Friday, 1 November 2019

चित्रलिपि

उस दिन 1... अक्टूबर था. जब दोनों साथ बैठे थे. इतना सुकून इसी शहर की जगह पर मिल सकता है. जगह बेहद ज़रूरी पृष्ठभूमि होती है. हालाँकि जगह की जानकारी न होने के न चलते दोनों में एक मज़ाकिया गड़बड़ी हुई. पर यह उतना बुरा नहीं था. कुछ था जो दोनों के बीच था. वो हर कहीं और हर किसी के बीच नहीं होता. वह जो उन दोनों के बीच था वह हर जगह होना चाहिए ताकि लोग अच्छे और मासूम बने रहें. लोगों के मासूम बने रहने से ही यह जगह चल पा रही है वरना कैसे इतना बड़ा कारोबार चल सकता था! यह सोचना भी कितना मुश्किल है.

मुख़्तसर मुलाक़ात थी. ज़िन्दगी में रिश्तों की बनावट का सारा कारोबार ही इन मुख़्तसर मुलाक़ातों को मारकर खड़ा किया गया है. ज़रूरी है किसी रिश्तों की जाँच और गिनती की जाए? उसके बगैर क्या इंसान नहीं रहते होंगे? ऐसा तो नहीं है कि पृथ्वी की शुरुआत से ही रिश्तों की पोटली बाँध दी गई होगी! नहीं, ऐसा नहीं हो सकता. ऐसा हुआ भी नहीं. कोशिश करनी होगी कि इन रिश्तों ने कब से जन्म लिया होगा, जानने की. आजकल के छोटे छोटे परिवार भी बेहद खुश हैं. अब यह हैरानी भी है कि वे खुश हैं. अगर हैं भी तो, उन्हें होने दीजिये. लेकिन आप का क्या? क्या आप किसी को इसलिए पसंद करते हैं कि उससे आगे आने वाले दिनों में रिश्ता गांठना है? अगर इस हसरत के साथ किसी से मिलते हैं तो आप सरासर स्वार्थी हैं. आगे की योजना के बारे में सोचकर वर्तमान को जीना शायद ज़िन्दगी की बेहतरीन पलानिंग हो सकती है पर यह एक धोखा है उस पल के साथ जब आप उसे बिता रहे थे या गुज़ार रहे थे या फिर जी रहे थे. आप क्या कर रहे थे? आपने यह नहीं सोचा. आप मिले और घर लौट आये. शायद आपने उसे दिखाकर पीछे मुड़कर नहीं देखा पर आपने देखा था, यही तो वो बात थी उस मुलाक़ात और उस पल की. 

दिल्ली के प्रदूषण से बच गए तो दस साल बाद आप ख़ुद से यह सवाल पूछेंगे कि जब 'उससे' मुलाक़ात कर रहे थे तब आपके भीतर किस किस तरह की घटनाएं बुलबुलों की तरह बन कर जल्दी ख़त्म हो रही थीं? उससे मिलना किस तरह अलग था? उस वक़्त, वक़्त का मिजाज़ क्या था? उस वक़्त, बैकग्राउंड में क्या चल रहा था? हवा में किस तरह की मिठास थी? थी भी या नहीं? कौन सी आवाजें उस फ्रेम में शामिल थीं जहाँ आप दोनों बैठे थे? आपके बीच से ऐसा क्या गुज़र रहा था जो आप दोनों ने उसे अपनी बातों में शामिल नहीं किया? क्या कुछ खामोश था? किस पर ज़्यादा बात हुई? क्या बाक़ी रहा? क्या दोनों के बीच ऐसा था जो भीतर समा गया? कुछ ऐसा क्या था जो पल को ख़ास बना रहा था? ...आप ये सब सवाल कभी तो सोचेंगे जब अकेले बैठे होंगे. तब आप पाएंगे कि आप उस समय जिए भी या बस वक़्त से गुज़र कर यहाँ तक आ गए हैं.



मिलने के लिए नहीं मिलो. मिलो तो जीने के लिए मिलो. जब मिलो तो यह जानने की कोशिश करो कि कैसे रेमेदियोस हवा में उड़ते हुए आसमान में गुम हो गई? क्या मार्केज़ उसे 'एकांत के सौ वर्ष' से वापस लाए? क्या वे भूल गए उसे वापस लाना है या फिर उसे आसमान में ही किसी से मिलने के लिए एक मुलाक़ात मिल गई थी? आज भी यह बेहद रूमानी लगता है कि वह चादर बिछाती बिछाती अचानक उड़ गई. क्या बिना 'ज़ोरबा द ग्रीक' के हमें समझ नहीं आएगा कि ज़िन्दगी में सब कुछ जीने के लिए ही होता है? एलेक्सिस ज़ोरबा ही बताएगा कि हम जीने के लिए आये हैं? गलतियों, पापों के साथ भी रहने के बावजूद हम जीने के लिए ही आए हैं. इसलिए किसी 'प्रेमम मुलाक़ात' को भरपूर जीना आना चाहिए. आपको नहीं आया तब अंत में इस दुनिया के सबसे दयनीय और कमजोर इंसान होंगे जो जिंदगी के बेहतरीन लम्हो से ख़ाली रह गया. 

मुलाक़ात में दो लोग
मुलाक़ात में संख्या महत्त्व नहीं रखती. इसमें ज़रूरी है कि मिलन हो और उसका एहसास भी. दो लोगों के बीच भी यह हो सकती है और कई लोगों के साथ भी. हाँ, ख़ुद के साथ भी यह होती है. अगर आप ये सारी मुलाकातें कैसे करनी होती है, जानते हैं तब आप बेहतर ज़िन्दगी की तरफ़ बढ़ रहे हैं. इतना तो आप मान लीजिये. इसमें शब्द रहते हैं पर ख़ामोशी भी एक संवाद का तरीका हो सकती है. इसके लिए अभी किसी फ़िल्म का दृश्य याद आ रहा है जहाँ दो पुराने प्रेमी झगड़े के बाद अलग हो जाते हैं. कुछ उम्र बीत जाती है. फिर अचानक एक रोज़ मुलाक़ात होती है. अपने अपने परिवारों के बारे में एक दूसरे के में बताते हैं. प्रेमिका दो जाम बनाती है. पलंग पर न बैठकर वह अपना जाम लेते हुए ज़मीन पर बैठ जाती है. प्रेमी अपना जाम उठाकर उसके ठीक बगल में. दोनों खामोश होकर कहीं सामने देख रहे हैं और मन में कुछ हलचल हो रही है. थोड़ी देर बाद प्रेमिका का सिर आँखों में कुछ बूँदें लिए प्रेमी के कंधे पर होता है. प्रेमी भी अपना सिर उसके सिर से टिका देता है. फ़िल्म यहीं समाप्त हो जाती है.* इसलिए ज़रूरी नहीं कि शब्दों की ज़रूरत पड़े हर मुलाक़ात में. ख़ामोशी में भी एहसास बह जाते हैं. 

वक़्त/टाइम
हम सभी लोग जो इस जमीं पर हैं शायद अच्छे वाले श्राप से शापित हैं कि इस टाइम से बाहर नहीं हो सकते. चाहे जमीं के खोह में घुस जाएं या फिर वायुमंडल में चले जाएं, वक़्त आपके साथ या यूँ कहूँ आपकी त्वचा के साथ चिपका हुआ है. वो हमेशा बना रहता है. लेकिन कहीं कहीं यह अपना एहसास या कंट्रोल छोड़ देता है. वह तब होता है जब हम एहसासों की गहराई में होते हैं. जब वह पल बेहद गहरे पैशन के साथ हमारे साथ घटना शुरू होते हैं, आहिस्ता- आहिस्ता. यह जबरदस्त होता है. जीना समझ आ जाता है. आप दोनों बैठे हैं और आप दोनों के हाथों में घड़ी होते हुए भी आप लोगों को वक़्त कुछ कह नहीं पाता कि आप दोनों के दरम्यां वह भी है. उसका भी ख़याल रखो. अगर वक़्त के बगैर जीना है तो पैशन के साथ रहो. मिलो. जब आप ये लम्हात गुज़ारते हैं तब ही सच्ची और ताज़ी यादों को बनाना और सहेजना संभव होता है. वरना तो वक़्त आपको और हमको राख में तब्दील करने के लिए है. वही नहीं मरेगा और हम...जीने के लिए आया ही कौन है? इसलिए मिलो तो सब भूलकर उसके साथ मिलो. उसे पता भी नहीं चलने दो कि जब आप मिलने के लिए घर से निकल रहे थे तब आपने वक़्त को घर पर छोड़ना मुनासिब समझा था.

एहसास 
इस पर तो क्या ही लिखूं! इस पर नहीं लिखा जाता. यही हमको लिख देते हैं. जो मन में पिघलने के लिए ही बन जाते हैं. न इनसे हारा जा सकता है और न ही इन्हें हराया जा सकता है. न इसे जीत पाते हैं (बुद्ध ने किया है) न इनसे लड़ पाते हैं. ये जटिल हैं. बहुत सारे धागों की तरह एक दूसरे में गुंथे हुए. इनसे उलझने की कभी कोशिश नहीं की जाती पर हैरत है पूरी ज़िन्दगी इसी में बसर कर देते हैं. यही कहा जा सकता है जब वह बगल में बैठती/बैठता है तब पूरी दुनिया थम जाती है. और कुछ नहीं लिखा जाना चाहिए...




*इस दृश्य के लिए फ़िल्म 'Breaking Up (1997)' देखिए.

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