अपने कपड़ों में लगे रक्त की गंध से वह भागने का प्रयास कर
रहे थे। इसी प्रयत्न में वे बहुत देर से चले जा रहे थे। उन्हें स्वयं भी नहीं पता
था कि उनके पग किस डगर और पथ पर हैं। जहां मस्तिष्क कहता वे वहीं पग बढ़ा देते।
वातावरण में तेज़ धूप थी और गरम लू सौगात के रूप में हर जगह
फैली हुई थी। गर्मी अपने चरम पर थी। सूर्य मानों कुपित होकर आग उगल रहे थे। आसपास
की सुखी हुई और बेजान घास एक चिंगारी की प्रतीक्षा में बैठी हुई थी। आकाश का
सूनापन अपने में विशाल हो चला था। दृष्टि आसमान की ओर देख नहीं सकती थी। और तो और
कहीं भी बादल का एक छींटा तक नहीं था।
खगों का भी न तो अता था और न ही पता। कदापि किन्हीं तरूओं
की शीतल छाया में किन्हीं ओट में वे अपने जीवन की इस भीषण गर्मी से रक्षा कर रहे
थे।
कुछ क्षणों के लिए उन्होंने इस माहौल में अपने दायें हाथ की
ओट माथे पर बनाई और चारों ओर देखा। निर्जल और निर्जन भूमि दूर प्रदेश तक फैली हुई
थी। वे भली प्रकार से परिचित थे कि ये युद्ध का परिणाम है। इसी के चलते आवरण में
इस प्रकार की स्थिति बन पड़ी है। पर वे तो घर की ओर लौट रहे हैं। वे इन सब के बारे
में पुनः नहीं सोचना चाहते। उनके ईश्वर मन ने कहा, “ये आप किस
प्रकार के स्मृति चित्र में उलझ गए? ये आपका कार्य नहीं। आप ईश्वर हैं। अतः
ईश्वर के समान ही व्यवहार करें।”
मानव मन कुछ न बोल सका। वे क्षत विक्षत था। युद्ध के कारण
उसकी मानवता पर गहरा आघात पहुंचा था। वह विषाद की खाई के गुप्प अंधेरे में घुट रहा
था।
पर इतना तय था कि ये ‘अवतार’ मन की
अकुलाहट के कारण अस्थिर था। वह सूर्य को आदेश देना चाहते थे कि अपना सूर्यताप कम
करे ताकि सभी को आराम मिले। पर न जाने क्या सोचकर आदेश नहीं दिया। तीन चार लंबी
लंबी सांसें लेने के पश्चात आगे बढ़ गए।
उनकी पीली और चमकदार पवित्र धोती पर रक्त के धब्बे अब तक
सूर्य ताप के कारण सुखकर काले बन गए थे और एक तीव्र गंध लेकर उनके साथ-साथ चल रहे
थे। बहुमूल्य आभूषण और मोतियों की मालायें उनको अब सहन नहीं हो रही थीं। माथे के
ऊपर रखा स्वर्ण मुकुट जिसमें कि मोहक मोर पंख लगा था, वह भी कदापि
युद्ध भूमि में कहीं गिर चुका था। इस बात की उनको खबर भी नहीं थी।
लोटी गारिनों द्वारा चित्रित
नमकीन बहते स्वेद से उनकी श्याम वर्ण पर चमकीली देह छिल गई
थी। उनके चलने पर हिलते डुलते आभूषण त्वचा की छिलन पर भयंकर पीड़ा छोड़ रहे थे। थोड़ी
देर बाद वे उकता गए और मालाओं को तीव्रता से खींच कर नीचे फेंक दिया। जहां-जहां वे
मालाएँ गिरीं तहां तहां हरी घास उग आई और जहां मुकुट गिरा वहाँ हरा भरा किसी
प्रकार का पेड़ यकायक उग आया। विचित्र बात थी कि ईश्वर के इस अवतार ने अपनी दिव्यता
के प्रमाण को धीरे धीरे अपने से अलग कर दिया था। कदापि वे अवतार की वेषभूषा से अलग
होना चाह रहे थे। यह चमत्कार था। पर दिव्यता अलग की जा रही थी।
पर उद्विग्न मन ने उन्हें पस्त कर दिया था। थोड़ी देर जब
उन्होंने कानों को टिका कर रखा तो एक संवाद की भिनभिनाहट सुनाई पड़ी। कानों को दायें
और बाएँ घुमाया। पर उन्हें आवाज़ का पता नहीं चला। ध्यान लगाया। नेत्रों को बंद
किया तो पता चला कि उनके अंतर में ही संवाद गूंज रहे थे।
मनुष्य मन और दिव्य मन के मध्य। देव मन ने कहा, “आप ऐसा
बिलकुल नहीं कर सकते। लोग क्या कहेंगे कि उनके ईश्वर को क्या हो गया है! आप ईश्वर
हैं। सर्वशक्तिमान। सर्वज्ञ। सर्वव्यापी। समस्त सृष्टि के पालनकर्ता होने के
पश्चात भी आप इस व्यवहार में जकड़ गए हैं। अपनी बनाई सृष्टि की चिंता करना ठीक
नहीं। मत सोचिए कुछ भी। युद्ध तो होना निश्चित था ही। याद रखिये, आप एक ईश्वर
हैं। लोगों की कामना पूरी करने वाले। एक देवता अवतार।”
मनुष्य मन के नेत्र अधखुले थे। वह देव मन की बातों को सुनकर
कुछ न बोल सका। क्या कहता? ईश्वर मन तो महान होता है। उसे कौन काट सकता है! पर इतना
निश्चित था कि जो भीषण युद्ध अभी कुछ समय पहले हुआ उसके विषाद के दल दल में वे
धँसे चले जा रहे थे।
इस क्षण के बाद उन्होंने पग फिर आगे बढ़ा दिये। इस बार उनकी
चेष्टा में बहुत ऊर्जा थी। युद्ध के शस्त्रों के प्रयोग का परिणाम मानव और पृथ्वी
पर समान रूप से पड़ा था। पृथ्वी ने मानों अपने पिता के मरने पर मुंडन करवा लिया है।
इस मुंडन में उसने अपने समस्त संसाधनों को खो दिया। कुछ भी नहीं बचा उसके पास।
उसके नेत्र भी सुख गए थे।
बहुत देर से चलने के कारण उन्हें सिर चकराने और मितली की
स्थिति को देखना पड़ा। आँखें चौंधियाँ गईं। दो पल अनुभव हुआ कि वे गिर जाएंगे।
...और ऐसा हुआ भी।
देवता भूमि पर गिरे या वह मनुष्य। ये पता नहीं चला। पर
उनमें से कोई एक गिर गया था। निर्जीव और मूर्छित होकर।
अब तक अंधेरा होना आरंभ हो गया था। समय की बेल जब आगे बढ़ी
तब सांझ के मुस्काते अंधेरे तले दोनों में से किसी एक को होश आया। नेत्र खोल कर
देखा तो उन्होंने अपने आप को हरी हरी पत्तियों से लदे एक वृक्ष के नीचे पाया।
थोड़ा कमर पर बल लगाकर धड़ को उठाया और पीछे पड़े काले पत्थर
पर टेक लगा ली। सिर को हौले हौले इधर से उधर घुमाया। कुछ न देख, सुन, सूंघ और
अनुभव कर पाने पर नेत्रों को बंद कर लिया।
इस अंतराल को बीतते हुए देरी न लगी और उषा ने दिन के द्वार
पर दस्तक दे दी।
आँखें खुली तो उनकी थकान हल्की कम हो गई थी। पल को सोचा कि
दाऊ भईया को ये संदेश भेज दूँ कि मैं तनिक भी उचित अनुभव नहीं कर रहा। कोई रथ
भिजवा दें तो मैं द्वारका आ जाऊँ। पर इस बीहड़ स्थान से कैसे और किससे संदेश भिजवाया
जाये, जैसे ही वे इतना सोचने बैठे ही थे कि सिर फिर चकरा उठा। कई तीव्र और भयानक
प्रहार उनके मस्तिष्क पर होने लगे। वो तड़प उठे। चक्करों के साथ उनको उल्टी भी होने
लगी।
उन्हें इस क्षण यशोदा मैया की स्मृतियों ने घेर लिया। जब वे
बाल रूप में थे तभी से लोगों ने उन्हें भगवान कहना शुरू कर दिया था। वो कहाँ
कहलाना चाहते थे। मैया उन्हें कतई ईश्वर नहीं मानती थीं। वे तो केवल उन्हें अपना
कन्हैया मानती थीं। किसी भी प्रकार विकट समय में घंटों उनके पास बैठी रहती थीं। माँ
अपने बच्चों को कभी भी अकेला नहीं रहने देती। दुख या विपत्ति के समय में तो सबसे
पहले आगे खड़ी रहती है। यदि आज यहाँ यशोदा मैया होती तो नजाने उनकी कन्हैया को देख
कर क्या दशा होती।
उन्होंने स्वयं अपने को किसी प्रकार संभाला और ये निर्णय
किया कि वे मैया के पास जरूर जाएंगे। वहीं उनका आराम है। वहीं उनका चैन है। वे
द्वारकाधीश नहीं बनेंगे। वापस नंदगांव जाएंगे।
इसी सोच में कुछ क्षणों के लिए उन्होंने अपने सृष्टि नयनों
को बंद किया। इस मन की चंचलता में वे फंस गए थे। फिर सोचने लगे कि यहाँ उनको कौन
लाया या वो किस प्रकार यहाँ आ पहुंचे? क्योंकि वे तो मूर्छित हो गए थे। इधर उधर
आवाज़ें सुनने का प्रयास किया। किन्तु महीन आवाज़ों में भी किसी मनुष्य और जन्तु की
उन्हें बू तक न मिली।
उन्हें हल्की हवा में बहुत आराम मिल रहा था। निकट ही बहते
हुए झरने की ध्वनि को अभी तक उनके चंचल मन ने सुनने नहीं दिया था। वे हर्षित हो कर
अपनी जग मुस्कान फैलाने लगे। अपने दर्द को सहते हुए उठे और झरने की ओर चल दिये।
हाथों की कटोरी से उन्होंने कई बार अपने मुख को धोया।
उन्हें इस अवस्था में देखकर कौन कहेगा कि ये महान अवतार हैं। वे बिलकुल मनुष्य बन
बैठे थे। वे सोच रहे थे। वे भटक गए थे। वे स्मृति मोह में फंस गए थे। लाखों लोगों
की मृत्यु को अपने कंधे पर लेकर चल रहे थे। आत्मग्लानि से पूर्ण थे। वे गीता
उपदेशक नहीं थे। वे तो मनुष्य थे।
हाथों की अंजुली से ही उन्होंने जलपान किया। उनका मन शांत
हुआ। गीले हाथों से ही सिर को कई बार धोया। स्वेद से छलनी हो चुकी त्वचा पर शीतल
जल डालने पर संतुष्टि मिली। नजाने इन दोनों में से किसको आराम मिल रहा था। ईश्वर
को या मनुष्य को। ईश्वर तो इन सब से ऊपर है।
ईश्वर, वह क्या है, कैसा है, किस स्वाद का
है, उसकी भूख क्या है, उसकी जिह्वा क्या है,.. कोई नहीं
जानता। किसने उसकी रचना की अथवा उसने अपनी रचना कैसे की ये भी कहानियों में तो
लिखा है पर उन कहानियों में कितनी कल्पना है और कितना यर्थाथ है, किसे पता?
पर यहाँ इस व्यक्ति पर भगवान के अवतार होने का आरोप है। उसे
तो लोग ईश्वर ही मानते हैं। इनके कई नाम हैं। ये ज्ञान की राशि है। पर उनके इस
अवतार में एक मनुष्य भी बसता है। शायद इसलिए वह इस दशा में यहाँ उपस्थित हैं। शरीर
के कष्ट एक यर्थाथ के समान हैं। उसका दर्द मन का बहका देता है।
जल की शीतलता का प्रभाव इस गर्मी में अधिक समय नहीं रह सका।
ताप की तीव्रता से वे फिर मूर्छित दशा की तरफ जाने लगे। उन्हें अपने सिर में कई
चलचित्र चलते हुए दिखाई देने लगे। चित्र में रक्त रंजीत शव दिखे। वह भय युक्त हो
गए। इतने अधिक शव। किसी का धड़ है तो मुंडी नहीं, किसी का हस्त
नहीं है, किसी का पैर नहीं। हृदय भेदी क्रंदन मानो ध्वनियों का गुच्छा बनाकर उनसे टकरा
रहा था। इस प्रकार के चित्र से वे भागने
लगे। उन सब में एक समानता थी कि वे सब एक मामूली मानव थे। इनका युद्ध में संहार
हुआ था।
अब वे संभलकर उन चित्रों को ध्यानपूर्वक देखने लगे। सदैव
आभामंडित रहने वाला मुख इन चित्रों को देखने के कारण स्वेदयुक्त हो चला। हर शव को
यह पीतवस्त्रधारी व्यक्ति सूक्ष्म दृष्टि से देखने लगा। कौन पांडव सैनिक हैं और
कौन कौरव सैनिक हैं इसका बिलकुल पता नहीं चला। उनका धर्म वध हुआ था अथवा उनकी अधर्म
हत्या की गई थी, इस प्रश्न ने उनके आगे आकर अंधेरा आच्छादित कर दिया।
ये तो निर्जीव शव थे। फिर भी इन चित्रों में वे शव उनसे उठ
कर सवाल कर रहे थे।
ये शव व्यर्थ में भगवान के मस्तिष्क को अपने प्रहार से घायल
कर रहे थे। उसी चित्र में एक भुने हुए गेंहू के रंग का व्यक्ति अपने दायें हाथ में
एक कटा हुआ लहूलुहान शीश लेकर उनके आगे आकर खड़ा हो गया। उसने सफ़ेद मैली धोती पहनी
थी। रक्त के कुछ धब्बे उसकी धोती पर पड़ गए थे। वे गर्मी से तो व्याकुल नहीं था पर
उस शीश को देखकर अपने अश्रुओं को बहा रहा था।
शीश उनके पास लाते हुए बोला, “आप ही माधव
हैं?”
उनके उत्तर से पूर्व वह पुनः शीश की ओर देखते हुए बोला, “हाँ। मुझे
विदित है कि आप ही माधव हैं। आपके कभी दर्शन नहीं हुए। पर आपकी इतनी ख्याति है कि
आपको कौन नहीं पहचान लेगा। आज आप से मिलने का अवसर मिला है। इससे पूर्व आपके कभी
दर्शन नहीं हुए थे। पर आज मुझे आपके दर्शन का दिव्य अवसर मिल गया।”
वे अभी तक उसे सुन रहे थे। सुनकर बोले, “मैं माधव
नहीं हूँ। देखो! मेरी दशा। मैं तो तुम्हारे समान ही एक साधारण मानुष हूँ।”
व्यक्ति सिर हिलाते हुए बोला, “नहीं कृष्ण, ऐसे न कहिए।
आप मोरपंख मुकुट धारी हो। आप पीताम्बर हो। सुदर्शनधारी हो। देखिये मेरे हस्त में ये
जो शीश है, ये मेरा छोटा भाई था। इसकी पांडव कौरव युद्ध में मृत्यु हो
गई। ये अधर्मी नहीं था। ये तो केवल अपने राजा की आज्ञा का पालन कर रहा था। न करता
तो कहाँ जाता। आपकी सेना में शामिल नहीं किया गया। इस छोटे से सैनिक को धर्मराज
युधिष्ठिर से मिलने ही नहीं दिया गया। अब इसके परिवार को देखने वाला कोई नहीं। इसे
जीवित कर दीजिये प्रभु। जीवित कर दीजिये।”
वे बोले, “मैं कैसे जीवित कर सकता हूँ? और वैसे भी
ये विधि का विधान है कि जो जीवित है वह तो मरेगा ही। यही सृष्टि का नियम है।”
वह व्यक्ति बिलख पड़ा। बोला, “क्या मेरा
भाई अभिमन्यु और उत्तरा के गर्भ पुत्र परीक्षित से भिन्न है? उसे भी तो
आपने जीवित किया था। वह जीवित हुआ, तो मेरा भाई भी क्यों नहीं हो सकता? दया कीजिये
प्रभु।” वह ऐसा कह अपने घुटनों के बल गिर कर बैठ गया।
वे चुप हो गए।
माधव ने अपनी आंखे बंद कर ली।... फिर लंबी सांसें और कुछ भी
नहीं।
पर...वे चिल्ला उठे। चलते हुए चलचित्र तुरंत अदृश्य हो गए।
उनके पैर के तले पर एक विषैला बाण लगा। वे बिलख गए।
इस बाण के चालक ने जब उनके सम्मुख आकर देखा तब वह द्रवित हो
उनके चरणों में गिर पड़ा।
अपने इस कृत्य की क्षमा मांगते हुए बोला, “मुझे क्षमा
कीजिये प्रभु। अपनी त्रुटिवश आप पर बाण चला बैठा।”
वे व्यथित पीढ़ा से कहराते हुए बिना देखे ही बोले, “क्षमा मत
मांगो। तुमने तो मेरा उद्धार किया है। मुझे जीवन से मुक्ति दिला दी। मैं अपने
मनुष्य अंतर मन में चल रहे विचित्र संवादों से त्रस्त था। प्रश्नों का उत्तर भी
नहीं दे पा रहा था। जीवन के कृत्यों के फलों को भुगत रहा था। मैं भी एक साधारण
व्यक्ति था। मेरी भी एक माँ थी, एक प्रेमिका, सखा थे, भाई थे। मैं
द्रवित हूँ। मनुष्य योनि में हूँ। पश्चाताप में हूँ। मैं वैसा ही था जैसे सब
थे।...
परंतु लोगों ने भगवान बना दिया। और यहाँ तक पहुंचा दिया।”
इतना कहने के बाद वे हल्का मुस्कुराए और अपने प्राण त्याग
दिये।
इतने में सोये हुए मुरली पर किसी के नरम हाथों का स्पर्श
पड़ा तो वह जाग उठा। बोला, “माँ आप!
कितना बजा है?”
माँ ने चादर संभालते हुए कहा, “9... फिर
वही सपना देख रहा था?”
मुरली ने हाँ में सिर हिलाया। और छत की तरफ़ देखकर उठ कर चला
गया। माँ उसे जाते हुए उसके सपने के बारे में सोचने लगी।