रास्तों से होते हुए आज दिल्ली में हर शख्स अपनी जान और ज़िंदगी का एक एक कतरा वहीं छोड़ता आ रहा है. इसमें किसी का कोई भेद नहीं है. औरतें हों, पुरुष हों, बच्चे हों या किसी भी अन्य लिंग और उम्र के लोग. हर कोई घर और बाहर थोड़ा-थोड़ा मर रहा है. अब जब यह पोस्ट लिख रही हूँ, मुझे चक्कर आ रहे हैं. इतना अधिक दम घुंट रहा है कि साँस रुक जा रही है. सोना नहीं चाहती. सो गई तो धीमा जहर अंदर आराम से जगह बना लेगा. और विरोध का वक़्त नहीं मिलेगा. यहाँ यह भी नहीं कह सकती कि बिना लड़े हथियार नहीं डालना चाहिए. प्रकृति को जैसा दिया है वह वैसा ही लौटा रही है. हुबहू वैसा ही. मुझे नहीं पता अमीर मर रहे हैं या नहीं लेकिन इतना जानती हूँ कि हम जैसे धीरे धीरे मर रहे हैं. मुझे पहले ही लगता था कि कम ज़िन्दगी है अब पक्का यकीं हो गया है कि कम ही ज़िन्दगी है. क्या करुँगी पढ़कर, इसलिए लिख रही हूँ.
सुबह कॉलेज पढ़ाने गई थी और सामने हर बच्चा बिना मास्क के बैठा था. न उनमें कोई बेचैन था और न ग़ुस्से में, न तकलीफ में, न कोई भीगा और भागा हुआ भाव...जाते ही उन्हें मास्क पहनने की नसीहत दी. पर मुझे लगा नहीं कि उनमें सी किसी ने मुझे गंभीरता से सुना. जब अपनी दोस्त के पास हॉस्टल गई तब लड़कियों की पहरेदारी करता हुआ गार्ड अलसुबह से बिना मास्क के बैठा हुआ था. उसे देखते ही बोला- "भईया, मास्क कहाँ है? क्यों ख़तरा उठा रहे हैं? जल्दी से किसी को भेज को मंगा लीजिए." वह बोले- "ड्यूटी छोड़कर नहीं जा सकते. किसी को भेजकर मंगा लेता हूँ." ड्यूटियां जान से प्यारी हो चुकी हैं. प्रशासन क्यों मास्क ख़रीदकर दे! आख़िर आम इंसानों की जान में रखा ही है क्या है! ऑटो वाले से लेकर रिक्शे वाले तक को बोलती आ रही हूँ. लेकिन मुझे वास्तव में किसी ने सुना या नहीं यह नहीं पता. मुझे लगता है मुझे किसी ने नहीं सुना. मुझे इस पर दुःख भी नहीं है. अब कौन सुनता है और कौन नहीं, इससे बहुत फ़र्क नहीं पड़ता. कुछ दिनों में यह अपना बोलना बंद करने वाली हूँ. मैं कुछ दिनों में श्द्दित से ग़ायब होना चाहती हूँ ताकि किसी को दिखाई तक न दूँ.
लेकिन मेरे न दिखने की चाहत की तरह एक न दिखने वाली एहसासों की
दुनिया आज शाम को
सुन कर आ रही हूँ. और उसे सुनकर मुझे बहुत अच्छा महसूस हो रहा है. इतना अच्छा आज बहुत दिनों बाद लग रहा है. लग
रहा है मन में मोगरा महक रहा है. हमारे
पास बैठने तक की जगह नहीं थी लेकिन बातें करने को बहुत कुछ था. वह बहुत दूर से मिलने आई थीं. जब उन्हों ने
मुझे गले लगाया तो लगा कि रेगिस्तान
में ऐसे ही पेड़ उगते होंगे अपनी सुन्दरता के साथ. कभी कभी अपने आपको इंसान समझना अच्छा लगता है. जब लोग
आपसे मिलते हैं और बेहद रूमानी और रूहानी
बातें करते हैं. सोचिये यह कितना शानदार है कि लोग बहुत दूर से आपसे मिलने और बात करने आ रहे हैं. जाते वक़्त
उन्हों ने फिर गले लगाया और मेरे गाल
चूम लिए. इतना प्यार पाकर मैं मर सकती हूँ...ख़ुशी से!
आज सुनने को थोड़ा और बेहतर समझ पाई हूँ. अपने बोलने की आदत पर अपने आप कुछ
वक़्त से कमी ला चुकी हूँ. अब समझ आता है कि लोगों की
अपनी ढेरों कहानियाँ कहने के लिए हैं.
वे कहानियाँ काफी अलाहिदा और अकेली हैं. उन्हें भरोसे वाले कानों की तलाश है. वो बहुत मीठी हैं. वो ज़माने के
नियम के डर से छुपी हुई हैं. उन्हें
बाहर आना चाहिए. हम अपने एहसासों को छुपाने के लिए तैयार किये जाते हैं. कम से कम मेरे आसपास में ऐसा ही है. अगर कुछ कह दिया तो लोगों के
मुंह खुले रह जाते हैं. जबकि हम अपनी निजी ज़िन्दगी में क्या करते हैं इससे किसी को कोई मतलब नहीं होना चाहिए.
लेकिन यहाँ लोग मतलब ही नहीं बल्कि अपनी
ज़िंदगी की नीरसता को आपकी जिंदगी में टांग अड़ाकर परेशानी लाते हैं. फिर भी कहूँगी अगर आपकी कोई कहानी
है और आपके पास दो सुनने वाले और भरोसे
वाले कान हैं तो कहिए. अपने पूरे मिजाज़ और मन से कहिए. आपने अपने एहसासों का एहसास लेकर कोई गुनाह नहीं
किया. आपको सब करने का पूरा हक़ है क्योंकि
यह आपकी ज़िन्दगी है.मरने के बाद हम कोई भी और किसी भी तरह का एक्सपेरिमेंट करने लायक़ नहीं रह जाएंगे. हाँ, अगर आपका ईश्वर रिश्वतखोर है तो गुंजाईश बनती है.
सुनना एक स्पेस भी तैयार करता है जिसमें आँखों से सींचा हुआ,
कानों से सुना हुआ, दिल
से जज्ब हुआ, महसूस किया हुआ बाहर आता है और अपने साथ
इंसानों की ज़िन्दगी की उन तमाम तहों
या परतों की रंगीनियत को रखता है जो इंसान होने को बढ़ावा तो देती हैं और बनाए भी रखती हैं. धीरज की महीन
संरचना आपको अपने कानों को देनी होगी. जहाँ
आप उसकी कहानी में दिलचस्पी दिखाते रहे. अगर आप उसकी कहानी को नहीं सुनना चाहते तो आप सुनने का नाटक न
करें. आप सुनने को नहीं समझ रहे बल्कि उसका
अपमान कर रहे हैं. आप जिस मिठास से संगीत सुनते हैं वही मिठास सामने वाले को भी परोसिये जो आप बहुत दूर से कुछ कहने आया है. अभी इस लय में धीरे धीरे उतर रही हूँ.

न बताने जैसा इस दुनिया में कुछ होता नहीं. सच्चाई यह है कि हर किसी को किसी से कुछ कहना है और वहीं तक सीमित रहना या न रहना, उतना महत्वपूर्ण नहीं है. किसी शख्स की निजता किसी देश की ख़ुफ़िया एजेंसी का विभाग नहीं होता. गौर से देखो तो समझ आता है कि निजता एक ख़ास दायरे में चक्कर काटती है. मिथक की उस कहानी को याद कीजिए जहाँ शिव, पार्वती को कहानी सुना रहे हैं और वहाँ कबूतर वह कहानी सुन रहे हैं. भले ही उस कहानी को शिव, सिर्फ पार्वती के लिए कहते हैं. हालाँकि मैंने ख़ास तौर से महिलाओं को कई राज़ अपने सीने में रखे हुए पाया है साथ ही उन्हें इस बाबत बदनाम होते भी पाया है कि महिलाएं कोई राज़ नहीं छुपा पाती. लेकिन यह राज़ किससे छुपाना है, जब समझ लेंगे तब जान जाएंगे. इस पर पूरी एक किताब लिखी जाती है.
प्रायमरी स्कूल में नैतिक शिक्षा अन्तराल में मेरी ही टीचर की सुनाई एक कहानी याद
आ रही है. बड़ी अच्छी कहानी है. सालों
बीत जाने पर भी याद है, हालाँकि ठीक से नहीं. कहानी का मर्म कुछ यूँ था
कि किसी को अपनी एक निजी बात कहनी थी. उसने
तीन गुड़ियों को चुना. एक गुड़िया ऐसी
थी कि जब उसने सुना तो उसने उस कहानी को दूसरे कान का इस्तेमाल करते हुए किसी दूसरे तक उस कहानी को फैला दिया.
उसने बात पचाई नहीं, जो कि एक कला है. दूसरी गुड़िया को निजी बात बताई गई तब उसके सिर के ऊपर से वह निजी बात उड़
गई. उसने गंभीरता से नहीं सुना. बल्कि सुनने की
खानापूर्ति कर दी जैसा कि सरकारें करती
हैं, अपनी ही जनता के साथ. उसके सुनने में
लापरवाही थी. इससे कहने वाले
को काफी दुःख भी हुआ. फिर अंत में उसे तीसरी गुड़िया मिली. जब बोलने वाले ने अपनी निजी बात इस गुड़िया को
बताई तो इस गुड़िया ने न सिर्फ उसकी बात को दिलचस्पी से सुना बल्कि उसकी बात को पेट में पचा लिया...हमेशा के लिए. मेरी टीचर ने इस कहानी को बुनाई के इस्तेमाल में आने वाली सिलाई और तीन गुड़िया के कान जैसे चित्रों से यह कहानी सुनाई थी. तीनों के कान में सिलाई डालकर यह बात समझाई थी. खैर, कहानी को मर्म मैंने यहाँ लिख दिया है. आप समझे या न समझे इसमें मेरा कोई रोल नहीं.
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फ़ोटो, गूगल से
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