भारत के सिनेमा की पहली फिल्म को लेकर हमेशा सेही बहस होती रही है. कोई पहली फ़िल्म 'भक्त पुंडलिक' को बताता है जिसके फुटेज आज हमारे पास मौज़ूद नहीं हैं. लेकिन बहुत सारे लोगों के मुताबिक़ भारतीय सिनेमा की पहली मूक फिल्म राजा हरिश्चंद्र है जिसे फाल्के साहब ने सन् 1913 में बनाया था. इसके फूटेज मौज़ूद हैं और फिल्म आपको कुछ पलों के लिए जिवंत भी कर देती है.
इस फ़िल्म की कथा महाभारत/मार्कंन्डेय पुराण में मौज़ूद राजा हरिश्चंद्र की कथा से ली गई है. राजा हरिश्चंद्र हम भारतियों के लिए कोई अनजाना नाम नहीं है. इस राजा के नाम से कई कहावतें भी हम आज इस्तेमाल करते हुए पाए जाते हैं. इस कथा के कई दिलचस्प सिरे और क़िरदार हैं. कहानी का मुख्या पात्र हमेशा राजा हरिश्चन्द्र को बताया गया है पर ध्यान देने पर अन्य क़िरदार भी आपको नज़र आएंगे. भारत में शिक्षा की बुरी बात यह है कि यह आपको बताती है कि क्या देखना है और क्या नहीं देखना. खैर इस कहानी में हम अक्सर पत्नी और पुत्र को भूल जाते हैं.
(आप यह सवाल पूछ सकते हैं कि इस रात (10 बजकर 40 मिनट हो चुके हैं) मैं यह क्या अनाप शनाप लिख रही हूँ. मैं इसका जवाब यही दूंगी कि मैं अनाप शनाप ही लिख रही हूँ. क्योंकि मेरे आसपास अनाप-शनाप ही हो रहा है. कुछ भी ऐसा नहीं हो रहा है की मैं आराम से बैठकर मानसून का इंतजार करूँ.)
राजा हरिश्चंद्र के पुत्र का नाम रोहिताश्व था जो सांप के काटने से मर जाता है. जब उसकी माँ तारामती उसे शमशान में ले जाती है तब वहां उसका पति और बच्चे का पिता उसकी अंतिम क्रिया के लिए कर मांगता है तब माँ अपनी आधी साड़ी फाड़कर देती है. राजा की इस निष्ठा और सत्यता पर सब देवता मोहित होते हैं और फिर हैपी एंडिंग होती है. लेकिन मेरा सवाल यह है कि क्या उस समय से इस समय तक बच्चे देश दुनिया में सहायक या नाम मात्र के क़िरदार ही हैं? क्या कभी वे ज़िन्दगी, कथाओं और समाज में मुख्या पायदान पर आएंगे? हम तो उस देश के वासी हैं जहाँ उन्हें पूरी तरह से नागरिक भी नहीं मन जाता. यह कौन सा मुल्क है जहाँ 14 नवम्बर को ही बच्चे याद आते है?
मिथक की कहानी में कोई बच्चा हो या आज के ज़माने का कोई बच्चा हो, उनका अंजाम क्या है? गौर कीजिए. उनका अंजाम बीमारी से मौत है! जब हम नन्हे-मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है सवाल पूछेंगे तो वे सीधे हमारी आँखों में आँखें डालकर कहेंगे- "आप लोगों की दी हुई मौत! सरकारों की लापरवाही के चलते हमारी मौत! अस्पतालों की बद-इन्तजामी से बख्शी हुई मौत! आपकी चुप्पी और हमारी मौत!...वो यही कहेंगे. और इसकी गूँज में हम सो भी नहीं पाएंगे.
(Italian Children- Franz von Lenbach)
अखबारी डेटा कहते हैं कि सन् 2002 से 7000 बच्चों को इनसेफ्लेटिस हुआ और इससे अब तक 2000 बच्चों की मौत हो चुकी है. याद रखिये कि भारत में सरकारी फाइलों कितनी मक्कार और झूठी होती हैं. इसलिए आप आंकड़ों को और बढ़ा हुआ समझिए. इसी अख़बार (नव भारत टाइम्स, दिनांक 17 जून 2019) में यह बात भी लिखी है कि इस रोग पर अब तक 100 करोड़ रुपये ख़र्च हुआ पर इसका हल नहीं खोजा गया. 100 करोड़! यह रक़म इतनी ज़्यादा है कि कई सरकारी स्कूलों के ख़र्चे निकाले जा सकते थे या फिर बच्चों के लिए साफ़ पीने के पानी व्यवस्था की जा सकती थी.
सन् 2001 की जनगणना के अनुसार 12.7 मिलियन बच्चे भारत में बाल श्रम करते हैं. कोई शक नहीं कि जब अगली गिनती होगी तब यह संख्या और बढ़ी हुई पाई जाएगी. रेड सिग्नल पर तरह तरह के करतब दिखा कर पैसा या कुछ खाने के लिए मांगने वाले बच्चे इसी भारत का भविष्य हैं जो न जाने कितने ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बनने वाला है. थी इसी तरह कुछ बच्चे ऐसे भी हैं जिनको यह भी नहीं मालूम कि गुल्लक किस चिड़िया का नाम है. एक बेहद बड़े स्कूल में एक इंटरव्यू के लिए जब गई तो वहां पाठ के दौरान 'जमा' करने ज़िक्र आया. तब मैंने गुल्लक का ज़िक्र किया और महज 12 बच्चों की क्लास में एक बच्चा खड़ा होकर बोला- 'व्ट्स दैट?' इतनी असमानता है देश में जिसका आप ख़याल भी अपने ख़याल में नहीं ला सकते.
अभी तक जिन भी राजनितिक पार्टियों के बयान आएं हैं वे इतने परेशान करनेवाले हैं कि एक समझदार इन्सान दीवार से कहेगा कि वह ख़ुद से उसके सिर पर आकर टकरा जाए. ऐसे बयान जिन्हें लिखना भी मेरे बस की बात नहीं. घर में जब बुज़ुर्ग अपनी दास्तान सुनते-सुनाते हैं तो बताते हैं कि कैसे प्लेग और हैजा जैसे रोगों को ख़त्म किया गया. उनकी तरफ़ से मिलने वाली कहानी में विज्ञान की महक आती है. एक संतुलित साइंस का पता चलता है. लेकिन आज हमारी ख़ुद की कहानी में कितना अन्धविश्वास पैदा हो चुका है जहाँ साइंस एक मज़ाक बनकर रह गया है.
मन में बहुत भड़ास है.
...लेकिन कहीं किसी कोने में एक वाष्प है...एक नमी उन छोटी आत्माओं के लिए जिन्हों ने इस दुनिया को पूरी तरह देखा भी नहीं और बे-वक़्त चले गए. सितारों में आराम करो, तुम अब!
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