Tuesday, 13 June 2017

फिल्म 'हिन्दी मीडियम' माध्यम की समस्या को समझा भी नहीं पाई!

फ़िल्म 'हिन्दी मीडियम' उस खुरदरी और असली सतह को नहीं छू पाई जिसे छूना चाहिए था। माध्यम की समस्या की लोकप्रियता को यह फिल्म सिर्फ केश करती हुई प्रतीत होती है। फिल्म का शीर्षक बहुत हद तक इसकी सफलता का कारण है। जबकि फिल्म के चित्र कुछ और ही कहानी प्रस्तुत करते हैं। वास्तव में यह मनोरंजन करने पर ज़्यादा केन्द्रित हो गई है। मैंने यह फिल्म कुछ समय पहले देखी थी तब मुझे वह सिरा पकड़ में तो आ गया था जिसे मैं समझ पाई थी लेकिन शब्द संयोजन नहीं बना पा रही थी या फिर अपनी बात को रखने की झिझक भी थी। क्योंकि लोग इस फिल्म को बहुत पसंद कर रहे हैं इसलिए इसके बारे में एक अलग राय रखना थोड़ा मुश्किल ही है। लोगों को लगेगा कि हर अच्छी फिल्म में नुक्ता चीनी ही क्यों निकाली जाती है! फ़िल्म की कुछ बातें बेशक बहुत अच्छी हैं पर बहुत सी बातें अटपटी और बनावटी भी हैं। कुछ ऐसे किरदार हैं जिनका असली आरेख खींचा ही नहीं गया। फिल्म स्टूडेंट के पक्ष रखती ही नहीं। सबसे खराब बात यह लगी कि इस फ़िल्म ने असली मुद्दे को पकड़ा ही नहीं। हिन्दी माध्यम वास्तव में यह कतई नहीं होता।

'हिन्दी मीडियम' शब्द-युग्म के पीछे एक बड़ी चाहतों की तस्वीर है। यह  महज़ निजी स्कूल में दाख़िले की चाहत नहीं बल्कि अंग्रेज़ी के मार्फत भविष्य को बेहतर बनाने की ज़िद्द और उम्मीद है। उस धारा में शामिल हो जाने की ललक है जिसमें अंग्रेज़ी बोलना फख्र करने जैसा है। अपने व्यक्तित्व में अंग्रेज़ियत को जोड़ लेना है। सरकारी नौकर बनने के लिए 'अंग्रेज़ी का ज्ञान होने की शर्त' को पूरा करने जैसा है। कंप्यूटर पर अंग्रेज़ी सॉफ्टवेयर के साथ काम कर लेना है। लोगों से 'इंटेरक्ट' कर लेना है। अच्छा वेतन पैकेज़ मिलना भी इसी में शामिल है। इंटरव्यू या वाइवा में अंग्रेज़ी आने के अलावा फ्लूएनसी से जवाब देना है। और बहुत कुछ है हिन्दी मीडियम के पीछे। कभी सोच कर देखिये। इन बिन्दुओं पर यह फिल्म बिल्कुल खरी नहीं उतरती इसलिए मैं इसे सम्मोहन की नज़र से नहीं देख पा रही। मुझे जहां तक लगता है इसने हिन्दी मीडियम के मुद्दे को बहुत हद तक डायवर्ट ही कर दिया। निजी स्कूल में दाखिला तो एक पड़ाव भर है।



माध्यम हिन्दी या अन्य प्रादेशिक भाषा में होना हमारे देश में एक बहुत बड़ी समस्या है जिसे इस फिल्म में अमीर परिवार से जोड़ते हुए दाख़िले की तिकड़म में समेट दिया गया है। जबकि ऐसा बहुत ही कम प्रतिशत में होता है। इसके उलट हिन्दी माध्यम की समस्या बच्चों से होती हुई माता-पिता और पूरे परिवार को कैसे प्रभावित कर देती है इसको समझा जाना ज़रूरी है। पिछले दिनों में एक आलेख पढ़ रही थी। उनमें कुछ ऐसे दर्द भरे हादसों का ज़िक्र था जिनमें बड़े विश्वविद्यालय में क्षेत्रीय विद्यार्थियों के साथ हुए हादसों की जानकारी और वजहें बताई गई थीं। मैं उस लेख को खोज के जरूर लिंक साझा करूंगी।

बहरहाल उस आलेख में यह बताया गया था कि अपने अपने क्षेत्रीय स्तर पर और अपनी ही मातृ भाषा में अव्वल दर्जे का प्रदर्शन करने के बाद जब यही प्रतिभावान छात्र शहरों में जमे हुए बड़े पढ़ाई के केन्द्रों में जाते हैं तब उन्हें बहुत सी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। माध्यम से लेकर अपने आप को शहरी युवा और अमीर छात्रों के बीच तालमेल बैठा पाने में बहुत जद्दोजहद करनी पड़ती है। इसके अलावा उनका आत्मविश्वास बेहद कमजोर(बना दिया जाता है) हो जाता है और उनके स्वभाव में भी कई नकारात्मक बदलाव आ जाते हैं। उनके कपड़े लत्ते पहनने के व्यवहार से लेकर उनकी पूरी दिनचर्या तक में एक नए और खराब परिवर्तन आते हैं। उनकी स्वाभाविकता टूटने लगती है। इसके चलते वे तनाव का शिकार बनते हैं और अपने को मारने तक का प्रयास भी कर लेते हैं। कई मामलों में तो कई युवा छात्रों ने अपनी जान तक दे दी है। यह कहना यहाँ गलत न होगा कि यह सब एक ख़ास जाति के लोगों के युवाओं के साथ तो बहुत होता है।

मेरी एक दोस्त का क़िस्सा मुझे उसकी इजाजत के बगैर यहाँ लिखना पड़ रहा है। उसने अपनी ऊंची पढ़ाई के लिए भारत के कुछ कारोबारियों द्वारा स्थापित जानी मानी फ़ेलोशिप हेतु आवेदन दिया। इस फ़ेलोशिप के विवरण को पढ़कर यह पता चलता है कि इसकी स्थापना गरीब पढ़ने वाले बच्चों के लिए है। दिल्ली में ही इनका शानदार दफ्तर भी है।  टॉप 25 में उसकी योग्यता के अनुसार उसको चुन लिया गया। जब वह इंटरव्यू देने पहुंची तो उसने लिबास के तौर पर अपने आप को वहाँ आए 25 लोगों में सबसे गरीब पाया। बाकी लोग हवाई जहाज से 'ट्रैवल' कर के जो तथाकथित गरीब थे और सूट-बूट में थे, आए थे। इंटरव्यू में सोशल इशू पर एक पर्चा लिखवाया गया और उस पर्चे के आधार पर एक कमरे में भेजा गया, जहां आपका असली मूल्यांकन कर्ता इकलौता व्यक्ति बैठा था। उनका सरनेम उनके नाम पर हावी था। उस नफ़ासत से सराबोर आदमी ने मेरी दोस्त को रिजैक्ट करते हुए कहा- 'आपकी पढ़ाई लिखाई और काम बेमिसाल है पर हम आपको हिन्दी माध्यम के चलते दाखिला नहीं दे सकते।' मेरी दोस्त ने बिना कहे चेहरे से क्यों पूछा। वह बोले- 'हिन्दी माध्यम के बच्चे को दाखिला दे तो दिया जाता है पर बाद में वे बाक़ी बच्चों के साथ कंपीट नहीं कर पाते। चेहरा छुपाने लगते हैं। परफ़ोर्मेंस खराब होती है। डिप्रेस हो जाते हैं।' इस जवाब को सुनकर मेरी दोस्त के पैरों से ज़मीन निकल गई थी।



क्या आप इस वाकया से अंदाज़ा नहीं लगा सकते कि हिन्दी माध्यम कितना महत्वपूर्ण है मुद्दा है। मुझे याद आता है कि बहुत अरसा पहले मृणाल पाण्डे का अंग्रेज़ी अख़बार में एक लेख छपा था जिसमें उन्हों ने सरकार की शिक्षा नीति को लताड़ा था। उनका उसमें साफ कहना था कि स्कूली पढ़ाई हिन्दी में और ऊंची या फिर विज्ञान आदि की पढ़ाई अंग्रेज़ी में होने के कारण बच्चों को दिक्कत आ रही है। कई आत्महत्याओं के केस दर्ज़ हो चुके हैं। लेकिन अभी हाल ही में इसी लेखिका का 'शब्दांकन' नाम की लेखनी से जुड़ी वेबसाइट पर लेख पढ़ा जिसमें इन्हों ने अंग्रेज़ी सीख लेने की बात कही है। इस बात पर हैरानी भी नहीं होनी चाहिए।

कुछ समय पहले सरकारी स्कूलों में कक्षा पाँचवीं तक अंग्रेज़ी नहीं पढ़ाई जाती थी। मैं उसी जमात की हूँ। जब हम कक्षा छठी में दाख़िल हुए तब हमें अंग्रेज़ी की बड़ी भारी मोटी किताब पकड़ा कर एबीसी सिखाया गया और उसके बाद सीधे कहा गया -This is a dog. उसके बाद लंबी लंबी कहानियाँ और फलां ढमकाना पढ़ाया गया। मुझे आज भी सरकार की इस नीति से और पाठ्यक्रम बनाने वालों से बहुत खुन्नस है और उम्र भर रहेगी। क्योंकि इसके चलते हमारी काम की दुनिया में कोई कल्पना नहीं है। हाँ कुछ लोग सेटल हो गए हैं पर उसके पीछे अलग अलग वजहें हैं। इसके अलावा पिछली यूपीए सरकार में सिविल सर्विसेज़ में भाषा का मुद्दा रहा और भारी संख्या में छात्रों का प्रदर्शन भी हुआ।

अब अगर इस फिल्म की बात की जाये तब आप मुझसे और भी कई सवाल पूछ सकते हैं। लेकिन मैं फिर भी उन जवाबों को तैयार रखूंगी जिन्हें मैं अपने अनुभव से दे सकती हूँ। मैंने बहुत करीब से निजी स्कूल जो जन्नत के समान है (एक अंतरराष्ट्रीय निजी स्कूल का अनुभव है)भी देखा है और सरकारी स्कूल में तो पढ़ाई ही की है। यही वजह है कि मुझे अंतर समझ आ पाते हैं। सभी को आते हैं। ...यह फिल्म बच्चे के मनोविज्ञान को छूती तक नहीं। फिल्म में निजी स्कूल की प्रिन्सिपल की सोच को बेहद ऊपरी तौर पर दिखाकर छोड़ दिया गया है। जबकि वह किरदार बहुत से रहस्यों को छुपाकर बैठता है। इतनी भारी संख्या में क्यों चल रहे हैं यह निजी स्कूल जिसमें एसी के बिना बच्चे नहीं पढ़ते? ऐसे ही सवालों की शृंखला है जिन्हें हम सोचते नहीं। फिल्म के अंत में मुख्य किरदार द्वारा दिया गया भाषण भी न्याय नहीं करता दिखता। सबसे आखिर में माता पिता का अपनी बच्ची को सरकारी स्कूल में भेजने का फैसला चौंकाता है और मीठी समाधान की तरफ ले जाता है। लेकिन यह कितनी प्रतिशत में होता है, अपने आसपास नज़र भी नहीं आता। हिन्दी फिल्में अपनी आदर्श पेश करने की आदत को भी साथ रखकर चलती हैं। इस फिल्म का अंत ऐसा ही आदर्श है। लेकिन खुद सरकारी स्कूल के शिक्षक अपने बच्चे के लिए बढ़िया से बढ़िया स्कूल खोजते हैं और पढ़ाते हैं। जब सरकारी शिक्षक या कर्मचारी ही सरकारी स्कूल के प्रति नीरस हैं तब इन स्कूलों की पढ़ाई की गुणवत्ता पर सवालिया निशान भी लग जाता है।

  ... और भी बहुत बिन्दु दिमाग में है। दूसरी पोस्ट में लिखूँगी। फिलहाल यह मेरा नज़रिया है। फिल्म को जिस तरह से समझा जा रहा है मैंने सिर्फ उसे दूसरे कोण से समझने की कोशिश की है। मेरी समझदारी बेहद निचले दर्जे की है। लेकिन भारत के लोग बहुत समझदार हैं!






Friday, 9 June 2017

आख़िरी बेंच मुबारक़ हो

आज मैंने पहले से ही इस पोस्ट का शीर्षक सोच लिया है। अचानक मन में तरंग उठी कि इसे लिखना चाहिए सो मैंने अपना लैपटॉप रात के करीब पौने बारह बजे खोल लिया है। लिखूँगी नहीं तो सो नहीं पाऊँगी।

रह रहकर एक शब्दावली मेरे दिमाग में आ रही है। वो है नालायक स्टूडेंट। इस शब्द को हम में से हर कोई सुनकर ही बड़ा हुआ है। अपने लिए न सही क्लास के दूसरे साथी के लिए। सुना तो होगा ही यह शब्द सबने। अगर नहीं सुना तो आपका बसेरा जरूर मंगल ग्रह में रहा होगा। अच्छा है जगहें बदल कर ही जीना बेहतर होता है। लेकिन मैं यह बात साफ करती चलूँ कि मेरे रग-रग में पृथ्वी है सो यह पोस्ट मंगल वालों के लिए नहीं है।

क्या होता है होशियार का मतलब? मैं पक गई हूँ सुन सुनकर। कुछ या बहुत सारी किताबों को लेकर दिमाग में रट्टे वाली नदी बहा लेना ही होशियार होना है? या फिर एक बड़ी परीक्षा को क्रैक कर देना होशियार होना है? या फिर किसी कठिन उलझन को सुलझा लेना ही होशियर होना है? या फिर गणित में 100 में से 100 लाना होशियार होना है?  या फिर कथक जानना या फिर कला का ज्ञान होना? मेरी दिलचस्पी बढ़ती ही जा रही है इस शब्द को डी-कोड करने के लिए। हो सकता है कि होशियार होंने में ये सब शामिल हो। लेकिन वास्तव में जब इस शब्द को संवेदना और मानवता के ठीक सामने रखा जाए तब? कभी कभी मैं यही सब सोचती हूँ। आप भी सोचिए इन शब्दों को एक धरातल पर रखकर।

'तारे ज़मीन पर' और 'थ्री इडियट्स' फिल्मों का अंत भी तो होशियार स्टूडेंट बनने के अंत पर समाप्त होता है। कितनी चालाकी से यह बतलाया जा रहा है कि होशियार कैसे बना जाये? आप रुक कर सोचिए इन फिल्मों के बारे में या बाकी फिल्मों के बारे में। कोई कम से डील नहीं करना चाहता। वास्तव में तथाकथित पढ़े लिखे और ऊबड़ खाबड़ समाज की आँखों में लोगों को पहचानने के कई मापक हैं। अंग्रेज़ी में कहूँ तो पैरामीटर। वो गोरी है, वो काली है, वो छोटी है, वो लंबी है, वो सुंदर है, वो बदसूरत है, वो झक्की है, वो बददिमाग है, वो ये है, वो वो है..! उफ़्फ़! आप लोगों को कुफ्त नहीं होती इस सबसे?



सच्ची बोलूँ। होशियार स्टूडेंट को आप जितना मन करे अगरबत्ती दिखाईये लेकिन वे इंसान और संवेदनाओं के बेहद निचले स्तर पर होते हैं। (होते होंगे) आप चाकू लेकर मेरा क़त्ल बेशक कर दें इस बात पर लेकिन यह सच है। होशियार होना सरासर बनावटी है। एक रेस है। एक प्रतियोगिता है। एक होड़ है। दूसरे को हराने की जबरन युक्ति है। वास्तव में मैं अपने अनुभव से बताती हूँ कि नालायक होना दुनिया की सबसे बड़ी सौगात है।आपको क्लास का आखिरी बेंच मिलता है जहां आप अपनी गतिविधि को टीचर की नज़र से नहीं बल्कि अपनी नज़र से तय करते हो। आपको अकेले और आखिरी होने का सुकून है कि आपके बाद अब कोई दूसरा नहीं होगा, हारने के लिए। हमारे यहाँ हराना एक जश्न है। अपने को सबसे ऊपर रखना भी एक जश्न है।

आपको खुश होना चाहिए कि आप अपने टीचर को फख्र करने का मौका नहीं देते। आप दूसरों को न कोई इच्छा देते हो न कोई इच्छा रखते हो। यही तो जीना है। क्योंकि आप अपने को जीते हैं। अपने मूल्य को खुद से गढ़ते हैं। आप औसत से भी नीचे बताए जाते हैं। यानि आप आप इंसान हैं जिसे उस खुदा ने मिट्टी से बनाया है जीने के लिए। मज़े की बात है कि होशियार भी जीता है और हम जैसे नालायक़ भी। सभी जीते हैं। चींटी भी और तितली भी। जीवन का एक धर्म होता है, जीना!

जिनको टेलेंटेड होना है उनको होने दीजिये। आपको होना है तो आप बनिए। लेकिन अगर आप नालायक़ कहे जाते हैं तब अपने को मत कोसिए। क्योंकि दूसरे आप को ऐसा कह कर पुकारते हैं। कोई बात नहीं दुनिया ऐसी ही है। लेकिन नालायक होना लोगों को नहीं मालूम कि क्या होता है। उन्हें जिस दिन पता चलेगा यह दुनिया ठीक सी हो जाएगी। एक बार फिर दोहरा दूँ, नालायक़ होना अपनी दुनिया का रचयिता होना है। नए निर्माण का निर्माणकर्ता होना होता है, जिसके पास खुद का अपना आर्किटेक्चर है। जिसकी रचनात्मकता को दुनिया दूसरों की अपेक्षाओं और रटे हुए सूत्रों से संक्रमित नहीं होती। सबसे बेहतर होने की होड़ नहीं है बल्कि बेहतर बनने की प्रक्रिया को जीना है।

आपको अंत का बेंच मुबारक हो!





Thursday, 8 June 2017

मेमरी का तबादला

आज का अखबार किसानों को मध्य प्रदेश प्रशासन द्वारा मारे जाने की स्तब्ध और क्रूर खबर को बहुत ही अजीब तरीके से बता रहा है। अखबार लिखता है-

"मध्य प्रदेश के मंदसौर में किसान आंदोलन के दौरान छह लोगों की मौत के बाद बुधवार को हिंसा की आग देवास समेत कुछ और जिलों में फैल गई।..."

क्या अखबार वालों को नहीं पता कि किसान का नाता किसानी से है न कि बंदूकों और पिस्तौलों से ? क्या हमारे देश के गरीब लोग पिस्तौल लेकर प्रदर्शन करते हैं? क्या किसान आंदोलन की जगह हिंसा फैला रहे हैं? जब नेता को रैली करने का हक़ है तो किसान को हक़ की मांग करने का हक़ क्यों नहीं है? साफ साफ यह क्यों नहीं लिखा जाता कि प्रशासन ने अपनी बेवकूफाना कारवाई से छह किसानों की जान ले ली। बदले में मुआवजे का ऐलान कर दिया गया है। वास्तव में जो हुआ वह बहुत गलत और भयानक है जैसे सहारनपुर में एक जाति के घरों को आग लगा दी गई और उनके माल सामान को जलाया गया। निचाई में गिरते हुए उनके बच्चों को उठाकर आग में फेंकने का गंदा काम किया। गर्भवती औरतों के ऊपर प्रहार हुए। क्या नहीं किया उन दरिंदों ने!

इन खबरों ने सोशल मंचों पर अच्छा खासा स्थान पाया है। लोगों में गुस्सा है कि क्यों किसानों पर गोलियां चलाई गईं। लोगों का झुकाव साफ तौर से किसानों के साथ है। सहारनपुर के हादसे के लिए कौन जिम्मेदार हैं, ऐसे सवाल आम लोग पूछते दिख रहे हैं। इससे देश और उसके लोगों के मिजाज का पता चल रहा है जिसे टीवी वाले खबरिया चैनलों से नहीं समझा जा सकता। वे सभी किसी न किसी के हाथ बिके हुए ही बताए जाते हैं। आमफहम चर्चा तो यही बन चुकी है इन चैनलों के बारे में।



केवल ब्लॉग लिख लेने से मैं कोई क्रांति नहीं कर दूँगी। (बात में वजन है।) कुछ दिन पहले एक फिल्मी एक्टर ने कहा कि बहुत सी बातों की जड़ फेसबुक है। उनकी बात में भी वजन है। लेकिन सारा माल मलीदा लॉग आउट और लॉग इन के बीच में है। ठीक है न हम ब्लॉग लिखकर और फेसबुक पर कुछ शब्द अंकित कर के बहुत बड़े फर्क नहीं जन्म दे रहे है। लेकिन रुकिए! जरा ठहरिए! मेरी बात खत्म नहीं हुई। जैसा कि आप सभी जानते हैं कि हम तकनीक के जमाने में जी रहे हैं और 8 नवंबर की नोटबंदी के बेहूदा कारणों में डिजिटल बनने की चाश्नी सलाह भी दी गई। इसके क्या मायने हैं, इसे हमें समझना होगा। हर सिरे से घूर कर चेक करना होगा।

मुझे बहुत सी बातें नहीं समझ आतीं। पर एक बात समझ आती है कि हम इन डिजिटल और तकनीक से जुड़े मंचों पर अपनी सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनैतिक, कुछ हद तक पारिवारिक और बहुत सी विशेषताओं से लैस लंबी स्मृतियों को संजों रहे हैं। ठीक इसी तरह यह काम सरकार भी अपने तरीके से कर रही है अथवा कोई दूसरी संस्था या इकाई भी। सब कुछ दर्ज़ हो रहा है। और इनकी प्रामाणिकता पर विश्वास तो किया ही जा सकता है। जैसे भारत के प्रधानमंत्री ने 8 नवंबर 2016 की रात को 500 और 1000 रुपये के टेंडरों को रद्द कर दिया था। यह सत्य और मजबूत तथ्य भी है। इसकी जांच आप तमाम तरह की वेबसाइटों पर जाकर कर सकते हैं। इसके अलावा सोशल साइट्स पर भी संवेदनाएँ लंदन तक पहुँच जाती है। यह भी दर्ज़ हो रहा है। लेकिन खुद के देश में तमाम तरह की मुर्दानी घटनाएँ घट जाने पर भी संवेदना नहीं दर्ज़ हो रही हैं। यह भी दर्ज़ हो रहा है।

यह खेल बहुत दिलचस्प है। इसलिए अगर वह फिल्मी एक्टर यह कहे कि सोशल साइट्स ही जड़ है तो कृपया उसे मन में तौल लें। क्योंकि वह एक्टर अपनी नई फिल्म के आने पर खुद से ही दिन रात इन्हीं मंचों पर बिताएगा। वह अपने बयानों को भूल जाएगा। पर रुकिए! आपसे  से कई सवाल पुछे जायेंगे कि जब सत्ता दमन कर रही थी तब आप क्यों चादर तान कर सो रहे थे। जब लोग अपने अपने हिस्से की आवाज़ हर तकनीकी मंच पर दर्ज़ करे थे तब आपने क्यों अपने मुंह को सी रखा था।



बात कुछ और होती तो चल भी जाती। शायद दूर तक नहीं जाती। लेकिन बात मेमोरी की है। दिमाग और रोज़मर्रा का बहुत बड़ा हिस्सा स्थानांतरित होकर डिजिटल बन रहा है। हम बहुत से कारकों से संचालित हो रहे हैं। इसके उदाहरण हमारे आसपास बिखरे हुए हैं। जैसे अप्रैल महीने के आते ही आईपीएल क्रिकेट मैच का विज्ञापन आपको दिखाई देने लगते हैं। वास्तव में यह प्रचार आपको सूचित करने से ज़्यादा उकसाने और आदेश देने के लिए होते हैं। आप में एक उत्साही लालच भर दिया जाता है और आप वर्गीय तौर पर बंट कर छोटे और इकाई दर्शक का निर्माण करते हैं। लेकिन सोशल साइट्स इसमें थोड़ी अलग हो जाती हैं। वहाँ इकाई और बंटवारा बहुत अधिक उभर नहीं पाता और हर तरह का विचार दर्ज़ होता जाता है। ये विचार साझा होते हैं। आईपीएल मैच के विज्ञापनों या उसके दर्शकों के सामने उनकी आलोचना के विचार नहीं रखे जा सकते कि आप खेल भावना के गलत रूप को बढ़ा रहे हैं पर यही काम आप साझे डिजिटल मंच पर रख सकते हैं। इसी से जुड़ी कई बातों को बाकी पोस्टों में लिखने की कोशिश करूंगी। फिलहाल अभी तो यही काफी है।


इसलिए कहिए और मुखर हो जाइए। जो सही है उसके साथ खड़े होना सभी वक़्तों में सम्मानीय होता है। वरना आपकी यह गलतफहमी है कि भारत और बाक़ी देशों में बलि प्रथा खत्म हो गई है। अगर हमें जनता कहलाना है तो उस हक़ को कमाना ही होगा वरना गंडासा तैयार ही है।













Sunday, 4 June 2017

मीडिया के पतन की पतंग

कभी खबरों की सुई सिर्फ कुछ ही राज्य के ऊपर आकर अटकती है तो भ्रम और डर से ज़्यादा शक होने लगता है। सवाल भी मन में उभर ही आता है कि ऐसा क्यों है? राजधानी के बच्चों के प्रथम आने पर मीडिया स्तुतिगान करते नहीं थकता पर जब बिहार में कोई टॉप कर लेता है तो उसका डीएनए तक कर दिया जाता है। सब कुछ उघाड़ दिया जाता है। सोशल मीडिया का इस्तेमाल इसके लिए खूब किया जा रहा है। हैरत की बात है कि ऐसा बाकी राज्यों के बच्चों के लिए नहीं किया जाता।

जो भूल पिछली बार की छात्रा के साथ की गई वही भूल इस बार के छात्र के साथ भी की जा रही है। क्या जेल में पकड़ कर डाल देना एक मात्र उपाय है इस समस्या का? क्या वास्तव में समस्या है? क्या सबूत हैं? तथ्य क्या हैं? विद्यार्थियों के साथ अपराधियों जैसा सलूक क्योंकर करना चाहिए? मैं नहीं समझती, उन्हें जेल में डालना उपाय है। हमारे देश में इससे भी कई गंभीर अपराध किए हुए लोग छुटहा सांड की तरह जेल से बाहर एसी में रहते हैं। उन पर किसी क़िस्म की सख़्ती नहीं बरती जाती तो क्या किसी भी छात्र के साथ ऐसा करना वाज़िब होगा?

सबसे पहले मीडिया को अपना मुंह बंद करना चाहिए जो उस छात्र की फोटो और उसके नाम को हर जगह फैला रहे हैं। मीडिया सबसे बड़ा अपराधी ही बन बैठा है। क्या डिग्री हासिल किए मिडियाइओं को इतनी अक्ल नहीं कि उनका यह काम किसी के भविष्य को बुरी तरह प्रभावित कर देगा। राज्य के अधिकारियों को क्या इतना नहीं मालूम कि शिक्षा और शिक्षार्थी को किन नज़रों और उपकरणों की ज़रूरत होती है? क्या वे मीडिया के रपटों से ही फैसले ले लेते हैं? क्या शिक्षा की बेहतरी के काम को और राजनीति को अलग नहीं रखा जा सकता? ऐसे सवाल क्यों नहीं सोच में शामिल किए जाते? स्कूल में भूल का अहसास करवाने वाली पचासियों कहानी किताबों में चेपी जा रही हैं लेकिन वास्तव की ज़िंदगी में हम विद्यार्थी को भूल सुधार या उसके शिक्षा जीवन को बेहतर अनुभव और व्यवहार बनाने में कितने जागरूक हैं, यह सोचा जा रहा है नहीं?

एक खतरनाक चलन प्रचलन में है। पास-फ़ेल के बाद अब टॉपर और अ-टॉपर का मोड चलाया जा रहा है। सुझाव दिये जा रहे हैं टॉप करने के। नए तरीके बताए जा रहे हैं। उन सेंटरों के पते बताए जा रहे हैं जहां लोगों ने ट्यूशन पढ़ा है। लेकिन इस के बीच क्या यह चिंता जताई जा रही है कि बेहतर इंसान कैसे बने? मैंने तो अभी तक ऐसा कुछ सुना नहीं। हो सकता है आप लोगों ने सुना हो। मैं न सुन पाई हूँ। मीडिया के लिए क्यों सहारनपुर के दंगे सूची से बाहर रहते हैं जबकि यह बड़ी घटना है! नहीं है क्या? बेरोजगारी के आलम में दिन रात विकास हो रहा है। क्या यह महत्वपूर्ण सवाल नहीं है? स्वास्थ्य सेवा धराशायी हो रही हैं और आप अस्पताल में साप्ताहिक दिनों के हिसाब से चादर के रंग की कवरेज़ कर रहे हैं? बताइये रंग मायने रखते हैं या फिर स्वास्थ्य या फिर बीमारी का इलाज?

इसके अलावा पढ़ने के माध्यम पर कोई चर्चा मीडिया क्यों नहीं करता? वह क्यों नहीं इस तरह की मांग को सरकारों के समक्ष रखता कि सारे देश में एक जैसी पढ़ाई का पैटर्न चुना जाये जिससे सभी को बेहतर विकल्प मिले। अंग्रेज़ी और मात्र भाषाओं के बीच की कशमकश असली दिक़्क़त के रूप में रेखांकित किया जाए। भारत के धर्मनिरपेक्षमूल्य को जितना महत्व मिलना चाहिए उतना सभी किताबों में पर्याप्त मात्रा में मिले। क्योंकि हम आज जिस जमाने में जी रहे हैं वहाँ गांधीजी के जंतर नहीं बल्कि उनके साथ साथ बाकी आदर्श चरित्रों की जरूरत है। आप यह गलतफहमी न रहिए कि मशीनों के सहारे आप दिक्कतों को हल कर लेंगे। आपको बार बार महान विचारों की तरफ आना ही होगा, जिसे आप मानविकी कहकर पुकारते हैं।  



    

21 बरस की बाली उमर को सलाम, लेकिन

  दो साल पहले प्रथम वर्ष में पढ़ने वाली लड़की से मेरी बातचीत बस में सफ़र के दौरान शुरू हुई थी। शाम को काम से थकी हारी वह मुझे बस स्टॉप पर मिल...