Monday, 27 February 2017

ए ज़िंदगी गले लगा ले

व्हाट्सअप-एप  से बहुत तंगदिली तो होती ही है पर फिर भी आपको वहाँ आज की तारीख में रहना ही है। जो न रहो तो कोई सूचना आप तक न पहुंचे। लोगों से संपर्क लगभग ख़त्म ही समझिए। इसलिए मैं तो हूँ इस एप पर। कुछ ग्रुप्स हैं और लोगों ने बहुत ही श्रद्धाभाव से मुझे उन समूहों में एक सदस्या की इज्जतदार हैसियत भी दी है। कुछ रोज़ इनकी संख्या इतनी हो गई थी कि मैंने अपना अकाउंट ही मिटा दिया था। चैन पड़ा। वरना तो ऑनलाइन होते ही 400 से 500 संदेश मशीनगन की तरह हमला कर देते थे। ख़ैर, अभी मैं सिर्फ़ दो ही ग्रुप्स में बची हुई हूँ क्योंकि मैं वापस इस एप पर हूँ।

एक ग्रुप टीन एज़ के लड़के लड़कियों का है और संख्या भी अधिक नहीं। उस ग्रुप्स की मैं ही बुज़ुर्ग सदस्या हूँ। उन लोगों का कहना है कि कोई तो है ग्रुप में जो उन्हें समझा सकता है। ग्रुप का नाम 'इंडियन यूथ' रखा गया है। एडमिन एक लड़का है जो कक्षा बारहवीं में पढ़ता है। लड़कियों की संख्या 4 या 5 है शायद। मुझे जोड़कर। इस ग्रुप में वे अपने रोज़मर्रा के बारे में बातें करते हैं। कहीं घूमने जाना हो या फिर कुछ मस्ती करने या स्कूल से जुड़ी किसी बात पर सूचना आदि के लिए वे एक दूसरे से संपर्क करते हैं। आजकल बोर्ड के पेपर आने वाले हैं जिसके चलते वे लोग यहाँ अपने पेपर से जुड़ी बातें करते दिखते हैं। हालांकि वे लोग बहुत तनाव में नहीं दिखते पर हल्का-फुल्का तनाव उनकी कुछ बातों में दिख ही जाता है। मैं ग्रुप में खूब सक्रिय नहीं हूँ। कभी कभी मैसेज़्स भी नहीं पढ़ती। पर आज मैंने पढ़ लिए। 'बाहर आया हूँ, जितना पढ़ता हूँ उतना कम है, बोर हो गया पढ़कर, आज का कोटा पूरा हो गया, और बता तेरी पढ़ाई कैसे चल रही है-जवाब है- यार! पकड़ में ही नहीं आ रही!' कुछ ऐसी बातों से पता चलता है उनकी थकावट या फिर हल्के तनाव का। 

उनकी बातों को चुपके से पढ़कर मैं भी वापस सन् 2005 में चली गई जब मैं 12वीं के पेपर दे रही थी। मेरे वक़्त में ट्यूशन का ग़ज़ब का चलन था। मेरे पास कॉमर्स था। इसलिए हाय तौबा बड़ी मचती थी। पर मैंने कभी बड़ा सपना नहीं पाला था सो लगभग 76% पर आकर गाड़ी रुक गई। मैंने कहा-'यह भी ठीक है।' पर मेरी क्लास में एक लड़की थी जो इस हद तक ऊंचा प्रतिशत (%) लाना चाहती थी कि वह सबसे आगे निकल जाये। उसने तमाम तरह के ट्यूशन लगवाए हुए थे। परेशान और परेशान। अकाउंट के पेपर में हम लोगों का हाल यह था कि हमारे बाल उसी उम्र में काफी सफ़ेद हो गए थे। उस लड़की के 80% नंबर आए। उसके बाद मेरा और उसका सामना कभी नहीं हुआ। शायद कुछ बन भी गई होगी। बनने से मतलब कोई बड़ी नौकरी से है। मैं तो अटकी ही हुई हूँ। कहीं भी हिली नहीं। मुझे शिकवा शिकायत भी नहीं। हाँ, लेकिन कुछ पाने या एक मुकाम पाने की कोशिश में लगी रहती हूँ। यकीन है कि पा लूँगी मुकाम। 

आज हर चीज़ की बेहिसाब रफ़्तार है। कितना कुछ आसपास दौड़ रहा है!  कोई कितना पकड़ेगा! लेकिन इस सब के बीच अचानक दिमाग में मार्च आने की ख़बर चल रही है। याद आया? मुझे आज अपने 12 मार्च के महीनों को सोचकर एक हल्की मुस्कुराहट आती है। स्कूल और पढ़ना! एक सवाल यह सोचती हूँ कि क्या अल्बर्ट अंकल ने सच कहा है कि पढ़ाई से आधा जीवन खराब करते हैं और आधा उसे कैसे खराब करना है सीखते हैं? आप सोचते हैं इस बारे में?

                                                    लियो जर्नित्स्की द्वारा बनाया गया चित्र

पढ़ाई लिखाई की चाहे जितनी भी आलोचना कर ली जाये पर यह बहुत हद तक ज़रूरी है। इल्म से किसको इंकार होता है! हाँ, हम इस बात पर एक दूसरे पर ब्लॉग के द्वारा ही पत्थर फेंक सकते हैं कि स्कूल और स्कूल के बिना कौन सा स्पेस बेहतर है। कुछ दिनों पहले ही फिनलैंड के बारे में ख़बर आ रही है कि वहाँ स्कूली व्यवस्था खत्म कर दी गई है। अब वह देश स्कूल फ्री देश बन चुका है। हमारे यहाँ भी कुछ इसी तरह की बात चल रही है। भारत में शिक्षा माता पिता की एक बड़ी चिंता के रूप में उभर रही है।

जनवरी या वे महीने जब स्कूल में दाख़िले के फॉर्म्स निकलते हैं तब ऐसा लगता है शहर में कोई बिना खून खराबा वाला धमाका हुआ है। वैसी ही लाईन लग जाती है जैसे अभी कुछ समय पहले लगी थी। मैं 100% सरकारी स्कूल की उपज हूँ। इसलिए मुझे इन स्कूलों की ख़ूबियाँ और खामियाँ काफ़ी पता हैं। सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता हमेशा से ही निचले दर्जे में दिखाई देती रही है। इसके साथ ही शिक्षा एक बड़ा मसला है भारत में। भारत की पहली पंचवर्षीय योजना में जितनी तवज्जो बांधों को मिली उतनी या उस स्तर तक शिक्षा को नहीं मिली थी। हो सकता है भूख बड़ा मसला हो उस समय। पर अब शिक्षा के अधिकार के बाद बच्चों का नामांकन बढ़ा है। यह रजिस्टरों में जितनी तेज़ी से बढ़ा तो, पर उतनी ही तेज़ी से शिक्षा की गुणवत्ता गिरी भी है। हर मम्मी पापा की ख़्वाहिश इतनी होती है कि किसी तरह से बच्चे का दाख़िला निजी-अंग्रेज़ी-माध्यम स्कूल में हो जाये। इस मामले में सभी तेज़ हैं। जो 'किरांति' की बात करते हैं वो भी जो और जो अपनी बुद्धिजीविता की कसमें खाते फिरते हैं वे भी। कोई अपने बच्चे को सरकारी स्कूल में नहीं पढ़ाना चाहता। हाँ, सभी सरकारी टीचर की नौकरी जरूर चाहते हैं क्योंकि यही जॉब सबसे बेस्ट है।

कई बार बैठ कर सोचती हूँ। कभी कभी अपनी पढ़ाई के साल मुझे भी सुई की तरह चुभते हैं। हाँ, ऐसा होता है। सिस्टम का सिस्टम अच्छा नहीं रहा कभी। स्कूलों को ठीक से नहीं मालूम की आखिर बच्चों को क्या और कैसी शिक्षा देनी है। पाँच बरस की केन्द्रीय सरकार की विचारधारा ही बच्चों के लिए पाठ्यक्रम का आधार बन चुकी है। शिक्षा में राजनीति और कई बार धार्मिक मामले इस हद तक गूँथ दिये जाते हैं कि संतुलित मानसिकता ठीक से विकसित नहीं हो पाती। किताबों में मौजूद किरदार कहानी ही बनकर रह जाते हैं। वे यह नहीं बताते कि बीज क्यों रुपयों से अधिक क़ीमती हैं! किताब और वास्तविक जीवन के बीच का गैप बहुत ही बड़ा और बोझल सा लगता है। मुझे उदाहरण देने की ज़रूरत नहीं। आप सब को कुछ न कुछ ऐसा अनुभव हुआ ही होगा। कितनी खूबसूरती से पाठ्यपुस्तकें औरतों के चित्रों को साड़ी में, किचन में या फिर घर में ही पेश कर यह बतला देती हैं कि औरत किचन में ही अच्छी लगती है। कड़छी के साथ, बड़े जुड़े के साथ...मैंने माँ को हमेशा किचन में ही पाया। यहाँ व्यावहारिकता बिल्कुल मिलती थी।

रामायण और महाभारत भी मुझे स्कूल में पढ़ाया गया था। उन किताबों से बाकायदा सवाल भी आए और मैंने जवाब भी दिये। कितने आदर्शों को मेरे अंदर भरने की कोशिश की गई। लगभग सीता ही बना दिया गया। सच बताऊँ तो पाठ्यक्रम की वे कहानियाँ इतनी गहराई में घुस गईं कि निकाले नहीं निकलतीं। इसके उलट जिन भूगौल के सवालों के जवाब मैं अपने अंदर समेटना चाहती थी उन्हें ही दिमाग ने बड़ी फुर्ती से भुला दिया। जिस एटलस के नक्शे को मैं अपनी आँखों में एक्स रे करके रखना चाहती थी वे तस्वीरें धुंधली ही पड़ गईं। दिमाग को जैसे मोतियाबिंद ही हो गया। ख़ैर, मेरे निशाना आप लोगों को समझना चाहिए। कहानियाँ बहुत अच्छी साथी होती हैं। पर उस पढ़ने की उम्र में व्यावहारिक कहानियाँ जानना बहुत अधिक ज़रूरी है। आदर्श का गुड़ खाने का स्वाद सच्चाई को जानकार ही आएगा। कहानियाँ या पाठ्यक्रम वही उम्दा समझती हूँ जिनमें समाज की कड़वाहट भी नज़र आए। धर्म की पर्देदारी भी दिखे। राजनीति के धोखे और उनकी मंशाएँ भी दिखें...तभी तो तौलने की क्षमता आती है।  

                                                शिक्षा अधिकार चित्र- अमलज्योति बोरा द्वारा निर्मित

पढ़ाई के माध्यम का मसला भी बड़ा अहम मसला है। पिछली गई केंद्र सरकार में भारत माता में एक और राज्य जुड़ा। 29 राज्य हैं भारत में। भारत जितना बड़ा है उतना ही ज़्यादा बड़ा यहाँ का कैनवस भी है। तमाम तरह के लोग और उतनी ही ज़ुबानें। हर तरह से हम समृद्ध ही हैं और अंग्रेज़ों के समय में भी समृद्ध रहे। यह बात सच है कि अंदर और बाहर हम लुटे भी बेहिसाब। ग़ुलामी क्योंकि लंबे समय तक रही तो कितना कुछ हम बंदरों की तरह सीखते गए। बहुत कुछ सीखा। असर यह हुआ कि हम एक नंबर के नकलची या नकलनवीस बन गए। आज भी हम कोई बुरे नहीं नकल में। कई बार यह अच्छा भी लगता होगा कई बार नहीं भी। लेकिन इतना तो है कि आजकल लोग यह ज़रूर बता देते हैं या मुफ़्त में सलाह देते हैं कि यदि आप फलां भाषा नहीं जानते तो ज़माने में पीछे ही रह जाएँगे। हम सभी ने कभी बैठकर इस मसले के बारे में नहीं सोचा। कभी हल नहीं निकाला कि क्योंकर हिन्दी व अन्य माध्यम के बच्चे विज्ञान और तकनीक में पीछे रह जाते हैं? कई घटनाएँ होने के बाद भी हमने यह क्यों नहीं रास्ता निकाला कि विद्यार्थी विषय में असफल होने के बाद मौत को आसान क्यों समझ लेते हैं?

ऐसा क्या हो जाता है जो युवा कम उम्र में ही बाल अपराधी बन जाते हैं? हमने क्योंकर यह नहीं सोचा कि बलात्कार जैसी समस्या बहुत कड़े कानून बनाने पर भी नहीं जा रही? पढ़े लिखे भी शोषण का शिकार हो रहे हैं या शोषण कर रहे हैं, यह भी नहीं सोचा? ...हमारी सोचने की प्रक्रिया को ऐसा लगता है जंग लग गई है। मेरी सोचने की शक्ति को तो टीबी की बीमारी हो गई है। बस कुछ दिन की मेहमान और है यह शक्ति। कुछ बताती हूँ। मुझे कभी कभी ऐसा एक खयाल आता है कि मैं एक तलवार वाली रस्सी पर चलकर ऊंचाई से एक शहर से दूसरा शहर पार कर रही हूँ। नीचे देखने पर शहर बहुत काला दिखता है, जैसे बड़ी मात्रा में कोई बदबूदार रबड़ सुलगा रहा हो। मैं वही हवा अपने अंदर रोते हुए खींच रही हूँ। तलवार वाली रस्सी पर चलकर मेरे पैर कतरा कतरा कट रहे हैं और खून भी वैसे ही निकल रहा है कतरा कतरा। दरअसल मैं न तो गिरना चाहती हूँ, न रास्ता पार करना चाहती हूँ और न ही मरना। लगता है मुझे असमंजस नाम की बीमारी हो गई है। ओह्ह मैं, दिग्भ्रमित युवती हूँ। मुझे तनाव हो गया है। ...पर सच कहूं, यह सच नहीं है। मुझे कोई बीमारी नहीं है। मैं ठीक हूँ। सुबह उठती हूँ और दिन में जागकर रात को सो जाती हूँ जैसे सभी लोग करते हैं। मैं ठीक हूँ। यह पक्की बात है।

इसलिए उन साथियों को (जो पेपर देने जा रहे हैं) बेहिसाब ध्यान देना चाहिए कि वास्तव में उन्हें मेरी जैसी बीमारी की इच्छा है या फिर उन्हें पता है कि पाठ्यक्रम के बाहर ही एक बहुत बड़ी ज़ंग होती है। जीने की ज़ंग, पेट भरने की ज़ंग, सिर पर छत बनी रहे, उसकी ज़ंग...सम्मान बचा रहे उसकी ज़ंग, थोड़ा बहुत ख़ुद का रंग ज़माने से बचा कर रखे रहने की ज़ंग...कितनी जंगें हैं! यकीन मानिए बहुत आसान नहीं होता जीना। लेकिन इसी में मज़ा है। आपको ऐसे लोग बहुत मिलेंगे जो यह कहते हुए सुनाई देंगे, खुश रहो, क्योंकि ज़िंदगी इसी के लिए है। उनकी बात पूरी सही नहीं है। होता यह है कि खुशी का मतलब दुख के बाद ही पता चलता है। जैसे चैन का मतलब दर्द के बाद...जिसे पत्थरी का रोग हुआ है उससे पूछिएगा कि बे-इंतहा दर्द के बाद क्या नींद आती है जो उस दर्द से सीधे तौर से जुड़ी है! इसलिए दर्द नहीं चखा तो हैपीनेस का अचार ही होगा। हैपीनेस के पहले की ही प्रक्रिया असली या फिर ख़ालिस ज़िंदगी है। सच में। 

 ( एक बात जो मुझे बहुत अहम लगती है और वह यह कि यदि शिक्षा में जातिगत संरचना को देखे तब यह बहुत महत्वपूर्ण ज़रिया बन जाती है। जिन तबकों और लिंग को पढ़ने का हक़ हासिल किए हुए बहुत कम बरस बीते हैं उसके हिसाब से शिक्षा के ढांचों को और भी बेहतरीन करने की ज़रूरत है। क्योंकि इनका प्रतिनिधित्व अभी भी नहीं बढ़ पाया है। इसलिए मैं स्कूल-विहीन प्रणाली से पूरी तरह सहमत नहीं। उन सभी वंचित तबकों की संतुलित हिस्सेदारी कैसे तय होगी स्कूल विहीन प्रणाली वाले समाज में। आज भी जाति मिटने के बजाय और गहरी हो रही है। गरीबी अमीरी का अंतर खाई के जैसे है। भारत जैसे बड़े देश में व्यवस्था और उसके चरित्र को देखते हुए स्कूल के बिना बनने वाली प्रणाली का रूप क्या और कैसा होगा, इस पर सोचने की ज़रूरत है। शायद। क्योंकि यदि कल को बिना स्कूल का कोई ढांचा भी बन गया तो वहाँ भी ऊंची जाति और अमीर सबसे पहले कब्ज़ेदारी करेंगे। बाकियों का क्या? फिलहाल इस पर बहुत सोचे जाने की ज़रूरत है। मुझे मौक़ा दिया जाए तो मैं भी सोच सकती हूँ।) 



 

Wednesday, 15 February 2017

साधारण-प्रेम

ज़िंदगी अपनी फिक्स थी 
थोड़ी सी डिब्बे में 
तो कुछ बक्से में 
 रंग भी ज़रूरी संस्कार हैं सो  
ज़रा सी हल्दी के डिब्बे में भी रख छोड़ी थी


अपने दिन को पकाती थी 
गैस के बर्नर की नीली आग पर
दफ्तर कभी लंच बन जाता तो 
लंच कभी दफ्तर का रूप धर लेता 
काम से ही अपनी क़रीबी थी

कुछ पसीने की बूंदें और महक 
देह में चिपकाकर 
 लौट आती शाम को 
कामकाजी के पैर लेकर

रात अपनी थी 
बिलकुल अपनी 
मुझे अंधेरे से बैर नहीं था
मैंने रात का याराना कमाया था 
अपनी बनती थी 

अभी तक इश्क़ नहीं था 
हाँ, गुलमोहर के फूल ज़रूर थे 
पता नहीं क्यों मेरे मन के निकट हैं ये 
कुछ बजते गीत और साथ गुनगुनाते मेरे होंठ 
बस यही था रोमांस 

मैं ख़ुद को इतना चाहती थी 
कि कभी किसी के नाम के
फूल को भी किताब में जगह न दी 
पिचके फूल क्योंकर 
मुहब्बत की निशानी हुए 
यही सोचती थी 

पर तुम आ गए, हाँ तुम 
सब जमा थक्का लूट लिया 
हलचल मचा दी 
अजब था कि इस लुटने में 
भी मज़ा आ रहा था

फिक्स डिपॉज़िट बिना ज़रूरत 
के टूट गया, ख़ुद-ब-ख़ुद 
पहली बार मालूम चला 
कि फिक्स रहने में नीरसता है 
हम यहाँ प्रेम के लिए हैं 
हाँ शत प्रतिशत प्रेम के लिए 

पर क्या कहा जाए 'मेरी' 
साधारण परवरिश को 
तुम ठहरे आज़ाद परिंदे
और मैं नन्ही सी चिड़िया
मुझे घोंसले की ही इच्छा ले डूबी

तुम आए और क्या ख़ूब लौट गए
जैसे तुम, तुम न हो 
कोई समंदर का 
ज्वार भाटा हो 
जितने प्रेम गीत से आए 
उतने ही सन्नाटे के साथ गए

अब सन्नाता, चांटा मारता है 
हवा में दम निकलता है 
चंदनिया जैसे चिढ़ाती है
तारे मुंह बिचकाते हैं 
कल ही तो रात से झगड़ा हुआ 
अपना दोस्तना-याराना गया

ओह! मैं क्या करूँ 
मैंने तुम्हें दुबारा दस्तक़ दी 
उम्मीद के साथ दस्तक़ दी 
तुम्हारी आज़ादी के मद्देनज़र 
मैंने अपने को चिड़िया से कबूतरी 
बनाना चाहा, प्रेम की

तुम नहीं माने 
कहा 
मुझे अपने मुताबिक़ रहने दो 
प्रिया, तुम जियो बस 
मुझे एक कोने में 
पड़ा रहने दो  
 
अब फूल को किताबों के 
पन्नों में मैं पिचकाती हूँ 
थोड़ा सा गम और एक हल्की हंसी 
बस पी जाती हूँ 

कुछ दिन पहले सोचा 
ऐसे बात नहीं बनेगी 
इंसान हूँ, सो कुछ तो करूंगी 
समाधि और मोक्ष की तमन्ना में खोट है 
इसलिए चंद पेड़ लगाने का मन है 
....
बस चंद पेड़ उगाने का मन है 




Sunday, 12 February 2017

रस्म-ए-मोहब्बत

फरवरी का महीना शुरू हुए आज बारह दिन हो चुके हैं। वैसे तो प्यार, प्रेम, मोहब्बत, लाग, लगन और इश्क़ के लिए कोई भी महीना और कोई भी दिन बेहतर ही होता है। पर फरवरी के महीने की बात ही कुछ अलग है। सर्दियों की कच्ची धूप में हर दिन गुलाबी लगता है। उन लोगों को जो इश्क़ में जीते हैं, यह महीना विशेष पैकेज़ की तरह ही लगता है। इसलिए कुछ किस्सों को लिखना वाज़िब हो ही जाता है। पोस्ट की शुरुआत करने से पहले यह बात भी बता देनी ज़रूरी सी लगती है कि कुछ लोगों का यह भी कहना है कि फरवरी की लोकप्रियता के पीछे बाज़ार और उसकी बड़ी बड़ी कंपनियों का बहुत बड़ा हाथ है। मुझे नहीं पता कि इस कथन से सहमति और असहमति की कितनी ज़रूरत है? पर इससे कतराया भी नहीं जा सकता। लेकिन क्या हम अपने आपको बाज़ार और उसके करामती करतबों से अलग कर सकते हैं, यह सवाल अचानक से उठकर खड़ा हो जाता है। कहाँ कहाँ नहीं छू दिया है इस हरजाई बाज़ार ने! इसलिए यह मुमकिन हो सकता है कि फरवरी और बाज़ार का काजल और आँखों वाला रिश्ता है। 

गुलाबी और पीली किताब 'इश्क़ में शहर होना' ने तो शहर और दो लोगों से टकराने वाले स्पेस को परोस ही दिया है इसलिए मेरे लिए यह आसान भी नहीं कि मैं उसकी छाया की भी बात करूँ। मैं क्या 'अंडरलाइन' करूँ मुझे समझ नहीं आ रहा। सब कुछ समेट ही दिया है। इसलिए बचा खुचा समेटने से पहले देखने की कोशिश कर रही हूँ। कुछ देखे सुने दृश्य दिमाग में कौंध रहे हैं। नहीं लिखूँगी तो रात भर बिजली कड़कड़ाने का खेल चलता रहेगा। सो की बोर्ड वाला कलम उठा लिया है।

भारत में जितनी विविधता है उतनी ही यहाँ के 'इश्क़' में भी अलग अलग रंगत है। यहाँ पाया जाने वाला 'प्यार व्यवहार' शुरू-शुरू में अलग-अलग ज़रूर होता है पर अपने गंतव्य में वह भी 'सेक्युलर' जैसा दिखाई देने लगता है। जब शब्द 'भारत' सोचती हूँ तब एक पंक्ति मन में ख़ुद से टहलने चली आती है कि- यहाँ कुछ भी हो सकता है। हाँ, जानती हूँ कई लोग कलम से इसकी नाप तौल करने में लगे रहते हैं। पर जनाब, मुझे इस बात का पक्का यकीन है कि जब तक शहर में नहीं उतरेंगे पिया रंगरेज़ को नहीं जान पाएंगे। हमारा पिया हमारा भारत है। गाना याद आया? 'पिया ऐसो जिया में समाई गइयों रे ...के मैं तन मन की सुध बुध गंवा बैठी...उफ्फ़!!' लेकिन बात ऐसे भी नहीं जो सीधी और सादी हो। कुछ न कुछ लगा ही रहता है। आज ही तो मैं गुरदास मान साहब का एक गीत देख रही थी। जिस तरह से उन्होने उस गीत का फिल्मांकन किया है मेरा मन किया कि यूट्यूब में घुसकर उन्हें साक्षात साष्टांग प्रणाम कर दूँ। मैं नहीं बताऊँगी आपको कि क्यों? आप ख़ुद देख लीजिये।

यह सब जाने दीजिये पर छोड़िए नहीं। ज़रूरी है सोचते रहना। दूसरी बात पर आते हैं।

मेरा ख़ुद का भी मानना है कि प्रेम को हर तरह से 'सेकुलर' (सेक्युलर न पढ़िये) होना चाहिए। ऐसा जैसे नशे में झूमता हाथी, जो बस गाने के बजने का इंतज़ार कर रहा हो। गाने के बजते ही वह नाचते नाचते सूफी बन गया हो। हाँ, बहुत सारी इश्क़ की कल्पना में से एक कल्पना यह भी है। मुझे तो यही लगता है कि प्रेम को शब्दों की कोई ज़रूरत नहीं होती इसलिए वह सबके लिए ही है। और हाँ गणित में रहने वाले वे सभी रोमन अक्षर भी जो अब बूढ़े हो गए हैं फिर भी अपनी वैल्यू निकलवा रहे हैं, मतलब X Y Z भी। इनमें भी एक ख़ास तरह का सूत्र-फॉर्मूला वाला इश्क़ रहता है। पर न बंट सकने वाले इश्क़ को कितना हमने ख़ुद बांटा है, इस बात की तसदीक़ रविवार के दिन अंग्रेज़ी अख़बारों में पन्ना भर भर के आने वाले शादी वाले विज्ञापन करते हैं। किसी भी सेकुलर व्यक्ति को हिला ही देने के लिए पन्ने काफी हैं। ध्यान से देखिएगा तो पाइएगा कि भामन(ब्राह्मण), छतरी(क्षत्रिय) बेश्य(वैश्य) और सूद(शूद्र) के वर्गों में बंटे पन्ने शादी को शोर लेकर घूमते हैं। मुझे यह नहीं मालूम कि उनमें कौन से शहर का इश्क़ रहता है?

                                                   ब्रज मोहन आर्य द्वारा बनाया गया चित्र


ऊपर वाली बात को अभी यहीं रख दीजिये, लेकिन छोड़िएगा मत! आगे बढ़ते हैं।

हर बार बात फूलों से क्या जोड़ते हुए शुरू करना! कुछ जंगली होने में क्या बुराई है। बात जब इश्क़िया कहानी क़िस्सों की आती है तब हीर रांझा, सोनी महीवाल, शीरी-फरहाद, रोमियो-जूलियट, सलीम-अनारकली, शाहजहाँ-मुमताज़ (आप और प्रेमी जोड़ों को याद कर सकते हैं) आदि मशहूर जोड़ों का नाम बा-इज्ज़त लिया जाता है। हालांकि बहुत सारे रेडियो चैनलों के बाज़ार में आ जाने से और प्रेम किताबी, किताबों के छप जाने से आम लोगों के इश्क़ का मिजाज सामने आ रहा है। यह अच्छा भी है। आम लड़के और लड़कियों की प्रेम कहानियाँ जितनी दिलचस्प होती हैं उससे ज़्यादा उनके बीच के नोक-झोंक के क़िस्से उनके प्यार को और बेहतरीन बना देते हैं। उनके मिलने-जुलने में आने वाली पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रुकावटों को वे अपने अंदाज़ में जवाब देते हैं और मज़े की बात यह है कि वे इसके लिए कोई कोर्स भी नहीं करते। किसी तरह के विज्ञापन का हिस्सा नहीं बनते। ये लोग वे हैं जो जमे हुए को निरंतर तोड़ते हैं। इसलिए इनसे कुछ मुलाक़ातें तो बनती ही हैं।




क़िस्सा एक- "14 फरवरी की जगह किसी दूसरे दिन मिलें, किसी को शक़ नहीं होगा!"


चलती हुई बस में नज़मा ने अपने कान में हैंड्स फ्री लगा रखी थी। वह बहुत ही मद्धिम आवाज़ में राजेश से बोली- "इस बार क्या करना है वी डे पर...? सुनो मैंने तो कुछ प्लान बना लिया है।...इस बार खर्चा-वर्चा नहीं करेंगे। तुम्हारी आदत खराब है।... तुम कुछ सोचते ही नहीं और बेकार में खर्चा करते जाते हो। ...एक तो इतनी मेहनत करते हो और पैसों को हवा में उड़ा देते हो...!

लड़का बीच बीच में 'हम्म-हाँ' कह रहा था। संवाद को वह तोड़ना नहीं चाहता था। उसे सुनना ही पसंद है। उसे किसी दोस्त ने कहा था कि प्यार में सुनना बहुत मायने रखता है। उसने उस बात को एक सफ़ेद पर्ची पर लिखकर अपने बटुए में रख लिया था। जब भी वह नज़मा से बात नहीं कर पाता था तब उसकी तस्वीर देखता फिर फोन पर हुई बातचीत की रिकॉर्डिंग को सुन लिया करता था। दोनों ही अपने दफ़्तर की ओर ही निकले हुए थे। सफ़र का इस्तेमाल दोनों अच्छी तरह जानते थे।





दिन में सिर्फ़ दो बार ही फोन पर बात हो पाती है। एक बार सुबह और दूसरी बार दोपहर को, लंच टाइम पर। रात को तो मैसेज़ का ही सहारा था।

नज़मा ने राजेश के सुनने की लय को एक सवाल से तोड़ा। उसने यही पूछा- 'ठीक हो?'

राजेश ज़रा से 'गुलाबी' होते हुए बोला- 'तुम्हारे रहते क्या हो सकता है! अल्लाह का करम है!'

दूसरी तरफ नज़मा मुस्कुराई और बोली- 'हे भगवान, तुम तो कमाल ही बोलते हो!'...उसने आगे बात ज़ारी रखते हुए कहा- 'अच्छा ये सब रहने दो। इस बार 14 को मंगल है। अब उस दिन अगर गुलाबी सूट पहनूँगी तो भाईजान की नज़रें सबसे पहले सवाल दाग़ देंगी। घर में तहलका मचेगा सो अलग। इसलिए या तो 14 के बाद अपना सेलिब्रेशन रखते हैं या फिर मेरी दोस्त के जन्मदिन पर। उस दिन किसी को शक़ भी नहीं होगा। तुम्हारा क्या ख़याल है?'

शायद राजेश ने मायूसी वाला हाँ कहा होगा जो हैंड्स फ्री के रास्ते से होते हुए नज़मा के कानों में पहुंचा होगा। इनके क़रीबी दोस्त इन्हें प्यार से 'हैंड्स फ्री जोड़ा' कहकर पुकारते हैं। कई लोग इन्हें सलाह दे चुके हैं कि हिन्दू मुसलमान की शादी में बहुत पंगे आते हैं। दोनों ने बहुत कोशिश भी की कि ख़ुद से रिश्ता ख़त्म कर दें। पर इसी बीच आमिर खान की फिल्म का गाना न जाने कहाँ से बज गया- "दिल है कि मानता नहीं...मुश्किल बड़ी है रस्म-ए मोहब्बत ये जानता ही नहीं ...!" फिर क्या !! दोनों ने दिल की सुन ली और भारत जीत गया।



Monday, 6 February 2017

यह जो ज़रा सी बात है

ब्लॉग लिखने का लालच मुझे सोचने की तरफ खींच ही लाता है। मन में हल्की वाली एक नोक-झोंक होती है कि जब कोई मुक्कमल ख़याल ही नहीं है तो क्या लिखोगी! यह बड़ी दिलचस्प लड़ाई है अपने अंदर। एक जद्दोजहद है। अपने भीतर के हादसों में भी बहुत कुछ रचनात्मक बैठा होता है। और मैं समझती हूँ कि बाहर के झगड़े से मुनासिब अपने अंदर के झगड़े में उलझना है। जीती, तो मेरा सुधार और जो हारी, तो भी मेरा सुधार। बात सुधार की भी नहीं है।...शायद अपने तजुर्बों की बनावट की है।

काफी दिनों पहले एक पंक्ति पढ़ी थी- 'अगर आप मन के ग़ुलाम हैं तो आप बीमार हैं।' बात सही भी लगी और नहीं भी। सही इस मायने में कि मन में हर चीज़ या रिश्ते के प्रति एक लालच ज़रूर आता है। मुझे बेसन के लड्डू का लालच बचपन में बहुत ज़बरदस्त रहता था। इससे जुड़ी एक घटना याद आती है। किसी पूजा के समय घर में बेसन के लड्डू भरपूर मात्रा में लाये गए थे। मुझे कड़ी हिदायत दी गई थी कि ज्योति तुम मत लेना वरना डांट खाओगी। पूजा का सामान किसी दूसरे कमरे में रखा गया था। जब भी मुझे उस कमरे में कुछ सामान लाने के लिए भेजा जाता तब मुझे उनकी महक आ जाती। मुझसे रहा ही नहीं गया और मैंने शिवजी के आगे कहा- 'मेरी मम्मी को माफ़ कर देना। मैं लड्डू खा लूँ, मुझ से रहा नहीं जा रहा!' मैंने मूर्ति की ओर देखे बिना ही सिर्फ़ एक लड्डू काँपते हाथों से उठाया और गप्प से मुंह में रख लिया। मैंने अपना लालच पूरा तो कर लिया पर कई दिन तक मन में एक पछतावा रहा। मैंने इस राज़ को लगभग एक हफ़्ते बाद माँ के आगे खोल दिया। लेकिन मुझे इसके लिए डांटा नहीं गया। माँ ने यही कहा- 'अच्छा कोई बात नहीं। शिव जी बच्चों के कामों का बुरा नहीं मानते।' उस दिन के बाद आज तक बार-बार अपने लालच पर एक नज़र रखती हूँ। ऐसा भी नहीं है कि मैंने लालच पर जीत हासिल कर ली है। मुझे ऐसा नहीं करना। थोड़ा बहुत तो रहता ही है।

ज़रूरी नहीं कि सीखना स्कूल से ही सीखा जाता है। आप ध्यान देंगे तो पाएंगे बहुत छोटे छोटे चैप्टर सीखने की शुरुआत बचपन से ही हो जाती है। और यह ताउम्र चलता ही रहता है। कुछ दिनों पहले किसी के एक छोटे से सवाल से मैं पूरी तरह सकपका गई। इस बात पर मेरी निगाह उतनी नहीं जा पाई थी। मुझे लगता था कि यह स्वाभाविक है। साहब का सवाल मुझे ठीक तरह से याद नहीं आ रहा पर सवाल कुछ ऐसा था- 'तुमने लास्ट टाइम कब गुस्सा किया?' मैंने सवाल का जवाब तुरंत दिया- क्यो? ...अभी तीन घंटे पहले ही मैंने गुस्सा किया।' उन्हों ने मुझे अपने बारे में बताया कि उन्हें गुस्सा आए हुए कई महीने गुज़र जाते हैं अक्सर। उनसे बात करने के बाद में कई घंटों तक अपने गुस्से होने की संख्या सोचने लगी। धीर धीरे वो सब दिखाई दिया जो मैंने अपने गुज़रे हुए दिनों में किया। अपनों पर, दोस्तों पर, बच्चों पर, लोगों पर, सरकार पर, पुलिस वालों पर, हर किसी पर, जो मुझसे मिला या टकराया। लगभग किसी को भी बख़्शा नहीं था। ऐसा नहीं है कि मैंने ही गुस्सा किया। बदले में मुझ पर भी पर्याप्त मात्रा में गुस्से की ताबड़तोड़ बौछारें हुई हैं।



(देखिये अभी धरती मैया को भी गुस्सा आ गया। भूकंप के ताज़े और सरासर नए झटके मैंने ब्लॉग लिखते हुए महसूस किए हैं।)

अब बात मन की ग़ुलामी करने के दूसरे पक्ष की, करती हूँ। मुझे लगता है कई बार गुस्सा जायज़ भी होता है। यह भी स्वाभाविक प्रतिक्रिया है, जैसे हमारे हंसने और रोने की तरह। कई बार गुस्सा न करने से काम बिगड़ जाते हैं या फिर दब्बूपना सा मन में घुसने लगता है। मुझे सन्  2012 का साल याद आ रहा है। उस समय मेरे पिताजी का किसी निजी अस्पताल में आँखों का ऑपरेशन हुआ था। डॉक्टरों ने मेरे पिता की एक आँख की सर्जरी करने में 6 घंटों का समय लिया। उसके बाद मुझे कई दवाइयों के नाम लिख कर दिये और कहा गया कि जल्दी ले आइये। मैं सभी दवाइयाँ बड़ी मुस्तैदी से खरीद लाई और उन्हें पकड़ा दी। इसके बावजूद उनमें से केवल एक या दो ही दवाइयों का इस्तेमाल किया गया। बाक़ी न जाने कहाँ क्या हुई, राम जाने! ऑपरेशन के अगले दिन जब आँख की पट्टी खोली गई तब पिताजी ने बताया कि कुछ दिख नहीं रहा। अब सभी डॉक्टर बारी बारी से टॉर्च जलाकर आँखों का मुआयना करने लगे जिससे उन्हें और तकलीफ़ शुरू हुई। मैं यह सब देखकर एकाएक चिल्ला पड़ी। तुरंत यह कहा- 'अगले दो घंटों में अगर इन्हें दिखा नहीं तो आप लोगों को मैं छोड़ने वाली नहीं हूँ। सबसे पहले पुलिस में शिकायत ही करूंगी।...' मैंने और भी कई बातें उन सभी को सुनाई और बदले में उन्हों ने भी मुझे सुनाया। न मालूम उन पर मेरी किस बात का असर हुआ तब किसी दूसरे अस्पताल से एक पूरी टीम बुलाई गई और मात्र एक घंटे में सब काम बेहद अच्छे से कर दिया गया।

इसके बाद मुझे अपनी ड्यूटी बजाने भी जाना था। कुछ दिनों बाद मेरे पिता ने मुझे बताया- 'तुम्हारे जाने के बाद वो लोग मुझसे पूछ रहे थे कि वो लड़की आपकी क्या लगती है? उनसे कहिएगा कि वो कहीं शिकायत न करें। हम आपके ऑपरेशन की फीस भी नहीं मांगेंगे।...आप चाहे तो उन्हें अच्छी तरह से समझा सकते हैं...हम भी इंसान हैं। गलतियाँ हो जाती हैं...!'

मैंने अपना पूरा मन बना लिया था कि इन्हें छोड़ना नहीं है। आज हमारे साथ किया है कल किसी और के साथ करेंगे। ...पर मुझे पिता ने कहा जाने दो...मैंने भी जाने दिया। हालांकि मुझे इस बात का अफ़सोस है कि मैंने उनकी शिकायत नहीं की। लेकिन इस बात की खुशी थी की सही समय पर अगर गुस्सा न आया होता तो वो लोग और सताते।



मैंने कुछ ऐसे लोगों के बारे में सुना है जो मन की शांति के लिए तमाम तरह के कोर्स करते हैं। कई लोग कितने ही बाबाओं की शरण में जाते हैं। हाथ दिखाते हैं। भविष्य जानते हैं। सुख दुख की नाप तौल करते हैं। हीरे, मोती-मुनके, पत्थर और ताबीज़ पहनते हैं, वे सभी लोग एक वक़्त मुझे बहुत ही खराब लगते थे। पर आज जब उनके बारे में सुनती हूँ या देखती हूँ तब यही लगता है कि शायद ये सभी लोग इन रास्तों से गुज़र कर हर चीज़ को परखने का हक़ तो रखते ही हैं। क्या पता एक समय आएगा जब उनका यकीन बदल जाएगा। हालांकि मैं निजी तौर पर इनमें सी किसी का समर्थन नहीं करती। बल्कि इन सब को अंधविश्वास ही समझती हूँ। ...फिर भी लोगों की जिंदगी में मुझे दखल देने का हक़ नहीं। उन्हें उनके तरीके से अपनी ज़िंदगी को बहाने का हक़ है और मुझे अपने। तवज्जो तो इस बात पर है कि हम सभी अनुभवों को बटोरते जाएँ और अपने एक पड़ाव पर देख लें कि कौन सा अनुभव क्या सिखाने की कोशिश कर रहा है।

मुझे इस समय यह बिलकुल नहीं मालूम कि भविष्य में क्या मैं भी कोई मन की शांति वाला कोर्स करने वाली हूँ या नहीं...फिलहाल तो मेरा ध्यान दिन के बीतने के बाद अनुभवों के पकने पर है। जैसे हमारे सिर के बाल धूप, बारिश, आँधी, धूल आदि को देखने-सहने के बाद अपनी रंगत बदलने लगते हैं और वैसे ही बन जाते हैं जैसा उन्हें एक वक़्त बाद बनना चाहिए, ठीक उसी तरह मुझे और मेरे मन को अपने पकने का इंतज़ार है। हालांकि मैं बालों की तरह सफ़ेद रंगत में नहीं आऊँगी पर उस झुर्रियोंदार चेहरे की कल्पना कर ही सकती हूँ जो मेरी गर्दन के ऊपर रखा गया है। सौ बात की एक बात- सहज ही जीते जाइए और खुद में ही एक कोर्स के रूप में विकसित हो जाइए। वह कोर्स ऐसा होगा जिसका पाठ्यक्रम बनाने और क्रियान्वयन करने वाले आप खुद ही होंगे। अपने पर भी तो गर्व करना आना चाहिए। कब तक बाक़ी लोगों पर करते फिरेंगे!   








 






     

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