Sunday, 29 January 2017

हरामख़ोर

मेरे पास तीन फिल्में थीं और मैंने यह फैसला किया कि मैं उनमें से सबसे पहले 'हरामखोर' फिल्म को देखूँगी। कल टुकड़ों में यह फिल्म देख ली। फिल्म की शुरुआत में ही यह घोषणा कर दी जाती है कि फिल्म किस मुद्दे को उठा रही है। फिल्म माइनर असॉल्ट, खासतौर से लड़कियों के साथ हो रहे दुराचार के मुद्दे को उठाती है। फिल्म ऐसी नहीं है जिसे देखकर अंत में आप बोल सकें कि क्या ग़ज़ब फिल्म है। बल्कि आप जहां है वहाँ कुछ देर बैठेंगे रह जाएंगे और पुछेंगे- फिल्म का कौन सा सिरा आपने पकड़े रखा और किसे छोड़ बैठे। असमंजस में डालने वाली इस फिल्म में दृश्य बहुत ही आराम से आँखों के आगे से गुज़रते हैं। फिल्मकार ने इस फिल्म को इस तरीके से बनाया है कि दर्शक इस फिल्म में बुरे पात्र से भी हमदर्दी करने लगते हैं।


("डिस्क्लैमर- इस फ़िल्म में माइनर और खासतौर से लड़कियों के साथ हो रहे असॉल्ट(यौनिक) को दिखाने की कोशिश की गई है जिन पर उनको पोषित, शिक्षित और सुरक्षा देने की ज़िम्मेदारी है।")

इतना तय है कि जिस उल्लास से इस फिल्म को देखने के लिए आप बैठेंगे वह उल्लास फिल्म के अंत में मात्र चौथाई रह जाता है। यही बात इस फिल्म की सबसे बेहतरीन भी है। इस बात को भी मानना होगा कि यह फिल्म एक बेहतर संवाद को रच भी रही है। 

फिल्म पर आते हैं। फिल्म में 15 बरस की छात्रा का आकर्षण और टीचर का कम उम्र अपनी ही स्टूडेंट का फायदा उठाना, फिल्म का मुख्य पहलू है। छात्रा, संध्या के पिता पुलिस में अफ़सर हैं और माँ छोड़ के जा चुकी हैं। इस कारण वह एक तनाव में जीने वाली लड़की है। अकेलेपन में रहने वाली लड़की। उसके पिता अपनी लिव इन साथी को घर ले आते हैं। वह कई सालों से उन्हें जानते हैं और साथ रखना चाहते हैं को देखकर, संध्या और भी तनाव में आ जाती है। इस तनाव का परिणाम यह होता है कि वह अपने टीचर से संबंध बनाती है। उसका झुकाव श्याम की तरफ और भी ज़्यादा हो जाता है। संध्या इसे एक जगह प्यार का नाम देती है...कहती है प्यार किया तो डरना क्या!

टीचर श्याम घर में, स्कूल के बाद बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ाता है। संध्या बाक़ी बच्चों के साथ वहाँ ट्यूशन पढ़ती है। फिल्म में दो छोटे लड़के और हैं जो साथ में ट्यूशन पढ़ते हैं, कमल और मींटू। दोनों पक्के दोस्त हैं। कमल, संध्या को पसंद करता है जिसे वह 'प्यार करना' कहता है। मींटू, अपने दोस्त कमल की हर तरह से उसके प्यार को पाने में मदद करता है। फ़िल्म में ये दोनों चरित्र हंसने की वजह भी बनते हैं। ऐसा ही एक और चरित्र शक्तिमान है। वह हमेशा शक्तिमान की वेश भूषा में ही रहता है। महज़ कुछ ही मिनटों के दृश्यों में शक्तिमान को सिनेमा हाल से साथ लाया जा सकता है।



अब बात माइनर असॉल्ट की करनी चाहिए। फिल्म खुद इस बात को शुरू में ही बता देती है। फिल्म में किस किस तरह की असॉल्ट को दिखाया गया है माइनर के संदर्भ में, उस पर गौर किया जाना चाहिए। फिल्म की पृष्ठभूमि में कोई बड़ा शहर नहीं है बल्कि एक गाँव है। माइनर पात्र दो जगह दिखाये गए हैं। एक स्कूल में दूसरे ट्यूशन में। यही वो दोनों जगहें हैं, जहां उन्हें छोटी या बड़ी दिक्कतें हैं। श्याम, स्कूल के में लड़कियों को पीटता है। एक दृश्य में तो इतना पीटता है कि उसे स्कूल से कुछ दिनों के लिए निकाल दिया जाता है। संध्या को भी वह एक जगह थप्पड़ लगाता है। इस टीचर की भाषा तक में ताना और बेइज्ज़ती झलकती है। वह गाली का भी भरपूर इस्तेमाल करता है। इसके अलावा वह अपनी ही स्टूडेंट का 'यौन शोषण' करता है। इसके लिए वह संध्या के घर में भी आ जाता है। दिलचस्प यह है कि संध्या को यह श्याम का प्यार लगता है। इसलिए वह इसका विरोध नहीं करती बल्कि जब तब उसके पास रहने या उसके बचाव में दिखाई देती है। उसके पिता के तबादले की बात पर वह दुखी है और इसके बारे में श्याम को भी बताती है।

श्याम के चरित्र में मौजूद इस तरह की हरकतें सीधे तौर पर उन तमाम तरह के दुर्व्यवहार का चेहरा सामने ले आती है जो अक्सर घटता ही रहता है। तारीफ करनी होगी फ़िल्मकर और कलाकार की कि कहीं भी वह घृणा का पात्र नहीं बनता। कुछ इस तरह से वह अपनी हरकतों को अंजाम देता है जिसे देखकर लगता ही नहीं कि फ़िल्म का शीर्षक इसी चरित्र से चिपका हुआ है। वह अपने हर तरह के फायदे का एक भी मौक़ा नहीं छोड़ता। वह दिलफेंक है। उसकी पत्नी भी उसकी पुरानी स्टूडेंट है। 

श्लोक शर्मा ने बड़ी ही सफाई से फिल्म को और पृष्ठभूमि-संगीत को 'क्राइम पेट्रोल और सावधान इंडिया' से अलग रखा है। जब इन सीरियलों के एपिसोड शुरू होते हैं तब ही दर्शकों को म्यूजिक से ही पता चल जाता है कि कुछ गलत घटने वाला है। लेकिन इस फिल्म में सब गलत हो रहा है वह भी बड़े स्वाभाविक तरीके से। लेकिन संगीत मधुर ही बजता रहता है। देखा जाए तो यह बहुत सही भी है। अक्सर हमारे आसपास वे लोग हैं जो बच्चों का इस्तेमाल बड़े ही स्वाभाविक ढंग से कर जाते हैं और बड़ों को कुछ मालूम ही नहीं चलता। संध्या और उसके पिता में बातचीत का इतना गैप है कि वह कुछ शेयर ही नहीं कर पाती। संध्या की स्कूल में कोई पक्की दोस्त भी नहीं दिखाई गई। कोई ऐसा रिश्तेदार नहीं दिखाया गया जिससे वह साझा करने का रिश्ता स्थापित कर पाये। शायद इस तरह की वजहें उसे टीचर श्याम के क़रीब ले जाती हैं।



एक अहम बात जो मुझे लगी है और यह कि बढ़ती हुई उम्र की संध्या के रोज़मर्रा में 'वैक्यूम' तो दिखता ही है साथ ही अहसासों के स्तर पर भी 'भावुक वैक्यूम' दिखाई देता है। इसे अंडरलाईन करने की ज़रूरत भी है। यही एक वजह भी जब वह 'हरामखोर' के झांसे में आ जाती है।  ऐसा नहीं है कि यह केवल एकल परिवार में होता है। बल्कि यह कहा जाना चाहिए कि यह एकल परिवारों के बच्चों में ज़्यादा आयतन घेर लेता है। इसलिए इस फिल्म में संध्या का किरदार केवल व्यक्तिगत भावुक टूटन की जानकारी ही नहीं देता बल्कि इस दौर के पारिवारिक ढांचे को भी अनायास उकेर देता है। संध्या की जीवन में वहाँ से थोड़ा बहुत रचनात्मक परिवर्तन तो महसूस होने ही लगता है जब उसकी जिंदगी में उसके पिता की लिव इन साथी आती है। और वह बहुत बेहतर तरीके से संध्या के मन को पढ़ती है और उसे एक भावुक सहारा देती है।

इस लिव इन साथी की भूमिका इस फिल्म में मुझे बहुत अच्छी लगी। हमारे यहाँ दूसरी औरत को जो इज्जत दी जाती है अक्सर वह बेहद नकारात्मक होती है। उनके गेट अप से लेकर उनके हाव भाव को फिल्म में इस तरह से चित्रित किया जाता रहा है जो आम दर्शकों की एक राय बना देता है। लेकिन इस फिल्म में यह चरित्र बेहद नपा तुला, सहज-स्वाभाविक सादा और समझदार बन पड़ा है। मुझे यह कहना चाहिए की यह चरित्र बिना शोर किए ही अपनी स्थिति और उपस्थिति खूबसूरत तरीके से दर्ज़ करवा रहा है। वास्तव में जो संवाद संध्या को नहीं मिल रहा उसे इस किरदार से लाया गया है, फिल्म के एक दृश्य में संध्या उसे अपने गले लगाती है। यह दृश्य और संवाद बहुत दमदार भी है। 


इस तरह के असॉल्ट को कैसे पहचाना जाए या कैसे जूझा जाए इस बात को फिल्म सोल्व नहीं करती। बल्कि उसे उस छोर तक ले जाती है जहां यह दिखलाया गया है कि संध्या टीचर के मरने पर रोती है। कमल का चरित्र एक बार फिर से सलाम बॉम्बे के 'चायपाव' उर्फ़ कृष्णा  की याद दिला देता है जो अपने दोस्त के लिए टीचर श्याम को पत्थर से कुचल कुचल कर मार डालता है और नाबालिग क़ातिल में तब्दील हो जाता है। उसके चरित्र में एक त्रासदीपूर्ण घुमाव आता है। फ़िल्म की पहले हिस्से में वह एक टीन-एज़ आशिक़ है, जो तरह तरह के तरीक़ों से संध्या को आकर्षित करने की कोशिश करता है। पर दूसरे हिस्से में एक 'जुवेनायल' में बदल जाता है। चंचल मींटू अपने ट्यूशन टीचर के गुस्से का शिकार हो जाता है। अंत के दृश्य को ध्यान देखने से ऐसा लगेगा कि हिंसा का अपने नतीजे के गुच्छों के साथ दिखाई दे रही है। बाल और युवा होते चरित्रों पर पड़ने वाले प्रभाव आपको अपने अंदर महसूस होने लगते हैं।  

 

Friday, 27 January 2017

वरशिप हैंड्स

कसम से कभी कभी बहुत उट-पटांग सोच दिमाग़ में दस्तक़ देती है और मैं थोड़ा अस्थिर हो जाती हूँ। किसी रिश्तेदार का घर में आना होता तब, ले देकर बात मेरे सफ़ेद होते बालों और शादी पर आ टिकती है। मुझे बड़ा मज़ा आता है इस तरह के लोगों की परेशानियों को देखकर। कितना परेशान होते हैं लोग दूसरों की बेटियों के लिए। यह बहुत दिलचस्प है कि वे कहते सिर्फ अपने दिखावटीपन के लिए ही हैं। कुछ लोग (औरतें भी)  और भी बेमिसाल होते हैं। सबसे मज़ेदार वो अंटी जी, जो मुझे सोलह सोमवार का व्रत करने की मुफ़्त सलाह दे गईं। उनके अनुसार- 'सोलह सोमवर उपवास करोगी तो तुम्हें महादेव जैसा पति मिलेगा।' मुझे यह नहीं मालूम कि उन्हों ने यही सलाह किसी लड़के को भी दी है कि नहीं। अगर वह भी सोलह शुक्रवार और सोमवार उपवास करेगा तो उसे पार्वती जैसी पत्नी मिलेगी या दुख ख़त्म हो जाएंगे।

मुझे भूख बर्दाश्त नहीं होती और तिस पर सोलह सोमवार भूखे रहना, मतलब भारतीय संविधान में मौजूद सज़ा की धाराओं से भी कड़ी सज़ा। तीज त्योहाओं पर औरतों (अधिकतर)के भूखे रहने के चलन का मैंने एक अरसे तक बहुत अधिक सम्मान किया। लेकिन जब बात मुझ पर आई तो मैंने मन में इस सम्मान ही हवाइयाँ ही उड़ा दीं। मुझे लगता है कि मैं खुश किस्मत हूँ जो मुझ पर व्रत रखने उर्फ़ भूखे रहने का पारिवारिक और सांस्कृतिक दबाव नहीं डाला जाता। उल्टा मेरी माँ मेरी शारीरिक कमजोरी को देखते हुए व्रत रखने से पहले ही मना कर देती हैं। ख़ैर, मुझे सोलह सोमवार या शुक्रवार करने की तनिक भी इच्छा नहीं है।

इस धार्मिकता का पेंच बहुत गहरा है और हमारी परवरिश के साथ साथ समाजीकरण (धार्मिकीकरण और संस्कृतिकरण विशेष) की प्रक्रिया के चलते हमारे खून में भी बह रहा है। आसान नहीं इससे बाहर निकलना। मैं नहीं निकल पाई हूँ अभी तक। आज भी कभी कोई बात हो जाए, या मुझे चौंकना पड़ जाए, खुशी में, शांति में, दर्द में तब मेरी ज़ुबान पर कृष्णा का नाम तुरंत आ जाता है। खुद से। मुझे वैसे इस नाम से कोई आपत्ति भी नहीं। हालांकि मैं मूर्तियों के आगे धरम क़ायदे से सुगंधित अगरबत्ती नहीं दिखाती। इसकी दो वजह भी हैं। पहली मुझे खुशबूओं से दिक्कत हो जाती है दूसरा मुझे मूर्ति से कोई जुड़ाव या आत्मिकता सा का बोध नहीं होता। हाँ, मैं उन लोगों को बहुत सम्मान से देखती हूँ जो यह सब करते हैं। शायद उनकी आत्मा से परमात्मा के तार ज़रूर जुडते होंगे। यह अच्छी बात है। रफ़्तार में भागती ज़िंदगी में यह अहम तत्व है। इसके अलावा, सभी को पूरा हक़ है अपनी शैली से ज़िंदगी जीने का।



लेकिन आपको अब इस जमाने में थोड़ा ध्यान से और चालाकी से जीना होगा। आधी आबादी के लिए यह समय बहुत बेहतरीन है। आज हमारे पास पढ़ने लिखने का हक़ है। सोचने के लिए कुछ हद तक स्पेस है। इंटरनेट और नई तकनीकों के चलते घर से बाहर झाँकने और जीने के कम पर कुछ मौक़े मिलने लगे हैं। हालांकि हमारे समय में कुछ बड़ी चुनौतियाँ हैं जिनका हमें सामना करने के लिए मुस्तैद रहना जरूरी है। साथ में सक्रिय भी। लेकिन बात यहीं खत्म नहीं हो जाती। शहर में रहने के कारण मेरी आँखों पर शहरी ऐनक है। गाँव की आधी आबादी को मैंने अभी तक अपनी दो आंखों से अब्ज़र्व नहीं किया है। मौक़ा मिलेगा तो ज़रूर करूंगी। आज  इस पोस्ट में इस से अलग कुछ बातें रखना चाह रही हूँ।  

मैंने सुना है कि गाँव और शहर की आधी आबादी बहुत बड़ी मात्रा में धार्मिक भी है।

इसे (धार्मिकता) जितना घर-परिवार समाज राज्य ने पोसा है उतना ही हिन्दी की (अन्य भाषा की धार्मिक फिल्मों ने भी) फिल्मों ने भी। आपको मैं पागल लग रही हूँ, शायद! पर मैं अपनी बात के पक्ष में सन् 1975 में आई 'जय संतोषी माँ' फिल्म का उदाहरण रखना चाहूंगी। मेरी माँ ने यह फिल्म घर से थोड़ी दूर ही पर बने सिनेमा हाल में जाकर देखी थी। उनका कहना है कि फिल्म उन्हें उस टाइम बहुत अच्छी लगी थी। साथ ही साथ फिल्म के गाने तो क़यामत ही थे। हाल तक मेरे घर में धार्मिक गाने बजते रहे हैं। हनुमान चालीसा बचपन से इतनी सुनी है कि याद हो गई थी। (अब नहीं है)...मैंने भी जब बाद में यह फिल्म देखी थी तब मुझे भी यह फिल्म बहुत अच्छी लगी थी। मुझे इसका गाना - मदद करो संतोषी माता...बहुत पसंद आया था। आज भी इसके गाने मुझे अच्छे लगते हैं। इतना तय है कि इस फिल्म को देखने के बाद मैं और मेरी माँ बहुत दिनों तक प्रभावित ही रहे। 

पर बात उतनी सादा -सिम्पल नहीं है। इसे समझने के लिए हमें कुछ बातों को जान लेना ठीक रहेगा।

आज़ादी से पहले और उसके आसपास के सिनेमा में धार्मिक कथाएँ ख़ूब ज़ोर-शोर से दिखाई गईं। इसके पीछे का मक़सद यह बतलाया जाता है कि ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ़ सीधे तौर पर हमलावर फिल्म नहीं बनाई जा सकती थी। इससे उनके कोप का भाजन बनने का ख़तरा था। धार्मिक कथाओं के आड़ में जनता के मनोंरंजन के साथ साथ जनता में ब्रिटिश शासन के खिलाफ़ एक मनोवैज्ञानिक विरोध पैदा करना अच्छा तरीका था। इसके अलावा भारत भूमि ढेर सारी कल्पित कथाओं की ज़मीन है जहां कहानियाँ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हो जाया करती थीं। सिनेमा का धंधा एक उत्तम धंधा था। दौलत और शोहरत शुरूआत में उतनी नहीं मिली पर बाद में इस क्षेत्र में क्रांति हुई और 'डॉन' से लेकर 'बाज़ीगर' जैसों ने अपना रुतबा क़ायम किया। जलवा आज भी जारी है।



सन् 1975 फिल्म 'शोले' का भी बरस है। फिर ऐसा क्या था कि इस (जय संतोषी माता) धार्मिक और कम बजट की फिल्म ने कमाई और लोकप्रियता के कीर्तिमान स्थापित कर दिये? सोचने वाली बात है कि सन् 1912-13 के बाद के कई बरसों तक धार्मिक फिल्में अच्छी तादाद में बनती रहीं और सफल भी होती रहीं। रामायण और महाभारत जैसे धारावाहिकों ने तो गली मोहल्लों को टीवी के आगे ही चिपका दिया था। वास्तव में मिथक कथाओं में अजब निरालापन है। सम्मोहन है। चमत्कार है। जब फिल्म उद्योग को इसमें ढेर सारा मुनाफ़ा दिखा तो उन्हों ने इसे एक दूसरे ढंग से इस्तेमाल करना शुरू किया। न जाने कौन कौन से देवी देवता और पूजा पाठ के विधान कहानियाँ और दस्तूर खोजे गए जो आम जनता के लिए श्रद्धा के रूपों में तब्दील हो गए। यह भी याद रहे कि यह सब उसी धरती पर हुआ जहां मध्यकालीन भक्ति आंदोलन हुआ और भक्ति की नई परिभाषा गढ़ी गई थी।

संतोषी माता बहुत पुरानी देवी नहीं हैं ऐसा फिल्म की शुरूआत से ही पता चल जाता है। इसके अतिरिक्त यदि संतोषी माता के बारे में खोजबीन की जाए तो पता चलेगा कि सन् 1960 के आसपास में वह लोकप्रिय होने लगी थीं और उत्तर भारतीय महिलाओं द्वारा पूजनीय बन चुकी थीं। देश में उनके मंदिर भी हैं पर वे इतने प्राचीन नहीं हैं जितने बाक़ी देवियों के हैं। इससे सिद्ध होता है कि वह बिल्कुल अपनी तरह की नई देवी थीं। इसके अलावा उनके वस्त्र और कमल के फूल के आसन पर ध्यान दें तो वह 'श्री' अर्थात लक्ष्मी को कॉपी करते हुए लगती हैं। फिल्म में उनका शस्त्र त्रिशूल को दिखाया गया है। ऐसा जान पड़ता है कि त्रिशूल पॉपुलर मिथक में पॉपुलर शस्त्र था। इसमें कोई बुराई नहीं। यदि यहाँ वहाँ से कुछ रूप-रंग, तत्व, गुण लेकर किसी की रचना की जाती है तो वह अपनी ही तरह की एक अच्छी रचना हो सकती है। संतोषी माता कुछ इसी तरह की (रचनात्मक) शांत और मृदु देवी हैं।

फिल्म में दिखाया गया है- गणेश भगवान की बहन जब राखी के पर्व पर उन्हें राखी बांधती है तब उनके दो बेटे 'हमें भी एक बहन ला के दीजिये न' की ज़िद्द करते हैं और नारद मुनि व अपनी पत्नियों रिद्धी सिद्धि के आग्रह पर जादू से एक कन्या को प्रकट करते हैं। तब नारद मुनि उस कन्या का नाम (स्वतः गणेश जी की सलाह के बिना) संतोषी रख देते हैं। भविष्य में उसके उज्ज्वल नाम की भी बात करते हैं। तो दूसरी ओर फिल्म की मुख्य नायिका 'सत्यवती' को संतोषी माता की भक्तिन के रूप में एक गीत से स्थापित कर दिया जाता है। दर्शकों के दिमाग उसकी छवि बेहद आज्ञाकारी पुत्री, भक्तिन, पत्नी, आदर्श बहू और अच्छी औरत की सेट कर दी जाती है। फिल्म के एक घंटे के अंतराल तक वह अपने पति को स्वामी कहकर पुकारने लगती है।

फिल्म के दोनों मुख्य चरित्र 'संतोषी माता' और 'सत्यवती' के नाम पर गौर नहीं किया तो हम एक महत्वपूर्ण पक्ष को छूने से भूल जाएंगे। संतोषी एक स्त्रीलिंग शब्द है जिसे संतोष के पुल्लिंग शब्द से दूसरे खाने में देखा जा सकता है। महत्वपूर्ण बात यह है कि किसी देव का नाम संतोष स्थापित नहीं किया गया। सीधे तौर पर एक स्त्री से संतोषी नाम और गुण को चिपकाने का धार्मिक तरीका अपनाया गया। औरत को संतोषी बनने का धार्मिक आदेश संतोषी माता के प्रतीक और मिथक के सहारे दिया गया। खट्टे से परहेज़ का एक पूरा सेट अप किया गया और कहानियाँ बनाई गईं। हालांकि संतोष जैसी मानसिकता के पक्ष में  बहुत से दोहे भी रचे गए, जैसे-

गोधन  गजधन  और  रत्न  धन  खान
जब आवे संतोष धन सब धन धुरी समान

(यह अच्छी बात भी है। निजी नज़रिया अलग हो सकता है)

औरत देवी के लिए स्पेस तैयार किया गया। बजाय उसको सक्रिय करने के संतोष जैसे मानसिक समझौते को मिथक के सहारा दिया और बकायदा उसके लिए विधि विधान भी बनाया। दिन तय किया शुक्रवार का। अब नाम 'सत्यवती' पर आते हैं। सत्य को अपने में रखने या वहन करने वाली सत्यवती। इसका पुल्लिंग सत्यवान है। हालांकि फिल्म में सत्यवती के पति का नाम 'बिरजू' रखा गया है। मुझे लगता है जब एक फ़िल्मकार कहानी सोचता और लिखता है तब उसके किरदार के बारे में बहुत सोचता है। ठीक ऐसे ही उसके नाम को भी वह कई बार सोचता होगा। अमिताभ बच्चन का 'विजय' नाम आज तक मशहूर है तो शाहरुख और सलमान का क्रमश: 'राहुल' और 'प्रेम' अभी तक नज़र आता है। ठीक ऐसे ही सत्यवती नाम रखने का मक़सद यही रहा होगा कि यह औरत चरित्रवान है। सच बोलने वाली। फिल्म के अंत के दृश्य में जब छोटे भाई को खोजने गया बड़ा भाई लौटता है तब वह सत्यवती के 'देवी' होने पर मुहर भी लगा देता है। यह देवी आसमान में रहने वाली देवी से अलग है। यह वह 'देवी' है जो धरती पर रहती है। चमत्कार नहीं जानती पर अपने पति परिवार के लिए निष्ठावान है। वह भक्ति करती है। यहाँ तक चरित्र से कोई आपत्ति नहीं है। पर अजब बात यह है कि वह सभी दुखों को चुपचाप सह रही है और उसको दूर करने के लिए व्रत रखती है। वह अपने पर हो रहे अत्याचार के लिए पुलिस में रिपोर्ट नहीं करती। यह याद में रहना जरूरी है। जब मैं 'मीराबाई' को पढ़ती हूँ तब उनकी भक्ति को अलग पाती हूँ। मीरा अवश्य ही विद्रोहिणी महकती हैं और अत्याचार का जवाब भी देती हैं।



बाद के दृश्यों में त्रिदेवों की पत्नियाँ सत्यवती का भरपूर टेस्ट लेती हैं। इधर सत्यवती भी हर बार संतोषी माँ के आगे नत मस्तक होकर टेस्ट पास करती जाती है। फिल्म के एक गीत में भी एक गजब की लाईन है- 'मत रो मत आज राधिके सुन ले बात हमारी, जो दुख से घबरा जाये वो नहीं हिन्द की नारी...!' धार्मिक फिल्म है इसलिए कहीं न कहीं औरतों के किरदार अकर्मक से जान पड़ते हैं। इसलिए आपको कुछ भी अटपटा नहीं लगेगा। अमूमन घरों में इस तरह के चरित्र आम बात हैं। खुद मैं अब भी गाने सुन लेती हूँ जैसे- 'मदद करो संतोषी माता, मदद करो संतोषी माता।' फिल्म के ऐसे बहुत से दृश्य हैं जो बेहद खराब और आलोचनात्मक हैं। जैसे सत्यवती पर एक खल पात्र द्वारा हिंसा करने की कोशिश करना। पहले एक पुरुष (भावी पति) रक्षा करता है और दूसरी बार संतोषी माता रक्षा करती हैं। वह अपना त्रिशूल फेंक देती हैं और वह साँप में तब्दील हो जाता है और बलात्कार की कोशिश करने वाला गुंडा भाग जाता है।

एक दिलचस्प बात इस धार्मिक फिल्म में कानून कहाँ और कैसे दिखा, यह भी जानना चाहिए। फिल्म के अंत में जब संतोषी माता की पूजा का प्रसाद खाकर गाँव के बच्चे बेहोश या निर्जीव हो जाते हैं तब एक सत्यवती के पति को शख्स कहता है  कि 'हम इसे हथकड़ी लगवा कर रहेंगे।' यानि फिल्म की कहानी की पृष्ठभूमि बहुत पुरानी नहीं है। पुलिस का आ चुकी है समाज में। बकायदा राज्य में दंड का विधान है। लेकिन हैरत है फिल्म में इतने अत्याचार सत्यवती पर हो रहे हैं पर वह कानूनी रास्ता नहीं अपनाती। वास्तव में फिल्म का विषय कानूनी था ही नहीं। वह तो धार्मिक था।

फिल्म में एक पक्ष पर और गौर किया जाना चाहिए। पति पत्नी संबंध। वास्तव में फिल्मांकन आदर्श के रूप में हुआ है। दोनों ही धार्मिक हैं। लेकिन जैसे ही बिरजू' को मालूम चलता है कि उसे अपने बाक़ी छ भाइयों का बचा-खुचा खाना दिया जाता है तब वह क्रोध में आ जाता है। अपनी पत्नी को छोड़ वह जाने लगता है। तब सत्यवती रोकती है और साथ जाने का आग्रह करती है। पर वह उसे यहीं ठहरने को कहते हुए अपनी सौंगंध दे देता है। सत्यवती इसे अपने स्वामी का आदेश मानकर कुछ बोल नहीं पाती। क्या यह अटपटा मालूम नहीं होता? फिल्म में सत्यवती और बाक़ी स्त्री चरित्रों को किसी भी आर्थिक काम के नज़रिये से सोचा तक नहीं गया है। वह घरेलू काम में है, माँ है, पत्नी है या फिर प्रेयसी के रूप में। सत्यवती के पिता मंदिर के पुजारी हैं और ग्रंथ पढ़ते हैं पर सत्यवती कहीं भी पढ़ाई लिखाई के संदर्भ से नहीं जुड़ती। अगर यही धार्मिक फिल्म है तो धर्म में औरतों के इन पक्षों में प्रकाश क्यों नहीं? क्या यही मिथक कथाएँ सम्पदा हैं तो फिर इस सम्पदा में औरतों के नाम और चरित्र रोते बिलखते या फिर सिकुड़े हुए क्यों हैं?

फिल्म का एक पहलू मुझे अच्छा लगा। हालांकि फिल्म में उसे ज़्यादा महत्व नहीं दिया गया। सत्यवती के पिता द्वारा सत्यवती के (वर के लिए) मन की बात जानना। उसकी माँ नहीं है। इसलिए पंडित पिता उससे बड़े प्यार से उसकी पसंद पूछते हैं और सकारात्मक रवैया रखते हैं। एक तरह से दोनों का प्रेम विवाह होता है। इस तरह से हमें अपने सिनेमा पर नज़र रखनी चाहिए। आज भी सिनेमा अटपटे औरतों के किरदार रच कर पर्दे पर उतार रहा है। इसका ताज़ा उदारण चरिचित फिल्म 'बाहुबली' में अवंतिका का चरित्र है। देखेंगे तो जानेंगे। आज के समय में बहुत सी धार्मिक फिल्में तो नहीं बन रहीं पर टीवी सीरियल जरूर बन रहे हैं। मुझे बताया गया है कि टीवी पर 'संतोषी माता' नाम का एक सीरियल आता है। मैंने अभी देखा नहीं। देखूँगी तब अपनी राय ज़रूर रखूंगी। 

आज भी मेरी कई दोस्त सोलह सोमवार और शुक्रवार के व्रत करती हैं। मुझे वे बड़ी मासूम लगती हैं। शायद आसमान में बैठी संतोषी माँ उनकी इच्छा पूरी कर देती हैं। किसी की भी श्रद्धा पर शक करना गलत है। सबको हक़ है अपने विशवास के साथ रहने का। लेकिन क्या यह समय नहीं आ गया कि इस तरह के मिथकों और विधि विधानों से युक्त कथाओं को फिर से परखने का? मुझे लगता है आ गया है। यदि मुझे किसी वस्तु की कामना है तो मैं उसे पाने के लिए मेहनत करूंगी। दुख दर्द हैं, तो वे तो मानव जीवन का स्वाभाविक हिस्सा है। उसे हटाने के लिए व्रत रखना जायज नहीं लगता। रही बात वर की तलाश की तो उसके लिए मैं व्रत तो कभी नहीं करने वाली। ...

जय संतोषी माँ।    

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बाकी आज के टीवी किलर सीरियल पर फिर कभी लिखूँगी।
सभी चित्र गूगल से साभार



     

Monday, 23 January 2017

'रेमन' की क़मीज़


आज सुबह अपने भाई की दफ़्तरी की तैयारी देख रही थी। कभी कोई क़मीज़ निकाल रहे थे तो कहीं कुछ जुराबों की जोड़ी देख रहे थे। इस बीच भाभी की क्लास भी लग रही थी। तुम न जाने कहाँ सामान रख देती हो... खाना तो लगा दो... लंच रख दिया...शाम को गोभी मत बना देना...कुछ अच्छा सा पका देना... भाभी के चेहरे पर कोई गुस्सा नहीं था। कभी देखा भी नहीं है। जो भैया बोल रहे थे उसे करने की खामोश हामी देती जा रही थीं। मैं होती तो शायद हंगामा ही कर बैठती

आज भैया ने पीले रंग की क़मीज़ पहनी थी। अच्छे लग रहे थे। अचानक मेरी तरफ़ देख कर बोले- 'आज जाना नहीं है कहीं, कुछ दिन से देख रहा हूँ, अज़ीब सी रहती हो जैसे गुम हो कहीं ठीक हो?' वाक्य के बाद वाक्य में आया सवाल मुझे क़मीज़ के ख़याल से जगा गया। मैंने अपनी गरम शाल को अच्छे से बदन पर लपेटते हुए कहा- हाँ। बिल्कुल ठीक हूँ। जानते ही हो सर्दी में तबीयत कैसे बिगड़ जाती है और आलस बहुत आ जाता है...।' वो बस हम्म बोले और जल्दबाज़ी में निकल गए। उनके पास समय कहाँ था, नौकरी बजानी थी। 
मेरे मन में बार बार क़मीज़ का ख़याल रह रहकर आ रहा था। जिस क़मीज़ का ख़याल आ रहा था उसका रंग गाढ़ा लाल था। क्यों अटका है दिमाग, आज क़मीज़ पर? शायद कोई कहानी आने को हो रही है मेरे मन में। भाभी मुझे चाय देने आई तब ध्यान टूटा और मैंने अपने हाथ में गरम गिलास ले लिया। मुझे लगा वो कुछ देर मेरे पास बैठेंगी और कुछ बात होगी। पर वो तो तुरंत ही चली गईं। मैंने सोचते सोचते चाय पी। आख़िरी घूट जो अंदर गया तो लगा- 'हाय इतनी जल्दी ख़त्म हो गई!' चाय पीने के थोड़ी देर बाद मुझे नींद आ गई। जब ऐसी नींद का अहसास हो तब मुझे अंदाज़ लग जाता है कि मैं देर तक इस दुनिया में नहीं रहूँगी। कोई दरवाज़ा खुलता है और में भीतर चली जाती हूँ। जिसे लोग सपना या ख़्वाब कहकर पुकारा करते हैं मैं उस दुनिया को अपने सबसे क़रीब पाती हूँ। अपनी असली जगह। ख़ैर, मैं पहुँच चुकी थी। 



इस बार मेरी उम्र लगभग दस बरस के आसपास है। रविवार का दिन है सो माँ ने हम सभी पर मेहनत कर के हमें तैयार कर दिया है। मैंने अपना वही नीला रंग पहना है। मेरे लिए ख़ास तौर से माँ ने सिला है। नीला सूती का टॉप और निकर। पापा को मैं ऐसे ही कपड़े में अच्छी लगती हूँ। बालों को ज़िद्द कर के पापा ने कटवा दिया है। माँ का कहना है कि लड़कियों के बाल बड़े होने चाहिए। पर बैंगलोर जाने से पहले वो बाल कटवा गए। सर्दी जाती हुई दिनों में थोड़ी बहुत ही रह गई है।... लो टीवी के एंटीना पर कौआ बोल रहा है। मैं गणित की कॉपी में कुछ सवाल हल कर रही हूँ। शायद गुणा के हैं। मैंने उस पक्षी को घूरा। काले कागा का बोलने का मतलब घर में किसी मेहमान का आना। मैंने कागा को घूरते हुए सोचा अब कौन आ सकता है। मामाजी तो कुछ दिन पहले ही गए हैं। अभी इसी तरह के खयाल चले रहे थे दिमाग में, तभी किसी ने मेरे नाम को उत्साह से पुकारा। देख जया! जल्दी नीचे आ!... फूफाजी आए हैं और देख कितना सामान लाये हैं। हम दोनों भाई बहन की निगाह सबसे पहले उनके हाथ में पड़े खाने के समान पर गई। 
मेरे फूफाजी एकदम वज़नदार आदमी थे। रंग ख़ूब गोरा था इसलिए बुआ की जगह दादी को पसंद आ गए थे। यह नहीं मालूम कि बुआ को वो उस समय पसंद थे भी या नहीं। बस दादी ने ही सभी फैसले ले लिए थे। बुआ की शक्ल से ऐसा मालूम होता है कि वो बहुत जल्दी 'अडजस्टमेंट का शिकार' हो गई थीं। माँ के बारे में ऐसा नहीं लगा। शायद हो भी सकता है। माँ अच्छी अभिनेत्री है। जब देखो खुश ही नज़र आती है। ख़ैर, मेरे आस पड़ोस में सभी शादीशुदा औरतें खुश ही दिखती हैं। माँ गौरी अगर आसमान से देखती होंगी तो ज़रूर खुश होंगी कि देखो उनका वरदान कितना शानदार काम कर रहा है! ...वापस फूफा जी पर आते हैं। फूफा जी दिल के बेहद बुरे इंसान हैं। वो लोगों पर बहुत खर्च करते हैं इसके अलावा लड़कियों को बहुत छूट भी देते हैं। इतनी छूट दी है कि लड़कियों की ज़ुबान कैंची जैसी चलती है। ऐसा मेरी दादी और और फूफाजी की माँ का कहना है। पर हमारे घर जब भी आते हैं, मुझे तो बहुत अच्छा लगता है। 



माँ के साथ तरकारी कटवाने के साथ साथ कई गाँव की बातें भी बताते हैं। मुझे बैठने का मौका भी मिल जाता है। हालांकि माँ की शिकायत है कि बड़ों की बैठकी में 'तुम बच्चे' नहीं जमने चाहिए। पर फूफा जी अलग हैं। कहते हैं- 'जाने दो, इन्हें भी तो कल दुनियादारी में उतरना ही है। अभी से सीख लेने दो।' 

बातें निकलती हैं तो कितने क़िरदार भी निकल आते हैं उनके साथ। ऐसा ही एक क़िरदार हलधर भईया निकल आए। फूफाजी के सबसे बड़े लड़के। गाँव से शहर तक उन्हीं के चर्चे गूँजते हैं। सो इस बार फिर उनकी शादी का ज़िक्र छिड़ गया। फूफाजी तो अब हलधर भईया के इस नए रूप को अपना चुके हैं पर बुआ हैं कि आज भी उन पर शादी का दबाव डाल रही हैं। 

'हलधर भईया कुँवारा बाप हैं।'    

कुछ बरस पहले वो दिल्ली में हमारे ही साथ रहते थे कोई तकनीक की पढ़ाई पढ़ रहे थे। उन्हें भी कपड़ों का बेहद शौक़ था और फूफाजी से वह बेहिसाब रुपया लेकर अपने पर खर्च करते थे। माँ ने कई बार कहा भी कि इतनी खर्चीली अच्छी नहीं है। तब वह कहते - 'मामी, तुम न जानो कि क्लास में कितने बड़े लोग आते हैं। बराबर का न दिखूँ तो किताब के शबद (शब्द) भागने लगते हैं। आँख टिकती है नहीं।' इसी दौरान उन्हें किसी पहाड़ी लड़की से इश्क़ हो गया। उस लड़की को लाल रंग बहुत पसंद था। सो हलधर भईया लाल रंग की क़मीज़ बहुत पहना करते थे। हालांकि हम सब उनका मज़ाक उड़ाते थे। पर वह कहते थे- 'इश्क़ होगा तब जानोगे!' उन्हें अपनी एक ख़ास कपड़े की क़मीज़ से न जाने क्यों इतना लगाव था कि वह खुद उसे धोया करते। बड़े जतन से रखते थे। माँ ने कहा भी- 'मुझे दे दिया करो धोने के लिए। पढ़ाई में मन लगाओ। घर के काम तुम न किया करो। दीदी सुनेंगी तो कहेंगी कि मेरे लड़के की एक क़मीज़ भी नहीं धोई जा रही।'

लेकिन हलधर भईया ने कहा- 'मामी आप चिंता न करो। रेमंड की क़मीज़ है। इसकी धुलाई मैं ही करूँ तो अच्छा है।' इस बात से इतना तय था कि यह क़मीज़ उनकी जान बन गई थी। एक दाग भी नहीं लने देते थे। मैंने पूछा भी था एक बार। 'भईया, ऐसा क्या है इस क़मीज़ में जो जान से अधिक समझते हो?' वो बस मुस्कुरा कर बोले- 'बच्ची है तू! चल जा पढ़ाई लिखाई कर।'

पढ़ाई के बीच में उन्हें गाँव से बुलावा आ गया कि माँ की तबीयत ठीक नहीं है। सो दो या चार दिन ख़ातिर आ जाओ। वो जो गए वापस दिल्ली लौटे ही नहीं। गाँव के ही होकर रह गए। 

आइये, उनकी आगे की कहानी लोगों की कही- सुनी बातों से आप लोगों को बताती हूँ। 

अक्तूबर की हल्की सर्दियों के महीने में वे गाँव गए। बुआ की हालत बहुत ही अधिक खराब थी। फूफा जी का दिल बैठ गया था कि उन्हें कुछ हो गया तो बेटियों और बेटे को कौन देखेगा। इस हालात में हलधर भईया ने बुआ जी की ख़ूब सेवा की और अच्छे से अच्छे अस्पताल में ले गए। उनकी दशा में सुधार आ रहा था। दिसंबर के अंत में बुआ जी बिलकुल चंगी हो गई थीं। सो हलधर भईया पर दबाव डाला गया कि शहर आकर अपनी पढ़ाई पूरी कर लें। वो शुरू में राज़ी नहीं थे। पर फूफाजी की बातों से मान गए। 

हमारे गाँव से रेलवे स्टेशन लगभग तीन सौ किलोमीटर दूर है। इसलिए ट्रेन चाहे कितने भी समय कि हो लोग 10 से 12 घंटे पहले ही पहुँच जाते हैं। कारण कोई साधन नहीं है। जो है वह भी बहुत नाममात्र का। इसलिए जनवरी के सर्द दिनों में कोई भी वाहन ही नहीं मिल रहा था जो रात को स्टेशन पहुंचा दे, ताकि सुबह की ट्रेन पकड़ी जा सके। ट्रेन का टिकट तो रात के समय वाला भी मिल सकता था। ताकि सुबह स्टेशन के लिए रवाना हुआ जाए। पर हलधर भईया रात को सफर कर के (गाँव से स्टेशन का) परंपरा और डर ख़त्म करना चाहते थे। गाँव के लोगों में भूत-पिशाच, चुड़ैल, डाकू, चोर लूटेरों आदि का गजब भय था। इसलिए वे रात को ही सफर पर जाकर यह बतलाना चाहते थे कि इन सब वहम को ख़त्म करना होगा। इसलिए जानबूझकर ऐसी टाइमिंग वाली ट्रेन का टिकट ले आए थे। 

फूफाजी भी कोई कच्चे खिलाड़ी नहीं थे। उन्हों ने रात के अंधेरे को ख़त्म करने के लिए जाने कौन सी कुलदेवी की पूजा का आयोजन कर लिया और सभी गाँव वालों को रातभर उसमें शामिल होने का न्योता दे डाला। इससे दो काम हुए। गाँव में जनरेटर से लाइट आ गई। गाँव रोशनमान हो गया दूसरा गाँव के सभी बड़े-बूढ़े, लड़के लड़कियां, बच्चे, आदमी औरतें एक जगह इकट्ठा हो गए। तय किया गया कि देवी का विसर्जन स्टेशन के पास पढ़ने वाली नहर में कर देंगे। नहर है तो क्या हुआ, सुना है गंगा जी से ही निकली है। 

लोग बताते हैं कि उस रात गाँव में बहुत हलचल थी। गीत संगीत, बातें, दुख, किस्से, खुशी, हंसी, किलकारी सब कुछ इकट्ठा हो गया था। फूफाजी के नाम को लेकर आशीष गीत गाये जा रहे थे। या सात जीपों का इंतजाम किया गया था। देवी के विसर्जन में यह सभी जीपें जाने वाली थीं। आठवीं जीप में हलधर भईया और गाँव के पाँच छ लड़के स्टेशन तक उन्हें छोड़ आते, ऐसी योजना बनाई जा चुकी थी।

औरतों ने गीत मंगल गाया और विदा किया। सभी जीपें आगे जा रही थी अच्छी गति के साथ। सबसे पीछे हलधर भईया की जीप थी। भईया ने पहले ही चालक को जीप धीमें धीमें चलाने का हुक्म दिया था। सो ये सभी दोस्त यार ख़ूब शहर और उसके मिजाज की बात करते हुए मज़े में जा रहे थे। कोई भोजपुरी गीत भी बजाया जा रहा था। (मुझे नहीं मालूम कौन सा)

           पिकासो द्वारा बनाया गया

भईया को अचानक क्या सुनाई दिया और गाना बंद करवा कर सभी को श...कर के चुप करवाया। बोले- 'कोई बच्चा रो रहा है शायद!' गाड़ी में बैठे लोगों में से एक बोला- 'अरे चलो। किसी डायन या चुड़ैल का काम है। ऐसे ही रास्ता रोका जाता है।' भईया नहीं माने और गाड़ी से उतर गए। टॉर्च को जलाते हुए वह उस जगह पहुँच गए जहां से बच्चे की रोने की आवाज़ आ रही थी। टॉर्च की रोशनी में उन्हे वह बच्चा दिखा तो झट उठा कर सीने से चिपटा लिया। जैकेट के अंदर और रेमंड क़मीज़ से चिपटा हुआ बच्चा कुछ पल में सर्दी से राहत पा कर चुप हो गया। भईया ने कई आवाज़ें लगाईं। गुस्से में आठ दस भयंकर गाली भी दी। कहा- 'साला, पालना नहीं होता तो पैदा क्यो करते हो? सर्दी में इतने से बच्चे को कोई छोड़ता है क्या? साले इंसान हो या जनावर'(जानवर)...!' थोड़ी सी दूर कोई सफ़ेद साया सा दिखा। लेकिन भईया जैसे ही टॉर्च उस ओर ले गए, हिलती हुई झाड़ियों के अलावा कुछ न दिखा। बच्चा रेमंड क़मीज़ से चिपकाए वे वापस जीप में आए और घर वापस चलने को कह दिया। 

उधर फूफाजी स्टेशन पर हलधर भईया को न पाकर ख़ूब परेशान हुए और देवी को विसर्जित किए बिना ही वापस घर आ गए। ...घर पहुंचे तो बेटे को तो नहीं पाया पर कंबल में एक बच्चे को गोद में लिया हुआ कुँवारा बाप ज़रूर उन्हें दिखा। उस रात गुस्सा और ख़ामोशी फूफाजी के घर में ख़ूब रही। शायद यह सिलसिला ज़्यादा चला भी। किसी ने भईया को 'किरांतिकारी' तो 'पागल' भी कह दिया था।   


बच्ची अब थोड़ी बड़ी हो गई है। भईया ने उसका नाम बुलबुल रखा है। कहते हैं यही अच्छा नाम है। शुरू में उनके इस फैसले से बहुत झगड़े हुए पर अब घर सामान्य हो गया है। भईया 'हलधर मैया' में तब्दील हो चुके हैं। शहर के प्रेम को यह कहानी सूचित कर चुके हैं। उन्हें दुख है पर बुलबुल को देखकर भूल जाते हैं। 

रुकिए...रेमंड की क़मीज़ को क्यों भूल गए?

बुआ एक रोज़ उस क़मीज़ को धोने जा रही थीं। भईया ने न जाने क्या सोचकर कहा कि इसका पौंछा वगैरह बना लो। मैं नहीं पहनूंगा। इस बात पर बुआ हैरान होकर बोल उठीं- 'तू ही तो कहता था रेमन की क़मीज़ है रेमन की क़मीज़ है...और आज इसे कह रहा है पौंछा बना लो। तुझे क्या हो गया है...इस बच्ची के पीछे तू पगला गया है।' भईया कुछ न बोले बस बच्ची की ओर देखावह बड़े इत्मीनान से सो रही थी।(ऐसा मुझे बताया गया)

लगभग एक महीने बाद दूसरे किसी गाँव से खबर आई कि किसी लड़की ने आत्महत्या कर ली है। पुलिस जांच में कुछ और मालूम चल रहा है। कहा जा रहा है कि एक लड़की का उसी के घर किसी रिश्तेदार ने जबरन अत्याचार किया था। लड़की ने राज़ खोलने की धमकी दी तो मार दिया गया। पुलिस की तहक़ीक़ात जारी है। न जाने कौन दोषी था, मुझे यह नहीं मालूम। 

...मेरी आँख खुली है तो ऐसा लग रहा है कि मैं कई महीनों से सोई हूँ। सपने देखना अपने को थका भी देता है। कितने बरस पीछे चली गई थी। माँ ने जया-जया कर मुझे उठाया तो मालूम चला बुलबुल आई है फूफाजी के साथ। मैं फौरन उठकर उससे मिलने चल दी। 


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किसी की दिली इच्छा थी कि इस बड़ी कहानी को छोटे रूप में लिखा जाए। पता नहीं कितना सफल हुई हूँ। पर लिख तो दिया है। 

गाँव का जबरन एक सुंदर खाका खींचा जाता है। पर ऐसा नहीं है कि वहाँ औरतों या लड़कियों से संबन्धित हिंसा नहीं होती। कई बार तो घर की मजबूत दीवारों में उनकी आहों की चुनाई कर दी जाती है। यौनिक हिंसा की घटनाएँ भी जब तब सुनने को मिलती ही रहती हैं। मेरी जानकारी में किस्सों के रूप में पाँच या छ घटनाएँ मुझे बताई गई हैं, जहां अगर यकीन किया जाए तो महिलाओं के साथ हिंसा हुई है। बड़े घर (ज़ात) की कहानियाँ और भी दर्दनांक होती हैं जबकि तथाकथित निम्न जातियों में विरोध के मजबूत स्वर सुनने को मिलते हैं। 

(आपका अनुभव अलग हो सकता है)             




 

21 बरस की बाली उमर को सलाम, लेकिन

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