Saturday, 22 June 2019

चश्मे बद्दूर (कहानी)


(इस नीचे दी जा रही घटना के वर्णन से पहले पाठकों को यह जान लेना ज़रूरी है कि कहीं किसी दुबके हुए शहर में रात के एक अनजाने पहर में किसी लोकल फ़टॉग्राफ़र के स्टूडियो में रखे एक कंप्यूटर में कुछ अज़ीब घटना घटी. एक नीली रौशनी चर-चराई और हज़ारों तस्वीरों के फोल्डर से एक नौजवान लड़की ने जन्म लिया. उसका रंग गहरा था. बाल बेहद काले. चेहरे का नक्शा बेहद खूबसूरत! उसने ऑनलाइन जगत में गूगल की दुनिया को पूरी तरह जान लिया था और ढेरों फिल्में और किताबें पढ़ने-देखने के दौरान उसे इश्क़ से इश्क़ करने की चाहत जागी. और उसने इस चाहत के साथ जमीन पर क़दम रख दिया. अब कहानी आगे आपके हवाले है.) 

वह बेहोश हो रही है. उसे इस बात का अच्छी तरह से एहसास भी है. उसे होश में अब रहना नहीं है. वह पागलपन की कग़ार पर पहुँच गई है. उसे कतई नहीं मालूम था कि लोग इस तरफ से भी बर्ताव करते हैं. वह सड़क के बीच में खड़ी है. क्या उसे कोने में जगह खोज लेनी चाहिए बेहोश होने के लिए? लेकिन अगर वह बीच सड़क पर गिर पड़ी तो इस बात की पूरी उम्मीद है कि लोग उसे जल्दी से उठाकर अस्पताल पहुंचा देंगे. इससे उसकी बचने की संभावना भी बनी रहेगी. ज़िंदगी तो बची हुई है. उसका माथा इस रफ़्तार से घूम रहा है जैसे छत का पंखा घूमता है. वह पसीने से तर है. उसने घर की तरफ रूख किया है पर उसे इस बात का भी पक्का यकीं हैं कि वह घर नहीं जा रही. वह बस बेहोशी को अभी अपना चुनाव मान रही है. 

मद्धम रौशनी में सड़क के एक कोने पर पत्थर दिख रहा है. उसे कुछ देर सिर टिका लेने के लिए सहारा मिल रहा है. वह अपनी दुनिया में बहुत खुश थी. उसकी दुनिया में शरीर से लिपटे हुए लोग नहीं रहते. उनकी दुनिया में वह सब कुछ है जो किसी भी इंसान की यहाँ, धरती पर चाहत रहती है. उसने अपनी दुनिया में कई प्रेम कहानियों को पढ़ा था. वह उनमें डूबी रहती थी. जब भी वह किसी प्रेम कहानियों को पढ़ती थी तब कई-कई दिनों तक उनके बारे में सोचा करती थी. वह यह सोचती थी प्रेम कहानी पढ़ लेने से ही जब इस एहसास का इतना असर है तो सच में इस एहसास में रहने पर क्या होता होगा? यह भावना ज़रूर कई रूहों की तपस्या का फल होगी. सच में इंसान की ज़ात कितनी नसीब वाली है!

इसी लगाव और आकर्षण के चलते उसने धरती पर क़दम रखा था. उसे दिल्ली शहर की एक झुग्गी में छोटा सा कमरा भी रहने को मिल गया था. उसने जब अपने एक बैग के साथ कमरे के दरवाजे पर क़दम रखा तब उसे जो रोमांच महसूस हुआ वैसा पहले कभी नहीं हुआ था. वह खुश थी. पर वह किसको बताती कि वह यहाँ प्यार करने आई है. इस कमरे से उसको कोई शिकायत नहीं थी. बस वह चाहती थी कि उसे जल्दी से कोई प्यार करने वाला मिल जाए.

मकान मालिक ने किराए पर कमरा देने से पहले कुछ पड़ताल भी की. कहाँ से आई हो? यहाँ क्यों आई हो? अकेली क्यों हो? कौन सी पढ़ाई कर रही हो? माँ-बाप क्या करते हैं? घर में कौन कौन आएगा? बिजली और पानी का अलग-अलग रुपया लगता है, दे पाओगी? हमें कोई झंझट नहीं चाहिए... वगैरह वगैरह. इन सब बातों से वह कुछ पल को उकता गई और मन में सोचा इतना तो उसके ख़ुद के भाई ने नहीं पूछा. न ही उस स्टूडियो के लड़के ने उसे इतनी तवज्जो दी थी. वह तो महज़ इमेज संख्या भर थी. उसने बस एक रोज़ अपने भाई से कहा कि धरती पर जाना है. प्यार की तलाश करनी है. भाई का जवाब था- “ठीक है. जैसी तुम्हारी मर्ज़ी!”

बहरहाल, यहाँ पर उसने अपने कमरे में सिर्फ प्रेम कहानियों की किताबें खरीद कर रख लीं. वह, वह देखना और समझना चाहती कि क्या कोई प्यार का फार्मूला भी होता है जिसे यहाँ के लोग अपनाते हैं. किन परिस्थितियों में वे लोग प्यार में पड़ जाते हैं? प्यार के लिए उनको आख़िरकार क्या प्रेरित कर देता है आदि-आदि?

उसने घर से बाहर निकलने और दोस्त बनाने के लिए काम करना शुरू किया. उसने तमाम तरह की सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर अपना खूबसूरत प्रोफाइल बनाई. चूँकि उसने प्रोफाइल फोटो बहुत सुंदर डाला था इसलिए उसे कई दोस्ती की गुजारिशें मिलीं. अपनी इसी पहली सफलता पर वह बेहद ख़ुश हुई. इसके अलावा उसने एक जगह कॉल सेंटर में नौकरी करना भी शुरू कर दिया. उसे बताया गया था कि कॉल सेंटर में बहुत से लोगों से बातें करने का मौक़ा मिलता है. उसने मन ही मन यह भी सोचा कि इस बहाने उसे ज़रूर कोई बेहतर चाहने वाला मिल जाएगा.

कॉल सेंटर में काम के दौरान उसे कई ग्राहकों से बात करने का अनुभव मिला. ढेरों लोगों से बातचीत करने के बाद उसे एक लड़का टकराया जो उसे बहुत बेहतर लगा था. दोनों ने अपने निजी नंबर एक दूसरे से साझा कर लिए थे. काफी दिनों के बाद उसे एहसास हुआ कि वह कुछ महसूस कर रही है. वह यह बात किससे बताए. उसका कोई नहीं है यहाँ पर. दफ़्तर की एक साथी से उसकी शुरुआती बातचीत के बाद अच्छी बनने लगी थी. जब उसे यकीं हो गया है कि दफ़्तर की इस साथिन पर भरोसा किया जा सकता है तब उसने घुलने मिलने की कोशिश की.
 
एक रोज़ इस साथिन ने उससे कहा- “तुम्हारा रंग कितना गहरा है. लेकिन तुम फिर भी बहुत अच्छी लगती हो. मुझे नहीं पता क्यों? पर जब भी तुमको देखती हूँ लगता है कि देखती रहूँ. तुम इस दुनिया की नहीं लगतीं. लगता है कहीं से आई हो. क्या इस दुनिया के बाहर भी दूसरी दुनिया है? अगर है तो तुम वहीं की हो!”

उसने रात को अपने बिस्तर पर सोचा- “इस रंग का क्या माजरा है? मेरा तो यही रंग है कब से! आज तक किसी ने मुझे इस तरह की बात नहीं कि मेरा रंग गहरा है. हमारे यहाँ सबके रंग कई तरह के हैं. लेकिन किसी ने कभी इस तरह से कोई रंग को लेकर बात नहीं की. कभी कभी कितनी दिक्कत होती हैं इन इंसानों को समझने में, उफ़! उस स्टूडियो के लड़के ने कई मर्तबा मुझे सफ़ेद रंग से रंगा था पर इस बात के पीछे की वजह मुझे ठीक ठीक मालूम नहीं. यही सब सोचते सोचते उसे नींद आ गई.क्या वह मुझे गोरा बना रहा था?”

कुछ रोज़ में उसकी मुलाक़ात अपने हो सकने वाले पहले प्यार से होने की उम्मीद बन गई थी. उस लड़के ने यह जाहिर किया था की वह उससे मिलने को बहुत बेताब है. उसकी आवाज़ जब इतनी मीठी है तो वह ख़ुद कितनी मीठी होगी. इस तरफ वह भी उत्साहित थी.उसने सोचा कि जब सब बातें ठीक होंगी तो एक रोज़ भईया से मिलकर बताएगी कि उसे उस भावना का एहसास हो गया है जिसके बारे में वह पढ़ा करती, सोचा करती थी.

बुधवार! दोनों के लिए यह दिन ठीक रहा तो इस दिन पर मुहर लगा दी गई. सुबह का समय तय किया गया क्योंकि उस समय थोड़ी ठंडक होगी और इस दौरान किसी जगह को भी तय कर लिया जाएगा कि कहाँ मुनासिब बातें की जा सकेंगी. फोन पर लड़के ने एक सवाल पूछा- “कौन से रंग के कपड़े पहनकर आओगी? मैं कौन से रंग की कमीज पहन कर आऊँ?”

उसे फिर से कुछ ज़्यादा समझ नहीं आया.

वह समय से जल्दी पहुँच गई और निश्चित जगह पर एक पार्क खोज के उस लड़के को इत्तिला दे दी. वह इस बीच बेंच पर बैठकर इंतज़ार करने लगी. उसने अपने उछलते मन को शांत रहने को कहा. उसे लगा कि उसके मन में सूरजमुखी के फूल के खिल रहे हैं. उसने सोचा इस एहसास को वह अपनी दफ़्तर की साथिन से बताएगी. उसने बहुत दिनों बाद पेड़ों की पत्तियों को निहारा. उनको हवा में हिलते हुए पाया. उसे लगा कि वे नाच रही हैं. उसने नज़रें घास पर टिकाईं. उसे फिर लगा कि घास और हवा आपस में बैंड बजा रहे हैं. वह यह सब देखकर मुस्कुरा रही थी. तभी पीछे से किसी ने हलो कहा.

उसने पाया कि उसका दिल फिर उछल रहा है. “क्या आप ही वो हैं?”
वह पीछे पलटी और उसने उस लड़के को पहचानने में ज़रा भी देर नहीं लगाई. उसने मुस्कुराते हुए कहा- “जी हाँ!”

लड़के ने जब उसे देखा तो उसका चेहरा सहम गया. फिर भी उसने किसी तरह इस भाव को चेहरे से तुरंत हटाया और सामान्य बनने की कोशिश की.

वह जल्दी ही समझ गई. लेकिन उसने भी सामान्य बने रहने को ही चुना. दोनों ने पास में ही एक रेस्त्रां को खोजकर बैठने का फैसला किया. इस बीच लड़का अपना धैर्य खोता रहा और जल्द से जल्द जाने की कोशिश करता रहा. बैठने पर दोनों ने क़रीब से एक दूसरे के चेहरों को देखा. लड़के को उसका चेहरा बेहद गहरे रंग का दिखा. लड़की ने लड़के को उत्सुकता की नज़र से देखा. उसका चेहरा मुस्कुराता ही रहा. उसने कोमल भाव को अपने चेहरे पर हमेशा से पाया था. यही उसकी असलियत भी थी. लड़के ने दो कॉफ़ी का आर्डर दिया.

लड़के ने समय काटने के लिए लड़की से नाम पूछा- “आपने कभी अपना नाम नहीं बताया. क्या नाम है आपका?”

लड़की ने थोड़ा सोचते हुए पूछा- “नाम? ज़रूरी है?”
उसने कहा- “हाँ, बिलकुल. सभी के नाम होते हैं. कुछ लोगों के तो कई नाम होते हैं. इससे पता चलता है कि आप क्या और कौन हैं?”
लड़की ने सहमते हुए धीरे से कहा- “अच्छा!”
उसने आज सुबह ऑटो में एक गाना सुना था. उसे याद आया कि स्टूडियो वाला लड़का भी यही गाना कई बार सुना करता था. उसने झट से उस गाने से बिना सोचे समझे एक शब्द लड़के के आगे लगभग पटक दिया- “चश्मे! जी हाँ, मेरा नाम चश्मे हैं.”

लड़के ने ऐसा मुंह बनाया जैसे उसके मुंह में सुखी नीम की पत्तियों का पाउडर डाला गया हो. उसने कहा- “बड़ा अजीब नाम है. मैंने ऐसा नाम कभी पहले नहीं सुना. वैसे आपका पूरा नाम क्या है?”
लड़की ने असमंजस में पूछा- “नाम पूरा भी होता है क्या? मेरा मतलब नाम तो नाम होता है! जैसे वर्ड फाइल में सेव की हुई फाइल का नाम तो नाम होता है. उसका कोई सरनेम तो नहीं होता.”

लड़के ने कहा- “हम्म! फिर भी यहाँ सभी के नाम पूरे होते हैं. सभी के नाम के पीछे सरनेम लगा होता है. जैसे मेरा पूरा नाम- नवीन भारद्वाज है. वर्ड फाइल तो कंप्यूटर की दुनिया है. वो दुनिया और हमारी दुनिया में जमीन आसमान का फर्क है. अब आप बताइए कि आपका सरनेम क्या है?”
लड़की ने चेहरा सोच की मुद्रा में उठाया और फिर दिमाग पर उस गाने के बोल याद करते हुए ज़ोर लगाया. उसने कुछ सेकंडों का समय लिया और तुरंत दूसरा शब्द पटका- “बद्दूर..! जी हाँ मेरा पूरा नाम चश्मे बद्दूर है.”

लड़का फिर बोला- “यह नाम नहीं होता. यह तो गाने में इस्तेमाल किया गया है. और उर्दू का होगा शायद अरबी भी हो सकता है. मुझे ठीक से नहीं पता. लेकिन यह नाम तो नहीं होता. आप मजाक कर रही हैं?”

लड़की ने ज़ोर देकर कहा- “जी हाँ. मेरा नाम यही है. मैं क्या करूँ? मुझे यही नाम दिया गया है. इसलिए जल्दी सबको नहीं बताती. आपको बताया क्योंकि आपसे कुछ भी छुपाना नहीं चाहती.”
लड़का हैरान हुआ. बहुत! लड़के ने बेहद कम बातें कीं. लड़की ने यह सोचा था कि जिस तरह से वह फोन पर बातें करता है वैसे ही यहाँ भी करेगा. पर ऐसा बिलकुल नहीं हुआ. उसका चेहरा बता रहा था कि वह बस यहाँ से किसी तरह भाग जाना जाता है. दोनों लगभग एक घंटे भी किसी तरह साथ रहे और एक दूसरे को बिना जाने चल दिए. लड़की ने यही सोचा जब यही नहीं चाहता तो मैं क्यों इस पर दबाव बनाऊं?

अगले रोज़ जब नए नाम वाली ‘चश्मे बद्दूर’ ने इस बात को दफ़्तर की साथिन से बताया तो वह बहुत हैरान नहीं हुई. उसने गुत्थी सुलझाने की कोशिश की. उसने चश्मे बद्दूर से तुरंत नवीन को फोन मिलाने को कहा. नवीन ने चौथी बार जाकर फोन उठाया और कहा कि वह बहुत व्यस्त है. शाम को किसी तरह मिलने को राज़ी हुआ. उसी पार्क में चश्मे बद्दूर पहले बैठकर इंतज़ार कर रही थी. लड़का आया.

बैठे बगैर कहने लगा- “देखो, मैं तो तुमको पसंद करता हूँ. तुम्हारा रंग गहरा है तो क्या हुआ? तुम मुसलमान हो तो क्या हुआ? पर घर में कभी सुखी नहीं रह पाओगी. इसलिए यहीं रूकते हैं!”
चश्मे बद्दूर ने उसे काफी देर तक घूरा जैसे उसको कुछ समझ ही नहीं आया कि आख़िरकार वह कह क्या रहा है? वह चला गया और वह बैठी रही. कुछ बोली ही नहीं. 

जब अगले दिन फिर दफ़्तर की साथिन को यह पूरी बात बताई तो उसने सामान्य ही अंदाज़ में कहा- “ऐसा ही होता है.”

रात में चश्मे बद्दूर ने इस बात और इस घटना पर बहुत विचार किया और पाया कि यह प्यार तो प्रेम पहली सीढ़ी तक भी नहीं पहुंचा. कुछ देर बाद उसने बेहद अटपटी बात सोची. पहली सीढ़ी! क्या उसे मालूम है कि अंतिम सीढ़ी क्या है? उफ़! इंसानों की दुनिया ही नहीं समझ आ रही तो फिर यह मोहब्बत कैसे समझ आएगी... कैसे?



उसने परेशानी में आँखें बंद कर ली. उसने अगली सुबह जल्दी उठकर अपने भईया को यह पूरा ब्यौरा बताया. उसने यह बताया कि यहाँ नाम तो ज़रूरी हैं साथ ही साथ सरनेम होना भी. कोई धर्म नाम की चीज़ भी है जिसके बारे में उतना ही पता है जितना गूगल में लिखा हुआ है. लेकिन असल की दुनिया में यह बहुत घातक मालूम देता है, भाई! इसके अलावा यहाँ चमड़ी का रंग भी बेहद मायने रखता है. लोगों अलग अलग तरह से समझा जाता है. कई बार मुझे बहुत परेशानी होती है. यहाँ मकान मालिक हर बार मेरे बारे में पूछता रहता है. उसको यह लगता है कि मैं इतना फ्री कैसे हूँ. मैंने उन्हें यह कहा है कि मेरा एक भाई है...भाई ये लोग बेहद अजीब हैं.

मुझे कभी कभी कुछ भी पल्ले नहीं पड़ता. दो दिन पहले मैं एक लड़के से मिली. उसी से जिसके बारे में आपको बताया था. फोन पर बात करता था. भाई, मुझे बेहद अच्छा एहसास मिलता था. पर जब वो मिला और उसने मेरा नाम और मेरा चेहरा देखा तब उसे पता नहीं क्या हुआ? मैं नहीं जानती. जाने क्या हुआ? आप ही बताओ...क्या मुझे प्रेम की तलाश बंद कर के वापस आपके पास आ जाना चाहिए यह फिर दिल से एक बार फिर खोजना चाहिए?

जब सुदूर किसी तस्वीरों वाले फोल्डर में रह रहे उसके भाई ने यह ख़त पढ़ा तब उसे इंसानों के इस बर्ताव का कुछ मतलब समझ नहीं आया. उसने जवाब लिखा- “यह तुम्हारी ज़िन्दगी है. तुम जैसे ठीक चाहो करो. मैं यहाँ तुम्हारे ख़त के इंतज़ार में रहूँगा और तुम्हारी दिल की बातें सुनूंगा. यहाँ आने की जल्दी मत करो. भला हो तुमने कंप्यूटर की चार दीवारी को तोडा और बाहर निकलने की सोची. वरना तो हम तस्वीरें पुरानी बनती रहती हैं. एक नई तस्वीर कब पुरानी एलबम में बदल जाए क्या मालूम! पहले तो एक एक तस्वीर को सुना है लोग हार्ड कॉपी में निकलवाकर रखते थे. कोई कोडक का कैमरा हुआ करता था जिसमें छत्तीस की संख्या में फोटो ही खींच सकते थे. लेकिन अब टच मोबाइल का ज़माना है. देखती नहीं कितनी मेमरी बढ़ गई है. तस्वीरों की संख्या अनगिनत है. सब अगड़म-बगड़म जमा किया जाता है कभी न देखने के लिए...इसलिए मेरी बात मानो यहाँ मत लौटो. आओगी तो ‘ट्रैश’ की ज़िन्दगी जिओगी. वहीँ सुखी रहो. इंसानों को लगता है कि ये सब फोल्डर ऐसे ही बेजान होते हैं. पर उन्हें नहीं मालूम कि इनकी असली सच्चाई क्या है?”

बहन ने जब यह चिट्ठी पढ़ी तो उस की आँखें मानसून बन आईं. आह! कितना दर्द है हर कहीं!
चश्मे बद्दूर ने अपनी प्रेम को खोजने और जीने की यात्रा जारी रखी. उसने कॉल सेंटर से काम छोड़ दिया. और दूसरी जगह काम करने लगी. उसने दिल्ली के एक इलाक़े में कॉफ़ी परोसने की दूकान खोल ली जिसे नफ़ासत की ज़ुबान में कॉफ़ी हाउस कहा जाता है. वह ख़ुद कॉफ़ी अपने हाथों से बनाकर परोसा करती थी. 

लोगों की कहानियों से उसने मुलाक़ात करनी शुरू कर दी. उसे उन लोगों की कहानियों में प्रेम की कहानियां भी भाती थीं लेकिन धीरे धीरे उसे उन कहानियों में भी आनंद आने लगा जिनमें घूमने फिरने के अनुभव चिपके होते थे. इसलिए उसने जाना कि प्रेम के अलावा भी इन इंसानों की ज़िन्दगी में रोमांच भरा हुआ है. उसने घूमने-फिरने वाली किताबों को भी पढ़ना शुरू किया और वक़्त मिलने पर नै जगहों पर जाना भी.

इसी बीच कॉफ़ी हाउस में उसकी मुलाक़ात एक बेहद सुंदर लड़के से हुई जो अपनी ही दुनिया में गुम रहता था और देर तक बैठा रहता था. जब भी चश्मे बद्दूर ने उससे कुछ कहना चाहा वह तुरंत कोई कविता सुना दिया करता और फिर ऐसी रंगीन दुनिया बना दिया करता कि वह उन बातों में तल्लीन हो जाया करती. एक रोज़ ऐसे ही उसने लड़के के आगे कहीं दूर पहाड़ों में जाने की बात कही. लड़का तुरंत अपनी दुनिया से जागा और उसने साथ जाने की इच्छा जाहिर की. चश्मे बद्दूर ने उस रात देर तक लड़के के बारे में सोचा. उसे लगा शायद उसकी तलाश पूरी होने को है. 

चश्मे बद्दूर और वह लड़का तय समय पर मिले और पहाड़ों की तरफ जाने वाली गाड़ी में बैठ गए. उसने रास्ते में जाना कि प्रेम का भाव इन हवाओं को महसूस करने से भी मिलता है. इन पहाड़ों को देखने से कहीं भीतर कुछ अच्छा महसूस होता है. पहाड़ों के ऊपर तैरते और खेलते हुए बादलों से भी प्रेम की अनुभूति होती है. इन रंगीन फूलों के खिलने में भी एक संगीत है. बहुत कुछ है यहाँ, इस ज़मीन पर जिससे प्रेम के महान और पवित्र भाव का एहसास होता है. वह बेहद खुश थी. 

पहाड़ों के दरम्यां बने एक इंसानी होटल में उन्होंने ठहरना तय किया. कई दिनों तक वे ख़ूब घूमें. इस बीच चश्मे बद्दूर को ख़ुद से ही प्रेम की तीव्र अनुभूति हुई. उसे मालूम चला की ज़िन्दगी से ही पहला प्रेम होता है. यह भाव उसके मन में ऐसे जागा जैसे किसी के मन में सच्चाई को लेकर सम्मान जागता है. उसने जान लिया था कि वह गलत जगह पर अभी तक रह रही थी. उसने सोचा कि वह यहीं कहीं बसेगी और अपने भाई को लम्बी-लम्बी चिट्ठियां लिखा करेगी.

उस शाम उन्हें ज़रा देर हो गई. दोनों ने अपने होटल पहुंचकर थकावट उतारने का सोचा. पहाड़ों की रात बड़ी गहरी और काली हुआ करती है. यह एक ख़ासियत है. आसमन में बदले हुए हाल सुकून देते हैं और कभी कभी बेचैन कर देते हैं. यह बेचैनी उस लड़के को हुई जिसका नाम अभी तक चश्मे बद्दूर को अभी तक नहीं मालूम था. लड़के ने नशे में बात शुरू करने के लिए पूछा- “तुम दिल्ली में कहाँ रहती हो?” 

उसने एक झुग्गी वाले इलाक़े का नाम बताया.

लड़का एकदम से ऐसे चौंका जैसे उसे किसी ने तेज़ चींटी काटी हो. उसने आँखें बड़ी करते हुए कहा- “क्या तुम झुग्गी में रहती हो? लेकिन तुम्हारा तो कॉफ़ी हाउस है.”
चश्मे बद्दूर ने कहा- हाँ, मैं झुग्गी में रहती हूँ. लेकिन झुग्गी और कॉफ़ी हाउस का क्या रिश्ता है? क्या झुग्गी वाले यह काम नहीं कर सकते?”

लड़के ने अपने को थोड़ा संयत करते हुए कहा- “क्यों नहीं, कर सकते हैं!”
लड़का नशे में पूरी तरह डूब रहा था. उसने चश्मे बद्दूर को छूने की कोशिश करनी शुरू कर दी. चश्मे बद्दूर को उस छूने के एहसास से जबर्दस्त धक्का लगा साथ ही साथ घिन आ गई. उसने उसे धक्का दिया. 

लड़का इस बीच ग़ुस्से में आकर हिंसक हो गया. उसने चश्मे बद्दूर का एक हाथ लगभग मरोड़ते हुए कहा- “तुम झुग्गी में रहने वाली, इतनी भी छूई-मुई न बनो. कितनी ही तुम्हारी तरह की औरतें मेरे घर में सफाई के काम के अलावा बहुत कुछ करती रही हैं...बहुत कुछ! समझी?”

इस बात को सुनकर चश्मे बद्दूर को जो ग़ुस्सा आया वह शायद पहले कभी नहीं आया होगा. उसने अपनी सम्पूर्ण शक्ति से उसे धक्का दिया. उसे लगा जैसे पहाड़ों की शक्ति उसके अंदर समा गई हो. वह लड़का दूर जाकर गिरा और सुबह तक उठा नहीं. चश्मे बद्दूर ने उसे उसके हाल पर छोड़ते हुए अपना इक्का-दुक्का सामान बाँधा और पहाड़ों को और नजदीक से जानने का निश्चय किया. उसने जैसे ही अकेले बाहर क़दम रखा उसे हवा छू के गई. उसे एक मीठी अनुभूति हुई जो शायद उसकी रूह से उपज रही थी. उसने चलते चलते तय किया कि वह अपने भाई को लम्बी चिट्ठी लिखेगी जिसमें इंसानों के बजाय प्रकृति से असल प्रेम का ज़िक्र होगा. इसके अलावा वह कोई भी फोटो नहीं खींचेगी न ही कोई फोल्डर बनाएगी. वह बस तमाम खूबसूरती को अपने रोम-रोम से पीती जाएगी.


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Monday, 17 June 2019

नन्हे मुन्ने बच्चे और उनकी मौत

भारत के सिनेमा की पहली फिल्म को लेकर हमेशा सेही बहस होती रही है. कोई पहली फ़िल्म 'भक्त पुंडलिक' को बताता है जिसके फुटेज आज हमारे पास मौज़ूद नहीं हैं. लेकिन बहुत सारे लोगों के मुताबिक़ भारतीय सिनेमा की पहली मूक फिल्म राजा हरिश्चंद्र है जिसे फाल्के साहब ने सन् 1913 में बनाया था. इसके फूटेज मौज़ूद हैं और फिल्म आपको कुछ पलों के लिए जिवंत भी कर देती है.

इस फ़िल्म की कथा महाभारत/मार्कंन्डेय पुराण में मौज़ूद राजा हरिश्चंद्र की कथा से ली गई है. राजा हरिश्चंद्र हम भारतियों के लिए कोई अनजाना नाम नहीं है. इस राजा के नाम से कई कहावतें भी हम आज इस्तेमाल करते हुए पाए जाते हैं. इस कथा के कई दिलचस्प सिरे और क़िरदार हैं. कहानी का मुख्या पात्र हमेशा राजा हरिश्चन्द्र को बताया गया है पर ध्यान देने पर अन्य क़िरदार भी आपको नज़र आएंगे. भारत में शिक्षा की बुरी बात यह है कि यह आपको बताती है कि क्या देखना है और क्या नहीं देखना. खैर इस कहानी में हम अक्सर पत्नी और पुत्र को भूल जाते हैं.

(आप यह सवाल पूछ सकते हैं कि इस रात (10 बजकर 40 मिनट हो चुके हैं) मैं यह क्या अनाप शनाप लिख रही हूँ. मैं इसका जवाब यही दूंगी कि मैं अनाप शनाप ही लिख रही हूँ. क्योंकि मेरे आसपास अनाप-शनाप ही हो रहा है. कुछ भी ऐसा नहीं हो रहा है की मैं आराम से बैठकर मानसून का इंतजार करूँ.)    

राजा हरिश्चंद्र के पुत्र का नाम रोहिताश्व था जो सांप के काटने से मर जाता है. जब उसकी माँ तारामती उसे शमशान में ले जाती है तब वहां उसका पति और बच्चे का पिता उसकी अंतिम क्रिया के लिए कर मांगता है तब माँ अपनी आधी साड़ी फाड़कर देती है. राजा की इस निष्ठा और सत्यता पर सब देवता मोहित होते हैं और फिर हैपी एंडिंग होती है. लेकिन मेरा सवाल यह है कि क्या उस समय से इस समय तक बच्चे देश दुनिया में सहायक या नाम मात्र के क़िरदार ही हैं? क्या कभी वे ज़िन्दगी, कथाओं और समाज में मुख्या पायदान पर आएंगे? हम तो उस देश के वासी हैं जहाँ उन्हें पूरी तरह से नागरिक भी नहीं मन जाता. यह कौन सा मुल्क है जहाँ 14 नवम्बर को ही बच्चे याद आते है?

मिथक की कहानी में कोई बच्चा हो या आज के ज़माने का कोई बच्चा हो, उनका अंजाम क्या है? गौर कीजिए. उनका अंजाम बीमारी से मौत है! जब हम नन्हे-मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है सवाल पूछेंगे तो वे सीधे हमारी आँखों में आँखें डालकर कहेंगे- "आप लोगों की दी हुई मौत! सरकारों की लापरवाही के चलते हमारी मौत! अस्पतालों की बद-इन्तजामी से बख्शी हुई मौत! आपकी चुप्पी और हमारी मौत!...वो यही कहेंगे. और इसकी गूँज में हम सो भी नहीं पाएंगे.

                                            
                                                   (Italian Children- Franz von Lenbach)

अखबारी डेटा कहते हैं कि सन् 2002 से 7000 बच्चों को इनसेफ्लेटिस हुआ और इससे अब तक 2000 बच्चों की मौत हो चुकी है. याद रखिये कि भारत में सरकारी फाइलों कितनी मक्कार और झूठी होती हैं. इसलिए आप आंकड़ों को और बढ़ा हुआ समझिए. इसी अख़बार (नव भारत टाइम्स, दिनांक 17 जून 2019) में यह बात भी लिखी है कि इस रोग पर अब तक 100 करोड़ रुपये ख़र्च हुआ पर इसका हल नहीं खोजा गया. 100 करोड़! यह रक़म इतनी ज़्यादा है कि कई सरकारी स्कूलों के ख़र्चे निकाले जा सकते थे या फिर बच्चों के लिए साफ़ पीने के पानी व्यवस्था की जा सकती थी.   

सन् 2001 की जनगणना के अनुसार 12.7 मिलियन बच्चे भारत में बाल श्रम करते हैं. कोई शक नहीं कि जब अगली गिनती होगी तब यह संख्या और बढ़ी हुई पाई जाएगी. रेड सिग्नल पर तरह तरह के करतब दिखा कर पैसा या कुछ खाने के लिए मांगने वाले बच्चे इसी भारत का भविष्य हैं जो न जाने कितने ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बनने वाला है. थी इसी तरह कुछ बच्चे ऐसे भी हैं जिनको यह भी नहीं मालूम कि गुल्लक किस चिड़िया का नाम है. एक बेहद बड़े स्कूल में एक इंटरव्यू के लिए जब गई तो वहां पाठ के दौरान 'जमा' करने ज़िक्र आया. तब मैंने गुल्लक का ज़िक्र किया और महज 12 बच्चों की क्लास में एक बच्चा खड़ा होकर बोला- 'व्ट्स दैट?' इतनी असमानता है देश में जिसका आप ख़याल भी अपने ख़याल में नहीं ला सकते. 

अभी तक जिन भी राजनितिक पार्टियों के बयान आएं हैं वे इतने परेशान करनेवाले हैं कि एक समझदार इन्सान दीवार से कहेगा कि वह ख़ुद से उसके सिर पर आकर टकरा जाए. ऐसे बयान जिन्हें लिखना भी मेरे बस की बात नहीं. घर में जब बुज़ुर्ग अपनी दास्तान सुनते-सुनाते हैं तो बताते हैं कि कैसे प्लेग और हैजा जैसे रोगों को ख़त्म किया गया. उनकी तरफ़ से मिलने वाली कहानी में विज्ञान की महक आती है. एक संतुलित साइंस का पता चलता है. लेकिन आज हमारी ख़ुद की कहानी में कितना अन्धविश्वास पैदा हो चुका है जहाँ साइंस एक मज़ाक बनकर रह गया है. 

मन में बहुत भड़ास है. 

...लेकिन कहीं किसी कोने में एक वाष्प है...एक नमी उन छोटी आत्माओं के लिए जिन्हों ने इस दुनिया को पूरी तरह देखा भी नहीं और बे-वक़्त चले गए. सितारों में आराम करो, तुम अब!


 

Sunday, 16 June 2019

मेट्रोवालियाँ

दिल्ली के उस हिस्से में रहती हूँ जहाँ एक मशहूर मंदिर है. जब नवरात्र के दिन आते हैं तब लड़कियां और महिलाएं भारी संख्या में उस मंदिर का रुख करती हैं. इस दौरान बसों और अन्य साधनों का बहुत इस्तेमाल होता है. मेट्रो का भी बहुत ज़्यादा. उस दिन अपना शहर ज़्यादा औरताना लगने लगता है. साल के उंगली पर गिन लेने वाले दिन ही महिलाओं के होते हैं जब वे किसी न किसी बहाने घर से बाहर निकलती हैं. उस पर हाल यह कि गोद में बच्चा उठाए वे साड़ी में लिपटी पति से दस क़दम पीछे रह जाती हैं. पति ग़ुस्से में यह भी कहता है- 'जल्दी जल्दी चलो, कितना टाइम लगा रही हो!' 

एक बार किसी बस के ड्राइवर को यह कहते हुए पाया कि नवरात्र में ये औरतें उलटी कर के बस गन्दा कर देती हैं. अभी अभी बस को डिपो से धुलवाकर आ रहा हूँ. सांस भी नहीं ली जा रही थी. बस वास्तव में गीली थी और महक भी रही थी. लेकिन उस बस वाले ने कभी इस बात को समझने पर ज़ोर नहीं डाला कि आख़िर इन दिनों वे ऐसा क्यों कर देती हैं?  पूरी तरह से अपने भाई, पति और पिता पर निर्भर यह दूसरा जेंडर बाहर की दुनिया में ऐसे क्यों बर्ताव करने लगता है, ऐसा सोचने और समझने की ताक़त इन पुरुषों ने अभी तक विकसित नहीं की है. इनमें पढ़े लिखे लोग भी शामिल हैं जो नहीं जानते कि महिलाओं का क्यों बाहर की तरफ रुख करना बेहद ज़रूरी है.  



वे लड़कियां और महिलाएं जो नई नई शहर में आती हैं उनकी मुलाक़ात बस से ही होती है. सड़कों से लेकर आसमान तक धुआं ऐसा कि दम घुटता है और उलटी शुरू हो जाती है. महिलाओं के लिए आज भी सफ़र एक 'सफर' होता है. कभी छोटे बच्चे को गोद में ली हुई औरत का चेहरा देखिए कि वह कभी भी खिड़की से बाहर की दुनिया नहीं देखती बल्कि मन में उस डर और दर्द को सहती है कि कहीं उलटी न हो जाए. बताइए तो इतिहास में कितनी घूमने वाली औरतों के ज़िक्र आपने पढ़े हैं? आज के माहौल में कोई घूमने वाली महिला मिल जाए तो आँखें चौड़ी हो जाती हैं. पर कभी ये मौक़े और भरपूर मौक़े औरतों को नहीं मिले. उन पर नियंत्रण का यह हाल हैkकि उनके लिखें हुए में दुःख और आपबीती ज़्यादा नज़र आने लगती हैं. कभी दिमाग लगाकर इतिहासके महान क़िरदार का औरताना रूप सोचिए, आपको अच्छा लगेगा.सिकंदर का सिकंदरी कर दीजिए या इब्न बतूता का इब्न बतूती कर दीजिए. आप चकरा जाएंगे. इतिहास का जेंडर भी मिनट में समझ आ जाएगा. आपको अफ़सोस होगा कि पिछला ज़माना हो या अब का ज़माना कितना एक तरफ़ा रहा है. 

कहने को बहुत कुछ लिख सकती हूँ पर इतना कहूँगी श्री धरन साहब की चिट्ठी में कुछ खोट है. महिलाओं को वे मौक़े मुहैया करवाइए कि वे ज़्यादा से ज़्यादा बाहर निकले. अपनी फिक्स छवियों को तोडें, न कि उनको मेट्रो की तीन बोगियां दीजिए. आधी आबादी की ख़िलाफ़त की बात मतलब आधी आवाम की ख़िलाफ़त. वैसी ही महिलाओं के काफ़ी क़र्ज़ पहले से मौज़ूद हैं. कहीं से तो उतारने काम शुरू कीजिए या करने दीजिए.  

21 बरस की बाली उमर को सलाम, लेकिन

  दो साल पहले प्रथम वर्ष में पढ़ने वाली लड़की से मेरी बातचीत बस में सफ़र के दौरान शुरू हुई थी। शाम को काम से थकी हारी वह मुझे बस स्टॉप पर मिल...