फरवरी का महीना शुरू हुए आज बारह दिन हो चुके हैं। वैसे तो प्यार, प्रेम, मोहब्बत, लाग, लगन और इश्क़ के लिए कोई भी महीना और कोई भी दिन बेहतर ही होता है। पर फरवरी के महीने की बात ही कुछ अलग है। सर्दियों की कच्ची धूप में हर दिन गुलाबी लगता है। उन लोगों को जो इश्क़ में जीते हैं, यह महीना विशेष पैकेज़ की तरह ही लगता है। इसलिए कुछ किस्सों को लिखना वाज़िब हो ही जाता है। पोस्ट की शुरुआत करने से पहले यह बात भी बता देनी ज़रूरी सी लगती है कि कुछ लोगों का यह भी कहना है कि फरवरी की लोकप्रियता के पीछे बाज़ार और उसकी बड़ी बड़ी कंपनियों का बहुत बड़ा हाथ है। मुझे नहीं पता कि इस कथन से सहमति और असहमति की कितनी ज़रूरत है? पर इससे कतराया भी नहीं जा सकता। लेकिन क्या हम अपने आपको बाज़ार और उसके करामती करतबों से अलग कर सकते हैं, यह सवाल अचानक से उठकर खड़ा हो जाता है। कहाँ कहाँ नहीं छू दिया है इस हरजाई बाज़ार ने! इसलिए यह मुमकिन हो सकता है कि फरवरी और बाज़ार का काजल और आँखों वाला रिश्ता है।
गुलाबी और पीली किताब 'इश्क़ में शहर होना' ने तो शहर और दो लोगों से टकराने वाले स्पेस को परोस ही दिया है इसलिए मेरे लिए यह आसान भी नहीं कि मैं उसकी छाया की भी बात करूँ। मैं क्या 'अंडरलाइन' करूँ मुझे समझ नहीं आ रहा। सब कुछ समेट ही दिया है। इसलिए बचा खुचा समेटने से पहले देखने की कोशिश कर रही हूँ। कुछ देखे सुने दृश्य दिमाग में कौंध रहे हैं। नहीं लिखूँगी तो रात भर बिजली कड़कड़ाने का खेल चलता रहेगा। सो की बोर्ड वाला कलम उठा लिया है।
भारत में जितनी विविधता है उतनी ही यहाँ के 'इश्क़' में भी अलग अलग रंगत है। यहाँ पाया जाने वाला 'प्यार व्यवहार' शुरू-शुरू में अलग-अलग ज़रूर होता है पर अपने गंतव्य में वह भी 'सेक्युलर' जैसा दिखाई देने लगता है। जब शब्द 'भारत' सोचती हूँ तब एक पंक्ति मन में ख़ुद से टहलने चली आती है कि- यहाँ कुछ भी हो सकता है। हाँ, जानती हूँ कई लोग कलम से इसकी नाप तौल करने में लगे रहते हैं। पर जनाब, मुझे इस बात का पक्का यकीन है कि जब तक शहर में नहीं उतरेंगे पिया रंगरेज़ को नहीं जान पाएंगे। हमारा पिया हमारा भारत है। गाना याद आया? 'पिया ऐसो जिया में समाई गइयों रे ...के मैं तन मन की सुध बुध गंवा बैठी...उफ्फ़!!' लेकिन बात ऐसे भी नहीं जो सीधी और सादी हो। कुछ न कुछ लगा ही रहता है। आज ही तो मैं गुरदास मान साहब का एक गीत देख रही थी। जिस तरह से उन्होने उस गीत का फिल्मांकन किया है मेरा मन किया कि यूट्यूब में घुसकर उन्हें साक्षात साष्टांग प्रणाम कर दूँ। मैं नहीं बताऊँगी आपको कि क्यों? आप ख़ुद देख लीजिये।
यह सब जाने दीजिये पर छोड़िए नहीं। ज़रूरी है सोचते रहना। दूसरी बात पर आते हैं।
मेरा ख़ुद का भी मानना है कि प्रेम को हर तरह से 'सेकुलर' (सेक्युलर न पढ़िये) होना चाहिए। ऐसा जैसे नशे में झूमता हाथी, जो बस गाने के बजने का इंतज़ार कर रहा हो। गाने के बजते ही वह नाचते नाचते सूफी बन गया हो। हाँ, बहुत सारी इश्क़ की कल्पना में से एक कल्पना यह भी है। मुझे तो यही लगता है कि प्रेम को शब्दों की कोई ज़रूरत नहीं होती इसलिए वह सबके लिए ही है। और हाँ गणित में रहने वाले वे सभी रोमन अक्षर भी जो अब बूढ़े हो गए हैं फिर भी अपनी वैल्यू निकलवा रहे हैं, मतलब X Y Z भी। इनमें भी एक ख़ास तरह का सूत्र-फॉर्मूला वाला इश्क़ रहता है। पर न बंट सकने वाले इश्क़ को कितना हमने ख़ुद बांटा है, इस बात की तसदीक़ रविवार के दिन अंग्रेज़ी अख़बारों में पन्ना भर भर के आने वाले शादी वाले विज्ञापन करते हैं। किसी भी सेकुलर व्यक्ति को हिला ही देने के लिए पन्ने काफी हैं। ध्यान से देखिएगा तो पाइएगा कि भामन(ब्राह्मण), छतरी(क्षत्रिय) बेश्य(वैश्य) और सूद(शूद्र) के वर्गों में बंटे पन्ने शादी को शोर लेकर घूमते हैं। मुझे यह नहीं मालूम कि उनमें कौन से शहर का इश्क़ रहता है?
ब्रज मोहन आर्य द्वारा बनाया गया चित्र
ऊपर वाली बात को अभी यहीं रख दीजिये, लेकिन छोड़िएगा मत! आगे बढ़ते हैं।
हर बार बात फूलों से क्या जोड़ते हुए शुरू करना! कुछ जंगली होने में क्या बुराई है। बात जब इश्क़िया कहानी क़िस्सों की आती है तब हीर रांझा, सोनी महीवाल, शीरी-फरहाद, रोमियो-जूलियट, सलीम-अनारकली, शाहजहाँ-मुमताज़ (आप और प्रेमी जोड़ों को याद कर सकते हैं) आदि मशहूर जोड़ों का नाम बा-इज्ज़त लिया जाता है। हालांकि बहुत सारे रेडियो चैनलों के बाज़ार में आ जाने से और प्रेम किताबी, किताबों के छप जाने से आम लोगों के इश्क़ का मिजाज सामने आ रहा है। यह अच्छा भी है। आम लड़के और लड़कियों की प्रेम कहानियाँ जितनी दिलचस्प होती हैं उससे ज़्यादा उनके बीच के नोक-झोंक के क़िस्से उनके प्यार को और बेहतरीन बना देते हैं। उनके मिलने-जुलने में आने वाली पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रुकावटों को वे अपने अंदाज़ में जवाब देते हैं और मज़े की बात यह है कि वे इसके लिए कोई कोर्स भी नहीं करते। किसी तरह के विज्ञापन का हिस्सा नहीं बनते। ये लोग वे हैं जो जमे हुए को निरंतर तोड़ते हैं। इसलिए इनसे कुछ मुलाक़ातें तो बनती ही हैं।
क़िस्सा एक- "14 फरवरी की जगह किसी दूसरे दिन मिलें, किसी को शक़ नहीं होगा!"
चलती हुई बस में नज़मा ने अपने कान में हैंड्स फ्री लगा रखी थी। वह बहुत ही मद्धिम आवाज़ में राजेश से बोली- "इस बार क्या करना है वी डे पर...? सुनो मैंने तो कुछ प्लान बना लिया है।...इस बार खर्चा-वर्चा नहीं करेंगे। तुम्हारी आदत खराब है।... तुम कुछ सोचते ही नहीं और बेकार में खर्चा करते जाते हो। ...एक तो इतनी मेहनत करते हो और पैसों को हवा में उड़ा देते हो...!
लड़का बीच बीच में 'हम्म-हाँ' कह रहा था। संवाद को वह तोड़ना नहीं चाहता था। उसे सुनना ही पसंद है। उसे किसी दोस्त ने कहा था कि प्यार में सुनना बहुत मायने रखता है। उसने उस बात को एक सफ़ेद पर्ची पर लिखकर अपने बटुए में रख लिया था। जब भी वह नज़मा से बात नहीं कर पाता था तब उसकी तस्वीर देखता फिर फोन पर हुई बातचीत की रिकॉर्डिंग को सुन लिया करता था। दोनों ही अपने दफ़्तर की ओर ही निकले हुए थे। सफ़र का इस्तेमाल दोनों अच्छी तरह जानते थे।
दिन में सिर्फ़ दो बार ही फोन पर बात हो पाती है। एक बार सुबह और दूसरी बार दोपहर को, लंच टाइम पर। रात को तो मैसेज़ का ही सहारा था।
नज़मा ने राजेश के सुनने की लय को एक सवाल से तोड़ा। उसने यही पूछा- 'ठीक हो?'
राजेश ज़रा से 'गुलाबी' होते हुए बोला- 'तुम्हारे रहते क्या हो सकता है! अल्लाह का करम है!'
दूसरी तरफ नज़मा मुस्कुराई और बोली- 'हे भगवान, तुम तो कमाल ही बोलते हो!'...उसने आगे बात ज़ारी रखते हुए कहा- 'अच्छा ये सब रहने दो। इस बार 14 को मंगल है। अब उस दिन अगर गुलाबी सूट पहनूँगी तो भाईजान की नज़रें सबसे पहले सवाल दाग़ देंगी। घर में तहलका मचेगा सो अलग। इसलिए या तो 14 के बाद अपना सेलिब्रेशन रखते हैं या फिर मेरी दोस्त के जन्मदिन पर। उस दिन किसी को शक़ भी नहीं होगा। तुम्हारा क्या ख़याल है?'
शायद राजेश ने मायूसी वाला हाँ कहा होगा जो हैंड्स फ्री के रास्ते से होते हुए नज़मा के कानों में पहुंचा होगा। इनके क़रीबी दोस्त इन्हें प्यार से 'हैंड्स फ्री जोड़ा' कहकर पुकारते हैं। कई लोग इन्हें सलाह दे चुके हैं कि हिन्दू मुसलमान की शादी में बहुत पंगे आते हैं। दोनों ने बहुत कोशिश भी की कि ख़ुद से रिश्ता ख़त्म कर दें। पर इसी बीच आमिर खान की फिल्म का गाना न जाने कहाँ से बज गया- "दिल है कि मानता नहीं...मुश्किल बड़ी है रस्म-ए मोहब्बत ये जानता ही नहीं ...!" फिर क्या !! दोनों ने दिल की सुन ली और भारत जीत गया।
गुलाबी और पीली किताब 'इश्क़ में शहर होना' ने तो शहर और दो लोगों से टकराने वाले स्पेस को परोस ही दिया है इसलिए मेरे लिए यह आसान भी नहीं कि मैं उसकी छाया की भी बात करूँ। मैं क्या 'अंडरलाइन' करूँ मुझे समझ नहीं आ रहा। सब कुछ समेट ही दिया है। इसलिए बचा खुचा समेटने से पहले देखने की कोशिश कर रही हूँ। कुछ देखे सुने दृश्य दिमाग में कौंध रहे हैं। नहीं लिखूँगी तो रात भर बिजली कड़कड़ाने का खेल चलता रहेगा। सो की बोर्ड वाला कलम उठा लिया है।
भारत में जितनी विविधता है उतनी ही यहाँ के 'इश्क़' में भी अलग अलग रंगत है। यहाँ पाया जाने वाला 'प्यार व्यवहार' शुरू-शुरू में अलग-अलग ज़रूर होता है पर अपने गंतव्य में वह भी 'सेक्युलर' जैसा दिखाई देने लगता है। जब शब्द 'भारत' सोचती हूँ तब एक पंक्ति मन में ख़ुद से टहलने चली आती है कि- यहाँ कुछ भी हो सकता है। हाँ, जानती हूँ कई लोग कलम से इसकी नाप तौल करने में लगे रहते हैं। पर जनाब, मुझे इस बात का पक्का यकीन है कि जब तक शहर में नहीं उतरेंगे पिया रंगरेज़ को नहीं जान पाएंगे। हमारा पिया हमारा भारत है। गाना याद आया? 'पिया ऐसो जिया में समाई गइयों रे ...के मैं तन मन की सुध बुध गंवा बैठी...उफ्फ़!!' लेकिन बात ऐसे भी नहीं जो सीधी और सादी हो। कुछ न कुछ लगा ही रहता है। आज ही तो मैं गुरदास मान साहब का एक गीत देख रही थी। जिस तरह से उन्होने उस गीत का फिल्मांकन किया है मेरा मन किया कि यूट्यूब में घुसकर उन्हें साक्षात साष्टांग प्रणाम कर दूँ। मैं नहीं बताऊँगी आपको कि क्यों? आप ख़ुद देख लीजिये।
यह सब जाने दीजिये पर छोड़िए नहीं। ज़रूरी है सोचते रहना। दूसरी बात पर आते हैं।
मेरा ख़ुद का भी मानना है कि प्रेम को हर तरह से 'सेकुलर' (सेक्युलर न पढ़िये) होना चाहिए। ऐसा जैसे नशे में झूमता हाथी, जो बस गाने के बजने का इंतज़ार कर रहा हो। गाने के बजते ही वह नाचते नाचते सूफी बन गया हो। हाँ, बहुत सारी इश्क़ की कल्पना में से एक कल्पना यह भी है। मुझे तो यही लगता है कि प्रेम को शब्दों की कोई ज़रूरत नहीं होती इसलिए वह सबके लिए ही है। और हाँ गणित में रहने वाले वे सभी रोमन अक्षर भी जो अब बूढ़े हो गए हैं फिर भी अपनी वैल्यू निकलवा रहे हैं, मतलब X Y Z भी। इनमें भी एक ख़ास तरह का सूत्र-फॉर्मूला वाला इश्क़ रहता है। पर न बंट सकने वाले इश्क़ को कितना हमने ख़ुद बांटा है, इस बात की तसदीक़ रविवार के दिन अंग्रेज़ी अख़बारों में पन्ना भर भर के आने वाले शादी वाले विज्ञापन करते हैं। किसी भी सेकुलर व्यक्ति को हिला ही देने के लिए पन्ने काफी हैं। ध्यान से देखिएगा तो पाइएगा कि भामन(ब्राह्मण), छतरी(क्षत्रिय) बेश्य(वैश्य) और सूद(शूद्र) के वर्गों में बंटे पन्ने शादी को शोर लेकर घूमते हैं। मुझे यह नहीं मालूम कि उनमें कौन से शहर का इश्क़ रहता है?
ब्रज मोहन आर्य द्वारा बनाया गया चित्र
ऊपर वाली बात को अभी यहीं रख दीजिये, लेकिन छोड़िएगा मत! आगे बढ़ते हैं।
हर बार बात फूलों से क्या जोड़ते हुए शुरू करना! कुछ जंगली होने में क्या बुराई है। बात जब इश्क़िया कहानी क़िस्सों की आती है तब हीर रांझा, सोनी महीवाल, शीरी-फरहाद, रोमियो-जूलियट, सलीम-अनारकली, शाहजहाँ-मुमताज़ (आप और प्रेमी जोड़ों को याद कर सकते हैं) आदि मशहूर जोड़ों का नाम बा-इज्ज़त लिया जाता है। हालांकि बहुत सारे रेडियो चैनलों के बाज़ार में आ जाने से और प्रेम किताबी, किताबों के छप जाने से आम लोगों के इश्क़ का मिजाज सामने आ रहा है। यह अच्छा भी है। आम लड़के और लड़कियों की प्रेम कहानियाँ जितनी दिलचस्प होती हैं उससे ज़्यादा उनके बीच के नोक-झोंक के क़िस्से उनके प्यार को और बेहतरीन बना देते हैं। उनके मिलने-जुलने में आने वाली पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रुकावटों को वे अपने अंदाज़ में जवाब देते हैं और मज़े की बात यह है कि वे इसके लिए कोई कोर्स भी नहीं करते। किसी तरह के विज्ञापन का हिस्सा नहीं बनते। ये लोग वे हैं जो जमे हुए को निरंतर तोड़ते हैं। इसलिए इनसे कुछ मुलाक़ातें तो बनती ही हैं।
क़िस्सा एक- "14 फरवरी की जगह किसी दूसरे दिन मिलें, किसी को शक़ नहीं होगा!"
चलती हुई बस में नज़मा ने अपने कान में हैंड्स फ्री लगा रखी थी। वह बहुत ही मद्धिम आवाज़ में राजेश से बोली- "इस बार क्या करना है वी डे पर...? सुनो मैंने तो कुछ प्लान बना लिया है।...इस बार खर्चा-वर्चा नहीं करेंगे। तुम्हारी आदत खराब है।... तुम कुछ सोचते ही नहीं और बेकार में खर्चा करते जाते हो। ...एक तो इतनी मेहनत करते हो और पैसों को हवा में उड़ा देते हो...!
लड़का बीच बीच में 'हम्म-हाँ' कह रहा था। संवाद को वह तोड़ना नहीं चाहता था। उसे सुनना ही पसंद है। उसे किसी दोस्त ने कहा था कि प्यार में सुनना बहुत मायने रखता है। उसने उस बात को एक सफ़ेद पर्ची पर लिखकर अपने बटुए में रख लिया था। जब भी वह नज़मा से बात नहीं कर पाता था तब उसकी तस्वीर देखता फिर फोन पर हुई बातचीत की रिकॉर्डिंग को सुन लिया करता था। दोनों ही अपने दफ़्तर की ओर ही निकले हुए थे। सफ़र का इस्तेमाल दोनों अच्छी तरह जानते थे।
दिन में सिर्फ़ दो बार ही फोन पर बात हो पाती है। एक बार सुबह और दूसरी बार दोपहर को, लंच टाइम पर। रात को तो मैसेज़ का ही सहारा था।
नज़मा ने राजेश के सुनने की लय को एक सवाल से तोड़ा। उसने यही पूछा- 'ठीक हो?'
राजेश ज़रा से 'गुलाबी' होते हुए बोला- 'तुम्हारे रहते क्या हो सकता है! अल्लाह का करम है!'
दूसरी तरफ नज़मा मुस्कुराई और बोली- 'हे भगवान, तुम तो कमाल ही बोलते हो!'...उसने आगे बात ज़ारी रखते हुए कहा- 'अच्छा ये सब रहने दो। इस बार 14 को मंगल है। अब उस दिन अगर गुलाबी सूट पहनूँगी तो भाईजान की नज़रें सबसे पहले सवाल दाग़ देंगी। घर में तहलका मचेगा सो अलग। इसलिए या तो 14 के बाद अपना सेलिब्रेशन रखते हैं या फिर मेरी दोस्त के जन्मदिन पर। उस दिन किसी को शक़ भी नहीं होगा। तुम्हारा क्या ख़याल है?'
शायद राजेश ने मायूसी वाला हाँ कहा होगा जो हैंड्स फ्री के रास्ते से होते हुए नज़मा के कानों में पहुंचा होगा। इनके क़रीबी दोस्त इन्हें प्यार से 'हैंड्स फ्री जोड़ा' कहकर पुकारते हैं। कई लोग इन्हें सलाह दे चुके हैं कि हिन्दू मुसलमान की शादी में बहुत पंगे आते हैं। दोनों ने बहुत कोशिश भी की कि ख़ुद से रिश्ता ख़त्म कर दें। पर इसी बीच आमिर खान की फिल्म का गाना न जाने कहाँ से बज गया- "दिल है कि मानता नहीं...मुश्किल बड़ी है रस्म-ए मोहब्बत ये जानता ही नहीं ...!" फिर क्या !! दोनों ने दिल की सुन ली और भारत जीत गया।
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