Sunday, 24 September 2017

दमदार औरतें: अपने स्पेस पर दावा

ज़ोर-जुल्म-जबर्दस्ती के खिलाफ़ सिर मुंडा लेने वाली वह बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की छात्रा इस समय की सबसे बेहतर प्रेरणास्रोत है। कम से कम मेरे लिए तो है ही। विरोध जताने का नया हथियार ही बता दिया। अब हमारा सिर मुंडवाना ही हमारे विरोधों के तरीकों में से एक होगा। विधवा हो जाने पर सिर के बाल हटा देने वाली परंपरा को जबरन थोपने वाले इस अजीब तरह के लोगों के कबीले के मुंह पर बीएचयू की उस लड़की ने झापड़ रशीद कर उन्हें अपनी जगह दिखला दी है। जैसे बंदूक की नली घुमाकर शिकार करने वालों के आगे ही रख दी है। लो जी चला लो अब गोली! जिल्लत को हथियार में भी तब्दील किया जा सकता है। 

कवि और शायरों ने जिनकी ज़ुल्फों पर किताबें लिखी हों, जिनकी चोटियों को साँप सी लहराती हुई बताया गया हो, जिनके जुड़ों में फूलों को दिखाया गया हो, जिनके लिए बालों को उनकी सुंदरता का अहम हिस्सा बताया जाता हो, जहां बाल धोने के घोल से लेकर बढ़ाने तक के सूत्र बाज़ार में बिकते हों, जो लंबे बालों को शान समझते हैं, वहाँ उसी देश में एक लड़की ने अपने विरोध में उन्हें त्याग दिया और या जतलाया कि गलत के खिलाफ कैसे आवाज़ बुलंद की जाती हो। जिनको यह बात मामूली लगती है लगे, मुझे नहीं लगती।

महिलाओं के विरोधों पर नज़र डाली जाये तो उनके विरोध एक निश्चित खाँचें में दिखते हैं। विरोधों में खामोशी, झगड़े, कहासुनी, बात न करना, खाना छोड़ देना, शादी ब्याह में या किसी भी रस्म पर गीतों के माध्यम से गुबार निकाल लेना शामिल हैं। हो सकता है और भी ऐसे निजी व घरेलू तरीकें हों और अपने अपने अवसर पर वे करगार भी रहे हैं।  पर घर की चौहद्दी से बाहर के विरोधों में नारे लगाने, रैली निकालने और अनशन कर लेने में अब बराबर दिखाई देती हैं। मेधा पाटकर द्वारा नर्मदा बांध के खिलाफ़ किए गए अनशन अति प्रभावी और सम्मानीय रहे। ठीक इसी तरह इतिहास में चिपको आंदोलन में महिलाओं का पेड़ों से चिपक जाना और उन्हें कटने से बचाना भी महिला द्वारा विरोध जतलाने का नायाब उदाहरण हैं। स्वतन्त्रता संग्राम में कविता से लेकर कदम ताल-करने तक वे बहुत आगे थीं।  



आदिवासी आंदोलनों में भी महिलाओं की समान भागीदारी दिखती है। अगर ऐसा नहीं होता था दक्षिण कोरिया की विश्व की सबसे बड़ी स्टील कंपनियों में से एक कंपनी पॉस्को उड़ीसा में अभी तक अपना कारख़ाना लगा चुकी होती। इसके पीछे वहाँ के लोगों का वाजिब मजबूत विरोध रहा, जिसमें औरत मर्द और बच्चों ने पूरा पूरा हिस्सा लिया। एक ब्लॉग के अनुसार जब पुलिस गाँव में जाती थी तब वहाँ की स्थानीय औरतें उनके विरोध में अपने कपड़े उतार देतीं और तेज़ चिल्लाकर कहतीं- 'तुम यहाँ क्यों आए हो? क्या देखना चाहते हो?' ऐसा ही हाल मणिपुर में औरतों के विरोध में दिखा। 

पर मणिपुर को शर्मिला इरोम के कारण लोग जान पाये। सोलह वर्षों का उपवास रखकर प्रशासन को उसके अत्याचार के बदले रचनात्मक और बिना बंदूकों का विरोध बहुत महंगा पड़ा। उनके इतने लंबे अंतराल का विरोध ही था जो देश में एक लहर की तरह दौड़ा और बहुत से सोते हुए लोगों को जगाया। लोकतंत्र में विरोधों की क्या अहमियत होती है यह शर्मिला इरोम से सीखा जा सकता है। ज़रा फर्ज़ कीजिये, एक तरफ आपके पास सारे हथियार व साधन हैं और दूसरी तरह एक औरत का अनशन जैसा हथियार कि तुम गलत हो। गलत को गलत कहना और उसकी सही समय पर पहचान कर लेना बहदुरी के उदारणों में गिना जाता है। मणिपुर में हुए हालिया चुनाव में उन्हें महज़ 90 वोट मिले। लेकिन क्या यह सही नहीं कि कम से कम 90 लोगों में शर्मिला के प्रति एक भाव था। उनके विरोध की क़द्र थी। ऐसे ही शायद देश के बहुत से लोगों में उनके इस जज़्बे को लेकर सम्मान है। 

मेधा पाटकर को तो मैंने जब से होश संभाला है एक मजबूत विरोध करते हुए देखा है। मैंने बांध की खासियत और लाभ जरूर किताबों से जाने पर बांध के पीछे की तस्वीर मेधा पाटकर और उन तमाम लोगों से समझे कि बांध बेघर किए जाने की लंबी दास्तान अपने पीछे छोड़ जाते हैं। बहुत कुछ खत्म हो जाता है बांध के निर्माण में। ऐसे कई और विरोधों में भी उनकी अहम भूमिका होती है। ऐसे ही दिल्ली विश्वविद्यालय का एक आंदोलन है जिसका नाम-'पिजड़ा तोड़' है। मुझे यह आंदोलन भी बेहद रचनात्मक लगता है। वजह, छात्राएँ वे तमाम तरह के कदम उठाती हैं जिनमें वे अपने गुस्से और असहमति को मजबूती से दर्ज़ करवा पाएँ। पोस्टर्स से लेकर गीत संगीत और रैलियों के जरिये प्रशासन की नींद उड़ा देती हैं। लड़की हो तो घड़ी की सुइयों के मुताबिक चलने की हिदायत देने वाले कॉलेज के प्रशासन को वे जतला देती हैं कि अब और नहीं चलेगा! ठीक इसी तरह हमारा दिन और हमारी रात वाले अभियान में भी लड़कियों का रात पर सड़कों पर उतरना और यह कहना कि रात में भी हमारा समय है और दिन में भी जैसे अभियान, औरतों के अपने अभियानों और आंदोलनों को पुख्ता करते हैं। फेसबुक से लेकर ट्विटर तक पर गलत के खिलाफ, आज़ादी की सांस के लिए दमदार महिला दस्तक नज़र आ जाती है।

अहिंसक विरोधों की भारत में लंबी परंपरा रही है। इसलिए बीएचयू के गेट पर धरने पर बैठी उन छात्राओं के विरोध को आधी आबादी के जागरण अभियानों में से एक अभियान समझा जाये तो इसमें कुछ गलत नहीं होगा। ठीक इसी तरह और भी मजबूत दस्तक हो रही हैं। मैं अपनी बात रखने की कोशिश में हूँ कि आधी आबादी बोलना भी खूब जान चुकी है। नहीं दोगे हक़ तो छिन कर लेंगी। हलक से भी निकाल लेंगी, वो भी सलीके से! महाभारत के बाद अब बारी महाभारती लिखने की है।

Saturday, 23 September 2017

कुछ छवियों से परहेज़ करना चाहिए


इस तस्वीर को सोशल मीडिया पर जमकर औरत और मर्द दोनों ही नवरात्र के इन दिनों में एक दूसरे से बाँट रहे हैं और प्रोफ़ाइल भी अपडेट कर रहे हैं। भारत में तस्वीरों का एक बहुत बड़ा बाज़ार है जिनके पीछे की वजह यह है कि यहाँ के अधिकांश देवी देवता चित्र में मौजूद हैं। सभी देवी देवताओं की कल्पना कर के उनको एक प्रभावी और खूबसूरत रूप दिया गया है।  इसके अलावा दिल्ली की परिवहन सेवा में हिन्दी सिनेमा से लेकर दूसरी भाषाओं के सिनेमा के कलाकारों ने भी तस्वीरों में एक बड़ी जगह बनाई है। फेसबुक के आ जाने से सोशल मीडिया का रंग कुछ इस तरह बदला कि नए तकनीकी कैमरों से हर कोई अपनी तस्वीर साझा का सकता है। मैं कभी किसी दूसरे देश नहीं गई इस लिए मुझे नहीं पता कि वहाँ का रंग तस्वीरों के मामले में कैसा है? लेकिन अपने देश के भी बहुत छोटे से हिस्से को ही जिया है। अधिकतर घर से। लड़की होने की बहुत क़ीमत तो चुकानी ही पड़ती है। इसलिए गर लोग यह समझे कि भारत के 29 राज्यों के आधार पर तस्वीर वाली बात कह रही हूँ तो वे सबसे पहले खुद की राय दिमाग में उगा लें। 


हमारे यहाँ बचपन से ही तस्वीरों से मुलाक़ात शुरू हो जाती है। अगर आप स्कूल में दाखिल होने जा रहे हैं तब यह निश्चित है कि आपका फोटो पासपोर्ट साइज़ में आना तय है। इसके अलावा स्कूल के ढेर सारे समारोह में भी आपकी तस्वीरों में ख़ास जगह तय ही होती है। लेकिन स्कूल से पहले आपको अपने पारिवारिक फोटो का हिस्सा होना ही होता है। सवाल यादों का होता है। छुटकी कैसी लगती है या फिर छोटू बचपन में कितना ताज़ा मोटा था, यह बात आगे चलकर तस्वीरें ही बताती हैं। इसलिए तस्वीरआपकी जिंदगी का एक अहम हिस्सा है।इससे पहले और कहाँ तस्वीर देखने को मिलती है? घर की दीवारों ने परिवार को कभी दगा दाग नहीं दिया। हिन्दू हूँ इसलिए कह सकती हूँ कि दीवारों पर मुख्य धारा के देवताओं और देवियों का श्रद्धा से कब्जा हुआ होता था। आज भी है पर अब जरूरत तारीख़ और त्योहारों तक सिमटी है। 

अब सोचती हूँ तब पाती हूँ कि मैं कितने प्रभावपूर्ण नज़रिये से सरस्वती माँ के कपड़ों, गहनों, गोरे रंग को, वीणा को और मोर को ताका करती थी। इससे अधिक लक्ष्मी और शेरवाली माता की तस्वीरें अव्वल दर्ज़े की प्रभाव छोड़ने वाली होती थीं। ज़रा सोचिए, जिन शेरों को देखने से ही सिहरन हो जाए भला उस पर कोई देवी सवार हो जाये तो बच्चा दिमाग भगवान जैसे तत्व को न माने तो क्या करे। इस सारी कहानी को कहने का यही मकसद है कि तस्वीरें बहुत ही प्रभावित करती हैं। और इसे मामूली समझकर नज़रअंदाज़ कर देना ठीक बात नहीं। इसलिए जब एक औरत की बहु भुजाओं वाली तस्वीर देखी तो मेरा माथा ठनका, भला औरत को यह क्योंकर देवी बनाने पर तुले हैं?

एक ही  व्यक्ति का बहुत से काम कर देना पहली नज़र में उसका गुण हो सकता है पर उसके ऊपर आरोपित छवियों का एक हिस्सा भी समझा जा सकता है। औरत के बहुत से हाथ बनाकर उसमें काम और व्यस्तता के सभी उपकरण जबरन रचकर क्या  साबित होता है? यही कि वह आला दर्ज़े की नौकरानी है। मुफ्त का श्रम किया करती है। उसके पास पढ़ने का या कुछ भी रचनात्मक करने का समय नहीं है। वह इतनी अव्वल है कि सभी काम करने के चक्कर में अपने को आईने में देखना भी भूल जाती है। उफ़्फ़ ! गजब है! यह औरत है या गधी?

लोग तारीफ़ करें तो करें इस छवि की, मुझसे न हो पाएगी। भला क्योंकर मैं अपने को इस छवि में देखूँ? या भला कोई क्यों मुझे इस छवि में उभारे? हो सकता है जब इस छवि की रचना हुई हो तब इसके पीछे अच्छी मंशा हो। लेकिन अब तो यह मुझे छुपा हुआ चाकू-मार क़त्ल लगता है। टीवी पर आने वाला एक विज्ञापन तो इतने भयानक है कि कई दिन मैं उसके बारे में सोचती ही रही। पति, पत्नी से दफ़्तर में नीचे के पद पर है और पत्नी किसी भी हाल में उसे जरूरी काम निपटाने को कहती है। घर जाती है और फोन कर कहती है कि खाना क्या खाना पसंद करोगे?...बस यहीं वह निहायती बेवकूफ लगती है। मैडम, आप दफ़्तर में तो खट कर आई हैं और अब घर में भी कीचन की रौनक बनेंगी।  

यह बात कौन नहीं जानता कि औरतें बहुगुणी होती हैं और कलाकार भी। लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं कि वे इस लिबास को मनपसन्दगी से औढ़ती हैं। तीन चार स्केच पेन उठाए और लग गए कलाकारी में कि देखिये औरतें तो बहुभुज हैं। जो काम कोई न कर पाये वह काम ये कर लेती हैं। बात को ठहर कर सोचिए। 'सेल्फी विद डॉटर' जैसा काम नहीं कि मोबाइल आगे किया और फोटो खींचकर एफ़बी पर पोस्ट कर दी और महिला जागृति और सशक्तिकरण कर दिया। फोटो खींचने से मजबूती आती तो लोग अंबुजा सीमेंट का काम सेल्फी खींचकर कर लेते और रुपया बचाते। लड़कियों अपना दिमाग दौड़ाओ। ऐसी तस्वीरों के पीछे अपने गधी होने की बात को समझो जो दिन रात मशीन की तरह काम करती है। जिसका रूटीन और समय काम के नाम है। यार, तुम्हें क्या अपने लिए एक कप चाय बनाकर खिड़की से बाहर गली को देखने का मन नहीं करता? या फिर कोई अपना मनपसंद गाना सुनने का मन नहीं होता? कभी दिन में थकावट से दस्तक दे गई झपकी लेने का मन नहीं करता? करता तो होगा। तुम इंसान ही तो हो!  

Sunday, 17 September 2017

सपने

एक भरी पूरी नींद अगर किसी भी व्यक्ति को हर दिन नसीब होती है तब उस व्यक्ति को यह मान लेना चाहिए कि वह बहुत अच्छी किस्मत की मालकिन या मालिक है। मेरी यह बात शायद मतिभ्रम मालूम हो पर जिसके पास यह नहीं है उससे बेहतर कौन समझेगा! एक सेहतमंद नींद से जागना बहुत ही खुशनुमा अहसास होता है। शरीर और दिमाग दोनों के लिए।

मुझे रोज़ तो अच्छी नींद नहीं मिलती पर जब मेरी आँखें खुद से ही झपकती हुईं सोने की मांग करती है तब मैं नहीं रोकती। कुछ रोज़ पहले शाम को थकावट ने अच्छी नींद का तोहफा दिया। मुझे लेटते ही नींद आ गई। लेकिन सपने! हम्म...वे भी तो नींद का एक हिस्सा हैं। झपकी में तो उनकी जगह नहीं होती पर...एक मुकम्मल नींद में उनकी बेहतर गुंजाइश रहती है। कभी कभी इन ख्वाबों को सोचते हुए यह सोचती हूँ कि आखिरी बार कब घर से बाहर गहरी नींद में ये आँखों में उतरे थे। उतरे भी थे या नहीं। नींद आई थी भी या नहीं। एक लड़की की नींद कैसी तरल और नाजुक होती है। किसी के छिंकते ही चट से टूट जाती है।  कोई गैर हाथ अगर उठाने को आगे बढ़े तो शरीर कितना छटक और घबरा जाता है।



नौकरी के दिनों में जब कहीं जाना होता था तब घर से बाहर होने पर घर दिमाग में ही रहता था। और जब रात को बिस्तर पर 'कुछ सो लेने' का मन होता तो आँखें चिटकनी से लगे दरवाज़े पर ही टिकी रहतीं। ऐसा मन में डर आता कि अभी कोई दरवाज़े पर जोरदार लात मारकर घुस आएगा। मैं चिल्ला पड़ूँगी। ...मैं कितनी डरपोक हो जाती हूँ। क्या बाकी लोग भी ऐसे ही हैं? क्या जाने न भी हों? कहने का यही मतलब है कि मेरी जगह अगर बादल जाती है तब सपने का नामोनिशान नहीं होता। ऐसा लगता है कि अपनी ही बैगानियत लिए कहीं पैराशूट से गिर पड़ी हूँ। पर घर...हाँ घर! वहाँ सपने बहुत आते हैं। हर तरह के। बहुत से याद रहते हैं। बहुत से नहीं और बहुत से 50-50 याद रह जाते हैं।...ओह! पैराशूट...इसका भी तो सपना देखा है। कितना अच्छा!

उस रोज़ जो सोई तो उठते ही खुद पर चौंक गई। मैंने देखा कि कोई बड़ा सा खेत था। कोई फसल  उगी हुई थी उसी खेत के एक कोने पर मैं अपना बड़ा सा मुंह खोलकर हैरानी से अपनी आँखें फैलाये खड़ी थी। फसल के बीचों-बीच दो पतले पीले तनों में दो सितारे फूल की तरह चमक रहे थे। मैं खड़ी रही उसी तरह। रात हो गई। मैं फिर भी खड़ी रही, ठीक उसी तरह। ...कहा- "भला सितारे भी कभी उगा करते हैं।"

आँखें खुली तब हैरानी को छिपा नहीं पाई। खुद से कहा- "सितारे जमीन पर कब से उगने लगे!" मैंने ऊपर देखा और कहा- "मुझे ही क्यों सपने आते हैं। मैं तो सो रही थी। जो काम मुझे सबसे अच्छा लगता है!" सपने मुझे पैराशूट भी लगते हैं। कैसे दिमाग में घूमते रहते हैं। किसी अडवेंचर पर ले जाने वाले होते हैं। जिनकी जिंदगी में रोमांच कम होता जाता है उन्हें शायद ये इशारा देते हुए भी लगते हैं। हर चीज की वजह और मतलब होता है। इन सपनों का भी होता है। इसलिए जब भी फुर्सत मिले इन्हें नोट कर के रख लेना चाहिए। कुछ अरसे बाद पढ़ने पर लगता है कि हमारी ज़िंदगी में रचनात्मकता इन सपनों में से होकर भी समझी जा सकती है। वरना जीते तो सभी हैं।

Tuesday, 5 September 2017

अफगानिस्तानी काईट रनर

उस दिन की पिछली रात को ही एकांत के सौ वर्ष पढ़कर पूरा किया था और मैं लगातार उपन्यास के किरदारों के बारे में सोच रही थी। उसके लेखक (मार्केज़) के दिमाग के फैलाव और रचनात्मकता के बारे में सोच रही थी। कितना अलहदा लिखा है। इन दो बातों के बारे में सोच लेने के बाद उपन्यास में लेखक किस चरित्र के पीछे छिपा है यह भी सोचा। इसके बाद उर्सुला, अमारान्ता, रेबेका, रेमेदियोस, मेमे, सांता सोफिया, फेर्नांदा, पेत्रा कोतेस, पिलार तेर्नेरा जैसी औरतों के चरित्रों के बारे में सोचा। मुझे लगा कि मेरे दिमाग में एक खिड़की खुल गई हो। पुरुषों, खोसे आर्कादियो, ओरेलियानो, मेल्कियादस, पियत्रो क्रेस्पी, कर्नल ओरेलियानो, आदि एक जैसे नामों की पीढ़ी दर पीढ़ी उनके चरित्रों के एक जैसी विशेषताओं और विभिन्नताओं के बारे में सोचा। सबसे आखिर में यह सोचा कि लेखक को जरूर दिव्य पागलपन हुआ होगा। मुझे कब ऐसा पागलपन आएगा? यह बहुत अच्छा उपन्यास है और सभी को धरती को अलविदा कहने से पहले एक बार पढ़ना चाहिए।   

इसके बाद मेरी एक दोस्त ने मुझे कैंटीन में एक और किताब दी। द काईट रनर। मैंने यह नाम पहले कहीं सुना था और तुरंत ही एक जुड़ाव का आभास हुआ। रात में जब किताब के कुछ पन्ने पलटे तब एक ही सांस में 25 पन्ने पी गई। किताब पूरी पढ़ ली है। और बहुत कुछ सोचने पर मज़बूर भी करती है। एक रिफ्यूजी की ज़िंदगी आखिर होती कैसी है? उसके दिमाग में 24 घंटें कितना कुछ तूफान उठा रहता है। भावनाओं का कटना सबसे भयानक होता है। यही भावना जब वतन से जुड़ी हो तो दर्द कुछ और बढ़ जाता है। 

किताब अफगानिस्तान के बारे में है, हज़ारा मुसलमान के बारे में है, अपने देश से बाहर जान और जीवन के पीछे भागने के बारे में है, रूस के शीत युद्ध के दौरान अफगानिस्तान में किए गए अतिक्रमण के बारे में है, दो बच्चों की दोस्ती के बारे में है, एक पिता के अपने बेटे को बेटे के रूप में प्यार न कर पाने के बारे में है, कठिनाई के जीवन में भी अपने मेहमान को खाना खिलाने के बारे में है, तालिबान के क्रूरतम कृत्यों के बारे में है, लेखक की अपनी कमजोरी और उससे लड़ने के बारे में है, एक ईमानदार दोस्त के बारे में है.., सब कुछ है इसमें अफगानिस्तान का। प्यार, जीवन, शहर, गीत, मूल्य...सब कुछ तो है। मैं क्या क्या लिखूँ। आप अगर पढ़ चुके हैं तो बहुत अच्छी बात है। अभी तक नहीं पढ़ा है तो जरूर पढ़ें। मैं यहाँ बस थोड़ी झलक ही दूँगी।

सन् 1961 में एक फिल्म आई थी जो रवीन्द्रनाथ ठाकुर की प्रसिद्ध कहानी काबुलीवाला की कहानी पर आधारित थी। फिल्म का नाम भी यही रखा गया था। फिल्म वास्तव में एक संवेदनशील चित्र ही है। सबका ध्यान रहमत खान पर जरूर जाता है। रहमत अफगानिस्तान से है। रहमत इतना तो भारत के लोगों को बता ही देता है कि उसके देश के लोग कितने ईमानदार और अपनी मिट्टी से जुड़े हुए हैं। वहाँ की ज़मीन के लोगों में भी उसी तरह के भाव हैं जो भारत में है। रहमत अफगानिस्तान का एक ब्लैक एन्ड व्हाइट चेहरा है जो फिल्म के कई दृश्यों में रूला देता है।

भारत के एक हवाई जहाज का अपहरण कर कंधार में उतारा गया था। तब भारत के लोगों ने फिर से अफगानिस्तान को जाना था। अगर महाभारत में झाँकें तब गांधारी को उसी देश से पाते हैं। और भी कारण है कि अफगानिस्तान बहुत पराया देश नहीं हैं। उसी देश के तय अंतराल की कहानी यह उपन्यास कहता है। पहले हिस्से में 1979 से पहले के अफगानिस्तान की एक मनोरम छवि बच्चे की नज़र से पता चलती है। उसके बाद 1979 में रूस के अतिक्रमण और तालिबान के जुल्मों के सिलसिले आते हैं। इसके बाद उस अंतहीन दर्द का खुद में अनुभव होने लगता है कि इंसान कैसा बनता जा रहा है।

फिल्म के मुख्य किरदार आमिर और हसन है। हसन एक हज़ारा मुसलमान है जिनकी इज्जत बेहद कम हैं। हज़ारा मुसलमान शिया हैं इसलिए वे सुन्नियों की नफरत का शिकार हैं। हसन का बचपन में आमिर के सामने ही बलात्कार होता है और वह अपने डर के चलते उसे बचा नहीं पाता। उसे यह बात उम्र भर कचोटती है। उसे ताउम्र उन सब कमजोरियों का सामना करना पड़ता है जिन्हें उसने अपने पर क़ाबू होने दिया। 

उपन्यास की कहानी में फिर रूस और उसके सैनिक दाखिल होते हैं। आपको इस हिस्से को पढ़कर गुस्सा आएगा। बहुत गुस्सा। कैसे आप किसी के देश में घुसकर वहाँ के लोगों पर कब्ज़ा कर सकते हो? यह कौन सी शक्ति है? आप क्यों लेनिनवाद, लालवाद, स्तालिनवाद और पता नहीं क्या क्या समझते हुए भी किसी दूसरे देश को अपने हजारों सैनिकों के चलते उजाड़ने चलते हो? सभी को शीत युद्ध के बारे में पता है। दुनिया के दो ध्रुवों में बंटने का खामियाजा हजारों निर्दोष लोगों ने उठाया है। 

अव्यवस्था के माहौल में लाखों लोग बेवतन हो जाते हैं और अपनी पड़ोसी मुल्कों में शरण पाते हैं। किताब का लेखक बहुत ही सलीके से आपकी उंगली थामकर साथ ले जाकर हर दृश्य दिखाता है। यह भी इस किताब की खासियत है। तालिबान के सन् 1996 में अफगानिस्तान में प्रकट होने के बाद वे इतने कट्टर बन गए कि पतंग उड़ाने पर भी उन्हों ने रोक लगा दी। इसके अलावा हज़ारा मुसलमानों पर फिर से अत्याचार बढ़ा ही साथ ही साथ औरतों पर भी बहुत कट्टर कानून लागू किए गए। इसके अलावा लोगों को पत्थर मार मार कर मारने से भयावह कृत्य भी सामने आए। इसके अलावा भयावह यह भी कि यतीमों की संख्या में इजाफा हुआ। युद्ध में पिताओं के मरने के बाद बच्चों की माएँ उन्हें यतीमख़ानों में छोड़ने के लिए मज़बूर हो गईं। 



मानव समाज की इससे बड़ी क्या तरसादी होगी कि एक नस्ल इंसान होते हुए भी वे एक दूसरे को मार रहे हैं। इनमें बच्चों का क़त्ल भी शामिल है। चैन की ज़िंदगी का हक़ एक सपना बनकर रह गया है। अमीर लोग शरणार्थियों में बदलने के लिए अनुकूल होते हैं, ऐसा इस उपन्यास को पढ़ते हुए पता चला। जिनके पास साधन हैं वे भयानक परिस्थितियों से बचने की योग्यता रखते हैं। उपन्यास का नायक और उसके पिता अमरीका पहुँच गए पर हसन नहीं जा पाता क्योंकि उसके पास कुछ ऐसा नहीं है जो उसमें अफगानिस्तान के बॉर्डर को पार करने की शक्ति भर दे या फिर उसके पास अधिकारियों को खिलाने के लिए रुपये होते। गरीब वहाँ या तो भिखारी बनेगा या फिर मौत का स्वाद चखेगा। 

अंत में उपन्यास हसन के मारे जाने पर आमिर द्वारा उसके बेटे सोहराब को तालिबान से छुड़ा कर अमरीका ले जाने पर समाप्त होता है। इस उपन्यास में एक अनाथ बच्चा किस तरह से अपनी ज़िंदगी से प्रताड़ित होता है यह पता चलता है। उसका बलात्कार होना और फिर अनाथालय में जाने के भय से आत्महत्या की कोशिश पाठकों को उस सच्चाई की धरती पर पटक  देती है जहां पाठक भी सोहराब के दर्द को जीता है और उसके बचने की दुआ करता है। ज़रा फर्ज़ कीजिये उन बच्चों के जीवन के बारे में जिनके माँ बाप युद्ध या आतंक के शिकार हो गए हैं और वे अनाथालय में बस अपनी जिंदगी को रगड़ रहे हैं। मौत से भी बदतर हालात हैं। खाने को खाना नहीं ऊपर से उनका शोषण...यही है बचपन। नायक, आमिर एक जगह कहता भी है- "अफगानिस्तान में बच्चे तो हैं पर बचपन नहीं है।"

उपन्यास में सबसे आखिर में बहुत महत्वपूर्ण औपचारिक नोट है। पलायन के दिनों में लगभग 80 लाख लोग विदेशों में शरणार्थियों के रूप में रह रहे हैं। 20 लाख से अधिक अफगानी पाकिस्तान में पनाह लिए हुए हैं। 2002 में संयुक्त राष्ट्र मदद से करीब 50 लाख लौटे हैं। फिर भी लेखक खालिद हुसैनी के मुताबिक हालात बेहतर नहीं है। और भी जानकारी है जो किताब में मौजूद हैं। खुद पढ़ेंगे तो बेहतर जान पाएंगे। किताब पर फिल्म भी बनी है। वह भी देखि जा सकती है। 

मेरे एक दो दोस्त ऐसे हैं जो दिल्ली शहर में रहने वाले अफगानी बच्चों को संस्था खोल कर पढ़ा रहे हैं। मैं अभी तक उन बच्चों से मुलाकात नहीं कर पाई हूँ। वहाँ भारत के गरीब बच्चे और अफगानी बच्चे दोनों ही आते हैं। मेरे एक दोस्त के मुताबिक बच्चों की नस्ल एक ही होती है और वह है- बचपन। इसलिए उनमें क्लास रूम में वैसे ही लक्षण दिखाई देते हैं जैसे कि बच्चों में होते हैं। माँ बाप गरीब हैं। इसके अलावा रहने खाने में छोटी कमाई का बहुत बड़ा हिस्सा चला जाता है और बचा हुआ हिस्सा बीमारी में दवा आदि में जाता है। पर कुल मिलाकर वे सुरक्षित हैं और खुश भी रहते हैं। हालांकि उन्हें उन तमाम तरह की परेशानियों से दो चार तो होना ही पड़ता है जो दूसरे मुल्कों में रहने के दौरान आती हैं। 



21 बरस की बाली उमर को सलाम, लेकिन

  दो साल पहले प्रथम वर्ष में पढ़ने वाली लड़की से मेरी बातचीत बस में सफ़र के दौरान शुरू हुई थी। शाम को काम से थकी हारी वह मुझे बस स्टॉप पर मिल...