ब्लॉग लिखने का लालच मुझे सोचने की तरफ खींच ही लाता है। मन में हल्की वाली एक नोक-झोंक होती है कि जब कोई मुक्कमल ख़याल ही नहीं है तो क्या लिखोगी! यह बड़ी दिलचस्प लड़ाई है अपने अंदर। एक जद्दोजहद है। अपने भीतर के हादसों में भी बहुत कुछ रचनात्मक बैठा होता है। और मैं समझती हूँ कि बाहर के झगड़े से मुनासिब अपने अंदर के झगड़े में उलझना है। जीती, तो मेरा सुधार और जो हारी, तो भी मेरा सुधार। बात सुधार की भी नहीं है।...शायद अपने तजुर्बों की बनावट की है।
काफी दिनों पहले एक पंक्ति पढ़ी थी- 'अगर आप मन के ग़ुलाम हैं तो आप बीमार हैं।' बात सही भी लगी और नहीं भी। सही इस मायने में कि मन में हर चीज़ या रिश्ते के प्रति एक लालच ज़रूर आता है। मुझे बेसन के लड्डू का लालच बचपन में बहुत ज़बरदस्त रहता था। इससे जुड़ी एक घटना याद आती है। किसी पूजा के समय घर में बेसन के लड्डू भरपूर मात्रा में लाये गए थे। मुझे कड़ी हिदायत दी गई थी कि ज्योति तुम मत लेना वरना डांट खाओगी। पूजा का सामान किसी दूसरे कमरे में रखा गया था। जब भी मुझे उस कमरे में कुछ सामान लाने के लिए भेजा जाता तब मुझे उनकी महक आ जाती। मुझसे रहा ही नहीं गया और मैंने शिवजी के आगे कहा- 'मेरी मम्मी को माफ़ कर देना। मैं लड्डू खा लूँ, मुझ से रहा नहीं जा रहा!' मैंने मूर्ति की ओर देखे बिना ही सिर्फ़ एक लड्डू काँपते हाथों से उठाया और गप्प से मुंह में रख लिया। मैंने अपना लालच पूरा तो कर लिया पर कई दिन तक मन में एक पछतावा रहा। मैंने इस राज़ को लगभग एक हफ़्ते बाद माँ के आगे खोल दिया। लेकिन मुझे इसके लिए डांटा नहीं गया। माँ ने यही कहा- 'अच्छा कोई बात नहीं। शिव जी बच्चों के कामों का बुरा नहीं मानते।' उस दिन के बाद आज तक बार-बार अपने लालच पर एक नज़र रखती हूँ। ऐसा भी नहीं है कि मैंने लालच पर जीत हासिल कर ली है। मुझे ऐसा नहीं करना। थोड़ा बहुत तो रहता ही है।
ज़रूरी नहीं कि सीखना स्कूल से ही सीखा जाता है। आप ध्यान देंगे तो पाएंगे बहुत छोटे छोटे चैप्टर सीखने की शुरुआत बचपन से ही हो जाती है। और यह ताउम्र चलता ही रहता है। कुछ दिनों पहले किसी के एक छोटे से सवाल से मैं पूरी तरह सकपका गई। इस बात पर मेरी निगाह उतनी नहीं जा पाई थी। मुझे लगता था कि यह स्वाभाविक है। साहब का सवाल मुझे ठीक तरह से याद नहीं आ रहा पर सवाल कुछ ऐसा था- 'तुमने लास्ट टाइम कब गुस्सा किया?' मैंने सवाल का जवाब तुरंत दिया- क्यो? ...अभी तीन घंटे पहले ही मैंने गुस्सा किया।' उन्हों ने मुझे अपने बारे में बताया कि उन्हें गुस्सा आए हुए कई महीने गुज़र जाते हैं अक्सर। उनसे बात करने के बाद में कई घंटों तक अपने गुस्से होने की संख्या सोचने लगी। धीर धीरे वो सब दिखाई दिया जो मैंने अपने गुज़रे हुए दिनों में किया। अपनों पर, दोस्तों पर, बच्चों पर, लोगों पर, सरकार पर, पुलिस वालों पर, हर किसी पर, जो मुझसे मिला या टकराया। लगभग किसी को भी बख़्शा नहीं था। ऐसा नहीं है कि मैंने ही गुस्सा किया। बदले में मुझ पर भी पर्याप्त मात्रा में गुस्से की ताबड़तोड़ बौछारें हुई हैं।
(देखिये अभी धरती मैया को भी गुस्सा आ गया। भूकंप के ताज़े और सरासर नए झटके मैंने ब्लॉग लिखते हुए महसूस किए हैं।)
अब बात मन की ग़ुलामी करने के दूसरे पक्ष की, करती हूँ। मुझे लगता है कई बार गुस्सा जायज़ भी होता है। यह भी स्वाभाविक प्रतिक्रिया है, जैसे हमारे हंसने और रोने की तरह। कई बार गुस्सा न करने से काम बिगड़ जाते हैं या फिर दब्बूपना सा मन में घुसने लगता है। मुझे सन् 2012 का साल याद आ रहा है। उस समय मेरे पिताजी का किसी निजी अस्पताल में आँखों का ऑपरेशन हुआ था। डॉक्टरों ने मेरे पिता की एक आँख की सर्जरी करने में 6 घंटों का समय लिया। उसके बाद मुझे कई दवाइयों के नाम लिख कर दिये और कहा गया कि जल्दी ले आइये। मैं सभी दवाइयाँ बड़ी मुस्तैदी से खरीद लाई और उन्हें पकड़ा दी। इसके बावजूद उनमें से केवल एक या दो ही दवाइयों का इस्तेमाल किया गया। बाक़ी न जाने कहाँ क्या हुई, राम जाने! ऑपरेशन के अगले दिन जब आँख की पट्टी खोली गई तब पिताजी ने बताया कि कुछ दिख नहीं रहा। अब सभी डॉक्टर बारी बारी से टॉर्च जलाकर आँखों का मुआयना करने लगे जिससे उन्हें और तकलीफ़ शुरू हुई। मैं यह सब देखकर एकाएक चिल्ला पड़ी। तुरंत यह कहा- 'अगले दो घंटों में अगर इन्हें दिखा नहीं तो आप लोगों को मैं छोड़ने वाली नहीं हूँ। सबसे पहले पुलिस में शिकायत ही करूंगी।...' मैंने और भी कई बातें उन सभी को सुनाई और बदले में उन्हों ने भी मुझे सुनाया। न मालूम उन पर मेरी किस बात का असर हुआ तब किसी दूसरे अस्पताल से एक पूरी टीम बुलाई गई और मात्र एक घंटे में सब काम बेहद अच्छे से कर दिया गया।
इसके बाद मुझे अपनी ड्यूटी बजाने भी जाना था। कुछ दिनों बाद मेरे पिता ने मुझे बताया- 'तुम्हारे जाने के बाद वो लोग मुझसे पूछ रहे थे कि वो लड़की आपकी क्या लगती है? उनसे कहिएगा कि वो कहीं शिकायत न करें। हम आपके ऑपरेशन की फीस भी नहीं मांगेंगे।...आप चाहे तो उन्हें अच्छी तरह से समझा सकते हैं...हम भी इंसान हैं। गलतियाँ हो जाती हैं...!'
मैंने अपना पूरा मन बना लिया था कि इन्हें छोड़ना नहीं है। आज हमारे साथ किया है कल किसी और के साथ करेंगे। ...पर मुझे पिता ने कहा जाने दो...मैंने भी जाने दिया। हालांकि मुझे इस बात का अफ़सोस है कि मैंने उनकी शिकायत नहीं की। लेकिन इस बात की खुशी थी की सही समय पर अगर गुस्सा न आया होता तो वो लोग और सताते।
मैंने कुछ ऐसे लोगों के बारे में सुना है जो मन की शांति के लिए तमाम तरह के कोर्स करते हैं। कई लोग कितने ही बाबाओं की शरण में जाते हैं। हाथ दिखाते हैं। भविष्य जानते हैं। सुख दुख की नाप तौल करते हैं। हीरे, मोती-मुनके, पत्थर और ताबीज़ पहनते हैं, वे सभी लोग एक वक़्त मुझे बहुत ही खराब लगते थे। पर आज जब उनके बारे में सुनती हूँ या देखती हूँ तब यही लगता है कि शायद ये सभी लोग इन रास्तों से गुज़र कर हर चीज़ को परखने का हक़ तो रखते ही हैं। क्या पता एक समय आएगा जब उनका यकीन बदल जाएगा। हालांकि मैं निजी तौर पर इनमें सी किसी का समर्थन नहीं करती। बल्कि इन सब को अंधविश्वास ही समझती हूँ। ...फिर भी लोगों की जिंदगी में मुझे दखल देने का हक़ नहीं। उन्हें उनके तरीके से अपनी ज़िंदगी को बहाने का हक़ है और मुझे अपने। तवज्जो तो इस बात पर है कि हम सभी अनुभवों को बटोरते जाएँ और अपने एक पड़ाव पर देख लें कि कौन सा अनुभव क्या सिखाने की कोशिश कर रहा है।
मुझे इस समय यह बिलकुल नहीं मालूम कि भविष्य में क्या मैं भी कोई मन की शांति वाला कोर्स करने वाली हूँ या नहीं...फिलहाल तो मेरा ध्यान दिन के बीतने के बाद अनुभवों के पकने पर है। जैसे हमारे सिर के बाल धूप, बारिश, आँधी, धूल आदि को देखने-सहने के बाद अपनी रंगत बदलने लगते हैं और वैसे ही बन जाते हैं जैसा उन्हें एक वक़्त बाद बनना चाहिए, ठीक उसी तरह मुझे और मेरे मन को अपने पकने का इंतज़ार है। हालांकि मैं बालों की तरह सफ़ेद रंगत में नहीं आऊँगी पर उस झुर्रियोंदार चेहरे की कल्पना कर ही सकती हूँ जो मेरी गर्दन के ऊपर रखा गया है। सौ बात की एक बात- सहज ही जीते जाइए और खुद में ही एक कोर्स के रूप में विकसित हो जाइए। वह कोर्स ऐसा होगा जिसका पाठ्यक्रम बनाने और क्रियान्वयन करने वाले आप खुद ही होंगे। अपने पर भी तो गर्व करना आना चाहिए। कब तक बाक़ी लोगों पर करते फिरेंगे!
काफी दिनों पहले एक पंक्ति पढ़ी थी- 'अगर आप मन के ग़ुलाम हैं तो आप बीमार हैं।' बात सही भी लगी और नहीं भी। सही इस मायने में कि मन में हर चीज़ या रिश्ते के प्रति एक लालच ज़रूर आता है। मुझे बेसन के लड्डू का लालच बचपन में बहुत ज़बरदस्त रहता था। इससे जुड़ी एक घटना याद आती है। किसी पूजा के समय घर में बेसन के लड्डू भरपूर मात्रा में लाये गए थे। मुझे कड़ी हिदायत दी गई थी कि ज्योति तुम मत लेना वरना डांट खाओगी। पूजा का सामान किसी दूसरे कमरे में रखा गया था। जब भी मुझे उस कमरे में कुछ सामान लाने के लिए भेजा जाता तब मुझे उनकी महक आ जाती। मुझसे रहा ही नहीं गया और मैंने शिवजी के आगे कहा- 'मेरी मम्मी को माफ़ कर देना। मैं लड्डू खा लूँ, मुझ से रहा नहीं जा रहा!' मैंने मूर्ति की ओर देखे बिना ही सिर्फ़ एक लड्डू काँपते हाथों से उठाया और गप्प से मुंह में रख लिया। मैंने अपना लालच पूरा तो कर लिया पर कई दिन तक मन में एक पछतावा रहा। मैंने इस राज़ को लगभग एक हफ़्ते बाद माँ के आगे खोल दिया। लेकिन मुझे इसके लिए डांटा नहीं गया। माँ ने यही कहा- 'अच्छा कोई बात नहीं। शिव जी बच्चों के कामों का बुरा नहीं मानते।' उस दिन के बाद आज तक बार-बार अपने लालच पर एक नज़र रखती हूँ। ऐसा भी नहीं है कि मैंने लालच पर जीत हासिल कर ली है। मुझे ऐसा नहीं करना। थोड़ा बहुत तो रहता ही है।
ज़रूरी नहीं कि सीखना स्कूल से ही सीखा जाता है। आप ध्यान देंगे तो पाएंगे बहुत छोटे छोटे चैप्टर सीखने की शुरुआत बचपन से ही हो जाती है। और यह ताउम्र चलता ही रहता है। कुछ दिनों पहले किसी के एक छोटे से सवाल से मैं पूरी तरह सकपका गई। इस बात पर मेरी निगाह उतनी नहीं जा पाई थी। मुझे लगता था कि यह स्वाभाविक है। साहब का सवाल मुझे ठीक तरह से याद नहीं आ रहा पर सवाल कुछ ऐसा था- 'तुमने लास्ट टाइम कब गुस्सा किया?' मैंने सवाल का जवाब तुरंत दिया- क्यो? ...अभी तीन घंटे पहले ही मैंने गुस्सा किया।' उन्हों ने मुझे अपने बारे में बताया कि उन्हें गुस्सा आए हुए कई महीने गुज़र जाते हैं अक्सर। उनसे बात करने के बाद में कई घंटों तक अपने गुस्से होने की संख्या सोचने लगी। धीर धीरे वो सब दिखाई दिया जो मैंने अपने गुज़रे हुए दिनों में किया। अपनों पर, दोस्तों पर, बच्चों पर, लोगों पर, सरकार पर, पुलिस वालों पर, हर किसी पर, जो मुझसे मिला या टकराया। लगभग किसी को भी बख़्शा नहीं था। ऐसा नहीं है कि मैंने ही गुस्सा किया। बदले में मुझ पर भी पर्याप्त मात्रा में गुस्से की ताबड़तोड़ बौछारें हुई हैं।
(देखिये अभी धरती मैया को भी गुस्सा आ गया। भूकंप के ताज़े और सरासर नए झटके मैंने ब्लॉग लिखते हुए महसूस किए हैं।)
अब बात मन की ग़ुलामी करने के दूसरे पक्ष की, करती हूँ। मुझे लगता है कई बार गुस्सा जायज़ भी होता है। यह भी स्वाभाविक प्रतिक्रिया है, जैसे हमारे हंसने और रोने की तरह। कई बार गुस्सा न करने से काम बिगड़ जाते हैं या फिर दब्बूपना सा मन में घुसने लगता है। मुझे सन् 2012 का साल याद आ रहा है। उस समय मेरे पिताजी का किसी निजी अस्पताल में आँखों का ऑपरेशन हुआ था। डॉक्टरों ने मेरे पिता की एक आँख की सर्जरी करने में 6 घंटों का समय लिया। उसके बाद मुझे कई दवाइयों के नाम लिख कर दिये और कहा गया कि जल्दी ले आइये। मैं सभी दवाइयाँ बड़ी मुस्तैदी से खरीद लाई और उन्हें पकड़ा दी। इसके बावजूद उनमें से केवल एक या दो ही दवाइयों का इस्तेमाल किया गया। बाक़ी न जाने कहाँ क्या हुई, राम जाने! ऑपरेशन के अगले दिन जब आँख की पट्टी खोली गई तब पिताजी ने बताया कि कुछ दिख नहीं रहा। अब सभी डॉक्टर बारी बारी से टॉर्च जलाकर आँखों का मुआयना करने लगे जिससे उन्हें और तकलीफ़ शुरू हुई। मैं यह सब देखकर एकाएक चिल्ला पड़ी। तुरंत यह कहा- 'अगले दो घंटों में अगर इन्हें दिखा नहीं तो आप लोगों को मैं छोड़ने वाली नहीं हूँ। सबसे पहले पुलिस में शिकायत ही करूंगी।...' मैंने और भी कई बातें उन सभी को सुनाई और बदले में उन्हों ने भी मुझे सुनाया। न मालूम उन पर मेरी किस बात का असर हुआ तब किसी दूसरे अस्पताल से एक पूरी टीम बुलाई गई और मात्र एक घंटे में सब काम बेहद अच्छे से कर दिया गया।
इसके बाद मुझे अपनी ड्यूटी बजाने भी जाना था। कुछ दिनों बाद मेरे पिता ने मुझे बताया- 'तुम्हारे जाने के बाद वो लोग मुझसे पूछ रहे थे कि वो लड़की आपकी क्या लगती है? उनसे कहिएगा कि वो कहीं शिकायत न करें। हम आपके ऑपरेशन की फीस भी नहीं मांगेंगे।...आप चाहे तो उन्हें अच्छी तरह से समझा सकते हैं...हम भी इंसान हैं। गलतियाँ हो जाती हैं...!'
मैंने अपना पूरा मन बना लिया था कि इन्हें छोड़ना नहीं है। आज हमारे साथ किया है कल किसी और के साथ करेंगे। ...पर मुझे पिता ने कहा जाने दो...मैंने भी जाने दिया। हालांकि मुझे इस बात का अफ़सोस है कि मैंने उनकी शिकायत नहीं की। लेकिन इस बात की खुशी थी की सही समय पर अगर गुस्सा न आया होता तो वो लोग और सताते।
मैंने कुछ ऐसे लोगों के बारे में सुना है जो मन की शांति के लिए तमाम तरह के कोर्स करते हैं। कई लोग कितने ही बाबाओं की शरण में जाते हैं। हाथ दिखाते हैं। भविष्य जानते हैं। सुख दुख की नाप तौल करते हैं। हीरे, मोती-मुनके, पत्थर और ताबीज़ पहनते हैं, वे सभी लोग एक वक़्त मुझे बहुत ही खराब लगते थे। पर आज जब उनके बारे में सुनती हूँ या देखती हूँ तब यही लगता है कि शायद ये सभी लोग इन रास्तों से गुज़र कर हर चीज़ को परखने का हक़ तो रखते ही हैं। क्या पता एक समय आएगा जब उनका यकीन बदल जाएगा। हालांकि मैं निजी तौर पर इनमें सी किसी का समर्थन नहीं करती। बल्कि इन सब को अंधविश्वास ही समझती हूँ। ...फिर भी लोगों की जिंदगी में मुझे दखल देने का हक़ नहीं। उन्हें उनके तरीके से अपनी ज़िंदगी को बहाने का हक़ है और मुझे अपने। तवज्जो तो इस बात पर है कि हम सभी अनुभवों को बटोरते जाएँ और अपने एक पड़ाव पर देख लें कि कौन सा अनुभव क्या सिखाने की कोशिश कर रहा है।
मुझे इस समय यह बिलकुल नहीं मालूम कि भविष्य में क्या मैं भी कोई मन की शांति वाला कोर्स करने वाली हूँ या नहीं...फिलहाल तो मेरा ध्यान दिन के बीतने के बाद अनुभवों के पकने पर है। जैसे हमारे सिर के बाल धूप, बारिश, आँधी, धूल आदि को देखने-सहने के बाद अपनी रंगत बदलने लगते हैं और वैसे ही बन जाते हैं जैसा उन्हें एक वक़्त बाद बनना चाहिए, ठीक उसी तरह मुझे और मेरे मन को अपने पकने का इंतज़ार है। हालांकि मैं बालों की तरह सफ़ेद रंगत में नहीं आऊँगी पर उस झुर्रियोंदार चेहरे की कल्पना कर ही सकती हूँ जो मेरी गर्दन के ऊपर रखा गया है। सौ बात की एक बात- सहज ही जीते जाइए और खुद में ही एक कोर्स के रूप में विकसित हो जाइए। वह कोर्स ऐसा होगा जिसका पाठ्यक्रम बनाने और क्रियान्वयन करने वाले आप खुद ही होंगे। अपने पर भी तो गर्व करना आना चाहिए। कब तक बाक़ी लोगों पर करते फिरेंगे!
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