Friday, 27 January 2017

वरशिप हैंड्स

कसम से कभी कभी बहुत उट-पटांग सोच दिमाग़ में दस्तक़ देती है और मैं थोड़ा अस्थिर हो जाती हूँ। किसी रिश्तेदार का घर में आना होता तब, ले देकर बात मेरे सफ़ेद होते बालों और शादी पर आ टिकती है। मुझे बड़ा मज़ा आता है इस तरह के लोगों की परेशानियों को देखकर। कितना परेशान होते हैं लोग दूसरों की बेटियों के लिए। यह बहुत दिलचस्प है कि वे कहते सिर्फ अपने दिखावटीपन के लिए ही हैं। कुछ लोग (औरतें भी)  और भी बेमिसाल होते हैं। सबसे मज़ेदार वो अंटी जी, जो मुझे सोलह सोमवार का व्रत करने की मुफ़्त सलाह दे गईं। उनके अनुसार- 'सोलह सोमवर उपवास करोगी तो तुम्हें महादेव जैसा पति मिलेगा।' मुझे यह नहीं मालूम कि उन्हों ने यही सलाह किसी लड़के को भी दी है कि नहीं। अगर वह भी सोलह शुक्रवार और सोमवार उपवास करेगा तो उसे पार्वती जैसी पत्नी मिलेगी या दुख ख़त्म हो जाएंगे।

मुझे भूख बर्दाश्त नहीं होती और तिस पर सोलह सोमवार भूखे रहना, मतलब भारतीय संविधान में मौजूद सज़ा की धाराओं से भी कड़ी सज़ा। तीज त्योहाओं पर औरतों (अधिकतर)के भूखे रहने के चलन का मैंने एक अरसे तक बहुत अधिक सम्मान किया। लेकिन जब बात मुझ पर आई तो मैंने मन में इस सम्मान ही हवाइयाँ ही उड़ा दीं। मुझे लगता है कि मैं खुश किस्मत हूँ जो मुझ पर व्रत रखने उर्फ़ भूखे रहने का पारिवारिक और सांस्कृतिक दबाव नहीं डाला जाता। उल्टा मेरी माँ मेरी शारीरिक कमजोरी को देखते हुए व्रत रखने से पहले ही मना कर देती हैं। ख़ैर, मुझे सोलह सोमवार या शुक्रवार करने की तनिक भी इच्छा नहीं है।

इस धार्मिकता का पेंच बहुत गहरा है और हमारी परवरिश के साथ साथ समाजीकरण (धार्मिकीकरण और संस्कृतिकरण विशेष) की प्रक्रिया के चलते हमारे खून में भी बह रहा है। आसान नहीं इससे बाहर निकलना। मैं नहीं निकल पाई हूँ अभी तक। आज भी कभी कोई बात हो जाए, या मुझे चौंकना पड़ जाए, खुशी में, शांति में, दर्द में तब मेरी ज़ुबान पर कृष्णा का नाम तुरंत आ जाता है। खुद से। मुझे वैसे इस नाम से कोई आपत्ति भी नहीं। हालांकि मैं मूर्तियों के आगे धरम क़ायदे से सुगंधित अगरबत्ती नहीं दिखाती। इसकी दो वजह भी हैं। पहली मुझे खुशबूओं से दिक्कत हो जाती है दूसरा मुझे मूर्ति से कोई जुड़ाव या आत्मिकता सा का बोध नहीं होता। हाँ, मैं उन लोगों को बहुत सम्मान से देखती हूँ जो यह सब करते हैं। शायद उनकी आत्मा से परमात्मा के तार ज़रूर जुडते होंगे। यह अच्छी बात है। रफ़्तार में भागती ज़िंदगी में यह अहम तत्व है। इसके अलावा, सभी को पूरा हक़ है अपनी शैली से ज़िंदगी जीने का।



लेकिन आपको अब इस जमाने में थोड़ा ध्यान से और चालाकी से जीना होगा। आधी आबादी के लिए यह समय बहुत बेहतरीन है। आज हमारे पास पढ़ने लिखने का हक़ है। सोचने के लिए कुछ हद तक स्पेस है। इंटरनेट और नई तकनीकों के चलते घर से बाहर झाँकने और जीने के कम पर कुछ मौक़े मिलने लगे हैं। हालांकि हमारे समय में कुछ बड़ी चुनौतियाँ हैं जिनका हमें सामना करने के लिए मुस्तैद रहना जरूरी है। साथ में सक्रिय भी। लेकिन बात यहीं खत्म नहीं हो जाती। शहर में रहने के कारण मेरी आँखों पर शहरी ऐनक है। गाँव की आधी आबादी को मैंने अभी तक अपनी दो आंखों से अब्ज़र्व नहीं किया है। मौक़ा मिलेगा तो ज़रूर करूंगी। आज  इस पोस्ट में इस से अलग कुछ बातें रखना चाह रही हूँ।  

मैंने सुना है कि गाँव और शहर की आधी आबादी बहुत बड़ी मात्रा में धार्मिक भी है।

इसे (धार्मिकता) जितना घर-परिवार समाज राज्य ने पोसा है उतना ही हिन्दी की (अन्य भाषा की धार्मिक फिल्मों ने भी) फिल्मों ने भी। आपको मैं पागल लग रही हूँ, शायद! पर मैं अपनी बात के पक्ष में सन् 1975 में आई 'जय संतोषी माँ' फिल्म का उदाहरण रखना चाहूंगी। मेरी माँ ने यह फिल्म घर से थोड़ी दूर ही पर बने सिनेमा हाल में जाकर देखी थी। उनका कहना है कि फिल्म उन्हें उस टाइम बहुत अच्छी लगी थी। साथ ही साथ फिल्म के गाने तो क़यामत ही थे। हाल तक मेरे घर में धार्मिक गाने बजते रहे हैं। हनुमान चालीसा बचपन से इतनी सुनी है कि याद हो गई थी। (अब नहीं है)...मैंने भी जब बाद में यह फिल्म देखी थी तब मुझे भी यह फिल्म बहुत अच्छी लगी थी। मुझे इसका गाना - मदद करो संतोषी माता...बहुत पसंद आया था। आज भी इसके गाने मुझे अच्छे लगते हैं। इतना तय है कि इस फिल्म को देखने के बाद मैं और मेरी माँ बहुत दिनों तक प्रभावित ही रहे। 

पर बात उतनी सादा -सिम्पल नहीं है। इसे समझने के लिए हमें कुछ बातों को जान लेना ठीक रहेगा।

आज़ादी से पहले और उसके आसपास के सिनेमा में धार्मिक कथाएँ ख़ूब ज़ोर-शोर से दिखाई गईं। इसके पीछे का मक़सद यह बतलाया जाता है कि ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ़ सीधे तौर पर हमलावर फिल्म नहीं बनाई जा सकती थी। इससे उनके कोप का भाजन बनने का ख़तरा था। धार्मिक कथाओं के आड़ में जनता के मनोंरंजन के साथ साथ जनता में ब्रिटिश शासन के खिलाफ़ एक मनोवैज्ञानिक विरोध पैदा करना अच्छा तरीका था। इसके अलावा भारत भूमि ढेर सारी कल्पित कथाओं की ज़मीन है जहां कहानियाँ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हो जाया करती थीं। सिनेमा का धंधा एक उत्तम धंधा था। दौलत और शोहरत शुरूआत में उतनी नहीं मिली पर बाद में इस क्षेत्र में क्रांति हुई और 'डॉन' से लेकर 'बाज़ीगर' जैसों ने अपना रुतबा क़ायम किया। जलवा आज भी जारी है।



सन् 1975 फिल्म 'शोले' का भी बरस है। फिर ऐसा क्या था कि इस (जय संतोषी माता) धार्मिक और कम बजट की फिल्म ने कमाई और लोकप्रियता के कीर्तिमान स्थापित कर दिये? सोचने वाली बात है कि सन् 1912-13 के बाद के कई बरसों तक धार्मिक फिल्में अच्छी तादाद में बनती रहीं और सफल भी होती रहीं। रामायण और महाभारत जैसे धारावाहिकों ने तो गली मोहल्लों को टीवी के आगे ही चिपका दिया था। वास्तव में मिथक कथाओं में अजब निरालापन है। सम्मोहन है। चमत्कार है। जब फिल्म उद्योग को इसमें ढेर सारा मुनाफ़ा दिखा तो उन्हों ने इसे एक दूसरे ढंग से इस्तेमाल करना शुरू किया। न जाने कौन कौन से देवी देवता और पूजा पाठ के विधान कहानियाँ और दस्तूर खोजे गए जो आम जनता के लिए श्रद्धा के रूपों में तब्दील हो गए। यह भी याद रहे कि यह सब उसी धरती पर हुआ जहां मध्यकालीन भक्ति आंदोलन हुआ और भक्ति की नई परिभाषा गढ़ी गई थी।

संतोषी माता बहुत पुरानी देवी नहीं हैं ऐसा फिल्म की शुरूआत से ही पता चल जाता है। इसके अतिरिक्त यदि संतोषी माता के बारे में खोजबीन की जाए तो पता चलेगा कि सन् 1960 के आसपास में वह लोकप्रिय होने लगी थीं और उत्तर भारतीय महिलाओं द्वारा पूजनीय बन चुकी थीं। देश में उनके मंदिर भी हैं पर वे इतने प्राचीन नहीं हैं जितने बाक़ी देवियों के हैं। इससे सिद्ध होता है कि वह बिल्कुल अपनी तरह की नई देवी थीं। इसके अलावा उनके वस्त्र और कमल के फूल के आसन पर ध्यान दें तो वह 'श्री' अर्थात लक्ष्मी को कॉपी करते हुए लगती हैं। फिल्म में उनका शस्त्र त्रिशूल को दिखाया गया है। ऐसा जान पड़ता है कि त्रिशूल पॉपुलर मिथक में पॉपुलर शस्त्र था। इसमें कोई बुराई नहीं। यदि यहाँ वहाँ से कुछ रूप-रंग, तत्व, गुण लेकर किसी की रचना की जाती है तो वह अपनी ही तरह की एक अच्छी रचना हो सकती है। संतोषी माता कुछ इसी तरह की (रचनात्मक) शांत और मृदु देवी हैं।

फिल्म में दिखाया गया है- गणेश भगवान की बहन जब राखी के पर्व पर उन्हें राखी बांधती है तब उनके दो बेटे 'हमें भी एक बहन ला के दीजिये न' की ज़िद्द करते हैं और नारद मुनि व अपनी पत्नियों रिद्धी सिद्धि के आग्रह पर जादू से एक कन्या को प्रकट करते हैं। तब नारद मुनि उस कन्या का नाम (स्वतः गणेश जी की सलाह के बिना) संतोषी रख देते हैं। भविष्य में उसके उज्ज्वल नाम की भी बात करते हैं। तो दूसरी ओर फिल्म की मुख्य नायिका 'सत्यवती' को संतोषी माता की भक्तिन के रूप में एक गीत से स्थापित कर दिया जाता है। दर्शकों के दिमाग उसकी छवि बेहद आज्ञाकारी पुत्री, भक्तिन, पत्नी, आदर्श बहू और अच्छी औरत की सेट कर दी जाती है। फिल्म के एक घंटे के अंतराल तक वह अपने पति को स्वामी कहकर पुकारने लगती है।

फिल्म के दोनों मुख्य चरित्र 'संतोषी माता' और 'सत्यवती' के नाम पर गौर नहीं किया तो हम एक महत्वपूर्ण पक्ष को छूने से भूल जाएंगे। संतोषी एक स्त्रीलिंग शब्द है जिसे संतोष के पुल्लिंग शब्द से दूसरे खाने में देखा जा सकता है। महत्वपूर्ण बात यह है कि किसी देव का नाम संतोष स्थापित नहीं किया गया। सीधे तौर पर एक स्त्री से संतोषी नाम और गुण को चिपकाने का धार्मिक तरीका अपनाया गया। औरत को संतोषी बनने का धार्मिक आदेश संतोषी माता के प्रतीक और मिथक के सहारे दिया गया। खट्टे से परहेज़ का एक पूरा सेट अप किया गया और कहानियाँ बनाई गईं। हालांकि संतोष जैसी मानसिकता के पक्ष में  बहुत से दोहे भी रचे गए, जैसे-

गोधन  गजधन  और  रत्न  धन  खान
जब आवे संतोष धन सब धन धुरी समान

(यह अच्छी बात भी है। निजी नज़रिया अलग हो सकता है)

औरत देवी के लिए स्पेस तैयार किया गया। बजाय उसको सक्रिय करने के संतोष जैसे मानसिक समझौते को मिथक के सहारा दिया और बकायदा उसके लिए विधि विधान भी बनाया। दिन तय किया शुक्रवार का। अब नाम 'सत्यवती' पर आते हैं। सत्य को अपने में रखने या वहन करने वाली सत्यवती। इसका पुल्लिंग सत्यवान है। हालांकि फिल्म में सत्यवती के पति का नाम 'बिरजू' रखा गया है। मुझे लगता है जब एक फ़िल्मकार कहानी सोचता और लिखता है तब उसके किरदार के बारे में बहुत सोचता है। ठीक ऐसे ही उसके नाम को भी वह कई बार सोचता होगा। अमिताभ बच्चन का 'विजय' नाम आज तक मशहूर है तो शाहरुख और सलमान का क्रमश: 'राहुल' और 'प्रेम' अभी तक नज़र आता है। ठीक ऐसे ही सत्यवती नाम रखने का मक़सद यही रहा होगा कि यह औरत चरित्रवान है। सच बोलने वाली। फिल्म के अंत के दृश्य में जब छोटे भाई को खोजने गया बड़ा भाई लौटता है तब वह सत्यवती के 'देवी' होने पर मुहर भी लगा देता है। यह देवी आसमान में रहने वाली देवी से अलग है। यह वह 'देवी' है जो धरती पर रहती है। चमत्कार नहीं जानती पर अपने पति परिवार के लिए निष्ठावान है। वह भक्ति करती है। यहाँ तक चरित्र से कोई आपत्ति नहीं है। पर अजब बात यह है कि वह सभी दुखों को चुपचाप सह रही है और उसको दूर करने के लिए व्रत रखती है। वह अपने पर हो रहे अत्याचार के लिए पुलिस में रिपोर्ट नहीं करती। यह याद में रहना जरूरी है। जब मैं 'मीराबाई' को पढ़ती हूँ तब उनकी भक्ति को अलग पाती हूँ। मीरा अवश्य ही विद्रोहिणी महकती हैं और अत्याचार का जवाब भी देती हैं।



बाद के दृश्यों में त्रिदेवों की पत्नियाँ सत्यवती का भरपूर टेस्ट लेती हैं। इधर सत्यवती भी हर बार संतोषी माँ के आगे नत मस्तक होकर टेस्ट पास करती जाती है। फिल्म के एक गीत में भी एक गजब की लाईन है- 'मत रो मत आज राधिके सुन ले बात हमारी, जो दुख से घबरा जाये वो नहीं हिन्द की नारी...!' धार्मिक फिल्म है इसलिए कहीं न कहीं औरतों के किरदार अकर्मक से जान पड़ते हैं। इसलिए आपको कुछ भी अटपटा नहीं लगेगा। अमूमन घरों में इस तरह के चरित्र आम बात हैं। खुद मैं अब भी गाने सुन लेती हूँ जैसे- 'मदद करो संतोषी माता, मदद करो संतोषी माता।' फिल्म के ऐसे बहुत से दृश्य हैं जो बेहद खराब और आलोचनात्मक हैं। जैसे सत्यवती पर एक खल पात्र द्वारा हिंसा करने की कोशिश करना। पहले एक पुरुष (भावी पति) रक्षा करता है और दूसरी बार संतोषी माता रक्षा करती हैं। वह अपना त्रिशूल फेंक देती हैं और वह साँप में तब्दील हो जाता है और बलात्कार की कोशिश करने वाला गुंडा भाग जाता है।

एक दिलचस्प बात इस धार्मिक फिल्म में कानून कहाँ और कैसे दिखा, यह भी जानना चाहिए। फिल्म के अंत में जब संतोषी माता की पूजा का प्रसाद खाकर गाँव के बच्चे बेहोश या निर्जीव हो जाते हैं तब एक सत्यवती के पति को शख्स कहता है  कि 'हम इसे हथकड़ी लगवा कर रहेंगे।' यानि फिल्म की कहानी की पृष्ठभूमि बहुत पुरानी नहीं है। पुलिस का आ चुकी है समाज में। बकायदा राज्य में दंड का विधान है। लेकिन हैरत है फिल्म में इतने अत्याचार सत्यवती पर हो रहे हैं पर वह कानूनी रास्ता नहीं अपनाती। वास्तव में फिल्म का विषय कानूनी था ही नहीं। वह तो धार्मिक था।

फिल्म में एक पक्ष पर और गौर किया जाना चाहिए। पति पत्नी संबंध। वास्तव में फिल्मांकन आदर्श के रूप में हुआ है। दोनों ही धार्मिक हैं। लेकिन जैसे ही बिरजू' को मालूम चलता है कि उसे अपने बाक़ी छ भाइयों का बचा-खुचा खाना दिया जाता है तब वह क्रोध में आ जाता है। अपनी पत्नी को छोड़ वह जाने लगता है। तब सत्यवती रोकती है और साथ जाने का आग्रह करती है। पर वह उसे यहीं ठहरने को कहते हुए अपनी सौंगंध दे देता है। सत्यवती इसे अपने स्वामी का आदेश मानकर कुछ बोल नहीं पाती। क्या यह अटपटा मालूम नहीं होता? फिल्म में सत्यवती और बाक़ी स्त्री चरित्रों को किसी भी आर्थिक काम के नज़रिये से सोचा तक नहीं गया है। वह घरेलू काम में है, माँ है, पत्नी है या फिर प्रेयसी के रूप में। सत्यवती के पिता मंदिर के पुजारी हैं और ग्रंथ पढ़ते हैं पर सत्यवती कहीं भी पढ़ाई लिखाई के संदर्भ से नहीं जुड़ती। अगर यही धार्मिक फिल्म है तो धर्म में औरतों के इन पक्षों में प्रकाश क्यों नहीं? क्या यही मिथक कथाएँ सम्पदा हैं तो फिर इस सम्पदा में औरतों के नाम और चरित्र रोते बिलखते या फिर सिकुड़े हुए क्यों हैं?

फिल्म का एक पहलू मुझे अच्छा लगा। हालांकि फिल्म में उसे ज़्यादा महत्व नहीं दिया गया। सत्यवती के पिता द्वारा सत्यवती के (वर के लिए) मन की बात जानना। उसकी माँ नहीं है। इसलिए पंडित पिता उससे बड़े प्यार से उसकी पसंद पूछते हैं और सकारात्मक रवैया रखते हैं। एक तरह से दोनों का प्रेम विवाह होता है। इस तरह से हमें अपने सिनेमा पर नज़र रखनी चाहिए। आज भी सिनेमा अटपटे औरतों के किरदार रच कर पर्दे पर उतार रहा है। इसका ताज़ा उदारण चरिचित फिल्म 'बाहुबली' में अवंतिका का चरित्र है। देखेंगे तो जानेंगे। आज के समय में बहुत सी धार्मिक फिल्में तो नहीं बन रहीं पर टीवी सीरियल जरूर बन रहे हैं। मुझे बताया गया है कि टीवी पर 'संतोषी माता' नाम का एक सीरियल आता है। मैंने अभी देखा नहीं। देखूँगी तब अपनी राय ज़रूर रखूंगी। 

आज भी मेरी कई दोस्त सोलह सोमवार और शुक्रवार के व्रत करती हैं। मुझे वे बड़ी मासूम लगती हैं। शायद आसमान में बैठी संतोषी माँ उनकी इच्छा पूरी कर देती हैं। किसी की भी श्रद्धा पर शक करना गलत है। सबको हक़ है अपने विशवास के साथ रहने का। लेकिन क्या यह समय नहीं आ गया कि इस तरह के मिथकों और विधि विधानों से युक्त कथाओं को फिर से परखने का? मुझे लगता है आ गया है। यदि मुझे किसी वस्तु की कामना है तो मैं उसे पाने के लिए मेहनत करूंगी। दुख दर्द हैं, तो वे तो मानव जीवन का स्वाभाविक हिस्सा है। उसे हटाने के लिए व्रत रखना जायज नहीं लगता। रही बात वर की तलाश की तो उसके लिए मैं व्रत तो कभी नहीं करने वाली। ...

जय संतोषी माँ।    

-----------------------------------------------------------------------------

बाकी आज के टीवी किलर सीरियल पर फिर कभी लिखूँगी।
सभी चित्र गूगल से साभार



     

No comments:

Post a Comment

21 बरस की बाली उमर को सलाम, लेकिन

  दो साल पहले प्रथम वर्ष में पढ़ने वाली लड़की से मेरी बातचीत बस में सफ़र के दौरान शुरू हुई थी। शाम को काम से थकी हारी वह मुझे बस स्टॉप पर मिल...