Sunday, 4 June 2017

मीडिया के पतन की पतंग

कभी खबरों की सुई सिर्फ कुछ ही राज्य के ऊपर आकर अटकती है तो भ्रम और डर से ज़्यादा शक होने लगता है। सवाल भी मन में उभर ही आता है कि ऐसा क्यों है? राजधानी के बच्चों के प्रथम आने पर मीडिया स्तुतिगान करते नहीं थकता पर जब बिहार में कोई टॉप कर लेता है तो उसका डीएनए तक कर दिया जाता है। सब कुछ उघाड़ दिया जाता है। सोशल मीडिया का इस्तेमाल इसके लिए खूब किया जा रहा है। हैरत की बात है कि ऐसा बाकी राज्यों के बच्चों के लिए नहीं किया जाता।

जो भूल पिछली बार की छात्रा के साथ की गई वही भूल इस बार के छात्र के साथ भी की जा रही है। क्या जेल में पकड़ कर डाल देना एक मात्र उपाय है इस समस्या का? क्या वास्तव में समस्या है? क्या सबूत हैं? तथ्य क्या हैं? विद्यार्थियों के साथ अपराधियों जैसा सलूक क्योंकर करना चाहिए? मैं नहीं समझती, उन्हें जेल में डालना उपाय है। हमारे देश में इससे भी कई गंभीर अपराध किए हुए लोग छुटहा सांड की तरह जेल से बाहर एसी में रहते हैं। उन पर किसी क़िस्म की सख़्ती नहीं बरती जाती तो क्या किसी भी छात्र के साथ ऐसा करना वाज़िब होगा?

सबसे पहले मीडिया को अपना मुंह बंद करना चाहिए जो उस छात्र की फोटो और उसके नाम को हर जगह फैला रहे हैं। मीडिया सबसे बड़ा अपराधी ही बन बैठा है। क्या डिग्री हासिल किए मिडियाइओं को इतनी अक्ल नहीं कि उनका यह काम किसी के भविष्य को बुरी तरह प्रभावित कर देगा। राज्य के अधिकारियों को क्या इतना नहीं मालूम कि शिक्षा और शिक्षार्थी को किन नज़रों और उपकरणों की ज़रूरत होती है? क्या वे मीडिया के रपटों से ही फैसले ले लेते हैं? क्या शिक्षा की बेहतरी के काम को और राजनीति को अलग नहीं रखा जा सकता? ऐसे सवाल क्यों नहीं सोच में शामिल किए जाते? स्कूल में भूल का अहसास करवाने वाली पचासियों कहानी किताबों में चेपी जा रही हैं लेकिन वास्तव की ज़िंदगी में हम विद्यार्थी को भूल सुधार या उसके शिक्षा जीवन को बेहतर अनुभव और व्यवहार बनाने में कितने जागरूक हैं, यह सोचा जा रहा है नहीं?

एक खतरनाक चलन प्रचलन में है। पास-फ़ेल के बाद अब टॉपर और अ-टॉपर का मोड चलाया जा रहा है। सुझाव दिये जा रहे हैं टॉप करने के। नए तरीके बताए जा रहे हैं। उन सेंटरों के पते बताए जा रहे हैं जहां लोगों ने ट्यूशन पढ़ा है। लेकिन इस के बीच क्या यह चिंता जताई जा रही है कि बेहतर इंसान कैसे बने? मैंने तो अभी तक ऐसा कुछ सुना नहीं। हो सकता है आप लोगों ने सुना हो। मैं न सुन पाई हूँ। मीडिया के लिए क्यों सहारनपुर के दंगे सूची से बाहर रहते हैं जबकि यह बड़ी घटना है! नहीं है क्या? बेरोजगारी के आलम में दिन रात विकास हो रहा है। क्या यह महत्वपूर्ण सवाल नहीं है? स्वास्थ्य सेवा धराशायी हो रही हैं और आप अस्पताल में साप्ताहिक दिनों के हिसाब से चादर के रंग की कवरेज़ कर रहे हैं? बताइये रंग मायने रखते हैं या फिर स्वास्थ्य या फिर बीमारी का इलाज?

इसके अलावा पढ़ने के माध्यम पर कोई चर्चा मीडिया क्यों नहीं करता? वह क्यों नहीं इस तरह की मांग को सरकारों के समक्ष रखता कि सारे देश में एक जैसी पढ़ाई का पैटर्न चुना जाये जिससे सभी को बेहतर विकल्प मिले। अंग्रेज़ी और मात्र भाषाओं के बीच की कशमकश असली दिक़्क़त के रूप में रेखांकित किया जाए। भारत के धर्मनिरपेक्षमूल्य को जितना महत्व मिलना चाहिए उतना सभी किताबों में पर्याप्त मात्रा में मिले। क्योंकि हम आज जिस जमाने में जी रहे हैं वहाँ गांधीजी के जंतर नहीं बल्कि उनके साथ साथ बाकी आदर्श चरित्रों की जरूरत है। आप यह गलतफहमी न रहिए कि मशीनों के सहारे आप दिक्कतों को हल कर लेंगे। आपको बार बार महान विचारों की तरफ आना ही होगा, जिसे आप मानविकी कहकर पुकारते हैं।  



    

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