Sunday, 16 June 2019

मेट्रोवालियाँ

दिल्ली के उस हिस्से में रहती हूँ जहाँ एक मशहूर मंदिर है. जब नवरात्र के दिन आते हैं तब लड़कियां और महिलाएं भारी संख्या में उस मंदिर का रुख करती हैं. इस दौरान बसों और अन्य साधनों का बहुत इस्तेमाल होता है. मेट्रो का भी बहुत ज़्यादा. उस दिन अपना शहर ज़्यादा औरताना लगने लगता है. साल के उंगली पर गिन लेने वाले दिन ही महिलाओं के होते हैं जब वे किसी न किसी बहाने घर से बाहर निकलती हैं. उस पर हाल यह कि गोद में बच्चा उठाए वे साड़ी में लिपटी पति से दस क़दम पीछे रह जाती हैं. पति ग़ुस्से में यह भी कहता है- 'जल्दी जल्दी चलो, कितना टाइम लगा रही हो!' 

एक बार किसी बस के ड्राइवर को यह कहते हुए पाया कि नवरात्र में ये औरतें उलटी कर के बस गन्दा कर देती हैं. अभी अभी बस को डिपो से धुलवाकर आ रहा हूँ. सांस भी नहीं ली जा रही थी. बस वास्तव में गीली थी और महक भी रही थी. लेकिन उस बस वाले ने कभी इस बात को समझने पर ज़ोर नहीं डाला कि आख़िर इन दिनों वे ऐसा क्यों कर देती हैं?  पूरी तरह से अपने भाई, पति और पिता पर निर्भर यह दूसरा जेंडर बाहर की दुनिया में ऐसे क्यों बर्ताव करने लगता है, ऐसा सोचने और समझने की ताक़त इन पुरुषों ने अभी तक विकसित नहीं की है. इनमें पढ़े लिखे लोग भी शामिल हैं जो नहीं जानते कि महिलाओं का क्यों बाहर की तरफ रुख करना बेहद ज़रूरी है.  



वे लड़कियां और महिलाएं जो नई नई शहर में आती हैं उनकी मुलाक़ात बस से ही होती है. सड़कों से लेकर आसमान तक धुआं ऐसा कि दम घुटता है और उलटी शुरू हो जाती है. महिलाओं के लिए आज भी सफ़र एक 'सफर' होता है. कभी छोटे बच्चे को गोद में ली हुई औरत का चेहरा देखिए कि वह कभी भी खिड़की से बाहर की दुनिया नहीं देखती बल्कि मन में उस डर और दर्द को सहती है कि कहीं उलटी न हो जाए. बताइए तो इतिहास में कितनी घूमने वाली औरतों के ज़िक्र आपने पढ़े हैं? आज के माहौल में कोई घूमने वाली महिला मिल जाए तो आँखें चौड़ी हो जाती हैं. पर कभी ये मौक़े और भरपूर मौक़े औरतों को नहीं मिले. उन पर नियंत्रण का यह हाल हैkकि उनके लिखें हुए में दुःख और आपबीती ज़्यादा नज़र आने लगती हैं. कभी दिमाग लगाकर इतिहासके महान क़िरदार का औरताना रूप सोचिए, आपको अच्छा लगेगा.सिकंदर का सिकंदरी कर दीजिए या इब्न बतूता का इब्न बतूती कर दीजिए. आप चकरा जाएंगे. इतिहास का जेंडर भी मिनट में समझ आ जाएगा. आपको अफ़सोस होगा कि पिछला ज़माना हो या अब का ज़माना कितना एक तरफ़ा रहा है. 

कहने को बहुत कुछ लिख सकती हूँ पर इतना कहूँगी श्री धरन साहब की चिट्ठी में कुछ खोट है. महिलाओं को वे मौक़े मुहैया करवाइए कि वे ज़्यादा से ज़्यादा बाहर निकले. अपनी फिक्स छवियों को तोडें, न कि उनको मेट्रो की तीन बोगियां दीजिए. आधी आबादी की ख़िलाफ़त की बात मतलब आधी आवाम की ख़िलाफ़त. वैसी ही महिलाओं के काफ़ी क़र्ज़ पहले से मौज़ूद हैं. कहीं से तो उतारने काम शुरू कीजिए या करने दीजिए.  

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