कभी कभी यह सोचती हूँ रूक कर
माँ ने अगर कोई कविता रसोई में गाई होगी
तो उसका रंग कैसा होगा?
उसकी बनावट क्या रोटी और चाँद की तरह गोल होगी?
क्या वह हल्दी की तरह पीली होगी?
क्या वह कविता
प्याज़ की तीखी गमक से सनी होगी?
या फिर प्याजी आंसुओं से तर होगी?
दाल की छौंक में कहीं माँ ने एक कविता
गुनगुनाई तो ज़रूर होगी.
इसका मुझे सौ प्रतिशत यकीं है
क्योंकि माँ का खाना एक-दो रोज ख़राब भी होता था
पिता के गुस्से के बावजूद
माँ स्थिर रहती थी कई बार
यह स्थिरता माँ में ज़रूर कविता ने पैदा की होगी
दोनों ने एक-दूसरे को पूरक किया होगा
(जिस कविता ने माँ के अंदर कवयित्री पैदा की होगी)
उसका विरोध ज़रूर आटे के डिब्बे में बंद हुआ होगा
या फिर चाकू से सब्ज़ियों की तरह उसने
अपने कविता गीत को सम्पादित किया होगा
मुझे यकीं है कि उसकी रचनाएं
भोजन के रूप में रही होंगी
जिसे हम सब ने ख़ूबी से पचाया
हमने उसके हाथ के बने खाने को नहीं
उसकी रचनाओं को खाया...
मुझे यकीं है कि मेरी माँ
अच्छी कविता लिखती होगी
अदृश्य कविता जो बर्तन वाले ख़ाने
पर लटका करती होंगी
आज भी वे कविताएं
अपनी गूँज लिए
रसोई में रहती हैं
जहाँ माँ कविता बनाया करती थी
माँ ने अगर कोई कविता रसोई में गाई होगी
तो उसका रंग कैसा होगा?
उसकी बनावट क्या रोटी और चाँद की तरह गोल होगी?
क्या वह हल्दी की तरह पीली होगी?
क्या वह कविता
प्याज़ की तीखी गमक से सनी होगी?
या फिर प्याजी आंसुओं से तर होगी?
दाल की छौंक में कहीं माँ ने एक कविता
गुनगुनाई तो ज़रूर होगी.
इसका मुझे सौ प्रतिशत यकीं है
क्योंकि माँ का खाना एक-दो रोज ख़राब भी होता था
पिता के गुस्से के बावजूद
माँ स्थिर रहती थी कई बार
यह स्थिरता माँ में ज़रूर कविता ने पैदा की होगी
दोनों ने एक-दूसरे को पूरक किया होगा
(जिस कविता ने माँ के अंदर कवयित्री पैदा की होगी)
उसका विरोध ज़रूर आटे के डिब्बे में बंद हुआ होगा
या फिर चाकू से सब्ज़ियों की तरह उसने
अपने कविता गीत को सम्पादित किया होगा
मुझे यकीं है कि उसकी रचनाएं
भोजन के रूप में रही होंगी
जिसे हम सब ने ख़ूबी से पचाया
हमने उसके हाथ के बने खाने को नहीं
उसकी रचनाओं को खाया...
मुझे यकीं है कि मेरी माँ
अच्छी कविता लिखती होगी
अदृश्य कविता जो बर्तन वाले ख़ाने
पर लटका करती होंगी
आज भी वे कविताएं
अपनी गूँज लिए
रसोई में रहती हैं
जहाँ माँ कविता बनाया करती थी
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