' के झांसे में आ जाती है। ऐसा नहीं है कि यह केवल एकल परिवार में होता है। बल्कि यह कहा जाना चाहिए कि यह एकल परिवारों के बच्चों में ज़्यादा आयतन घेर लेता है। इसलिए इस फिल्म में संध्या का किरदार केवल व्यक्तिगत भावुक टूटन की जानकारी ही नहीं देता बल्कि इस दौर के पारिवारिक ढांचे को भी अनायास उकेर देता है। संध्या की जीवन में वहाँ से थोड़ा बहुत रचनात्मक परिवर्तन तो महसूस होने ही लगता है जब उसकी जिंदगी में उसके पिता की लिव इन साथी आती है। और वह बहुत बेहतर तरीके से संध्या के मन को पढ़ती है और उसे एक भावुक सहारा देती है।
इस लिव इन साथी की भूमिका इस फिल्म में मुझे बहुत अच्छी लगी। हमारे यहाँ दूसरी औरत को जो इज्जत दी जाती है अक्सर वह बेहद नकारात्मक होती है। उनके गेट अप से लेकर उनके हाव भाव को फिल्म में इस तरह से चित्रित किया जाता रहा है जो आम दर्शकों की एक राय बना देता है। लेकिन इस फिल्म में यह चरित्र बेहद नपा तुला, सहज-स्वाभाविक सादा और समझदार बन पड़ा है। मुझे यह कहना चाहिए की यह चरित्र बिना शोर किए ही अपनी स्थिति और उपस्थिति खूबसूरत तरीके से दर्ज़ करवा रहा है। वास्तव में जो संवाद संध्या को नहीं मिल रहा उसे इस किरदार से लाया गया है, फिल्म के एक दृश्य में संध्या उसे अपने गले लगाती है। यह दृश्य और संवाद बहुत दमदार भी है।
इस तरह के असॉल्ट को कैसे पहचाना जाए या कैसे जूझा जाए इस बात को फिल्म सोल्व नहीं करती। बल्कि उसे उस छोर तक ले जाती है जहां यह दिखलाया गया है कि संध्या टीचर के मरने पर रोती है। कमल का चरित्र एक बार फिर से सलाम बॉम्बे के 'चायपाव' उर्फ़ कृष्णा की याद दिला देता है जो अपने दोस्त के लिए टीचर श्याम को पत्थर से कुचल कुचल कर मार डालता है और नाबालिग क़ातिल में तब्दील हो जाता है। उसके चरित्र में एक त्रासदीपूर्ण घुमाव आता है। फ़िल्म की पहले हिस्से में वह एक टीन-एज़ आशिक़ है, जो तरह तरह के तरीक़ों से संध्या को आकर्षित करने की कोशिश करता है। पर दूसरे हिस्से में एक 'जुवेनायल' में बदल जाता है। चंचल मींटू अपने ट्यूशन टीचर के गुस्से का शिकार हो जाता है। अंत के दृश्य को ध्यान देखने से ऐसा लगेगा कि हिंसा का अपने नतीजे के गुच्छों के साथ दिखाई दे रही है। बाल और युवा होते चरित्रों पर पड़ने वाले प्रभाव आपको अपने अंदर महसूस होने लगते हैं।
("डिस्क्लैमर- इस फ़िल्म में माइनर और खासतौर से लड़कियों के साथ हो रहे असॉल्ट(यौनिक) को दिखाने की कोशिश की गई है जिन पर उनको पोषित, शिक्षित और सुरक्षा देने की ज़िम्मेदारी है।")
इतना तय है कि जिस उल्लास से इस फिल्म को देखने के लिए आप बैठेंगे वह उल्लास फिल्म के अंत में मात्र चौथाई रह जाता है। यही बात इस फिल्म की सबसे बेहतरीन भी है। इस बात को भी मानना होगा कि यह फिल्म एक बेहतर संवाद को रच भी रही है।
फिल्म पर आते हैं। फिल्म में 15 बरस की छात्रा का आकर्षण और टीचर का कम उम्र अपनी ही स्टूडेंट का फायदा उठाना, फिल्म का मुख्य पहलू है। छात्रा, संध्या के पिता पुलिस में अफ़सर हैं और माँ छोड़ के जा चुकी हैं। इस कारण वह एक तनाव में जीने वाली लड़की है। अकेलेपन में रहने वाली लड़की। उसके पिता अपनी लिव इन साथी को घर ले आते हैं। वह कई सालों से उन्हें जानते हैं और साथ रखना चाहते हैं को देखकर, संध्या और भी तनाव में आ जाती है। इस तनाव का परिणाम यह होता है कि वह अपने टीचर से संबंध बनाती है। उसका झुकाव श्याम की तरफ और भी ज़्यादा हो जाता है। संध्या इसे एक जगह प्यार का नाम देती है...कहती है प्यार किया तो डरना क्या!
टीचर श्याम घर में, स्कूल के बाद बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ाता है। संध्या बाक़ी बच्चों के साथ वहाँ ट्यूशन पढ़ती है। फिल्म में दो छोटे लड़के और हैं जो साथ में ट्यूशन पढ़ते हैं, कमल और मींटू। दोनों पक्के दोस्त हैं। कमल, संध्या को पसंद करता है जिसे वह 'प्यार करना' कहता है। मींटू, अपने दोस्त कमल की हर तरह से उसके प्यार को पाने में मदद करता है। फ़िल्म में ये दोनों चरित्र हंसने की वजह भी बनते हैं। ऐसा ही एक और चरित्र शक्तिमान है। वह हमेशा शक्तिमान की वेश भूषा में ही रहता है। महज़ कुछ ही मिनटों के दृश्यों में शक्तिमान को सिनेमा हाल से साथ लाया जा सकता है।
अब बात माइनर असॉल्ट की करनी चाहिए। फिल्म खुद इस बात को शुरू में ही बता देती है। फिल्म में किस किस तरह की असॉल्ट को दिखाया गया है माइनर के संदर्भ में, उस पर गौर किया जाना चाहिए। फिल्म की पृष्ठभूमि में कोई बड़ा शहर नहीं है बल्कि एक गाँव है। माइनर पात्र दो जगह दिखाये गए हैं। एक स्कूल में दूसरे ट्यूशन में। यही वो दोनों जगहें हैं, जहां उन्हें छोटी या बड़ी दिक्कतें हैं। श्याम, स्कूल के में लड़कियों को पीटता है। एक दृश्य में तो इतना पीटता है कि उसे स्कूल से कुछ दिनों के लिए निकाल दिया जाता है। संध्या को भी वह एक जगह थप्पड़ लगाता है। इस टीचर की भाषा तक में ताना और बेइज्ज़ती झलकती है। वह गाली का भी भरपूर इस्तेमाल करता है। इसके अलावा वह अपनी ही स्टूडेंट का 'यौन शोषण' करता है। इसके लिए वह संध्या के घर में भी आ जाता है। दिलचस्प यह है कि संध्या को यह श्याम का प्यार लगता है। इसलिए वह इसका विरोध नहीं करती बल्कि जब तब उसके पास रहने या उसके बचाव में दिखाई देती है। उसके पिता के तबादले की बात पर वह दुखी है और इसके बारे में श्याम को भी बताती है।
श्याम के चरित्र में मौजूद इस तरह की हरकतें सीधे तौर पर उन तमाम तरह के दुर्व्यवहार का चेहरा सामने ले आती है जो अक्सर घटता ही रहता है। तारीफ करनी होगी फ़िल्मकर और कलाकार की कि कहीं भी वह घृणा का पात्र नहीं बनता। कुछ इस तरह से वह अपनी हरकतों को अंजाम देता है जिसे देखकर लगता ही नहीं कि फ़िल्म का शीर्षक इसी चरित्र से चिपका हुआ है। वह अपने हर तरह के फायदे का एक भी मौक़ा नहीं छोड़ता। वह दिलफेंक है। उसकी पत्नी भी उसकी पुरानी स्टूडेंट है।
श्लोक शर्मा ने बड़ी ही सफाई से फिल्म को और पृष्ठभूमि-संगीत को 'क्राइम पेट्रोल और सावधान इंडिया' से अलग रखा है। जब इन सीरियलों के एपिसोड शुरू होते हैं तब ही दर्शकों को म्यूजिक से ही पता चल जाता है कि कुछ गलत घटने वाला है। लेकिन इस फिल्म में सब गलत हो रहा है वह भी बड़े स्वाभाविक तरीके से। लेकिन संगीत मधुर ही बजता रहता है। देखा जाए तो यह बहुत सही भी है। अक्सर हमारे आसपास वे लोग हैं जो बच्चों का इस्तेमाल बड़े ही स्वाभाविक ढंग से कर जाते हैं और बड़ों को कुछ मालूम ही नहीं चलता। संध्या और उसके पिता में बातचीत का इतना गैप है कि वह कुछ शेयर ही नहीं कर पाती। संध्या की स्कूल में कोई पक्की दोस्त भी नहीं दिखाई गई। कोई ऐसा रिश्तेदार नहीं दिखाया गया जिससे वह साझा करने का रिश्ता स्थापित कर पाये। शायद इस तरह की वजहें उसे टीचर श्याम के क़रीब ले जाती हैं।
एक अहम बात जो मुझे लगी है और यह कि बढ़ती हुई उम्र की संध्या के रोज़मर्रा में 'वैक्यूम' तो दिखता ही है साथ ही अहसासों के स्तर पर भी 'भावुक वैक्यूम' दिखाई देता है। इसे अंडरलाईन करने की ज़रूरत भी है। यही एक वजह भी जब वह 'हरामखोर' के झांसे में आ जाती है। ऐसा नहीं है कि यह केवल एकल परिवार में होता है। बल्कि यह कहा जाना चाहिए कि यह एकल परिवारों के बच्चों में ज़्यादा आयतन घेर लेता है। इसलिए इस फिल्म में संध्या का किरदार केवल व्यक्तिगत भावुक टूटन की जानकारी ही नहीं देता बल्कि इस दौर के पारिवारिक ढांचे को भी अनायास उकेर देता है। संध्या की जीवन में वहाँ से थोड़ा बहुत रचनात्मक परिवर्तन तो महसूस होने ही लगता है जब उसकी जिंदगी में उसके पिता की लिव इन साथी आती है। और वह बहुत बेहतर तरीके से संध्या के मन को पढ़ती है और उसे एक भावुक सहारा देती है।
इस लिव इन साथी की भूमिका इस फिल्म में मुझे बहुत अच्छी लगी। हमारे यहाँ दूसरी औरत को जो इज्जत दी जाती है अक्सर वह बेहद नकारात्मक होती है। उनके गेट अप से लेकर उनके हाव भाव को फिल्म में इस तरह से चित्रित किया जाता रहा है जो आम दर्शकों की एक राय बना देता है। लेकिन इस फिल्म में यह चरित्र बेहद नपा तुला, सहज-स्वाभाविक सादा और समझदार बन पड़ा है। मुझे यह कहना चाहिए की यह चरित्र बिना शोर किए ही अपनी स्थिति और उपस्थिति खूबसूरत तरीके से दर्ज़ करवा रहा है। वास्तव में जो संवाद संध्या को नहीं मिल रहा उसे इस किरदार से लाया गया है, फिल्म के एक दृश्य में संध्या उसे अपने गले लगाती है। यह दृश्य और संवाद बहुत दमदार भी है।
इस तरह के असॉल्ट को कैसे पहचाना जाए या कैसे जूझा जाए इस बात को फिल्म सोल्व नहीं करती। बल्कि उसे उस छोर तक ले जाती है जहां यह दिखलाया गया है कि संध्या टीचर के मरने पर रोती है। कमल का चरित्र एक बार फिर से सलाम बॉम्बे के 'चायपाव' उर्फ़ कृष्णा की याद दिला देता है जो अपने दोस्त के लिए टीचर श्याम को पत्थर से कुचल कुचल कर मार डालता है और नाबालिग क़ातिल में तब्दील हो जाता है। उसके चरित्र में एक त्रासदीपूर्ण घुमाव आता है। फ़िल्म की पहले हिस्से में वह एक टीन-एज़ आशिक़ है, जो तरह तरह के तरीक़ों से संध्या को आकर्षित करने की कोशिश करता है। पर दूसरे हिस्से में एक 'जुवेनायल' में बदल जाता है। चंचल मींटू अपने ट्यूशन टीचर के गुस्से का शिकार हो जाता है। अंत के दृश्य को ध्यान देखने से ऐसा लगेगा कि हिंसा का अपने नतीजे के गुच्छों के साथ दिखाई दे रही है। बाल और युवा होते चरित्रों पर पड़ने वाले प्रभाव आपको अपने अंदर महसूस होने लगते हैं।