व्हाट्सअप-एप से बहुत तंगदिली तो होती ही है पर फिर भी आपको वहाँ आज की तारीख में रहना ही है। जो न रहो तो कोई सूचना आप तक न पहुंचे। लोगों से संपर्क लगभग ख़त्म ही समझिए। इसलिए मैं तो हूँ इस एप पर। कुछ ग्रुप्स हैं और लोगों ने बहुत ही श्रद्धाभाव से मुझे उन समूहों में एक सदस्या की इज्जतदार हैसियत भी दी है। कुछ रोज़ इनकी संख्या इतनी हो गई थी कि मैंने अपना अकाउंट ही मिटा दिया था। चैन पड़ा। वरना तो ऑनलाइन होते ही 400 से 500 संदेश मशीनगन की तरह हमला कर देते थे। ख़ैर, अभी मैं सिर्फ़ दो ही ग्रुप्स में बची हुई हूँ क्योंकि मैं वापस इस एप पर हूँ।
एक ग्रुप टीन एज़ के लड़के लड़कियों का है और संख्या भी अधिक नहीं। उस ग्रुप्स की मैं ही बुज़ुर्ग सदस्या हूँ। उन लोगों का कहना है कि कोई तो है ग्रुप में जो उन्हें समझा सकता है। ग्रुप का नाम 'इंडियन यूथ' रखा गया है। एडमिन एक लड़का है जो कक्षा बारहवीं में पढ़ता है। लड़कियों की संख्या 4 या 5 है शायद। मुझे जोड़कर। इस ग्रुप में वे अपने रोज़मर्रा के बारे में बातें करते हैं। कहीं घूमने जाना हो या फिर कुछ मस्ती करने या स्कूल से जुड़ी किसी बात पर सूचना आदि के लिए वे एक दूसरे से संपर्क करते हैं। आजकल बोर्ड के पेपर आने वाले हैं जिसके चलते वे लोग यहाँ अपने पेपर से जुड़ी बातें करते दिखते हैं। हालांकि वे लोग बहुत तनाव में नहीं दिखते पर हल्का-फुल्का तनाव उनकी कुछ बातों में दिख ही जाता है। मैं ग्रुप में खूब सक्रिय नहीं हूँ। कभी कभी मैसेज़्स भी नहीं पढ़ती। पर आज मैंने पढ़ लिए। 'बाहर आया हूँ, जितना पढ़ता हूँ उतना कम है, बोर हो गया पढ़कर, आज का कोटा पूरा हो गया, और बता तेरी पढ़ाई कैसे चल रही है-जवाब है- यार! पकड़ में ही नहीं आ रही!' कुछ ऐसी बातों से पता चलता है उनकी थकावट या फिर हल्के तनाव का।
उनकी बातों को चुपके से पढ़कर मैं भी वापस सन् 2005 में चली गई जब मैं 12वीं के पेपर दे रही थी। मेरे वक़्त में ट्यूशन का ग़ज़ब का चलन था। मेरे पास कॉमर्स था। इसलिए हाय तौबा बड़ी मचती थी। पर मैंने कभी बड़ा सपना नहीं पाला था सो लगभग 76% पर आकर गाड़ी रुक गई। मैंने कहा-'यह भी ठीक है।' पर मेरी क्लास में एक लड़की थी जो इस हद तक ऊंचा प्रतिशत (%) लाना चाहती थी कि वह सबसे आगे निकल जाये। उसने तमाम तरह के ट्यूशन लगवाए हुए थे। परेशान और परेशान। अकाउंट के पेपर में हम लोगों का हाल यह था कि हमारे बाल उसी उम्र में काफी सफ़ेद हो गए थे। उस लड़की के 80% नंबर आए। उसके बाद मेरा और उसका सामना कभी नहीं हुआ। शायद कुछ बन भी गई होगी। बनने से मतलब कोई बड़ी नौकरी से है। मैं तो अटकी ही हुई हूँ। कहीं भी हिली नहीं। मुझे शिकवा शिकायत भी नहीं। हाँ, लेकिन कुछ पाने या एक मुकाम पाने की कोशिश में लगी रहती हूँ। यकीन है कि पा लूँगी मुकाम।
आज हर चीज़ की बेहिसाब रफ़्तार है। कितना कुछ आसपास दौड़ रहा है! कोई कितना पकड़ेगा! लेकिन इस सब के बीच अचानक दिमाग में मार्च आने की ख़बर चल रही है। याद आया? मुझे आज अपने 12 मार्च के महीनों को सोचकर एक हल्की मुस्कुराहट आती है। स्कूल और पढ़ना! एक सवाल यह सोचती हूँ कि क्या अल्बर्ट अंकल ने सच कहा है कि पढ़ाई से आधा जीवन खराब करते हैं और आधा उसे कैसे खराब करना है सीखते हैं? आप सोचते हैं इस बारे में?
लियो जर्नित्स्की द्वारा बनाया गया चित्र
पढ़ाई लिखाई की चाहे जितनी भी आलोचना कर ली जाये पर यह बहुत हद तक ज़रूरी है। इल्म से किसको इंकार होता है! हाँ, हम इस बात पर एक दूसरे पर ब्लॉग के द्वारा ही पत्थर फेंक सकते हैं कि स्कूल और स्कूल के बिना कौन सा स्पेस बेहतर है। कुछ दिनों पहले ही फिनलैंड के बारे में ख़बर आ रही है कि वहाँ स्कूली व्यवस्था खत्म कर दी गई है। अब वह देश स्कूल फ्री देश बन चुका है। हमारे यहाँ भी कुछ इसी तरह की बात चल रही है। भारत में शिक्षा माता पिता की एक बड़ी चिंता के रूप में उभर रही है।
जनवरी या वे महीने जब स्कूल में दाख़िले के फॉर्म्स निकलते हैं तब ऐसा लगता है शहर में कोई बिना खून खराबा वाला धमाका हुआ है। वैसी ही लाईन लग जाती है जैसे अभी कुछ समय पहले लगी थी। मैं 100% सरकारी स्कूल की उपज हूँ। इसलिए मुझे इन स्कूलों की ख़ूबियाँ और खामियाँ काफ़ी पता हैं। सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता हमेशा से ही निचले दर्जे में दिखाई देती रही है। इसके साथ ही शिक्षा एक बड़ा मसला है भारत में। भारत की पहली पंचवर्षीय योजना में जितनी तवज्जो बांधों को मिली उतनी या उस स्तर तक शिक्षा को नहीं मिली थी। हो सकता है भूख बड़ा मसला हो उस समय। पर अब शिक्षा के अधिकार के बाद बच्चों का नामांकन बढ़ा है। यह रजिस्टरों में जितनी तेज़ी से बढ़ा तो, पर उतनी ही तेज़ी से शिक्षा की गुणवत्ता गिरी भी है। हर मम्मी पापा की ख़्वाहिश इतनी होती है कि किसी तरह से बच्चे का दाख़िला निजी-अंग्रेज़ी-माध्यम स्कूल में हो जाये। इस मामले में सभी तेज़ हैं। जो 'किरांति' की बात करते हैं वो भी जो और जो अपनी बुद्धिजीविता की कसमें खाते फिरते हैं वे भी। कोई अपने बच्चे को सरकारी स्कूल में नहीं पढ़ाना चाहता। हाँ, सभी सरकारी टीचर की नौकरी जरूर चाहते हैं क्योंकि यही जॉब सबसे बेस्ट है।
कई बार बैठ कर सोचती हूँ। कभी कभी अपनी पढ़ाई के साल मुझे भी सुई की तरह चुभते हैं। हाँ, ऐसा होता है। सिस्टम का सिस्टम अच्छा नहीं रहा कभी। स्कूलों को ठीक से नहीं मालूम की आखिर बच्चों को क्या और कैसी शिक्षा देनी है। पाँच बरस की केन्द्रीय सरकार की विचारधारा ही बच्चों के लिए पाठ्यक्रम का आधार बन चुकी है। शिक्षा में राजनीति और कई बार धार्मिक मामले इस हद तक गूँथ दिये जाते हैं कि संतुलित मानसिकता ठीक से विकसित नहीं हो पाती। किताबों में मौजूद किरदार कहानी ही बनकर रह जाते हैं। वे यह नहीं बताते कि बीज क्यों रुपयों से अधिक क़ीमती हैं! किताब और वास्तविक जीवन के बीच का गैप बहुत ही बड़ा और बोझल सा लगता है। मुझे उदाहरण देने की ज़रूरत नहीं। आप सब को कुछ न कुछ ऐसा अनुभव हुआ ही होगा। कितनी खूबसूरती से पाठ्यपुस्तकें औरतों के चित्रों को साड़ी में, किचन में या फिर घर में ही पेश कर यह बतला देती हैं कि औरत किचन में ही अच्छी लगती है। कड़छी के साथ, बड़े जुड़े के साथ...मैंने माँ को हमेशा किचन में ही पाया। यहाँ व्यावहारिकता बिल्कुल मिलती थी।
रामायण और महाभारत भी मुझे स्कूल में पढ़ाया गया था। उन किताबों से बाकायदा सवाल भी आए और मैंने जवाब भी दिये। कितने आदर्शों को मेरे अंदर भरने की कोशिश की गई। लगभग सीता ही बना दिया गया। सच बताऊँ तो पाठ्यक्रम की वे कहानियाँ इतनी गहराई में घुस गईं कि निकाले नहीं निकलतीं। इसके उलट जिन भूगौल के सवालों के जवाब मैं अपने अंदर समेटना चाहती थी उन्हें ही दिमाग ने बड़ी फुर्ती से भुला दिया। जिस एटलस के नक्शे को मैं अपनी आँखों में एक्स रे करके रखना चाहती थी वे तस्वीरें धुंधली ही पड़ गईं। दिमाग को जैसे मोतियाबिंद ही हो गया। ख़ैर, मेरे निशाना आप लोगों को समझना चाहिए। कहानियाँ बहुत अच्छी साथी होती हैं। पर उस पढ़ने की उम्र में व्यावहारिक कहानियाँ जानना बहुत अधिक ज़रूरी है। आदर्श का गुड़ खाने का स्वाद सच्चाई को जानकार ही आएगा। कहानियाँ या पाठ्यक्रम वही उम्दा समझती हूँ जिनमें समाज की कड़वाहट भी नज़र आए। धर्म की पर्देदारी भी दिखे। राजनीति के धोखे और उनकी मंशाएँ भी दिखें...तभी तो तौलने की क्षमता आती है।
शिक्षा अधिकार चित्र- अमलज्योति बोरा द्वारा निर्मित
पढ़ाई के माध्यम का मसला भी बड़ा अहम मसला है। पिछली गई केंद्र सरकार में भारत माता में एक और राज्य जुड़ा। 29 राज्य हैं भारत में। भारत जितना बड़ा है उतना ही ज़्यादा बड़ा यहाँ का कैनवस भी है। तमाम तरह के लोग और उतनी ही ज़ुबानें। हर तरह से हम समृद्ध ही हैं और अंग्रेज़ों के समय में भी समृद्ध रहे। यह बात सच है कि अंदर और बाहर हम लुटे भी बेहिसाब। ग़ुलामी क्योंकि लंबे समय तक रही तो कितना कुछ हम बंदरों की तरह सीखते गए। बहुत कुछ सीखा। असर यह हुआ कि हम एक नंबर के नकलची या नकलनवीस बन गए। आज भी हम कोई बुरे नहीं नकल में। कई बार यह अच्छा भी लगता होगा कई बार नहीं भी। लेकिन इतना तो है कि आजकल लोग यह ज़रूर बता देते हैं या मुफ़्त में सलाह देते हैं कि यदि आप फलां भाषा नहीं जानते तो ज़माने में पीछे ही रह जाएँगे। हम सभी ने कभी बैठकर इस मसले के बारे में नहीं सोचा। कभी हल नहीं निकाला कि क्योंकर हिन्दी व अन्य माध्यम के बच्चे विज्ञान और तकनीक में पीछे रह जाते हैं? कई घटनाएँ होने के बाद भी हमने यह क्यों नहीं रास्ता निकाला कि विद्यार्थी विषय में असफल होने के बाद मौत को आसान क्यों समझ लेते हैं?
ऐसा क्या हो जाता है जो युवा कम उम्र में ही बाल अपराधी बन जाते हैं? हमने क्योंकर यह नहीं सोचा कि बलात्कार जैसी समस्या बहुत कड़े कानून बनाने पर भी नहीं जा रही? पढ़े लिखे भी शोषण का शिकार हो रहे हैं या शोषण कर रहे हैं, यह भी नहीं सोचा? ...हमारी सोचने की प्रक्रिया को ऐसा लगता है जंग लग गई है। मेरी सोचने की शक्ति को तो टीबी की बीमारी हो गई है। बस कुछ दिन की मेहमान और है यह शक्ति। कुछ बताती हूँ। मुझे कभी कभी ऐसा एक खयाल आता है कि मैं एक तलवार वाली रस्सी पर चलकर ऊंचाई से एक शहर से दूसरा शहर पार कर रही हूँ। नीचे देखने पर शहर बहुत काला दिखता है, जैसे बड़ी मात्रा में कोई बदबूदार रबड़ सुलगा रहा हो। मैं वही हवा अपने अंदर रोते हुए खींच रही हूँ। तलवार वाली रस्सी पर चलकर मेरे पैर कतरा कतरा कट रहे हैं और खून भी वैसे ही निकल रहा है कतरा कतरा। दरअसल मैं न तो गिरना चाहती हूँ, न रास्ता पार करना चाहती हूँ और न ही मरना। लगता है मुझे असमंजस नाम की बीमारी हो गई है। ओह्ह मैं, दिग्भ्रमित युवती हूँ। मुझे तनाव हो गया है। ...पर सच कहूं, यह सच नहीं है। मुझे कोई बीमारी नहीं है। मैं ठीक हूँ। सुबह उठती हूँ और दिन में जागकर रात को सो जाती हूँ जैसे सभी लोग करते हैं। मैं ठीक हूँ। यह पक्की बात है।
इसलिए उन साथियों को (जो पेपर देने जा रहे हैं) बेहिसाब ध्यान देना चाहिए कि वास्तव में उन्हें मेरी जैसी बीमारी की इच्छा है या फिर उन्हें पता है कि पाठ्यक्रम के बाहर ही एक बहुत बड़ी ज़ंग होती है। जीने की ज़ंग, पेट भरने की ज़ंग, सिर पर छत बनी रहे, उसकी ज़ंग...सम्मान बचा रहे उसकी ज़ंग, थोड़ा बहुत ख़ुद का रंग ज़माने से बचा कर रखे रहने की ज़ंग...कितनी जंगें हैं! यकीन मानिए बहुत आसान नहीं होता जीना। लेकिन इसी में मज़ा है। आपको ऐसे लोग बहुत मिलेंगे जो यह कहते हुए सुनाई देंगे, खुश रहो, क्योंकि ज़िंदगी इसी के लिए है। उनकी बात पूरी सही नहीं है। होता यह है कि खुशी का मतलब दुख के बाद ही पता चलता है। जैसे चैन का मतलब दर्द के बाद...जिसे पत्थरी का रोग हुआ है उससे पूछिएगा कि बे-इंतहा दर्द के बाद क्या नींद आती है जो उस दर्द से सीधे तौर से जुड़ी है! इसलिए दर्द नहीं चखा तो हैपीनेस का अचार ही होगा। हैपीनेस के पहले की ही प्रक्रिया असली या फिर ख़ालिस ज़िंदगी है। सच में।
( एक बात जो मुझे बहुत अहम लगती है और वह यह कि यदि शिक्षा में जातिगत संरचना को देखे तब यह बहुत महत्वपूर्ण ज़रिया बन जाती है। जिन तबकों और लिंग को पढ़ने का हक़ हासिल किए हुए बहुत कम बरस बीते हैं उसके हिसाब से शिक्षा के ढांचों को और भी बेहतरीन करने की ज़रूरत है। क्योंकि इनका प्रतिनिधित्व अभी भी नहीं बढ़ पाया है। इसलिए मैं स्कूल-विहीन प्रणाली से पूरी तरह सहमत नहीं। उन सभी वंचित तबकों की संतुलित हिस्सेदारी कैसे तय होगी स्कूल विहीन प्रणाली वाले समाज में। आज भी जाति मिटने के बजाय और गहरी हो रही है। गरीबी अमीरी का अंतर खाई के जैसे है। भारत जैसे बड़े देश में व्यवस्था और उसके चरित्र को देखते हुए स्कूल के बिना बनने वाली प्रणाली का रूप क्या और कैसा होगा, इस पर सोचने की ज़रूरत है। शायद। क्योंकि यदि कल को बिना स्कूल का कोई ढांचा भी बन गया तो वहाँ भी ऊंची जाति और अमीर सबसे पहले कब्ज़ेदारी करेंगे। बाकियों का क्या? फिलहाल इस पर बहुत सोचे जाने की ज़रूरत है। मुझे मौक़ा दिया जाए तो मैं भी सोच सकती हूँ।)
एक ग्रुप टीन एज़ के लड़के लड़कियों का है और संख्या भी अधिक नहीं। उस ग्रुप्स की मैं ही बुज़ुर्ग सदस्या हूँ। उन लोगों का कहना है कि कोई तो है ग्रुप में जो उन्हें समझा सकता है। ग्रुप का नाम 'इंडियन यूथ' रखा गया है। एडमिन एक लड़का है जो कक्षा बारहवीं में पढ़ता है। लड़कियों की संख्या 4 या 5 है शायद। मुझे जोड़कर। इस ग्रुप में वे अपने रोज़मर्रा के बारे में बातें करते हैं। कहीं घूमने जाना हो या फिर कुछ मस्ती करने या स्कूल से जुड़ी किसी बात पर सूचना आदि के लिए वे एक दूसरे से संपर्क करते हैं। आजकल बोर्ड के पेपर आने वाले हैं जिसके चलते वे लोग यहाँ अपने पेपर से जुड़ी बातें करते दिखते हैं। हालांकि वे लोग बहुत तनाव में नहीं दिखते पर हल्का-फुल्का तनाव उनकी कुछ बातों में दिख ही जाता है। मैं ग्रुप में खूब सक्रिय नहीं हूँ। कभी कभी मैसेज़्स भी नहीं पढ़ती। पर आज मैंने पढ़ लिए। 'बाहर आया हूँ, जितना पढ़ता हूँ उतना कम है, बोर हो गया पढ़कर, आज का कोटा पूरा हो गया, और बता तेरी पढ़ाई कैसे चल रही है-जवाब है- यार! पकड़ में ही नहीं आ रही!' कुछ ऐसी बातों से पता चलता है उनकी थकावट या फिर हल्के तनाव का।
उनकी बातों को चुपके से पढ़कर मैं भी वापस सन् 2005 में चली गई जब मैं 12वीं के पेपर दे रही थी। मेरे वक़्त में ट्यूशन का ग़ज़ब का चलन था। मेरे पास कॉमर्स था। इसलिए हाय तौबा बड़ी मचती थी। पर मैंने कभी बड़ा सपना नहीं पाला था सो लगभग 76% पर आकर गाड़ी रुक गई। मैंने कहा-'यह भी ठीक है।' पर मेरी क्लास में एक लड़की थी जो इस हद तक ऊंचा प्रतिशत (%) लाना चाहती थी कि वह सबसे आगे निकल जाये। उसने तमाम तरह के ट्यूशन लगवाए हुए थे। परेशान और परेशान। अकाउंट के पेपर में हम लोगों का हाल यह था कि हमारे बाल उसी उम्र में काफी सफ़ेद हो गए थे। उस लड़की के 80% नंबर आए। उसके बाद मेरा और उसका सामना कभी नहीं हुआ। शायद कुछ बन भी गई होगी। बनने से मतलब कोई बड़ी नौकरी से है। मैं तो अटकी ही हुई हूँ। कहीं भी हिली नहीं। मुझे शिकवा शिकायत भी नहीं। हाँ, लेकिन कुछ पाने या एक मुकाम पाने की कोशिश में लगी रहती हूँ। यकीन है कि पा लूँगी मुकाम।
आज हर चीज़ की बेहिसाब रफ़्तार है। कितना कुछ आसपास दौड़ रहा है! कोई कितना पकड़ेगा! लेकिन इस सब के बीच अचानक दिमाग में मार्च आने की ख़बर चल रही है। याद आया? मुझे आज अपने 12 मार्च के महीनों को सोचकर एक हल्की मुस्कुराहट आती है। स्कूल और पढ़ना! एक सवाल यह सोचती हूँ कि क्या अल्बर्ट अंकल ने सच कहा है कि पढ़ाई से आधा जीवन खराब करते हैं और आधा उसे कैसे खराब करना है सीखते हैं? आप सोचते हैं इस बारे में?
लियो जर्नित्स्की द्वारा बनाया गया चित्र
पढ़ाई लिखाई की चाहे जितनी भी आलोचना कर ली जाये पर यह बहुत हद तक ज़रूरी है। इल्म से किसको इंकार होता है! हाँ, हम इस बात पर एक दूसरे पर ब्लॉग के द्वारा ही पत्थर फेंक सकते हैं कि स्कूल और स्कूल के बिना कौन सा स्पेस बेहतर है। कुछ दिनों पहले ही फिनलैंड के बारे में ख़बर आ रही है कि वहाँ स्कूली व्यवस्था खत्म कर दी गई है। अब वह देश स्कूल फ्री देश बन चुका है। हमारे यहाँ भी कुछ इसी तरह की बात चल रही है। भारत में शिक्षा माता पिता की एक बड़ी चिंता के रूप में उभर रही है।
जनवरी या वे महीने जब स्कूल में दाख़िले के फॉर्म्स निकलते हैं तब ऐसा लगता है शहर में कोई बिना खून खराबा वाला धमाका हुआ है। वैसी ही लाईन लग जाती है जैसे अभी कुछ समय पहले लगी थी। मैं 100% सरकारी स्कूल की उपज हूँ। इसलिए मुझे इन स्कूलों की ख़ूबियाँ और खामियाँ काफ़ी पता हैं। सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता हमेशा से ही निचले दर्जे में दिखाई देती रही है। इसके साथ ही शिक्षा एक बड़ा मसला है भारत में। भारत की पहली पंचवर्षीय योजना में जितनी तवज्जो बांधों को मिली उतनी या उस स्तर तक शिक्षा को नहीं मिली थी। हो सकता है भूख बड़ा मसला हो उस समय। पर अब शिक्षा के अधिकार के बाद बच्चों का नामांकन बढ़ा है। यह रजिस्टरों में जितनी तेज़ी से बढ़ा तो, पर उतनी ही तेज़ी से शिक्षा की गुणवत्ता गिरी भी है। हर मम्मी पापा की ख़्वाहिश इतनी होती है कि किसी तरह से बच्चे का दाख़िला निजी-अंग्रेज़ी-माध्यम स्कूल में हो जाये। इस मामले में सभी तेज़ हैं। जो 'किरांति' की बात करते हैं वो भी जो और जो अपनी बुद्धिजीविता की कसमें खाते फिरते हैं वे भी। कोई अपने बच्चे को सरकारी स्कूल में नहीं पढ़ाना चाहता। हाँ, सभी सरकारी टीचर की नौकरी जरूर चाहते हैं क्योंकि यही जॉब सबसे बेस्ट है।
कई बार बैठ कर सोचती हूँ। कभी कभी अपनी पढ़ाई के साल मुझे भी सुई की तरह चुभते हैं। हाँ, ऐसा होता है। सिस्टम का सिस्टम अच्छा नहीं रहा कभी। स्कूलों को ठीक से नहीं मालूम की आखिर बच्चों को क्या और कैसी शिक्षा देनी है। पाँच बरस की केन्द्रीय सरकार की विचारधारा ही बच्चों के लिए पाठ्यक्रम का आधार बन चुकी है। शिक्षा में राजनीति और कई बार धार्मिक मामले इस हद तक गूँथ दिये जाते हैं कि संतुलित मानसिकता ठीक से विकसित नहीं हो पाती। किताबों में मौजूद किरदार कहानी ही बनकर रह जाते हैं। वे यह नहीं बताते कि बीज क्यों रुपयों से अधिक क़ीमती हैं! किताब और वास्तविक जीवन के बीच का गैप बहुत ही बड़ा और बोझल सा लगता है। मुझे उदाहरण देने की ज़रूरत नहीं। आप सब को कुछ न कुछ ऐसा अनुभव हुआ ही होगा। कितनी खूबसूरती से पाठ्यपुस्तकें औरतों के चित्रों को साड़ी में, किचन में या फिर घर में ही पेश कर यह बतला देती हैं कि औरत किचन में ही अच्छी लगती है। कड़छी के साथ, बड़े जुड़े के साथ...मैंने माँ को हमेशा किचन में ही पाया। यहाँ व्यावहारिकता बिल्कुल मिलती थी।
रामायण और महाभारत भी मुझे स्कूल में पढ़ाया गया था। उन किताबों से बाकायदा सवाल भी आए और मैंने जवाब भी दिये। कितने आदर्शों को मेरे अंदर भरने की कोशिश की गई। लगभग सीता ही बना दिया गया। सच बताऊँ तो पाठ्यक्रम की वे कहानियाँ इतनी गहराई में घुस गईं कि निकाले नहीं निकलतीं। इसके उलट जिन भूगौल के सवालों के जवाब मैं अपने अंदर समेटना चाहती थी उन्हें ही दिमाग ने बड़ी फुर्ती से भुला दिया। जिस एटलस के नक्शे को मैं अपनी आँखों में एक्स रे करके रखना चाहती थी वे तस्वीरें धुंधली ही पड़ गईं। दिमाग को जैसे मोतियाबिंद ही हो गया। ख़ैर, मेरे निशाना आप लोगों को समझना चाहिए। कहानियाँ बहुत अच्छी साथी होती हैं। पर उस पढ़ने की उम्र में व्यावहारिक कहानियाँ जानना बहुत अधिक ज़रूरी है। आदर्श का गुड़ खाने का स्वाद सच्चाई को जानकार ही आएगा। कहानियाँ या पाठ्यक्रम वही उम्दा समझती हूँ जिनमें समाज की कड़वाहट भी नज़र आए। धर्म की पर्देदारी भी दिखे। राजनीति के धोखे और उनकी मंशाएँ भी दिखें...तभी तो तौलने की क्षमता आती है।
शिक्षा अधिकार चित्र- अमलज्योति बोरा द्वारा निर्मित
पढ़ाई के माध्यम का मसला भी बड़ा अहम मसला है। पिछली गई केंद्र सरकार में भारत माता में एक और राज्य जुड़ा। 29 राज्य हैं भारत में। भारत जितना बड़ा है उतना ही ज़्यादा बड़ा यहाँ का कैनवस भी है। तमाम तरह के लोग और उतनी ही ज़ुबानें। हर तरह से हम समृद्ध ही हैं और अंग्रेज़ों के समय में भी समृद्ध रहे। यह बात सच है कि अंदर और बाहर हम लुटे भी बेहिसाब। ग़ुलामी क्योंकि लंबे समय तक रही तो कितना कुछ हम बंदरों की तरह सीखते गए। बहुत कुछ सीखा। असर यह हुआ कि हम एक नंबर के नकलची या नकलनवीस बन गए। आज भी हम कोई बुरे नहीं नकल में। कई बार यह अच्छा भी लगता होगा कई बार नहीं भी। लेकिन इतना तो है कि आजकल लोग यह ज़रूर बता देते हैं या मुफ़्त में सलाह देते हैं कि यदि आप फलां भाषा नहीं जानते तो ज़माने में पीछे ही रह जाएँगे। हम सभी ने कभी बैठकर इस मसले के बारे में नहीं सोचा। कभी हल नहीं निकाला कि क्योंकर हिन्दी व अन्य माध्यम के बच्चे विज्ञान और तकनीक में पीछे रह जाते हैं? कई घटनाएँ होने के बाद भी हमने यह क्यों नहीं रास्ता निकाला कि विद्यार्थी विषय में असफल होने के बाद मौत को आसान क्यों समझ लेते हैं?
ऐसा क्या हो जाता है जो युवा कम उम्र में ही बाल अपराधी बन जाते हैं? हमने क्योंकर यह नहीं सोचा कि बलात्कार जैसी समस्या बहुत कड़े कानून बनाने पर भी नहीं जा रही? पढ़े लिखे भी शोषण का शिकार हो रहे हैं या शोषण कर रहे हैं, यह भी नहीं सोचा? ...हमारी सोचने की प्रक्रिया को ऐसा लगता है जंग लग गई है। मेरी सोचने की शक्ति को तो टीबी की बीमारी हो गई है। बस कुछ दिन की मेहमान और है यह शक्ति। कुछ बताती हूँ। मुझे कभी कभी ऐसा एक खयाल आता है कि मैं एक तलवार वाली रस्सी पर चलकर ऊंचाई से एक शहर से दूसरा शहर पार कर रही हूँ। नीचे देखने पर शहर बहुत काला दिखता है, जैसे बड़ी मात्रा में कोई बदबूदार रबड़ सुलगा रहा हो। मैं वही हवा अपने अंदर रोते हुए खींच रही हूँ। तलवार वाली रस्सी पर चलकर मेरे पैर कतरा कतरा कट रहे हैं और खून भी वैसे ही निकल रहा है कतरा कतरा। दरअसल मैं न तो गिरना चाहती हूँ, न रास्ता पार करना चाहती हूँ और न ही मरना। लगता है मुझे असमंजस नाम की बीमारी हो गई है। ओह्ह मैं, दिग्भ्रमित युवती हूँ। मुझे तनाव हो गया है। ...पर सच कहूं, यह सच नहीं है। मुझे कोई बीमारी नहीं है। मैं ठीक हूँ। सुबह उठती हूँ और दिन में जागकर रात को सो जाती हूँ जैसे सभी लोग करते हैं। मैं ठीक हूँ। यह पक्की बात है।
इसलिए उन साथियों को (जो पेपर देने जा रहे हैं) बेहिसाब ध्यान देना चाहिए कि वास्तव में उन्हें मेरी जैसी बीमारी की इच्छा है या फिर उन्हें पता है कि पाठ्यक्रम के बाहर ही एक बहुत बड़ी ज़ंग होती है। जीने की ज़ंग, पेट भरने की ज़ंग, सिर पर छत बनी रहे, उसकी ज़ंग...सम्मान बचा रहे उसकी ज़ंग, थोड़ा बहुत ख़ुद का रंग ज़माने से बचा कर रखे रहने की ज़ंग...कितनी जंगें हैं! यकीन मानिए बहुत आसान नहीं होता जीना। लेकिन इसी में मज़ा है। आपको ऐसे लोग बहुत मिलेंगे जो यह कहते हुए सुनाई देंगे, खुश रहो, क्योंकि ज़िंदगी इसी के लिए है। उनकी बात पूरी सही नहीं है। होता यह है कि खुशी का मतलब दुख के बाद ही पता चलता है। जैसे चैन का मतलब दर्द के बाद...जिसे पत्थरी का रोग हुआ है उससे पूछिएगा कि बे-इंतहा दर्द के बाद क्या नींद आती है जो उस दर्द से सीधे तौर से जुड़ी है! इसलिए दर्द नहीं चखा तो हैपीनेस का अचार ही होगा। हैपीनेस के पहले की ही प्रक्रिया असली या फिर ख़ालिस ज़िंदगी है। सच में।
( एक बात जो मुझे बहुत अहम लगती है और वह यह कि यदि शिक्षा में जातिगत संरचना को देखे तब यह बहुत महत्वपूर्ण ज़रिया बन जाती है। जिन तबकों और लिंग को पढ़ने का हक़ हासिल किए हुए बहुत कम बरस बीते हैं उसके हिसाब से शिक्षा के ढांचों को और भी बेहतरीन करने की ज़रूरत है। क्योंकि इनका प्रतिनिधित्व अभी भी नहीं बढ़ पाया है। इसलिए मैं स्कूल-विहीन प्रणाली से पूरी तरह सहमत नहीं। उन सभी वंचित तबकों की संतुलित हिस्सेदारी कैसे तय होगी स्कूल विहीन प्रणाली वाले समाज में। आज भी जाति मिटने के बजाय और गहरी हो रही है। गरीबी अमीरी का अंतर खाई के जैसे है। भारत जैसे बड़े देश में व्यवस्था और उसके चरित्र को देखते हुए स्कूल के बिना बनने वाली प्रणाली का रूप क्या और कैसा होगा, इस पर सोचने की ज़रूरत है। शायद। क्योंकि यदि कल को बिना स्कूल का कोई ढांचा भी बन गया तो वहाँ भी ऊंची जाति और अमीर सबसे पहले कब्ज़ेदारी करेंगे। बाकियों का क्या? फिलहाल इस पर बहुत सोचे जाने की ज़रूरत है। मुझे मौक़ा दिया जाए तो मैं भी सोच सकती हूँ।)