ज़ोर-जुल्म-जबर्दस्ती के खिलाफ़ सिर मुंडा लेने वाली वह बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की छात्रा इस समय की सबसे बेहतर प्रेरणास्रोत है। कम से कम मेरे लिए तो है ही। विरोध जताने का नया हथियार ही बता दिया। अब हमारा सिर मुंडवाना ही हमारे विरोधों के तरीकों में से एक होगा। विधवा हो जाने पर सिर के बाल हटा देने वाली परंपरा को जबरन थोपने वाले इस अजीब तरह के लोगों के कबीले के मुंह पर बीएचयू की उस लड़की ने झापड़ रशीद कर उन्हें अपनी जगह दिखला दी है। जैसे बंदूक की नली घुमाकर शिकार करने वालों के आगे ही रख दी है। लो जी चला लो अब गोली! जिल्लत को हथियार में भी तब्दील किया जा सकता है।
कवि और शायरों ने जिनकी ज़ुल्फों पर किताबें लिखी हों, जिनकी चोटियों को साँप सी लहराती हुई बताया गया हो, जिनके जुड़ों में फूलों को दिखाया गया हो, जिनके लिए बालों को उनकी सुंदरता का अहम हिस्सा बताया जाता हो, जहां बाल धोने के घोल से लेकर बढ़ाने तक के सूत्र बाज़ार में बिकते हों, जो लंबे बालों को शान समझते हैं, वहाँ उसी देश में एक लड़की ने अपने विरोध में उन्हें त्याग दिया और या जतलाया कि गलत के खिलाफ कैसे आवाज़ बुलंद की जाती हो। जिनको यह बात मामूली लगती है लगे, मुझे नहीं लगती।
महिलाओं के विरोधों पर नज़र डाली जाये तो उनके विरोध एक निश्चित खाँचें में दिखते हैं। विरोधों में खामोशी, झगड़े, कहासुनी, बात न करना, खाना छोड़ देना, शादी ब्याह में या किसी भी रस्म पर गीतों के माध्यम से गुबार निकाल लेना शामिल हैं। हो सकता है और भी ऐसे निजी व घरेलू तरीकें हों और अपने अपने अवसर पर वे करगार भी रहे हैं। पर घर की चौहद्दी से बाहर के विरोधों में नारे लगाने, रैली निकालने और अनशन कर लेने में अब बराबर दिखाई देती हैं। मेधा पाटकर द्वारा नर्मदा बांध के खिलाफ़ किए गए अनशन अति प्रभावी और सम्मानीय रहे। ठीक इसी तरह इतिहास में चिपको आंदोलन में महिलाओं का पेड़ों से चिपक जाना और उन्हें कटने से बचाना भी महिला द्वारा विरोध जतलाने का नायाब उदाहरण हैं। स्वतन्त्रता संग्राम में कविता से लेकर कदम ताल-करने तक वे बहुत आगे थीं।
आदिवासी आंदोलनों में भी महिलाओं की समान भागीदारी दिखती है। अगर ऐसा नहीं होता था दक्षिण कोरिया की विश्व की सबसे बड़ी स्टील कंपनियों में से एक कंपनी पॉस्को उड़ीसा में अभी तक अपना कारख़ाना लगा चुकी होती। इसके पीछे वहाँ के लोगों का वाजिब मजबूत विरोध रहा, जिसमें औरत मर्द और बच्चों ने पूरा पूरा हिस्सा लिया। एक ब्लॉग के अनुसार जब पुलिस गाँव में जाती थी तब वहाँ की स्थानीय औरतें उनके विरोध में अपने कपड़े उतार देतीं और तेज़ चिल्लाकर कहतीं- 'तुम यहाँ क्यों आए हो? क्या देखना चाहते हो?' ऐसा ही हाल मणिपुर में औरतों के विरोध में दिखा।
पर मणिपुर को शर्मिला इरोम के कारण लोग जान पाये। सोलह वर्षों का उपवास रखकर प्रशासन को उसके अत्याचार के बदले रचनात्मक और बिना बंदूकों का विरोध बहुत महंगा पड़ा। उनके इतने लंबे अंतराल का विरोध ही था जो देश में एक लहर की तरह दौड़ा और बहुत से सोते हुए लोगों को जगाया। लोकतंत्र में विरोधों की क्या अहमियत होती है यह शर्मिला इरोम से सीखा जा सकता है। ज़रा फर्ज़ कीजिये, एक तरफ आपके पास सारे हथियार व साधन हैं और दूसरी तरह एक औरत का अनशन जैसा हथियार कि तुम गलत हो। गलत को गलत कहना और उसकी सही समय पर पहचान कर लेना बहदुरी के उदारणों में गिना जाता है। मणिपुर में हुए हालिया चुनाव में उन्हें महज़ 90 वोट मिले। लेकिन क्या यह सही नहीं कि कम से कम 90 लोगों में शर्मिला के प्रति एक भाव था। उनके विरोध की क़द्र थी। ऐसे ही शायद देश के बहुत से लोगों में उनके इस जज़्बे को लेकर सम्मान है।
मेधा पाटकर को तो मैंने जब से होश संभाला है एक मजबूत विरोध करते हुए देखा है। मैंने बांध की खासियत और लाभ जरूर किताबों से जाने पर बांध के पीछे की तस्वीर मेधा पाटकर और उन तमाम लोगों से समझे कि बांध बेघर किए जाने की लंबी दास्तान अपने पीछे छोड़ जाते हैं। बहुत कुछ खत्म हो जाता है बांध के निर्माण में। ऐसे कई और विरोधों में भी उनकी अहम भूमिका होती है। ऐसे ही दिल्ली विश्वविद्यालय का एक आंदोलन है जिसका नाम-'पिजड़ा तोड़' है। मुझे यह आंदोलन भी बेहद रचनात्मक लगता है। वजह, छात्राएँ वे तमाम तरह के कदम उठाती हैं जिनमें वे अपने गुस्से और असहमति को मजबूती से दर्ज़ करवा पाएँ। पोस्टर्स से लेकर गीत संगीत और रैलियों के जरिये प्रशासन की नींद उड़ा देती हैं। लड़की हो तो घड़ी की सुइयों के मुताबिक चलने की हिदायत देने वाले कॉलेज के प्रशासन को वे जतला देती हैं कि अब और नहीं चलेगा! ठीक इसी तरह हमारा दिन और हमारी रात वाले अभियान में भी लड़कियों का रात पर सड़कों पर उतरना और यह कहना कि रात में भी हमारा समय है और दिन में भी जैसे अभियान, औरतों के अपने अभियानों और आंदोलनों को पुख्ता करते हैं। फेसबुक से लेकर ट्विटर तक पर गलत के खिलाफ, आज़ादी की सांस के लिए दमदार महिला दस्तक नज़र आ जाती है।
अहिंसक विरोधों की भारत में लंबी परंपरा रही है। इसलिए बीएचयू के गेट पर धरने पर बैठी उन छात्राओं के विरोध को आधी आबादी के जागरण अभियानों में से एक अभियान समझा जाये तो इसमें कुछ गलत नहीं होगा। ठीक इसी तरह और भी मजबूत दस्तक हो रही हैं। मैं अपनी बात रखने की कोशिश में हूँ कि आधी आबादी बोलना भी खूब जान चुकी है। नहीं दोगे हक़ तो छिन कर लेंगी। हलक से भी निकाल लेंगी, वो भी सलीके से! महाभारत के बाद अब बारी महाभारती लिखने की है।
अहिंसक विरोधों की भारत में लंबी परंपरा रही है। इसलिए बीएचयू के गेट पर धरने पर बैठी उन छात्राओं के विरोध को आधी आबादी के जागरण अभियानों में से एक अभियान समझा जाये तो इसमें कुछ गलत नहीं होगा। ठीक इसी तरह और भी मजबूत दस्तक हो रही हैं। मैं अपनी बात रखने की कोशिश में हूँ कि आधी आबादी बोलना भी खूब जान चुकी है। नहीं दोगे हक़ तो छिन कर लेंगी। हलक से भी निकाल लेंगी, वो भी सलीके से! महाभारत के बाद अब बारी महाभारती लिखने की है।