एक भरी पूरी नींद अगर किसी भी व्यक्ति को हर दिन नसीब होती है तब उस व्यक्ति को यह मान लेना चाहिए कि वह बहुत अच्छी किस्मत की मालकिन या मालिक है। मेरी यह बात शायद मतिभ्रम मालूम हो पर जिसके पास यह नहीं है उससे बेहतर कौन समझेगा! एक सेहतमंद नींद से जागना बहुत ही खुशनुमा अहसास होता है। शरीर और दिमाग दोनों के लिए।
मुझे रोज़ तो अच्छी नींद नहीं मिलती पर जब मेरी आँखें खुद से ही झपकती हुईं सोने की मांग करती है तब मैं नहीं रोकती। कुछ रोज़ पहले शाम को थकावट ने अच्छी नींद का तोहफा दिया। मुझे लेटते ही नींद आ गई। लेकिन सपने! हम्म...वे भी तो नींद का एक हिस्सा हैं। झपकी में तो उनकी जगह नहीं होती पर...एक मुकम्मल नींद में उनकी बेहतर गुंजाइश रहती है। कभी कभी इन ख्वाबों को सोचते हुए यह सोचती हूँ कि आखिरी बार कब घर से बाहर गहरी नींद में ये आँखों में उतरे थे। उतरे भी थे या नहीं। नींद आई थी भी या नहीं। एक लड़की की नींद कैसी तरल और नाजुक होती है। किसी के छिंकते ही चट से टूट जाती है। कोई गैर हाथ अगर उठाने को आगे बढ़े तो शरीर कितना छटक और घबरा जाता है।
नौकरी के दिनों में जब कहीं जाना होता था तब घर से बाहर होने पर घर दिमाग में ही रहता था। और जब रात को बिस्तर पर 'कुछ सो लेने' का मन होता तो आँखें चिटकनी से लगे दरवाज़े पर ही टिकी रहतीं। ऐसा मन में डर आता कि अभी कोई दरवाज़े पर जोरदार लात मारकर घुस आएगा। मैं चिल्ला पड़ूँगी। ...मैं कितनी डरपोक हो जाती हूँ। क्या बाकी लोग भी ऐसे ही हैं? क्या जाने न भी हों? कहने का यही मतलब है कि मेरी जगह अगर बादल जाती है तब सपने का नामोनिशान नहीं होता। ऐसा लगता है कि अपनी ही बैगानियत लिए कहीं पैराशूट से गिर पड़ी हूँ। पर घर...हाँ घर! वहाँ सपने बहुत आते हैं। हर तरह के। बहुत से याद रहते हैं। बहुत से नहीं और बहुत से 50-50 याद रह जाते हैं।...ओह! पैराशूट...इसका भी तो सपना देखा है। कितना अच्छा!
उस रोज़ जो सोई तो उठते ही खुद पर चौंक गई। मैंने देखा कि कोई बड़ा सा खेत था। कोई फसल उगी हुई थी उसी खेत के एक कोने पर मैं अपना बड़ा सा मुंह खोलकर हैरानी से अपनी आँखें फैलाये खड़ी थी। फसल के बीचों-बीच दो पतले पीले तनों में दो सितारे फूल की तरह चमक रहे थे। मैं खड़ी रही उसी तरह। रात हो गई। मैं फिर भी खड़ी रही, ठीक उसी तरह। ...कहा- "भला सितारे भी कभी उगा करते हैं।"
आँखें खुली तब हैरानी को छिपा नहीं पाई। खुद से कहा- "सितारे जमीन पर कब से उगने लगे!" मैंने ऊपर देखा और कहा- "मुझे ही क्यों सपने आते हैं। मैं तो सो रही थी। जो काम मुझे सबसे अच्छा लगता है!" सपने मुझे पैराशूट भी लगते हैं। कैसे दिमाग में घूमते रहते हैं। किसी अडवेंचर पर ले जाने वाले होते हैं। जिनकी जिंदगी में रोमांच कम होता जाता है उन्हें शायद ये इशारा देते हुए भी लगते हैं। हर चीज की वजह और मतलब होता है। इन सपनों का भी होता है। इसलिए जब भी फुर्सत मिले इन्हें नोट कर के रख लेना चाहिए। कुछ अरसे बाद पढ़ने पर लगता है कि हमारी ज़िंदगी में रचनात्मकता इन सपनों में से होकर भी समझी जा सकती है। वरना जीते तो सभी हैं।
मुझे रोज़ तो अच्छी नींद नहीं मिलती पर जब मेरी आँखें खुद से ही झपकती हुईं सोने की मांग करती है तब मैं नहीं रोकती। कुछ रोज़ पहले शाम को थकावट ने अच्छी नींद का तोहफा दिया। मुझे लेटते ही नींद आ गई। लेकिन सपने! हम्म...वे भी तो नींद का एक हिस्सा हैं। झपकी में तो उनकी जगह नहीं होती पर...एक मुकम्मल नींद में उनकी बेहतर गुंजाइश रहती है। कभी कभी इन ख्वाबों को सोचते हुए यह सोचती हूँ कि आखिरी बार कब घर से बाहर गहरी नींद में ये आँखों में उतरे थे। उतरे भी थे या नहीं। नींद आई थी भी या नहीं। एक लड़की की नींद कैसी तरल और नाजुक होती है। किसी के छिंकते ही चट से टूट जाती है। कोई गैर हाथ अगर उठाने को आगे बढ़े तो शरीर कितना छटक और घबरा जाता है।
नौकरी के दिनों में जब कहीं जाना होता था तब घर से बाहर होने पर घर दिमाग में ही रहता था। और जब रात को बिस्तर पर 'कुछ सो लेने' का मन होता तो आँखें चिटकनी से लगे दरवाज़े पर ही टिकी रहतीं। ऐसा मन में डर आता कि अभी कोई दरवाज़े पर जोरदार लात मारकर घुस आएगा। मैं चिल्ला पड़ूँगी। ...मैं कितनी डरपोक हो जाती हूँ। क्या बाकी लोग भी ऐसे ही हैं? क्या जाने न भी हों? कहने का यही मतलब है कि मेरी जगह अगर बादल जाती है तब सपने का नामोनिशान नहीं होता। ऐसा लगता है कि अपनी ही बैगानियत लिए कहीं पैराशूट से गिर पड़ी हूँ। पर घर...हाँ घर! वहाँ सपने बहुत आते हैं। हर तरह के। बहुत से याद रहते हैं। बहुत से नहीं और बहुत से 50-50 याद रह जाते हैं।...ओह! पैराशूट...इसका भी तो सपना देखा है। कितना अच्छा!
उस रोज़ जो सोई तो उठते ही खुद पर चौंक गई। मैंने देखा कि कोई बड़ा सा खेत था। कोई फसल उगी हुई थी उसी खेत के एक कोने पर मैं अपना बड़ा सा मुंह खोलकर हैरानी से अपनी आँखें फैलाये खड़ी थी। फसल के बीचों-बीच दो पतले पीले तनों में दो सितारे फूल की तरह चमक रहे थे। मैं खड़ी रही उसी तरह। रात हो गई। मैं फिर भी खड़ी रही, ठीक उसी तरह। ...कहा- "भला सितारे भी कभी उगा करते हैं।"
आँखें खुली तब हैरानी को छिपा नहीं पाई। खुद से कहा- "सितारे जमीन पर कब से उगने लगे!" मैंने ऊपर देखा और कहा- "मुझे ही क्यों सपने आते हैं। मैं तो सो रही थी। जो काम मुझे सबसे अच्छा लगता है!" सपने मुझे पैराशूट भी लगते हैं। कैसे दिमाग में घूमते रहते हैं। किसी अडवेंचर पर ले जाने वाले होते हैं। जिनकी जिंदगी में रोमांच कम होता जाता है उन्हें शायद ये इशारा देते हुए भी लगते हैं। हर चीज की वजह और मतलब होता है। इन सपनों का भी होता है। इसलिए जब भी फुर्सत मिले इन्हें नोट कर के रख लेना चाहिए। कुछ अरसे बाद पढ़ने पर लगता है कि हमारी ज़िंदगी में रचनात्मकता इन सपनों में से होकर भी समझी जा सकती है। वरना जीते तो सभी हैं।
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