कल वीरवार था और आज शुक्रवार. यही तो बदला है. जिनको बाहर काम की तलाश में जाना है वे फिर से जाएंगे चिड़ियाँ, जब मैं सुबह सो रही थी तब तक वे अपने दाना दाना खोजने और खाने की तलाश में निकल गई होंगी. बस वाले फिर से बस चला रहे होंगे. सब्जी वाले अभी तक मंडी पहुँच गए होंगे. अखबार वाला बिलकुल भोर में अख़बारों को फेंक रहा होगा. सडकें अपनी जगह पर होंगी. क्षमता से ज़्यादा रेलें जान और माल ढो रही होंगी. बेहद ग़रीब सड़क पर सो रहा होगा. तो दूसरा कामगार ग़रीब उसी सड़क को साफ़ कर रहा होगा.
मैं फिर पूछती हूँ बदला क्या है?
मैं फिर से अपने रूटीन में के खोल में घुसने की तैयारी कर रही हूँ. जिसके पास खोने के लिए कुछ था ही नहीं उसको हार का क्या ग़म भला. हम तो हर रोज़ इंसान बने रहने की लड़ाई में यकीं करते हैं. मेहनत करते हैं फिर खाते हैं. फिर सो जाते हैं. अपनी सुबह में ही मेहनत घुली रहती है. आप उस लड़ाई का दुःख न मनाओ जिसमें आपका कुछ था भी नहीं.

मैं फिर से पूछती हूँ कि आख़िर बदला क्या है?
कल ही शाम को घर लौटते हुए किसी ने उस रेप की ख़बर को बताया जिसमें अपराधी घर में घुसकर रेप कर गया. घर में! जी हाँ, उसी घर में जिसमें हम शाम को घर लौट कर आते हैं. जिसमें हम खुश होते हैं. आराम करते हैं. त्यौहार मनाते हैं. अब घर ही अपराध की जगह में तब्दील हो रहे हैं. क्या ये पहले से ही अपराध में तब्दील होते थे? यह सवाल मुझे परेशान तो नहीं करता पर मैं सोचती हूँ.
मैं हज़ार बार यही सोच रही हूँ कि बदलता क्या है? बदल क्या रहा है? जो बदल गया तो क्या हासिल क्या हुआ? जो नहीं बदलता तो क्या हासिल होने से छूट जाता? कल भी मेरी गरदन पर एक धारदार तलवार साथ रखी जाती थी. आज भी साथ है और शायद मरने तक रहेगी.
मैं फिर पूछती हूँ बदला क्या है?
मैं फिर से अपने रूटीन में के खोल में घुसने की तैयारी कर रही हूँ. जिसके पास खोने के लिए कुछ था ही नहीं उसको हार का क्या ग़म भला. हम तो हर रोज़ इंसान बने रहने की लड़ाई में यकीं करते हैं. मेहनत करते हैं फिर खाते हैं. फिर सो जाते हैं. अपनी सुबह में ही मेहनत घुली रहती है. आप उस लड़ाई का दुःख न मनाओ जिसमें आपका कुछ था भी नहीं.
मैं फिर से पूछती हूँ कि आख़िर बदला क्या है?
कल ही शाम को घर लौटते हुए किसी ने उस रेप की ख़बर को बताया जिसमें अपराधी घर में घुसकर रेप कर गया. घर में! जी हाँ, उसी घर में जिसमें हम शाम को घर लौट कर आते हैं. जिसमें हम खुश होते हैं. आराम करते हैं. त्यौहार मनाते हैं. अब घर ही अपराध की जगह में तब्दील हो रहे हैं. क्या ये पहले से ही अपराध में तब्दील होते थे? यह सवाल मुझे परेशान तो नहीं करता पर मैं सोचती हूँ.
मैं हज़ार बार यही सोच रही हूँ कि बदलता क्या है? बदल क्या रहा है? जो बदल गया तो क्या हासिल क्या हुआ? जो नहीं बदलता तो क्या हासिल होने से छूट जाता? कल भी मेरी गरदन पर एक धारदार तलवार साथ रखी जाती थी. आज भी साथ है और शायद मरने तक रहेगी.