लैपटाप में समय एक बजकर उनचालीस मिनट का हो चला है। मैं अभी अभी छत पर धूप में अपने तन और मन को सेंक आ रही हूँ। अच्छा लगता है न अपने को धूप के पास (में) कुछ देर रख देना! रोम रोम गरम रोशनी को अपने अंदर सोखता है। एक ऐसा एहसास होता है जो इस 'दीन-दुनिया' से बाहर ले जाता है। मैंने कुछ मिनटों के लिए अपने आप को रोशनी के हवाले कर दिया था। कुछ देर बाद नज़रें खुलीं तब छत के कोने में चुपचाप खड़ी एक ख़राब ट्यूबलाईट पर नज़र गई। सूर्या की ट्यूबलाईट, 36 वॉट की। नीले रंग के गत्ते और सजावट के साथ। मैंने कुछ देर तक लिखे हुए शब्द सूर्या को देखा। ...काफी देर तक देखा। मुझे कोई कहानी याद आई। भगवान सूर्य और कुंती की। उसके बाद मन में सवाल आया कि 'सूर्य' को एक आदमी क्यों बताया गया है? वह चमकता है। उसमें आग है। लोग बोलते हैं कि पगली उसमें तो हाइड्रोज़न हीलियम में बदलती है। फिर भी वह आदमी क्यों है? वो एक औरत क्यों नहीं है? मैं कहती हूँ न आप मेरी नज़र से देखिये और सोचिए कि सूर्य एक औरत है। कारण उसमें से हर पल ढेरों उर्ज़ा और बच्चे जन्म लेते हैं। रोशनियाँ ही तो उसके बच्चे हैं। वही तो जीवन को पोषण दे 'रही' है। ...इसके बाद एक बाद एक ख़याल आए। आकाश भी औरत है। जल भी औरत है। धरती को तो आप औरत मानते ही हैं। अग्नि भी औरत है। वायु भी औरत है। आपने न जाने क्यों इन्हें पुरुष के लिंग-लिबास पहना दिये हैं। मैं नहीं मानती आपकी भाषा।
मुझे ज़ुबान का तोहफ़ा कुदरत से मिला है और इसको पोसा है परिवार और समाज ने। मुझे पाँच साल का होते ही स्कूल में भर्ती करवाया गया। मैं तब से अब तक पढ़ ही रही हूँ। लेकिन क्या मैं वो बन पाई हूँ जो मुझे बनना है। मुझे बनना क्या है? लोगों ने जो बोला वही बनना चाहा। डॉक्टर, टीचर, लेक्चरर, एक क्लर्क, एक अधिकारी, एक अफ़सर, गायिका, नृत्यांगना और पता नहीं क्या क्या! लेकिन इस सब से ऊपर ध्यान रखने वाली बात यह है कि मुझे सबसे पहले एक इंसान बनने का शौक़ है। हाँ, वही इंसान जिसका लिंग क़ुदरत ने एक औरत का बनाया है। एक लड़की। मेरा मन कभी गाने का करता है तो कभी कहीं घूमने का। क्या आपको नहीं मालूम कि हम सबका एक मन है, जो बायीं ओर रहता है? अब अगर मैं नए साल का उत्सव मनाने के लिए रात को अपनी स्कर्ट के साथ सड़क पर निकल गई तब इसमें कौन सी वाली संस्कृति का ताला टूट गया? मैंने ऐसा क्या गुनाह कर दिया जिसे लेकर हाय तौबा मचा दी गई? मुद्दा तो मुझे तंग करने वालों की मानसिकता का होना चाहिए था पर 'घासपिटे' लोगों ने फिर से उंगली हम औरतों की तरफ कर दी। आपकी जमात को यह क्यों नहीं समझ आता कि हम अलग लिंग वाले इंसान ही हैं? मुझे यह बहुत अजीब सोच लगती है कि मेरे शरीर के अंग से घर, परिवार, जाति-बिरादरी और संस्कृति की तथाकथित 'पवित्र' इज्जत जुड़ी है।
मुझे बताया गया है कि बैंगलोर एक पढ़ा लिखा शहर है। मैं दो बार एक कार्यकर्ता की हैसियत से वहाँ गई भी हूँ। मुझे वहाँ अच्छा लगा था। क्यों? इसके पीछे कुछ छोटे अनुभव हैं। मैं रोड पार कर रही थी तब एक रफ़्तार में आ रही गाड़ी ने अचानक ब्रेक लगाया। कार चालक ने मुझे मुस्कुराते हुए शालीन इशारा किया कि सड़क पार कर लीजिये। ऐसा लगभग तीन या चार बार हुआ। दिल्ली में मेरे साथ अभी तक एक ही बार ऐसा हुआ है। दूसरी बात भले ही वह आईटी शहर हो, लेकिन वहाँ पर लड़कियां अपने बालों में फूल लगाकर बाहर जाती हुई दिखती हैं। लगभग हर चौथी या पाँचवी लड़की को मैंने बालों में फूल लगाए हुए पाया। जिन भी पुरुषों से मुलाक़ात हुई वे नम्र मिजाज़ के मालूम हुए। ठीक लगे। कोई नकारात्मक तरंग उनमें से आती हुई मुझे मालूम नहीं हुई। फिर उस शहर में यह घटना कैसे घट गई कि जबरन किसी को तंग किया गया। चिंता है, गुस्सा है और डर भी। यह कैसी जगह है जहां हिंसा करने वाला अपवित्र नहीं समझा जाता बल्कि उसके लिए किसी भी तरह की गाली का ईज़ाद भी नहीं किया जाता। मुझे ऐसी जगह अच्छी नहीं लगती। लो अब बैंगलोर भी दिल से उतर गया।
मैं वजह खोज रही हूँ ऐसी घटनाओं की। ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ वही लड़की शिकार हुई जो पश्चिमी कपड़ों में थी। मैं अमूमन भारतीय कपड़े में ही रहती हूँ। सूट और सलवार में। तब भी बहुत से हादसे हो जाते हैं। मेरी दोस्तों के साथ भी। छोटी छोटी बच्चियों के साथ भी। इन हादसों की खिलाफ़त बड़े बड़े लोग अपने अंदाज़ में करते हैं। मुझ जैसे मामूली लोग भी करते हैं। ख़ैर, बात बड़े लोगों की कर ली जाए। जब अमिताभ बच्चन 'यत्र तत्र' वाला श्लोक विज्ञापन टीवी से बाहर फेंकते हैं तब भी मैं खुश नहीं होती। उस विज्ञापन को मेरे कान और न ही मन कैच करता है। सुनिए, मुझे अपनी पूजा नहीं करवानी। आप क्यों पूजा करने की ज़िद्द पर अड़े हैं? मैं नहीं चाहती कि देवता बसें अब और ज़्यादा।
मुझे संस्कृति और सभ्यता में इस पेंच की खोज कर लेनी चाहिए। बहुत सी मिथक की कहानियों में औरतें रहती हैं जो मुझे बेमिसाल लगती हैं। पंचकन्या नाम से जानी जाने वाली औरतें बहुत ही प्रभावित करती हैं। अपने निर्णय और तौर-तरीक़ों से उन्हें मैं आज भी याद करती हूँ। सभी की तरह मेरा मन द्रौपदी के पास आकर रूकता है और बैठता भी है। अच्छा लगता है मुझे बार उनका क्रोध पढ़कर। अच्छा लगता है उनका राजसभा का वह क्रोधी रूप और भस्म कर के रख देने की ज़िद्द को देखकर। हैरत की बात है कि ये सभी महान मिथक कन्याएँ और औरतें कहीं भी अपनी पूजा करवाने की बात कहती नहीं दिखतीं। सभी अपने आत्मसम्मान और स्वतन्त्रता की मांग के साथ जीती दिखती हैं। पति, पिता और पुत्र (पुरुष) होने के बावजूद अपने मान और सम्मान के लिए उन पर कतई निर्भर नहीं करतीं।
अच्छा एक मिनट रूकिए, मैं यहाँ उन निराली कहानियों को अंकित नहीं कर रही जिनके मुताबिक़ फलां देवी ने पृथ्वी लोक पर अपनी पूजा करवाने के लिए फलां काम किया। जैसा कि आजकल टीवी पर आने वाले नाटकों में दिखाया जा रहा है। आप कृपया सबूत खोजने न जाये। निश्चित रूप से ये वे कहानियाँ हैं जो बाद के समय में कुछ मसख़रों द्वारा कल्पित की गईं। अब 'यत्र तत्र' वाले श्लोक को रबड़ की तरह और खींचिए तो पाएंगे कि निहायती बेवकूफ़ी रची गई है। क्यों भाई! मुझे बताइये कि यदि मेरा सम्मान हर जगह होगा तो मुझे व आपको देवता के बसने से क्या मतलब? जब मुझे किसी भी तरह की मदद नहीं चाहिए, भय नहीं, सब कुछ उपलब्ध है तब देवता के बसने का क्या अभिप्राय? मैं नहीं चाहूंगी कि ऐसी जगह पर देव आसमान से आकर बसें। 'देवता' पुल्लिंग शब्द है। औरत और देवता में फर्क है। औरत इंसान है और देव वे जो इंसान से परे श्रेष्ठ और दिव्य शक्तिधारी है। इसका अर्थ तो देखिये कि सम्मान मेरा होगा और बसेंगे देव। मुझे लगता है इस तरह की सोच और समझ ने बहुत झोल पैदा किया। इस बात को कुछ दूसरी तरह से रचा जा सकता था। मुझे नहीं मालूम दूसरी तरह कैसे, पर कहा जा सकता था। मैंने प्राचीन भारत के इतिहास से जुड़ी किसी किताब में पढ़ा था कि इन्द्र ने ऊषा का बलात्कार किया था। इतना ही नहीं ऐसा मैंने 'दिल्ली' उपन्यास में पढ़ा है कि यमुना का टेढ़ा मेढ़ा होकर बहने की वजह उसके बालों से घसीटा जाना था, क्योंकि वह किसी देव से समागम के लिए इंकार कर रही थी। मैं अपनी जगह पर किसी बलात्कारी देव को नहीं बसाना चाहती। तो अमिताभ जी से यह पूछा जा सकता है कि किसी पुरुष देव को बसाने के लिए औरतों का सम्मान हो या फिर यह औरतों के लिए बिना शर्त पहली शर्त हो सम्मान?
अब श्लोक को वहीं रख देते हैं कुछ देर। वापस अपने मिथक पर आते हैं। जब हमारे पास ऐसी महान बहादुर औरताना मिथक किरदार है तो गड़बड़ कहाँ हो गई? यह सवाल मैं सोचती हूँ। फिर सिंधु घाटी की गलियों से गुज़रती हूँ। मुअन जोदाड़ो की उस डांसिंग गर्ल को राष्ट्रीय संग्रहालय में देखती हूँ जो गहनों में निहायत ही खूबसूरत लग रही है, पर फिर भी उसका अभिमान साथ है। उसे देखकर यह नहीं मालूम होता कि वह डरी और लाचार है। कुछ लोगों को कहते हुए सुना और देखा है कि वह थकी हुई है। पर मुझे नहीं लगता। मैंने उसे बहुत पास से देखा है। यकीन मानिए मुझे वह एक समझदार और आत्मविश्वासी औरत लगी। उसे बनाने वाले कलाकार ने उससे इतनी ईमानदारी दिखाई है कि उसकी सीधी नाक को और कम चौड़े शरीर में उसके तौर तरीकों को फिट किया है। सीधी नाक माने एक घमंड और अपने पर विश्वास। सभ्यता को छूओ तो स्वाभिमान का पता चलता है। सभ्यता बनावट में मौजूद रहती है। वक़्त उसे घिस ज़रूर देता है पर फिर सभ्यता की कहानियाँ संस्कृति में बसने लगती हैं। यह एक तरह का हस्तांतरण है। यह दिलचस्प है। इसलिए कहा कि पंचकन्या ऐसी बहुत सी बातें मुझे बताती हैं जो कि एक बेहतर विचार और सक्रियता को देखने में मदद करती हैं। ... मेरे दिमाग का क्या कहिए कि मुझे बुद्ध की मूर्ति में भी एक औरत की महक मिलती है। आप मुझे पागल कहिए। पर न जाने क्यों उनकी करुणा में मुझे औरत ही दिखती है। उनके ध्यान में भी एक औरत की कोमलता और गंभीरता दिखती है।
दिल्ली सल्तनत की सुल्ताना 'रज़िया' भी मुझे आकर्षित करती है। जो दिल्ली शहर के तुर्कमान गेट के पास बुलबुल-ए-ख़ाना में याक़ूत के संग सो रही है, वह सुल्ताना थी जो लड़ती रही।(क़ब्र की जगह को लेकर विवाद है) इल्तुतमिश की इस महान बेटी को मैं चाहती हूँ और याद करती हूँ। मुझे ‘अबुल मुजफ्फर शहाबुद्दीन मुहम्मद साहिब किरान-ए-सानी'- शाहजहाँ की बादशाह बेटी बेग़म जहांआरा का आत्मविश्वास और दिमागदारी बेहद पसंद आती है तो दूसरी तरफ़ रोशनआरा की औरंगजेब के प्रति प्यार और सहयोग चौंका जाता है। कहा जाता है दोनों ही बहनें बहुत अच्छी लेखिकायें थीं और शासन में बराबर की दिलचस्पी लिया करती थीं। इसके अलावा जहांआरा के पास शाही मोहर भी भी हुआ करती थी। चाँदनी चौक को डिज़ाईन करने वाली इस दिमागदार औरत में भी मुझे एक ऐसी रीढ़ की हड्डी दिखाई देती है जो हिंदुस्तान के मिथकों में प्रखर रूप में है। मुझे दारा शुकोह की प्रेमिका हिन्दू पत्नी राणादिल भी याद आ जाती है जिसने अपने शौहर के हारने के बाद औरंगज़ेब के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था। वह जौहर नहीं हुई। बल्कि लेखन में नया रास्ता तलाशा और दारा की सोच को बढ़ाया। मुझे मीरा भी बहुत अच्छी लगती हैं। कृष्ण के प्रति प्रेम और ऐसा वाला प्रेम जिसमें वह कहती हैं- 'मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरों न कोई...' मैं इस निडरता और निष्ठा की कायल हूँ। सुन लो मध्यकालीन के लोगों...जान लो कि गिरिधर ही हैं मेरे सब कुछ और 'दूसरा' कोई नहीं हो सकता। बहुत से ऐसे उदाहरण हैं। सावित्री बाई फुले तक...एक से बढ़कर एक। इन सभी चरित्रों में एक ओफेंसिव मोड झलकता है न कि डिफेंसिव मोड। इसलिए वर्तमान के हालातों को देखकर मुझे मन करता है कि कुछ मोड अपना लिए जाएँ। ओफेंसिव मुझे बुरा नहीं लगता। हाँ कई लड़कियां और औरतें इस मोड में रहती हैं जो कि संतोषजनक बात है।
नया साल आ गया। सभी की तरह मैं भी खुश थी। लेकिन जब बैंगलोर वाली खबर देखी तब मेरा सिर चकरा गया। दिमाग में 'इंडिया'ज़ डॉटर' की तस्वीरें और संवाद घूमने लगे। हाँ, मैं बैन की हुई फिल्में देख लेती हूँ। मेरी रोचकता उनमें बढ़ जाती जिसे सरकार, कोई ख़ास व्यक्ति या तबका छुपा कर रखना चाहता है। आप मुझे तय कर लेने दीजिये की मेरे लिए क्या मूल्यवर्धक है और क्या नहीं। मेरे साथ मेरी माँ ने भी इस फिल्म को देखा। हम दोनों जेल में बंद उन लड़कों के बयानों से हिल गए जिन्हों ने यह घिनौना काम किया था। उनके चेहरे में कहीं भी ऐसे भाव नहीं दिखे जिससे कि अफसोस झलके। मेरी माँ जैसे ही उनके बयान सुनती तब गुस्से से कह उठती- 'इन्हें अभी तक ज़िंदा क्यों रखा गया है?' मैं समझ नहीं पा रही थी कि उनकी इस बात पर कैसे अपनी बात रखूँ। कैसे बताऊँ कि अहिंसा में उनकी बेटी बहुत यकीन करती है! मैं फिलहाल अभी भी जवाब खोज रही हूँ। फ़िल्म में आरोपियों के वकील ने अपने इंटरव्यू में कहा कि लड़कियां फूल की तरह होती हैं, कोमल। इसलिए उन्हें पुरुष से मिलने वाली रक्षा की ज़रूरत होती है। अब इन साहब का स्टेटमेंट सुनिए और ऊपर रेखांकित की गई औरतों से तुलना कीजिये। आपको मालूम चलेगा और आप एकदम से चौंक जाएंगे कि यह आदमी क्या बकवास कर रहा है!
उसके डीएनए में इतना बड़ा बदलाव कैसे हो गया कि वह औरतों की रक्षा करने की बात कहता है? सोच की यह छलांग बहुत अधिक लंबी है। मुझे हैरानी होती है। मिलना जुलना शब्द तो आप रोज़ ही पढ़ते होंगे। यह सिर्फ शब्द-जोड़ा नहीं है। इसका अर्थ मुझे लगता है दो अलग तरह के लोगों का मिलना और जुड़ना। अब अगर आप अपनी जीवन शैली के चुनाव में समाज जैसे चीज़ लाते हैं तब निश्चित तौर पर बहुत कुछ बदलेगा। मसलन एक जगह टिक जाने के बाद, परिवार के आने के बाद, अनाज उपजाने का बाद, आपका श्रम बदल जाएगा और बदला भी है। हो सकता है किन्हीं वजहों से काम का बंटवारा हुआ हो पर इससे यह नियति नहीं बन जाती कि औरत कमजोर है और रक्षा करने योग्य है। बहुत बड़ा बीज वास्तव में सत्ता के खेल में बोया गया है जहां शक्ति और भोग के अनियंत्रित धागे लिपटे नज़र आते हैं। शक्ति सत्ता में बने रहने की पुरुषों की दास्तां औरतों से कहीं अधिक संख्या में हैं। पुराने समय से शुरू करें तो अब तक के समय में भी ऐसा ही दिखाई देगा। औरतों का इसमें (कुछ उदाहरणों को छोड़ दें) बहुत कम भूमिका रही। धीरे धीरे विदेशी हमलों और आंतरिक संस्कृतिकरण (पालतूकरण) ने औरतों की बिरादरी को इस हद तक नुक्सान पहुंचाया कि वह घरेलू संपत्ति, इज्जत, कमजोर (कोमलता चिपकी ही रही) आदि आदि विशेषणों में क़ैद हो गई। संस्कृतिकरण का बेजोड़ नमूना फिल्म 'वॉटर' (2005) में दिखेगा। हाँ और भी ऐसे चित्रांकन मिलेंगे। फिल्म 'घटश्राद्ध' भी इसका अच्छा नमूना है। किसी किताब से औरतों की ज़िंदगी को बेहद निचले दर्जे में क़ैद करने की साज़िश भारतीय संस्कृति को कतई महान नहीं बनाती। कम से कम मैं इस संस्कृति को महान नहीं मानती।
जस्टिस काटजू जिस महान मुग़ल बादशाह अकबर को गांधी से अधिक महान मानते हैं उसी बादशाह के बारे में यह भी कहा जाता है कि उसने एक ऐसा नियम बनाया कि शाही मुग़ल खानदान की लड़कियों की शादी न की जाएगी। ऐसा न हो कि कल हिंदुस्तान की गद्दी का एक और उम्मीदवार खड़ा हो जाए और शाही राजकुमारों से किसी भी तरह का झगड़ा हो। इतना ही नहीं जिस प्रेम कथा को लेकर आशुतोष गोवारीकर 'जोधा अकबर जैसी महंगी फिल्म बनाते हैं वास्तव में वहाँ भी प्रेम कम राजपूताना राज्यों को अपने साम्राज्य में मिलाने की मंशा अधिक नज़र आती है। यहाँ भी शक्ति को बढ़ाने के लिए औरतों को मोहरा बनाया गया। अगर अकबर की नज़र से इतिहास को देखने की बजाय उन सैंकड़ों शाही हरम में पड़ी हुई औरतों की नज़र से इतिहास देखा जाए तब तो सब उल्टा ही पड़ जाएगा। इसलिए जो इतिहास में अच्छे बनकर रहते हैं वास्तव में वे उतने अच्छे मुझे नहीं लगते। मुझे वहाँ भी एक क़ैद दिखती है। इसलिए यह सोच जिसे आप मानसिकता कहकर पुकारते हैं वह तो पुरानी है, कहने से एक महीन समझ मिलती है। जब निर्भया केस में आरोपियों का वकील यह बात कहता है तब मुझे लगता है कि वह एक घातक सोच की नहर को अपने इतिहास से लेकर आगे बढ़ा रहा है। कैसे बदलेंगे ऐसी सोच? क्योंकि पढे लिखे भी वही काम को अंजाम दे रहे हैं।
मैं इस सवाल का जवाब खोजने के लिए किताबों की तरफ बढ़ रही थी। कुछ बुद्धिजीवियों को भी सुन लिया पर मेरा मन नहीं माना। पंचकन्या और मीरा के पास मैं कितनी बार जाऊँगी! इसलिए यह मंथन मेरे मन में बिना रुके चल रहा था। अचानक मुझे जवाब मिला या कहूँ एक रुझान दिखा। एक रोज़ लैपटाप ठीक करवाने के सिलसिले में मुझे नेहरू प्लेस जाना पड़ा। मैं जल्दीबाज़ी में सीढ़ियाँ चढ़ते हुए एक बिल्डिंग की तरफ़ बढ़ रही थी। मार्केट बहुत बड़ा है और यहाँ तमाम तरह के लोग आते जाते रहते हैं। मेरे सामने से एक लड़की गुज़री जो लिबास से किसी बड़े दफ़्तर की कर्मचारी लग रही थी। उसके पीछे से दो लड़के उस पर फब्तियाँ कसते हुए निकल गए। मैं उनसे तीन हाथ की दूरी पर थी। मैंने सुना तो मुझे गुस्सा आया। पर जिस पर फब्तियाँ कसी गई थीं उस लड़की पर मानो कोई असर ही नहीं हुआ हो। वह चुपचाप 'इग्नोर' कर के आगे बढ़ती गई। मुझे इस पर खयाल आया कि यह भी ठीक है। इन कमीनों के मुंह कौन लगे! (कभी कभी मैं गाली भी दे लेती हूँ) इसके बाद मैंने अपना लैपटाप जमा कराया और अपनी चाय पीने की तलब को शांत करने के लिए एक ठीये की तरफ़ चल दी। अचानक एक भीड़ देखी और धमाकेदार गालियां एक लड़की के मुंह से सुनी तब मैं भी भीड़ में एक चेहरा बन गई। देखा, एक बंजारन लड़की एक 30 से 35 की उम्र के शख़्स को ख़ूब गालियां दे रही थी। पूरा मामला यह था कि उस आदमी ने उसे कुछ ऐसा कहा था कि उस बंजारन लड़की ने छूटते ही गालियां बकनी शुरू कर दी। वो कह रही थी, -हरामी के जने, सूअर...तू क्या समझा था कि तू कुछ भी बोल के चल देगा और मैं तुझे छोड़ दूँगी। कुत्ते तेरे घर तक दौड़ा के मारूँगी...।' लोग उस बंजारन लड़की पर हंस रहे थे। कोई तो यह भी कह रहा था कि यह ऐसी ही गिरि हुई औरतें होती हैं, इनकी ज़ुबान गंदी होती है, इनके मुंह नहीं लगना चाहिए...पर कुछ भी कहिए। उस आदमी की बोलती बंद हो गई थी। जब चाय वाले अंकल से पूछा तो बोले- 'उस आदमी ने उसे कुछ गंदा बात बोला तो कोई क्यों उसे छोड़ेगा! आदमी अब किसी भी लड़की को छेड़ने से पहके सौ बार सोचेगा।'
इन दोनों घटनाओं में कई बातें हैं। आप भी सोचिए। मैंने तो कुछ समझा है अपने स्तर से। सिनेमा ने जिन लोगों की फालतू और खराब गतिविधियों को चाँदी का वर्क़ चढ़ाकर 'राँझणा' बनाया है उसे भी पहचानते आइये। बातें इस क़द्र आगे बढ़ गई हैं कि अब आधी आबादी अलग सोच रखती है। हमले होंगे। आज नहीं तो कल होंगे। हमलों का प्रकार भी आपके सोच से परे होगा। हाँ, मुझे ऐसा लगता है। हो सकता है मैं ग़लत हूँ। पर यह भी हो सकता है कि मैं सही हूँ। शायद सौ फीसदी सही। मुझे अहिंसा पसंद है। पर पसंद की अपनी एक सीमा है।
...इस पोस्ट को लिखते लिखते मैं अगले दिन में पहुँच गई हूँ। अभी लैपटाप में समय 3 बजे का हो चला है। अब तो छत पर से धूप भी धीरे धीरे सरक रही होगी। ऐसा सोचा। ...मैं छत पर गई। 'सूर्य' को देखने की कोशिश की। नहीं देख पाई। फिर धूप को देखा। ...उसमें औरत को पाया। रोशनियाँ भला कब मर्द हुआ करती हैं। कुछ दिन बाद शायद मुझे रोशनी में कोई मर्द भी दिख जाए। लेकिन उसके लिए एक संतुलित स्पेस की ज़रूरत है। मैं जाती हूँ उस स्पेस को खोजने।
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चित्रों के संदर्भ में- टूटने का मतलब हमेशा नेगेटिव नहीं होता। इसका एक मतलब यह भी हो सकता है कि पुराने लिबास या शक्ल की जगह कुछ नया बनकर तैयार होना या करना। इसलिए मुझे टूटना भी पसंद है। एक नई ज़ुबान और सोच के साथ अपने आप को ढालना चुनौती देता है। लेकिन जो भी रूप बनें उसमें दरख्तों की कुछ ख़ासियत जरूर होनी चाहिए।
-सभी चित्र गूगल से साभार
मुझे ज़ुबान का तोहफ़ा कुदरत से मिला है और इसको पोसा है परिवार और समाज ने। मुझे पाँच साल का होते ही स्कूल में भर्ती करवाया गया। मैं तब से अब तक पढ़ ही रही हूँ। लेकिन क्या मैं वो बन पाई हूँ जो मुझे बनना है। मुझे बनना क्या है? लोगों ने जो बोला वही बनना चाहा। डॉक्टर, टीचर, लेक्चरर, एक क्लर्क, एक अधिकारी, एक अफ़सर, गायिका, नृत्यांगना और पता नहीं क्या क्या! लेकिन इस सब से ऊपर ध्यान रखने वाली बात यह है कि मुझे सबसे पहले एक इंसान बनने का शौक़ है। हाँ, वही इंसान जिसका लिंग क़ुदरत ने एक औरत का बनाया है। एक लड़की। मेरा मन कभी गाने का करता है तो कभी कहीं घूमने का। क्या आपको नहीं मालूम कि हम सबका एक मन है, जो बायीं ओर रहता है? अब अगर मैं नए साल का उत्सव मनाने के लिए रात को अपनी स्कर्ट के साथ सड़क पर निकल गई तब इसमें कौन सी वाली संस्कृति का ताला टूट गया? मैंने ऐसा क्या गुनाह कर दिया जिसे लेकर हाय तौबा मचा दी गई? मुद्दा तो मुझे तंग करने वालों की मानसिकता का होना चाहिए था पर 'घासपिटे' लोगों ने फिर से उंगली हम औरतों की तरफ कर दी। आपकी जमात को यह क्यों नहीं समझ आता कि हम अलग लिंग वाले इंसान ही हैं? मुझे यह बहुत अजीब सोच लगती है कि मेरे शरीर के अंग से घर, परिवार, जाति-बिरादरी और संस्कृति की तथाकथित 'पवित्र' इज्जत जुड़ी है।
मुझे बताया गया है कि बैंगलोर एक पढ़ा लिखा शहर है। मैं दो बार एक कार्यकर्ता की हैसियत से वहाँ गई भी हूँ। मुझे वहाँ अच्छा लगा था। क्यों? इसके पीछे कुछ छोटे अनुभव हैं। मैं रोड पार कर रही थी तब एक रफ़्तार में आ रही गाड़ी ने अचानक ब्रेक लगाया। कार चालक ने मुझे मुस्कुराते हुए शालीन इशारा किया कि सड़क पार कर लीजिये। ऐसा लगभग तीन या चार बार हुआ। दिल्ली में मेरे साथ अभी तक एक ही बार ऐसा हुआ है। दूसरी बात भले ही वह आईटी शहर हो, लेकिन वहाँ पर लड़कियां अपने बालों में फूल लगाकर बाहर जाती हुई दिखती हैं। लगभग हर चौथी या पाँचवी लड़की को मैंने बालों में फूल लगाए हुए पाया। जिन भी पुरुषों से मुलाक़ात हुई वे नम्र मिजाज़ के मालूम हुए। ठीक लगे। कोई नकारात्मक तरंग उनमें से आती हुई मुझे मालूम नहीं हुई। फिर उस शहर में यह घटना कैसे घट गई कि जबरन किसी को तंग किया गया। चिंता है, गुस्सा है और डर भी। यह कैसी जगह है जहां हिंसा करने वाला अपवित्र नहीं समझा जाता बल्कि उसके लिए किसी भी तरह की गाली का ईज़ाद भी नहीं किया जाता। मुझे ऐसी जगह अच्छी नहीं लगती। लो अब बैंगलोर भी दिल से उतर गया।
मैं वजह खोज रही हूँ ऐसी घटनाओं की। ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ वही लड़की शिकार हुई जो पश्चिमी कपड़ों में थी। मैं अमूमन भारतीय कपड़े में ही रहती हूँ। सूट और सलवार में। तब भी बहुत से हादसे हो जाते हैं। मेरी दोस्तों के साथ भी। छोटी छोटी बच्चियों के साथ भी। इन हादसों की खिलाफ़त बड़े बड़े लोग अपने अंदाज़ में करते हैं। मुझ जैसे मामूली लोग भी करते हैं। ख़ैर, बात बड़े लोगों की कर ली जाए। जब अमिताभ बच्चन 'यत्र तत्र' वाला श्लोक विज्ञापन टीवी से बाहर फेंकते हैं तब भी मैं खुश नहीं होती। उस विज्ञापन को मेरे कान और न ही मन कैच करता है। सुनिए, मुझे अपनी पूजा नहीं करवानी। आप क्यों पूजा करने की ज़िद्द पर अड़े हैं? मैं नहीं चाहती कि देवता बसें अब और ज़्यादा।
मुझे संस्कृति और सभ्यता में इस पेंच की खोज कर लेनी चाहिए। बहुत सी मिथक की कहानियों में औरतें रहती हैं जो मुझे बेमिसाल लगती हैं। पंचकन्या नाम से जानी जाने वाली औरतें बहुत ही प्रभावित करती हैं। अपने निर्णय और तौर-तरीक़ों से उन्हें मैं आज भी याद करती हूँ। सभी की तरह मेरा मन द्रौपदी के पास आकर रूकता है और बैठता भी है। अच्छा लगता है मुझे बार उनका क्रोध पढ़कर। अच्छा लगता है उनका राजसभा का वह क्रोधी रूप और भस्म कर के रख देने की ज़िद्द को देखकर। हैरत की बात है कि ये सभी महान मिथक कन्याएँ और औरतें कहीं भी अपनी पूजा करवाने की बात कहती नहीं दिखतीं। सभी अपने आत्मसम्मान और स्वतन्त्रता की मांग के साथ जीती दिखती हैं। पति, पिता और पुत्र (पुरुष) होने के बावजूद अपने मान और सम्मान के लिए उन पर कतई निर्भर नहीं करतीं।
अच्छा एक मिनट रूकिए, मैं यहाँ उन निराली कहानियों को अंकित नहीं कर रही जिनके मुताबिक़ फलां देवी ने पृथ्वी लोक पर अपनी पूजा करवाने के लिए फलां काम किया। जैसा कि आजकल टीवी पर आने वाले नाटकों में दिखाया जा रहा है। आप कृपया सबूत खोजने न जाये। निश्चित रूप से ये वे कहानियाँ हैं जो बाद के समय में कुछ मसख़रों द्वारा कल्पित की गईं। अब 'यत्र तत्र' वाले श्लोक को रबड़ की तरह और खींचिए तो पाएंगे कि निहायती बेवकूफ़ी रची गई है। क्यों भाई! मुझे बताइये कि यदि मेरा सम्मान हर जगह होगा तो मुझे व आपको देवता के बसने से क्या मतलब? जब मुझे किसी भी तरह की मदद नहीं चाहिए, भय नहीं, सब कुछ उपलब्ध है तब देवता के बसने का क्या अभिप्राय? मैं नहीं चाहूंगी कि ऐसी जगह पर देव आसमान से आकर बसें। 'देवता' पुल्लिंग शब्द है। औरत और देवता में फर्क है। औरत इंसान है और देव वे जो इंसान से परे श्रेष्ठ और दिव्य शक्तिधारी है। इसका अर्थ तो देखिये कि सम्मान मेरा होगा और बसेंगे देव। मुझे लगता है इस तरह की सोच और समझ ने बहुत झोल पैदा किया। इस बात को कुछ दूसरी तरह से रचा जा सकता था। मुझे नहीं मालूम दूसरी तरह कैसे, पर कहा जा सकता था। मैंने प्राचीन भारत के इतिहास से जुड़ी किसी किताब में पढ़ा था कि इन्द्र ने ऊषा का बलात्कार किया था। इतना ही नहीं ऐसा मैंने 'दिल्ली' उपन्यास में पढ़ा है कि यमुना का टेढ़ा मेढ़ा होकर बहने की वजह उसके बालों से घसीटा जाना था, क्योंकि वह किसी देव से समागम के लिए इंकार कर रही थी। मैं अपनी जगह पर किसी बलात्कारी देव को नहीं बसाना चाहती। तो अमिताभ जी से यह पूछा जा सकता है कि किसी पुरुष देव को बसाने के लिए औरतों का सम्मान हो या फिर यह औरतों के लिए बिना शर्त पहली शर्त हो सम्मान?
अब श्लोक को वहीं रख देते हैं कुछ देर। वापस अपने मिथक पर आते हैं। जब हमारे पास ऐसी महान बहादुर औरताना मिथक किरदार है तो गड़बड़ कहाँ हो गई? यह सवाल मैं सोचती हूँ। फिर सिंधु घाटी की गलियों से गुज़रती हूँ। मुअन जोदाड़ो की उस डांसिंग गर्ल को राष्ट्रीय संग्रहालय में देखती हूँ जो गहनों में निहायत ही खूबसूरत लग रही है, पर फिर भी उसका अभिमान साथ है। उसे देखकर यह नहीं मालूम होता कि वह डरी और लाचार है। कुछ लोगों को कहते हुए सुना और देखा है कि वह थकी हुई है। पर मुझे नहीं लगता। मैंने उसे बहुत पास से देखा है। यकीन मानिए मुझे वह एक समझदार और आत्मविश्वासी औरत लगी। उसे बनाने वाले कलाकार ने उससे इतनी ईमानदारी दिखाई है कि उसकी सीधी नाक को और कम चौड़े शरीर में उसके तौर तरीकों को फिट किया है। सीधी नाक माने एक घमंड और अपने पर विश्वास। सभ्यता को छूओ तो स्वाभिमान का पता चलता है। सभ्यता बनावट में मौजूद रहती है। वक़्त उसे घिस ज़रूर देता है पर फिर सभ्यता की कहानियाँ संस्कृति में बसने लगती हैं। यह एक तरह का हस्तांतरण है। यह दिलचस्प है। इसलिए कहा कि पंचकन्या ऐसी बहुत सी बातें मुझे बताती हैं जो कि एक बेहतर विचार और सक्रियता को देखने में मदद करती हैं। ... मेरे दिमाग का क्या कहिए कि मुझे बुद्ध की मूर्ति में भी एक औरत की महक मिलती है। आप मुझे पागल कहिए। पर न जाने क्यों उनकी करुणा में मुझे औरत ही दिखती है। उनके ध्यान में भी एक औरत की कोमलता और गंभीरता दिखती है।
दिल्ली सल्तनत की सुल्ताना 'रज़िया' भी मुझे आकर्षित करती है। जो दिल्ली शहर के तुर्कमान गेट के पास बुलबुल-ए-ख़ाना में याक़ूत के संग सो रही है, वह सुल्ताना थी जो लड़ती रही।(क़ब्र की जगह को लेकर विवाद है) इल्तुतमिश की इस महान बेटी को मैं चाहती हूँ और याद करती हूँ। मुझे ‘अबुल मुजफ्फर शहाबुद्दीन मुहम्मद साहिब किरान-ए-सानी'- शाहजहाँ की बादशाह बेटी बेग़म जहांआरा का आत्मविश्वास और दिमागदारी बेहद पसंद आती है तो दूसरी तरफ़ रोशनआरा की औरंगजेब के प्रति प्यार और सहयोग चौंका जाता है। कहा जाता है दोनों ही बहनें बहुत अच्छी लेखिकायें थीं और शासन में बराबर की दिलचस्पी लिया करती थीं। इसके अलावा जहांआरा के पास शाही मोहर भी भी हुआ करती थी। चाँदनी चौक को डिज़ाईन करने वाली इस दिमागदार औरत में भी मुझे एक ऐसी रीढ़ की हड्डी दिखाई देती है जो हिंदुस्तान के मिथकों में प्रखर रूप में है। मुझे दारा शुकोह की प्रेमिका हिन्दू पत्नी राणादिल भी याद आ जाती है जिसने अपने शौहर के हारने के बाद औरंगज़ेब के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था। वह जौहर नहीं हुई। बल्कि लेखन में नया रास्ता तलाशा और दारा की सोच को बढ़ाया। मुझे मीरा भी बहुत अच्छी लगती हैं। कृष्ण के प्रति प्रेम और ऐसा वाला प्रेम जिसमें वह कहती हैं- 'मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरों न कोई...' मैं इस निडरता और निष्ठा की कायल हूँ। सुन लो मध्यकालीन के लोगों...जान लो कि गिरिधर ही हैं मेरे सब कुछ और 'दूसरा' कोई नहीं हो सकता। बहुत से ऐसे उदाहरण हैं। सावित्री बाई फुले तक...एक से बढ़कर एक। इन सभी चरित्रों में एक ओफेंसिव मोड झलकता है न कि डिफेंसिव मोड। इसलिए वर्तमान के हालातों को देखकर मुझे मन करता है कि कुछ मोड अपना लिए जाएँ। ओफेंसिव मुझे बुरा नहीं लगता। हाँ कई लड़कियां और औरतें इस मोड में रहती हैं जो कि संतोषजनक बात है।
नया साल आ गया। सभी की तरह मैं भी खुश थी। लेकिन जब बैंगलोर वाली खबर देखी तब मेरा सिर चकरा गया। दिमाग में 'इंडिया'ज़ डॉटर' की तस्वीरें और संवाद घूमने लगे। हाँ, मैं बैन की हुई फिल्में देख लेती हूँ। मेरी रोचकता उनमें बढ़ जाती जिसे सरकार, कोई ख़ास व्यक्ति या तबका छुपा कर रखना चाहता है। आप मुझे तय कर लेने दीजिये की मेरे लिए क्या मूल्यवर्धक है और क्या नहीं। मेरे साथ मेरी माँ ने भी इस फिल्म को देखा। हम दोनों जेल में बंद उन लड़कों के बयानों से हिल गए जिन्हों ने यह घिनौना काम किया था। उनके चेहरे में कहीं भी ऐसे भाव नहीं दिखे जिससे कि अफसोस झलके। मेरी माँ जैसे ही उनके बयान सुनती तब गुस्से से कह उठती- 'इन्हें अभी तक ज़िंदा क्यों रखा गया है?' मैं समझ नहीं पा रही थी कि उनकी इस बात पर कैसे अपनी बात रखूँ। कैसे बताऊँ कि अहिंसा में उनकी बेटी बहुत यकीन करती है! मैं फिलहाल अभी भी जवाब खोज रही हूँ। फ़िल्म में आरोपियों के वकील ने अपने इंटरव्यू में कहा कि लड़कियां फूल की तरह होती हैं, कोमल। इसलिए उन्हें पुरुष से मिलने वाली रक्षा की ज़रूरत होती है। अब इन साहब का स्टेटमेंट सुनिए और ऊपर रेखांकित की गई औरतों से तुलना कीजिये। आपको मालूम चलेगा और आप एकदम से चौंक जाएंगे कि यह आदमी क्या बकवास कर रहा है!
उसके डीएनए में इतना बड़ा बदलाव कैसे हो गया कि वह औरतों की रक्षा करने की बात कहता है? सोच की यह छलांग बहुत अधिक लंबी है। मुझे हैरानी होती है। मिलना जुलना शब्द तो आप रोज़ ही पढ़ते होंगे। यह सिर्फ शब्द-जोड़ा नहीं है। इसका अर्थ मुझे लगता है दो अलग तरह के लोगों का मिलना और जुड़ना। अब अगर आप अपनी जीवन शैली के चुनाव में समाज जैसे चीज़ लाते हैं तब निश्चित तौर पर बहुत कुछ बदलेगा। मसलन एक जगह टिक जाने के बाद, परिवार के आने के बाद, अनाज उपजाने का बाद, आपका श्रम बदल जाएगा और बदला भी है। हो सकता है किन्हीं वजहों से काम का बंटवारा हुआ हो पर इससे यह नियति नहीं बन जाती कि औरत कमजोर है और रक्षा करने योग्य है। बहुत बड़ा बीज वास्तव में सत्ता के खेल में बोया गया है जहां शक्ति और भोग के अनियंत्रित धागे लिपटे नज़र आते हैं। शक्ति सत्ता में बने रहने की पुरुषों की दास्तां औरतों से कहीं अधिक संख्या में हैं। पुराने समय से शुरू करें तो अब तक के समय में भी ऐसा ही दिखाई देगा। औरतों का इसमें (कुछ उदाहरणों को छोड़ दें) बहुत कम भूमिका रही। धीरे धीरे विदेशी हमलों और आंतरिक संस्कृतिकरण (पालतूकरण) ने औरतों की बिरादरी को इस हद तक नुक्सान पहुंचाया कि वह घरेलू संपत्ति, इज्जत, कमजोर (कोमलता चिपकी ही रही) आदि आदि विशेषणों में क़ैद हो गई। संस्कृतिकरण का बेजोड़ नमूना फिल्म 'वॉटर' (2005) में दिखेगा। हाँ और भी ऐसे चित्रांकन मिलेंगे। फिल्म 'घटश्राद्ध' भी इसका अच्छा नमूना है। किसी किताब से औरतों की ज़िंदगी को बेहद निचले दर्जे में क़ैद करने की साज़िश भारतीय संस्कृति को कतई महान नहीं बनाती। कम से कम मैं इस संस्कृति को महान नहीं मानती।
जस्टिस काटजू जिस महान मुग़ल बादशाह अकबर को गांधी से अधिक महान मानते हैं उसी बादशाह के बारे में यह भी कहा जाता है कि उसने एक ऐसा नियम बनाया कि शाही मुग़ल खानदान की लड़कियों की शादी न की जाएगी। ऐसा न हो कि कल हिंदुस्तान की गद्दी का एक और उम्मीदवार खड़ा हो जाए और शाही राजकुमारों से किसी भी तरह का झगड़ा हो। इतना ही नहीं जिस प्रेम कथा को लेकर आशुतोष गोवारीकर 'जोधा अकबर जैसी महंगी फिल्म बनाते हैं वास्तव में वहाँ भी प्रेम कम राजपूताना राज्यों को अपने साम्राज्य में मिलाने की मंशा अधिक नज़र आती है। यहाँ भी शक्ति को बढ़ाने के लिए औरतों को मोहरा बनाया गया। अगर अकबर की नज़र से इतिहास को देखने की बजाय उन सैंकड़ों शाही हरम में पड़ी हुई औरतों की नज़र से इतिहास देखा जाए तब तो सब उल्टा ही पड़ जाएगा। इसलिए जो इतिहास में अच्छे बनकर रहते हैं वास्तव में वे उतने अच्छे मुझे नहीं लगते। मुझे वहाँ भी एक क़ैद दिखती है। इसलिए यह सोच जिसे आप मानसिकता कहकर पुकारते हैं वह तो पुरानी है, कहने से एक महीन समझ मिलती है। जब निर्भया केस में आरोपियों का वकील यह बात कहता है तब मुझे लगता है कि वह एक घातक सोच की नहर को अपने इतिहास से लेकर आगे बढ़ा रहा है। कैसे बदलेंगे ऐसी सोच? क्योंकि पढे लिखे भी वही काम को अंजाम दे रहे हैं।
मैं इस सवाल का जवाब खोजने के लिए किताबों की तरफ बढ़ रही थी। कुछ बुद्धिजीवियों को भी सुन लिया पर मेरा मन नहीं माना। पंचकन्या और मीरा के पास मैं कितनी बार जाऊँगी! इसलिए यह मंथन मेरे मन में बिना रुके चल रहा था। अचानक मुझे जवाब मिला या कहूँ एक रुझान दिखा। एक रोज़ लैपटाप ठीक करवाने के सिलसिले में मुझे नेहरू प्लेस जाना पड़ा। मैं जल्दीबाज़ी में सीढ़ियाँ चढ़ते हुए एक बिल्डिंग की तरफ़ बढ़ रही थी। मार्केट बहुत बड़ा है और यहाँ तमाम तरह के लोग आते जाते रहते हैं। मेरे सामने से एक लड़की गुज़री जो लिबास से किसी बड़े दफ़्तर की कर्मचारी लग रही थी। उसके पीछे से दो लड़के उस पर फब्तियाँ कसते हुए निकल गए। मैं उनसे तीन हाथ की दूरी पर थी। मैंने सुना तो मुझे गुस्सा आया। पर जिस पर फब्तियाँ कसी गई थीं उस लड़की पर मानो कोई असर ही नहीं हुआ हो। वह चुपचाप 'इग्नोर' कर के आगे बढ़ती गई। मुझे इस पर खयाल आया कि यह भी ठीक है। इन कमीनों के मुंह कौन लगे! (कभी कभी मैं गाली भी दे लेती हूँ) इसके बाद मैंने अपना लैपटाप जमा कराया और अपनी चाय पीने की तलब को शांत करने के लिए एक ठीये की तरफ़ चल दी। अचानक एक भीड़ देखी और धमाकेदार गालियां एक लड़की के मुंह से सुनी तब मैं भी भीड़ में एक चेहरा बन गई। देखा, एक बंजारन लड़की एक 30 से 35 की उम्र के शख़्स को ख़ूब गालियां दे रही थी। पूरा मामला यह था कि उस आदमी ने उसे कुछ ऐसा कहा था कि उस बंजारन लड़की ने छूटते ही गालियां बकनी शुरू कर दी। वो कह रही थी, -हरामी के जने, सूअर...तू क्या समझा था कि तू कुछ भी बोल के चल देगा और मैं तुझे छोड़ दूँगी। कुत्ते तेरे घर तक दौड़ा के मारूँगी...।' लोग उस बंजारन लड़की पर हंस रहे थे। कोई तो यह भी कह रहा था कि यह ऐसी ही गिरि हुई औरतें होती हैं, इनकी ज़ुबान गंदी होती है, इनके मुंह नहीं लगना चाहिए...पर कुछ भी कहिए। उस आदमी की बोलती बंद हो गई थी। जब चाय वाले अंकल से पूछा तो बोले- 'उस आदमी ने उसे कुछ गंदा बात बोला तो कोई क्यों उसे छोड़ेगा! आदमी अब किसी भी लड़की को छेड़ने से पहके सौ बार सोचेगा।'
इन दोनों घटनाओं में कई बातें हैं। आप भी सोचिए। मैंने तो कुछ समझा है अपने स्तर से। सिनेमा ने जिन लोगों की फालतू और खराब गतिविधियों को चाँदी का वर्क़ चढ़ाकर 'राँझणा' बनाया है उसे भी पहचानते आइये। बातें इस क़द्र आगे बढ़ गई हैं कि अब आधी आबादी अलग सोच रखती है। हमले होंगे। आज नहीं तो कल होंगे। हमलों का प्रकार भी आपके सोच से परे होगा। हाँ, मुझे ऐसा लगता है। हो सकता है मैं ग़लत हूँ। पर यह भी हो सकता है कि मैं सही हूँ। शायद सौ फीसदी सही। मुझे अहिंसा पसंद है। पर पसंद की अपनी एक सीमा है।
...इस पोस्ट को लिखते लिखते मैं अगले दिन में पहुँच गई हूँ। अभी लैपटाप में समय 3 बजे का हो चला है। अब तो छत पर से धूप भी धीरे धीरे सरक रही होगी। ऐसा सोचा। ...मैं छत पर गई। 'सूर्य' को देखने की कोशिश की। नहीं देख पाई। फिर धूप को देखा। ...उसमें औरत को पाया। रोशनियाँ भला कब मर्द हुआ करती हैं। कुछ दिन बाद शायद मुझे रोशनी में कोई मर्द भी दिख जाए। लेकिन उसके लिए एक संतुलित स्पेस की ज़रूरत है। मैं जाती हूँ उस स्पेस को खोजने।
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चित्रों के संदर्भ में- टूटने का मतलब हमेशा नेगेटिव नहीं होता। इसका एक मतलब यह भी हो सकता है कि पुराने लिबास या शक्ल की जगह कुछ नया बनकर तैयार होना या करना। इसलिए मुझे टूटना भी पसंद है। एक नई ज़ुबान और सोच के साथ अपने आप को ढालना चुनौती देता है। लेकिन जो भी रूप बनें उसमें दरख्तों की कुछ ख़ासियत जरूर होनी चाहिए।
-सभी चित्र गूगल से साभार
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