Thursday, 16 May 2019

अपार ख़ुशी का घराना- एक छोटा नोट

कुछ समझ नहीं आ रहा कि कैसे शुरुआत की जाए. लेकिन कहीं न कहीं से तो शुरुआत करनी ही पड़ती है. इसलिए इस पोस्ट की शुरुआत पढ़ी हुई किताब पर बात कर के करती हूँ. मेरे पास जितना भी वक़्त जो सिर्फ मेरा होता है, बचता है उसी वक़्त में मैंने इस किताब को पढ़कर पूरा किया. "अपार ख़ुशी का घराना" किताब अरुंधती के लिखे अंग्रेज़ी उपन्यास "द मिनिस्ट्री ऑफ़ अटमोस्ट हैपीनेस" का हिंदी अनुवाद है. बहुत सी जानकारी आप गूगल से ले सकते हैं. पिछले साल के अंत में मैंने अपने आप से वादा किया था कि इस किताब को इस साल पढूंगी. यह वादा मैंने पूरा किया. शायद बेहद कम वादों में से एक यह है जो पूरा हुआ. 



खैर, उपन्यास काफी अच्छा है. एक बार पढ़ा जाना चाहिए. इसकी ख़ूबी यह है कि लेखिका उन किरदारों को केंद्र में रखती है जिनको हमने सामाजिक तौर पर कभी किरदार तो क्या इन्सान भी नहीं माना. आफ़ताब उर्फ़ अंजुम से आपको प्यार हो जाएगा. इस किन्नर किरदार में पूरी इंसानियत और करुणा को भरकर डाला गया है. बहुत प्यारा और वाजिब किरदार बन पड़ा है. यह अंजुम ही है जिसकी कहानी आपको किताब वापस रखने नहीं देती और आगे पढ़े जाने की दस्तक देती है. उसका जन्म और उसका नामकरण का क़िस्सा लेखिका इत्मिनान से सुनाती है. उसका ख्वाबगाह तक में जाने को लेखिका बेहद मार्मिक अंदाज़ में पेश करती है. लेकिन अंत में कश्मीर और उसके वर्णन में अंजुम को लेखिका थोड़ा भुला देती है. मेरी यहाँ यही गुजारिश थी कि अंजुम को और उभारना चाहिए था. बहुत कुछ उसके माध्यम से और भी कहा जा सकता था. 

किताब के अन्य किरदारों में मूसा, नागा, बिप्लव और तिलोत्तमा पाठक को कश्मीर और उसकी समस्या की तरफ ले जाते हैं. यह मेरा ख़याल है कि लेखिका ने गहरे में जाकर कश्मीर का हर बारीक़ वर्णन किया है जो वह कर सकती थीं. किसी भी जगह को देखने के कई रुख या आयाम हो सकते हैं. ठीक कश्मीर के साथ भी यही है. लेखिका की आलोचना करने वालों को अपने हिस्से का कश्मीर भी दिखाना चाहिए. लेखिका ने अपने विज़न से उन तमाम दृश्यों को रखा है जो वह समझती आ  रही हैं. 
  
लेखिका कश्मीर के अलावा अंत में एक किरदार की चिट्ठी के सहारे नक्सल की समस्या को पेश करती हैं. यहाँ भी मेरा यही ख़याल था कि इस  समस्या पर और भी लम्बा लिखा जाना चाहिए था जितना कश्मीर पर लिखा गया. आम पाठकों का कश्मीर और उसकी शब्दावली से रिश्ता न होने के चलते कुछ समझ में हेर-फेर हो सकती है. लेकिन बाकी जगह वह बहुत बेहतर ढंग से सबकुछ बताती चलती हैं. 

इस किताब की महिला किरदारों की बात की जाए तो दिलचस्प यह है कि अरुंधती ने उन तमाम लकीरों पर क्रोस लगाया है जो टीवी की दुनिया में हर पल छाये रहते हैं, सुंदरता का पैमाना लिए. महिला किरदार का रंग काला है और वे सभी अपनी तरह से सुन्दर हैं. (मुख्य क़िरदार) तिलो से आपको अंत में प्यार जो जाएगा. लेकिन उसकी अंत में अक्रियाशिलता आपको चुभ भी सकती है. और बहुत कुछ कहा जा सकता है, लेकिन अच्छा यह है कि पाठक ख़ुद से पढ़कर अपनी बात रखें.अन्य बहुत से क़िरदार हैं जिन्हें जानने के लिए आप को किताब पढनी होगी. सबकुछ तो नही बताया जा सकता.

चलते चलते इतना है कि इतने बड़े उपन्यास का फलक तैयार करना और अंत तक उसे बनाए रखते हुए निभाना कोई मामूली बात नहीं. जगह जगह लेखिका तथ्य भी रखती है जो एक अच्छी बात है. लेखिका के पास एक अपनी शब्दावली है जो वह कहीं सी नक़ल नहीं करती.  एक महीन चलती हुईप्रेमकथा भी है जोतड़प सी पैदा करती है और हमदर्दी भी. मैं पढ़ते वक़्त यही सवाल कर रही थी क्या सब कुछ ठीक नहीं हो सकता? कब होगा सब ठीक?

एक अंतिम बात अनुवाद उम्मीद से बेहतर है. पढ़िए कि दुनिया आपके ग़म और दुःख से परे भरी हुई है. जब मैं यह पोस्ट लिख रही हूँ तो दूर कहीं सर्दी की वादियों में बंदूकें अपना निशाना साध रही होंगी. कर्फ्यू एक ज़िद्दी धब्बा बना हुआ होगा. सेना और आम लोगों के बीच तनाव बरक़रार होगा. त्रासदी यह है कि दोनों पक्ष अपने लोगों की सलामती की दुआ मांग रहे होंगे. हम जैसे रातजग्गी इस पोस्ट में उस दर्द को समेटने की कोशिश में भी होंगे.

फिर भी कहूँगी, दुनिया को जिंदगी के नाम होना चाहिए.  




 

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