Sunday, 3 November 2019

बोलना चाँदी, ख़ामोशी सोना

रास्तों से होते हुए आज दिल्ली में हर शख्स अपनी जान और ज़िंदगी का एक एक कतरा वहीं छोड़ता आ रहा है. इसमें किसी का कोई भेद नहीं है. औरतें हों, पुरुष हों, बच्चे हों या किसी भी अन्य लिंग और उम्र के लोग. हर कोई घर और बाहर थोड़ा-थोड़ा मर रहा है. अब जब यह पोस्ट लिख रही हूँ, मुझे चक्कर आ रहे हैं. इतना अधिक दम घुंट रहा है कि साँस रुक जा रही है. सोना नहीं चाहती. सो गई तो धीमा जहर अंदर आराम से जगह बना लेगा. और विरोध का वक़्त नहीं मिलेगा. यहाँ यह भी नहीं कह सकती कि बिना लड़े हथियार नहीं डालना चाहिए. प्रकृति को जैसा दिया है वह वैसा ही लौटा रही है. हुबहू वैसा ही. मुझे नहीं पता अमीर मर रहे हैं या नहीं लेकिन इतना जानती हूँ कि हम जैसे धीरे धीरे मर रहे हैं. मुझे पहले ही लगता था कि कम ज़िन्दगी है अब पक्का यकीं हो गया है कि कम ही ज़िन्दगी है. क्या करुँगी पढ़कर, इसलिए लिख रही हूँ. 

सुबह कॉलेज पढ़ाने गई थी और सामने हर बच्चा बिना मास्क के बैठा था. न उनमें कोई बेचैन था और न ग़ुस्से में, न तकलीफ में, न कोई भीगा और भागा हुआ भाव...जाते ही उन्हें मास्क पहनने की नसीहत दी. पर मुझे लगा नहीं कि उनमें सी किसी ने मुझे गंभीरता से सुना. जब अपनी दोस्त के पास हॉस्टल गई तब लड़कियों की पहरेदारी करता हुआ गार्ड अलसुबह से बिना मास्क के बैठा हुआ था. उसे देखते ही बोला- "भईया, मास्क कहाँ है? क्यों ख़तरा उठा रहे हैं? जल्दी से किसी को भेज को मंगा लीजिए." वह बोले- "ड्यूटी छोड़कर नहीं जा सकते. किसी को भेजकर मंगा लेता हूँ." ड्यूटियां जान से प्यारी हो चुकी हैं. प्रशासन क्यों मास्क ख़रीदकर दे! आख़िर आम इंसानों की जान में रखा ही है क्या है! ऑटो वाले से लेकर रिक्शे वाले तक को बोलती आ रही हूँ. लेकिन मुझे वास्तव में किसी ने सुना या नहीं यह नहीं पता. मुझे लगता है मुझे किसी ने नहीं सुना. मुझे इस पर दुःख भी नहीं है. अब कौन सुनता है और कौन नहीं, इससे बहुत फ़र्क नहीं पड़ता. कुछ दिनों में यह अपना बोलना बंद करने वाली हूँ. मैं कुछ दिनों में श्द्दित से ग़ायब होना चाहती हूँ ताकि किसी को दिखाई तक न दूँ.

लेकिन मेरे न दिखने की चाहत की तरह एक न दिखने वाली एहसासों की दुनिया आज शाम को सुन कर आ रही हूँ. और उसे सुनकर मुझे बहुत अच्छा महसूस हो रहा है. इतना अच्छा आज बहुत दिनों बाद लग रहा है. लग रहा है मन में मोगरा महक रहा है. हमारे पास बैठने तक की जगह नहीं थी लेकिन बातें करने को बहुत कुछ था. वह बहुत दूर से मिलने आई थीं. जब उन्हों ने मुझे गले लगाया तो लगा कि रेगिस्तान में ऐसे ही पेड़ उगते होंगे अपनी सुन्दरता के साथ. कभी कभी अपने आपको इंसान समझना अच्छा लगता है. जब लोग आपसे मिलते हैं और बेहद रूमानी और रूहानी बातें करते हैं. सोचिये यह कितना शानदार है कि लोग बहुत दूर से आपसे मिलने और बात करने आ रहे हैं. जाते वक़्त उन्हों ने फिर गले लगाया और मेरे गाल चूम लिए. इतना प्यार पाकर मैं मर सकती हूँ...ख़ुशी से!

आज सुनने को थोड़ा और बेहतर समझ पाई हूँ. अपने बोलने की आदत पर अपने आप कुछ वक़्त से कमी ला चुकी हूँ. अब समझ आता है कि लोगों की अपनी ढेरों कहानियाँ कहने के लिए हैं. वे कहानियाँ काफी अलाहिदा और अकेली हैं. उन्हें भरोसे वाले कानों की तलाश है. वो बहुत मीठी हैं. वो ज़माने के नियम के डर से छुपी हुई हैं. उन्हें बाहर आना चाहिए. हम अपने एहसासों को छुपाने के लिए तैयार किये जाते हैं. कम से कम मेरे आसपास में ऐसा ही है. अगर कुछ कह दिया तो लोगों के मुंह खुले रह जाते हैं. जबकि हम अपनी निजी ज़िन्दगी में क्या करते हैं इससे किसी को कोई मतलब नहीं होना चाहिए. लेकिन यहाँ लोग मतलब ही नहीं बल्कि अपनी ज़िंदगी की नीरसता को आपकी जिंदगी में टांग अड़ाकर परेशानी लाते हैं. फिर भी कहूँगी अगर आपकी कोई कहानी है और आपके पास दो सुनने वाले और भरोसे वाले कान हैं तो कहिए. अपने पूरे मिजाज़ और मन से कहिए. आपने अपने एहसासों का एहसास लेकर कोई गुनाह नहीं किया. आपको सब करने का पूरा हक़ है क्योंकि यह आपकी ज़िन्दगी है.मरने के बाद हम कोई भी और किसी भी तरह का एक्सपेरिमेंट करने लायक़ नहीं रह जाएंगे. हाँ, अगर आपका ईश्वर रिश्वतखोर है तो गुंजाईश बनती है.

सुनना एक स्पेस भी तैयार करता है जिसमें आँखों से सींचा हुआ, कानों से सुना हुआ, दिल से जज्ब हुआ, महसूस किया हुआ बाहर आता है और अपने साथ इंसानों की ज़िन्दगी की उन तमाम तहों या परतों की रंगीनियत को रखता है जो इंसान होने को बढ़ावा तो देती हैं और बनाए भी रखती हैं. धीरज की महीन संरचना आपको अपने कानों को देनी होगी. जहाँ आप उसकी कहानी में दिलचस्पी दिखाते रहे. अगर आप उसकी कहानी को नहीं सुनना चाहते तो आप सुनने का नाटक न करें. आप सुनने को नहीं समझ रहे बल्कि उसका अपमान कर रहे हैं.  आप जिस मिठास से संगीत सुनते हैं वही मिठास सामने वाले को भी परोसिये जो आप बहुत दूर से कुछ कहने आया है. अभी इस लय में धीरे धीरे उतर रही हूँ.




न बताने जैसा इस दुनिया में कुछ होता नहीं. सच्चाई यह है कि हर किसी को किसी से कुछ कहना है और वहीं तक सीमित रहना या न रहना, उतना महत्वपूर्ण नहीं है. किसी शख्स की निजता किसी देश की ख़ुफ़िया एजेंसी का विभाग नहीं होता. गौर से देखो तो समझ आता है कि निजता एक ख़ास दायरे में चक्कर काटती है. मिथक की उस कहानी को याद कीजिए जहाँ शिव, पार्वती को कहानी सुना रहे हैं और वहाँ कबूतर वह कहानी सुन रहे हैं. भले ही उस कहानी को शिव, सिर्फ पार्वती के लिए कहते हैं. हालाँकि मैंने ख़ास तौर से महिलाओं को कई राज़ अपने सीने में रखे हुए पाया है साथ ही उन्हें इस बाबत बदनाम होते भी पाया है कि महिलाएं कोई राज़ नहीं छुपा पाती. लेकिन यह राज़ किससे छुपाना है, जब समझ लेंगे तब जान जाएंगे. इस पर पूरी एक किताब लिखी जाती है. 

प्रायमरी स्कूल में नैतिक शिक्षा अन्तराल में मेरी ही टीचर की सुनाई एक कहानी याद आ रही है. बड़ी अच्छी कहानी है. सालों बीत जाने पर भी याद है, हालाँकि ठीक से नहीं. कहानी का मर्म कुछ यूँ था कि किसी को अपनी एक निजी बात कहनी थी. उसने तीन गुड़ियों को चुना. एक गुड़िया ऐसी थी कि जब उसने सुना तो उसने उस कहानी को दूसरे कान का इस्तेमाल करते हुए किसी दूसरे तक उस कहानी को फैला दिया. उसने बात पचाई नहीं, जो कि एक कला है. दूसरी गुड़िया को निजी बात बताई गई तब उसके सिर के ऊपर से वह निजी बात उड़ गई. उसने गंभीरता से नहीं सुना. बल्कि सुनने की खानापूर्ति कर दी जैसा कि सरकारें करती हैं, अपनी ही जनता के साथ. उसके सुनने में लापरवाही थी. इससे कहने वाले को काफी दुःख भी हुआ. फिर अंत में उसे तीसरी गुड़िया मिली. जब बोलने वाले ने अपनी निजी बात इस गुड़िया को बताई तो इस गुड़िया ने न सिर्फ उसकी बात को दिलचस्पी से सुना बल्कि उसकी बात को पेट में पचा लिया...हमेशा के लिए. मेरी टीचर ने इस कहानी को बुनाई के इस्तेमाल में आने वाली सिलाई और तीन गुड़िया के कान जैसे चित्रों से यह कहानी सुनाई थी. तीनों के कान में सिलाई डालकर यह बात समझाई थी. खैर, कहानी को मर्म मैंने यहाँ लिख दिया है. आप समझे या न समझे इसमें मेरा कोई रोल नहीं.     

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फ़ोटो, गूगल से

Friday, 1 November 2019

चित्रलिपि

उस दिन 1... अक्टूबर था. जब दोनों साथ बैठे थे. इतना सुकून इसी शहर की जगह पर मिल सकता है. जगह बेहद ज़रूरी पृष्ठभूमि होती है. हालाँकि जगह की जानकारी न होने के न चलते दोनों में एक मज़ाकिया गड़बड़ी हुई. पर यह उतना बुरा नहीं था. कुछ था जो दोनों के बीच था. वो हर कहीं और हर किसी के बीच नहीं होता. वह जो उन दोनों के बीच था वह हर जगह होना चाहिए ताकि लोग अच्छे और मासूम बने रहें. लोगों के मासूम बने रहने से ही यह जगह चल पा रही है वरना कैसे इतना बड़ा कारोबार चल सकता था! यह सोचना भी कितना मुश्किल है.

मुख़्तसर मुलाक़ात थी. ज़िन्दगी में रिश्तों की बनावट का सारा कारोबार ही इन मुख़्तसर मुलाक़ातों को मारकर खड़ा किया गया है. ज़रूरी है किसी रिश्तों की जाँच और गिनती की जाए? उसके बगैर क्या इंसान नहीं रहते होंगे? ऐसा तो नहीं है कि पृथ्वी की शुरुआत से ही रिश्तों की पोटली बाँध दी गई होगी! नहीं, ऐसा नहीं हो सकता. ऐसा हुआ भी नहीं. कोशिश करनी होगी कि इन रिश्तों ने कब से जन्म लिया होगा, जानने की. आजकल के छोटे छोटे परिवार भी बेहद खुश हैं. अब यह हैरानी भी है कि वे खुश हैं. अगर हैं भी तो, उन्हें होने दीजिये. लेकिन आप का क्या? क्या आप किसी को इसलिए पसंद करते हैं कि उससे आगे आने वाले दिनों में रिश्ता गांठना है? अगर इस हसरत के साथ किसी से मिलते हैं तो आप सरासर स्वार्थी हैं. आगे की योजना के बारे में सोचकर वर्तमान को जीना शायद ज़िन्दगी की बेहतरीन पलानिंग हो सकती है पर यह एक धोखा है उस पल के साथ जब आप उसे बिता रहे थे या गुज़ार रहे थे या फिर जी रहे थे. आप क्या कर रहे थे? आपने यह नहीं सोचा. आप मिले और घर लौट आये. शायद आपने उसे दिखाकर पीछे मुड़कर नहीं देखा पर आपने देखा था, यही तो वो बात थी उस मुलाक़ात और उस पल की. 

दिल्ली के प्रदूषण से बच गए तो दस साल बाद आप ख़ुद से यह सवाल पूछेंगे कि जब 'उससे' मुलाक़ात कर रहे थे तब आपके भीतर किस किस तरह की घटनाएं बुलबुलों की तरह बन कर जल्दी ख़त्म हो रही थीं? उससे मिलना किस तरह अलग था? उस वक़्त, वक़्त का मिजाज़ क्या था? उस वक़्त, बैकग्राउंड में क्या चल रहा था? हवा में किस तरह की मिठास थी? थी भी या नहीं? कौन सी आवाजें उस फ्रेम में शामिल थीं जहाँ आप दोनों बैठे थे? आपके बीच से ऐसा क्या गुज़र रहा था जो आप दोनों ने उसे अपनी बातों में शामिल नहीं किया? क्या कुछ खामोश था? किस पर ज़्यादा बात हुई? क्या बाक़ी रहा? क्या दोनों के बीच ऐसा था जो भीतर समा गया? कुछ ऐसा क्या था जो पल को ख़ास बना रहा था? ...आप ये सब सवाल कभी तो सोचेंगे जब अकेले बैठे होंगे. तब आप पाएंगे कि आप उस समय जिए भी या बस वक़्त से गुज़र कर यहाँ तक आ गए हैं.



मिलने के लिए नहीं मिलो. मिलो तो जीने के लिए मिलो. जब मिलो तो यह जानने की कोशिश करो कि कैसे रेमेदियोस हवा में उड़ते हुए आसमान में गुम हो गई? क्या मार्केज़ उसे 'एकांत के सौ वर्ष' से वापस लाए? क्या वे भूल गए उसे वापस लाना है या फिर उसे आसमान में ही किसी से मिलने के लिए एक मुलाक़ात मिल गई थी? आज भी यह बेहद रूमानी लगता है कि वह चादर बिछाती बिछाती अचानक उड़ गई. क्या बिना 'ज़ोरबा द ग्रीक' के हमें समझ नहीं आएगा कि ज़िन्दगी में सब कुछ जीने के लिए ही होता है? एलेक्सिस ज़ोरबा ही बताएगा कि हम जीने के लिए आये हैं? गलतियों, पापों के साथ भी रहने के बावजूद हम जीने के लिए ही आए हैं. इसलिए किसी 'प्रेमम मुलाक़ात' को भरपूर जीना आना चाहिए. आपको नहीं आया तब अंत में इस दुनिया के सबसे दयनीय और कमजोर इंसान होंगे जो जिंदगी के बेहतरीन लम्हो से ख़ाली रह गया. 

मुलाक़ात में दो लोग
मुलाक़ात में संख्या महत्त्व नहीं रखती. इसमें ज़रूरी है कि मिलन हो और उसका एहसास भी. दो लोगों के बीच भी यह हो सकती है और कई लोगों के साथ भी. हाँ, ख़ुद के साथ भी यह होती है. अगर आप ये सारी मुलाकातें कैसे करनी होती है, जानते हैं तब आप बेहतर ज़िन्दगी की तरफ़ बढ़ रहे हैं. इतना तो आप मान लीजिये. इसमें शब्द रहते हैं पर ख़ामोशी भी एक संवाद का तरीका हो सकती है. इसके लिए अभी किसी फ़िल्म का दृश्य याद आ रहा है जहाँ दो पुराने प्रेमी झगड़े के बाद अलग हो जाते हैं. कुछ उम्र बीत जाती है. फिर अचानक एक रोज़ मुलाक़ात होती है. अपने अपने परिवारों के बारे में एक दूसरे के में बताते हैं. प्रेमिका दो जाम बनाती है. पलंग पर न बैठकर वह अपना जाम लेते हुए ज़मीन पर बैठ जाती है. प्रेमी अपना जाम उठाकर उसके ठीक बगल में. दोनों खामोश होकर कहीं सामने देख रहे हैं और मन में कुछ हलचल हो रही है. थोड़ी देर बाद प्रेमिका का सिर आँखों में कुछ बूँदें लिए प्रेमी के कंधे पर होता है. प्रेमी भी अपना सिर उसके सिर से टिका देता है. फ़िल्म यहीं समाप्त हो जाती है.* इसलिए ज़रूरी नहीं कि शब्दों की ज़रूरत पड़े हर मुलाक़ात में. ख़ामोशी में भी एहसास बह जाते हैं. 

वक़्त/टाइम
हम सभी लोग जो इस जमीं पर हैं शायद अच्छे वाले श्राप से शापित हैं कि इस टाइम से बाहर नहीं हो सकते. चाहे जमीं के खोह में घुस जाएं या फिर वायुमंडल में चले जाएं, वक़्त आपके साथ या यूँ कहूँ आपकी त्वचा के साथ चिपका हुआ है. वो हमेशा बना रहता है. लेकिन कहीं कहीं यह अपना एहसास या कंट्रोल छोड़ देता है. वह तब होता है जब हम एहसासों की गहराई में होते हैं. जब वह पल बेहद गहरे पैशन के साथ हमारे साथ घटना शुरू होते हैं, आहिस्ता- आहिस्ता. यह जबरदस्त होता है. जीना समझ आ जाता है. आप दोनों बैठे हैं और आप दोनों के हाथों में घड़ी होते हुए भी आप लोगों को वक़्त कुछ कह नहीं पाता कि आप दोनों के दरम्यां वह भी है. उसका भी ख़याल रखो. अगर वक़्त के बगैर जीना है तो पैशन के साथ रहो. मिलो. जब आप ये लम्हात गुज़ारते हैं तब ही सच्ची और ताज़ी यादों को बनाना और सहेजना संभव होता है. वरना तो वक़्त आपको और हमको राख में तब्दील करने के लिए है. वही नहीं मरेगा और हम...जीने के लिए आया ही कौन है? इसलिए मिलो तो सब भूलकर उसके साथ मिलो. उसे पता भी नहीं चलने दो कि जब आप मिलने के लिए घर से निकल रहे थे तब आपने वक़्त को घर पर छोड़ना मुनासिब समझा था.

एहसास 
इस पर तो क्या ही लिखूं! इस पर नहीं लिखा जाता. यही हमको लिख देते हैं. जो मन में पिघलने के लिए ही बन जाते हैं. न इनसे हारा जा सकता है और न ही इन्हें हराया जा सकता है. न इसे जीत पाते हैं (बुद्ध ने किया है) न इनसे लड़ पाते हैं. ये जटिल हैं. बहुत सारे धागों की तरह एक दूसरे में गुंथे हुए. इनसे उलझने की कभी कोशिश नहीं की जाती पर हैरत है पूरी ज़िन्दगी इसी में बसर कर देते हैं. यही कहा जा सकता है जब वह बगल में बैठती/बैठता है तब पूरी दुनिया थम जाती है. और कुछ नहीं लिखा जाना चाहिए...




*इस दृश्य के लिए फ़िल्म 'Breaking Up (1997)' देखिए.

21 बरस की बाली उमर को सलाम, लेकिन

  दो साल पहले प्रथम वर्ष में पढ़ने वाली लड़की से मेरी बातचीत बस में सफ़र के दौरान शुरू हुई थी। शाम को काम से थकी हारी वह मुझे बस स्टॉप पर मिल...