आज का अखबार किसानों को मध्य प्रदेश प्रशासन द्वारा मारे जाने की स्तब्ध और क्रूर खबर को बहुत ही अजीब तरीके से बता रहा है। अखबार लिखता है-
"मध्य प्रदेश के मंदसौर में किसान आंदोलन के दौरान छह लोगों की मौत के बाद बुधवार को हिंसा की आग देवास समेत कुछ और जिलों में फैल गई।..."
क्या अखबार वालों को नहीं पता कि किसान का नाता किसानी से है न कि बंदूकों और पिस्तौलों से ? क्या हमारे देश के गरीब लोग पिस्तौल लेकर प्रदर्शन करते हैं? क्या किसान आंदोलन की जगह हिंसा फैला रहे हैं? जब नेता को रैली करने का हक़ है तो किसान को हक़ की मांग करने का हक़ क्यों नहीं है? साफ साफ यह क्यों नहीं लिखा जाता कि प्रशासन ने अपनी बेवकूफाना कारवाई से छह किसानों की जान ले ली। बदले में मुआवजे का ऐलान कर दिया गया है। वास्तव में जो हुआ वह बहुत गलत और भयानक है जैसे सहारनपुर में एक जाति के घरों को आग लगा दी गई और उनके माल सामान को जलाया गया। निचाई में गिरते हुए उनके बच्चों को उठाकर आग में फेंकने का गंदा काम किया। गर्भवती औरतों के ऊपर प्रहार हुए। क्या नहीं किया उन दरिंदों ने!
इन खबरों ने सोशल मंचों पर अच्छा खासा स्थान पाया है। लोगों में गुस्सा है कि क्यों किसानों पर गोलियां चलाई गईं। लोगों का झुकाव साफ तौर से किसानों के साथ है। सहारनपुर के हादसे के लिए कौन जिम्मेदार हैं, ऐसे सवाल आम लोग पूछते दिख रहे हैं। इससे देश और उसके लोगों के मिजाज का पता चल रहा है जिसे टीवी वाले खबरिया चैनलों से नहीं समझा जा सकता। वे सभी किसी न किसी के हाथ बिके हुए ही बताए जाते हैं। आमफहम चर्चा तो यही बन चुकी है इन चैनलों के बारे में।
केवल ब्लॉग लिख लेने से मैं कोई क्रांति नहीं कर दूँगी। (बात में वजन है।) कुछ दिन पहले एक फिल्मी एक्टर ने कहा कि बहुत सी बातों की जड़ फेसबुक है। उनकी बात में भी वजन है। लेकिन सारा माल मलीदा लॉग आउट और लॉग इन के बीच में है। ठीक है न हम ब्लॉग लिखकर और फेसबुक पर कुछ शब्द अंकित कर के बहुत बड़े फर्क नहीं जन्म दे रहे है। लेकिन रुकिए! जरा ठहरिए! मेरी बात खत्म नहीं हुई। जैसा कि आप सभी जानते हैं कि हम तकनीक के जमाने में जी रहे हैं और 8 नवंबर की नोटबंदी के बेहूदा कारणों में डिजिटल बनने की चाश्नी सलाह भी दी गई। इसके क्या मायने हैं, इसे हमें समझना होगा। हर सिरे से घूर कर चेक करना होगा।
मुझे बहुत सी बातें नहीं समझ आतीं। पर एक बात समझ आती है कि हम इन डिजिटल और तकनीक से जुड़े मंचों पर अपनी सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनैतिक, कुछ हद तक पारिवारिक और बहुत सी विशेषताओं से लैस लंबी स्मृतियों को संजों रहे हैं। ठीक इसी तरह यह काम सरकार भी अपने तरीके से कर रही है अथवा कोई दूसरी संस्था या इकाई भी। सब कुछ दर्ज़ हो रहा है। और इनकी प्रामाणिकता पर विश्वास तो किया ही जा सकता है। जैसे भारत के प्रधानमंत्री ने 8 नवंबर 2016 की रात को 500 और 1000 रुपये के टेंडरों को रद्द कर दिया था। यह सत्य और मजबूत तथ्य भी है। इसकी जांच आप तमाम तरह की वेबसाइटों पर जाकर कर सकते हैं। इसके अलावा सोशल साइट्स पर भी संवेदनाएँ लंदन तक पहुँच जाती है। यह भी दर्ज़ हो रहा है। लेकिन खुद के देश में तमाम तरह की मुर्दानी घटनाएँ घट जाने पर भी संवेदना नहीं दर्ज़ हो रही हैं। यह भी दर्ज़ हो रहा है।
यह खेल बहुत दिलचस्प है। इसलिए अगर वह फिल्मी एक्टर यह कहे कि सोशल साइट्स ही जड़ है तो कृपया उसे मन में तौल लें। क्योंकि वह एक्टर अपनी नई फिल्म के आने पर खुद से ही दिन रात इन्हीं मंचों पर बिताएगा। वह अपने बयानों को भूल जाएगा। पर रुकिए! आपसे से कई सवाल पुछे जायेंगे कि जब सत्ता दमन कर रही थी तब आप क्यों चादर तान कर सो रहे थे। जब लोग अपने अपने हिस्से की आवाज़ हर तकनीकी मंच पर दर्ज़ करे थे तब आपने क्यों अपने मुंह को सी रखा था।
बात कुछ और होती तो चल भी जाती। शायद दूर तक नहीं जाती। लेकिन बात मेमोरी की है। दिमाग और रोज़मर्रा का बहुत बड़ा हिस्सा स्थानांतरित होकर डिजिटल बन रहा है। हम बहुत से कारकों से संचालित हो रहे हैं। इसके उदाहरण हमारे आसपास बिखरे हुए हैं। जैसे अप्रैल महीने के आते ही आईपीएल क्रिकेट मैच का विज्ञापन आपको दिखाई देने लगते हैं। वास्तव में यह प्रचार आपको सूचित करने से ज़्यादा उकसाने और आदेश देने के लिए होते हैं। आप में एक उत्साही लालच भर दिया जाता है और आप वर्गीय तौर पर बंट कर छोटे और इकाई दर्शक का निर्माण करते हैं। लेकिन सोशल साइट्स इसमें थोड़ी अलग हो जाती हैं। वहाँ इकाई और बंटवारा बहुत अधिक उभर नहीं पाता और हर तरह का विचार दर्ज़ होता जाता है। ये विचार साझा होते हैं। आईपीएल मैच के विज्ञापनों या उसके दर्शकों के सामने उनकी आलोचना के विचार नहीं रखे जा सकते कि आप खेल भावना के गलत रूप को बढ़ा रहे हैं पर यही काम आप साझे डिजिटल मंच पर रख सकते हैं। इसी से जुड़ी कई बातों को बाकी पोस्टों में लिखने की कोशिश करूंगी। फिलहाल अभी तो यही काफी है।
इसलिए कहिए और मुखर हो जाइए। जो सही है उसके साथ खड़े होना सभी वक़्तों में सम्मानीय होता है। वरना आपकी यह गलतफहमी है कि भारत और बाक़ी देशों में बलि प्रथा खत्म हो गई है। अगर हमें जनता कहलाना है तो उस हक़ को कमाना ही होगा वरना गंडासा तैयार ही है।
"मध्य प्रदेश के मंदसौर में किसान आंदोलन के दौरान छह लोगों की मौत के बाद बुधवार को हिंसा की आग देवास समेत कुछ और जिलों में फैल गई।..."
क्या अखबार वालों को नहीं पता कि किसान का नाता किसानी से है न कि बंदूकों और पिस्तौलों से ? क्या हमारे देश के गरीब लोग पिस्तौल लेकर प्रदर्शन करते हैं? क्या किसान आंदोलन की जगह हिंसा फैला रहे हैं? जब नेता को रैली करने का हक़ है तो किसान को हक़ की मांग करने का हक़ क्यों नहीं है? साफ साफ यह क्यों नहीं लिखा जाता कि प्रशासन ने अपनी बेवकूफाना कारवाई से छह किसानों की जान ले ली। बदले में मुआवजे का ऐलान कर दिया गया है। वास्तव में जो हुआ वह बहुत गलत और भयानक है जैसे सहारनपुर में एक जाति के घरों को आग लगा दी गई और उनके माल सामान को जलाया गया। निचाई में गिरते हुए उनके बच्चों को उठाकर आग में फेंकने का गंदा काम किया। गर्भवती औरतों के ऊपर प्रहार हुए। क्या नहीं किया उन दरिंदों ने!
इन खबरों ने सोशल मंचों पर अच्छा खासा स्थान पाया है। लोगों में गुस्सा है कि क्यों किसानों पर गोलियां चलाई गईं। लोगों का झुकाव साफ तौर से किसानों के साथ है। सहारनपुर के हादसे के लिए कौन जिम्मेदार हैं, ऐसे सवाल आम लोग पूछते दिख रहे हैं। इससे देश और उसके लोगों के मिजाज का पता चल रहा है जिसे टीवी वाले खबरिया चैनलों से नहीं समझा जा सकता। वे सभी किसी न किसी के हाथ बिके हुए ही बताए जाते हैं। आमफहम चर्चा तो यही बन चुकी है इन चैनलों के बारे में।
केवल ब्लॉग लिख लेने से मैं कोई क्रांति नहीं कर दूँगी। (बात में वजन है।) कुछ दिन पहले एक फिल्मी एक्टर ने कहा कि बहुत सी बातों की जड़ फेसबुक है। उनकी बात में भी वजन है। लेकिन सारा माल मलीदा लॉग आउट और लॉग इन के बीच में है। ठीक है न हम ब्लॉग लिखकर और फेसबुक पर कुछ शब्द अंकित कर के बहुत बड़े फर्क नहीं जन्म दे रहे है। लेकिन रुकिए! जरा ठहरिए! मेरी बात खत्म नहीं हुई। जैसा कि आप सभी जानते हैं कि हम तकनीक के जमाने में जी रहे हैं और 8 नवंबर की नोटबंदी के बेहूदा कारणों में डिजिटल बनने की चाश्नी सलाह भी दी गई। इसके क्या मायने हैं, इसे हमें समझना होगा। हर सिरे से घूर कर चेक करना होगा।
मुझे बहुत सी बातें नहीं समझ आतीं। पर एक बात समझ आती है कि हम इन डिजिटल और तकनीक से जुड़े मंचों पर अपनी सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनैतिक, कुछ हद तक पारिवारिक और बहुत सी विशेषताओं से लैस लंबी स्मृतियों को संजों रहे हैं। ठीक इसी तरह यह काम सरकार भी अपने तरीके से कर रही है अथवा कोई दूसरी संस्था या इकाई भी। सब कुछ दर्ज़ हो रहा है। और इनकी प्रामाणिकता पर विश्वास तो किया ही जा सकता है। जैसे भारत के प्रधानमंत्री ने 8 नवंबर 2016 की रात को 500 और 1000 रुपये के टेंडरों को रद्द कर दिया था। यह सत्य और मजबूत तथ्य भी है। इसकी जांच आप तमाम तरह की वेबसाइटों पर जाकर कर सकते हैं। इसके अलावा सोशल साइट्स पर भी संवेदनाएँ लंदन तक पहुँच जाती है। यह भी दर्ज़ हो रहा है। लेकिन खुद के देश में तमाम तरह की मुर्दानी घटनाएँ घट जाने पर भी संवेदना नहीं दर्ज़ हो रही हैं। यह भी दर्ज़ हो रहा है।
यह खेल बहुत दिलचस्प है। इसलिए अगर वह फिल्मी एक्टर यह कहे कि सोशल साइट्स ही जड़ है तो कृपया उसे मन में तौल लें। क्योंकि वह एक्टर अपनी नई फिल्म के आने पर खुद से ही दिन रात इन्हीं मंचों पर बिताएगा। वह अपने बयानों को भूल जाएगा। पर रुकिए! आपसे से कई सवाल पुछे जायेंगे कि जब सत्ता दमन कर रही थी तब आप क्यों चादर तान कर सो रहे थे। जब लोग अपने अपने हिस्से की आवाज़ हर तकनीकी मंच पर दर्ज़ करे थे तब आपने क्यों अपने मुंह को सी रखा था।
बात कुछ और होती तो चल भी जाती। शायद दूर तक नहीं जाती। लेकिन बात मेमोरी की है। दिमाग और रोज़मर्रा का बहुत बड़ा हिस्सा स्थानांतरित होकर डिजिटल बन रहा है। हम बहुत से कारकों से संचालित हो रहे हैं। इसके उदाहरण हमारे आसपास बिखरे हुए हैं। जैसे अप्रैल महीने के आते ही आईपीएल क्रिकेट मैच का विज्ञापन आपको दिखाई देने लगते हैं। वास्तव में यह प्रचार आपको सूचित करने से ज़्यादा उकसाने और आदेश देने के लिए होते हैं। आप में एक उत्साही लालच भर दिया जाता है और आप वर्गीय तौर पर बंट कर छोटे और इकाई दर्शक का निर्माण करते हैं। लेकिन सोशल साइट्स इसमें थोड़ी अलग हो जाती हैं। वहाँ इकाई और बंटवारा बहुत अधिक उभर नहीं पाता और हर तरह का विचार दर्ज़ होता जाता है। ये विचार साझा होते हैं। आईपीएल मैच के विज्ञापनों या उसके दर्शकों के सामने उनकी आलोचना के विचार नहीं रखे जा सकते कि आप खेल भावना के गलत रूप को बढ़ा रहे हैं पर यही काम आप साझे डिजिटल मंच पर रख सकते हैं। इसी से जुड़ी कई बातों को बाकी पोस्टों में लिखने की कोशिश करूंगी। फिलहाल अभी तो यही काफी है।
इसलिए कहिए और मुखर हो जाइए। जो सही है उसके साथ खड़े होना सभी वक़्तों में सम्मानीय होता है। वरना आपकी यह गलतफहमी है कि भारत और बाक़ी देशों में बलि प्रथा खत्म हो गई है। अगर हमें जनता कहलाना है तो उस हक़ को कमाना ही होगा वरना गंडासा तैयार ही है।
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