Wednesday, 20 October 2021

कोविड-19 और (हमारा?) मीडिया

  

मार्च 2020 के बाद से हममें और हमारी भाषा में बुनियादी भाषा परिवर्तन हुए हैं. ये परिवर्तन अब कुछ इस तरह से घुल गए हैं जिसे लेकर हमें कोई हैरानी नहीं हो रही. कोरोना महामारी के साथ ढेरों शब्द बनाकर तैयार किये गए हैं अथवा जो परिस्थिति वश जन्म ले चुके हैं वे कुछ दुखद और जटिल घटनाएँ लेकर हमारे समक्ष मौज़ूद हैं. सवाल यह भी है कि ये घटनाएँ क्या आने वाले वक़्त में समाज का महज दस्तावेज़ बनकर रह जाएँगी? क्या मीडिया और राजनितिक चरित्र भविष्य में सवालों के घेरे में आ जाएगा? क्या हमारी भाषा में सामूहिकता का एक दर्द चुपके से आकर बैठ जाएगा क्योंकि हम इस महामारी में अपने लोगों को को खो रहे हैं? इसके अलावा हम मनुष्यता    

दिया गया है. आगे आने वाले वर्षों में इनके बने रहने की सम्भावना भी है. इस बात को यूं भी कहा जा सकता है कि जब तक यह संक्रमण और संक्रमण के समय के अनुभव रहेंगे तब तक नए भाषाई शब्द भाषा में रमे रहेंगे. सामान्य जीवन शैली में जो भारी बदलाव हुए हैं वे शुरू में परेशानी का सबब लेकर आये पर धीरे धीरे वक़्त के साथ लोगों में उनकी आदतें बनने की प्रक्रिया चल रही है. इसका यह मतलब न निकाला जाए कि सब कुछ नियंत्रण में है अथवा लोग ठीक ठाक गुज़र बसर कर रहे हैं. यह फ़िलहाल ख़्वाब होगा जो दिन में खुली आँखों से देखने की कोशिश की जा रही है. यर्थाथ में स्थिति अनियंत्रित, दयनीय, भीषण, रोगग्रस्त और चुनौतियों से भरी हुई है. पाठकों को इस बात की खुली छूट है कि वे अपने तई इसमें और भी शब्द जोड़ लें.

कोरोना महामारी में जिस तरह की शब्दावली बनकर तैयार हुई और जो आजकल लगभग पढ़े लिखे और ग़ैर पढ़े लिखे लोगों द्वारा इस्तेमाल की जा रही है, वह बेहद पुरानी नहीं है और अचानक से दिनचर्या में शामिल हो गई है. इसमें एक बाहरी दबाव काम कर रहा है जिसने व्यक्ति के निजी क्षेत्र (स्पेस) में जगह बनाने के अच्छे प्रयास किये हैं. इन शब्दाव्लियों को कुछ वर्गों में बांटा जा सकता है. सरकारी, मेडिकल, समाचारों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली, संस्थाओं द्वारा, आम लोगों द्वारा इजाद की गई. इसमें और भी वर्ग शामिल किये जा सकते हैं. मिसाल के तौर पर लिंग आधारित शब्द.

बीमारी चूँकि इंसानी शरीर और स्वास्थ्य से जुड़ी हुई होती है इसलिए विज्ञान और मेडिकल की दुनिया में कोरोना को लेकर ऐसी शब्दावली बनी जो अब न सिर्फ प्रचलन में है बल्कि उसके आधार पर गंभीर चर्चाएं हो रही हैं और लोगों की सामान्य बैठकों में वे विषय बन रही हैं. जैसे कोरोना का नाम कोविड-19 रखा गया है पर आम लोग इसे कोरोना ही कहते हैं. ख़बरों में कोविड-19 ही छापा जाता है. जाँच हिंदी का शब्द है. अंग्रेज़ी में इसके लिए टेस्ट शब्द है. जाँच रिपोर्ट युगल शब्द के साथ जो डॉ और शब्द जुडें हैं वे- पॉजिटिव और नेगेटिव हैं. इससे पहले की ये दोनों शब्द सोच अथवा विचार के स्तर तक ख़ूब इस्तेमाल होते थे और जीवन प्रेरणादायक संगोष्ठियों में इन दोनों शब्दों को मुख्य धुरु बनाकर ख़ूब चर्चा होता था. लेकिन कोरोना वायरस ने इन दोनों शब्दों को हाईजैक कर अपने संदर्भ से मिला लिया है. पॉजिटिव शब्द को इसमें भारी तबाही मिल रही है. मिसाल के तौर पर कितने पॉजिटिव केस अभी भी बचे हैं, जैसे सवाल हर रोज़ मीडिया घरानों और अख़बारों द्वारा ऑनलाइन/ऑफलाइन पोस्ट किये जाते हैं अथवा छपे जाते हैं.

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जिन शब्द को विश्वव्यापी बनाया है उनमें ‘टेस्ट’ शब्द अब हिंदी में बैगाना नहीं रहा है. लोग जाँच शब्द का कम इस्तेमाल कर रहे हैं. यह शब्द उन लोगों द्वारा अधिक इस्तेमाल हो रहा है जो कि अपने लेख और विचार प्रकाशित कर रहे हैं. वरना आम लोगों में टेस्ट ही शब्द छाया हुआ है. हाँ, कस्बों गांवों ज़रुर जाँच शब्द इस्तेमाल में होगा पर कितना प्रचलित होगा, कुछ कहा नहीं जा सकता. इसके अलावा सैंपल रिजल्ट, कोरोना वैक्सीन, क्वारान्टाइन शब्द को भी मेडिकल शब्दावली में लिया जाना चाहिए.  



इतिहास गवाह है कि महामारियां इंसानी जगत में कुछ लोगों के लिए फ़ायदेमंद होती है. शुरुआती दौर में सेनेटाइज़र के दामों में जिस तरह से बढ़ोतरी हुई उसके चलते सरकार को इसके दामों पर लगाम लगाने के लिए मूल्य तय करना पड़ा. फिर भी आम घरों में अब यह मेडिकल उत्पाद आम बन चुका है. इससे पहले शहरी की भी बड़ी आबादी इससे अनभिज्ञ ही थी. कोरोना जो डर लाया है उसके एवज में मास्क के इस्तेमाल को खड़ा किया. मास्क, इससे पहले दिल्ली के प्रदूषण से जुड़ा हुआ था. लेकिन बहुत प्रचलित नहीं था. अब बाज़ार ने इसे भी स्टाइल से जोड़ते हुए इसकी कई प्रकार के रूप में बेचना शुरू कर दिया है.

एक आवश्यक सामान जो कोरोना से पूर्व और बाद में महत्वपूर्ण रहा है, वह किट और स्कैनर शब्द हैं. मार्च के महीने में थर्मल स्कैनर जैसे शब्दों को हिंदी में में कैसे कहा जाए कोई नहीं जानता था. आज भी यही शब्द चलन में है. आम लोग इस बात को कुछ इस तरह बयां कर रहे हैं- अगर शुरू में ही सरकार ने स्कैन कर लिया होता तो आज यह नहीं होता. फ़िलहाल स्कैनर अभी तक कंप्यूटर से ही जुड़ा था जिसका इस्तेमाल दस्तावेज़ों को स्कैन करने में किया जाता था. लेकिन अब स्कैनर थर्मल से जुड़ा है जो वह उपकरण है जिससे व्यक्ति का तापमान जांचा जाता है. इसके अतिरिक्त मेडिकल की दुनिया से ही कोरोना वारियर्स शब्द आ चुका है जो मानसिक रूप से ग़ुस्से को शांत कर रहा है. पीपीइ किट को इसी में जोड़ सकते हैं.

कोरोना वैक्सीन शब्द को कैसे भूल सकते हैं. वैक्सीन के लिए अभी तक टीका शब्द हमारे पास मौज़ूद था और वह भी पोलियो और बच्चों के टीकाकरण के तौर पर सामने आता था. उसका इस्तेमाल रोज़मर्रा की बातचीत में नहीं था. अब घरों में मीडिया ने वैक्सीन शब्द को आम बना दिया है इसके अलावा यह रोज़मर्रा प्रतियोगितानुमा संवादों में वैक्सीन शब्द ज़रुर व्यक्ति के बगल में बैठा हुआ मिलता है. इस वक़्त जिस शब्द को लोग प्रेम की नज़र से देख रहे हैं वह वैक्सीन ही है. इससे उम्मीद का पूरा एक जखीरा बंधा हुआ है. वैक्सीन के कंधे शायद दर्द हो रहे हों. रूस द्वारा वैक्सीन बना लेने के बाद भी देसी विदेशी वैक्सीन के इंतजार में सभी लोग हैं.

मेडिकल के बाद कुछ सरकारी शब्दावलियों ने भी जनता के जीवन में अपनी जगह बनाई है. इसमें जाहिर सी बात है आदेश का भाव बहुत अधिक समाया हुआ है. कुछ लोग इन्हें थोपे हुए शब्द कह सकते हैं. लेकिन सरकार ने समय समय पर कोरोना संक्रमण से जुड़ी एडवाईजरी और गाइडलाइन्स जारी की है. एडवाईजरी और गाइडलाइन्स जैसे शब्दों को हिंदी अख़बारों और हिंदी खबरिया चैनलों ने हाथो हाथ लिया है. इसके अतिरिक्त सरकार ने हेल्पलाइन नंबर, सोशल डिस्टेंसिंग, जनता कर्फ्यू, लॉकडाउन, अनलॉकडाउन, ऑनलाइन मीटिंग, ब्लॉक्ड, सील्ड, कन्टेनमेंट ज़ोन, शटडाउन, सरकारी पैकेज, कोरोना चैन, एअरपोर्ट स्क्रीनिंग आदि शब्दों को बिना सोचे संभले इस्तेमाल किया गया और किया जा रहा है. कोरोना को जब नियंत्रित किया जाएगा तब इन शब्दों से होकर भाषा विज्ञानी सरकारे द्वारा किये जा रहे कार्यों की आलोचना और विश्लेषण करेंगे. इनमें से अधिकांश शब्द अंग्रेज़ी से लिए गए हैं और सरकार ने उनको सरकारी शब्दावली में पचा लिया है. लोगों ने भी इसमें ख़ूब थाली और मोमबत्ती का साउंड और रौशनी मुहैया करवाई है. इसके अलावा शिक्षा जगत ने भी नए शब्दों को अपनाया है. सबसे प्रचलित शब्द वेबिनार बना हुआ है. फेसबुक लाइव हो या वीडियो चर्चा सबके बीच वॉच पार्टी ने भी जगह बनाई है.

लेकिन इन शब्दों के प्रवाह के बीच जिस बात पर गौर करना चाहिए वह यह है कि इन शब्दों में साधारण जनता के अनुभव और दर्द की झलक नहीं मिलती. हजारों की तादाद में मजदूरों का पलायन हुआ और उस पलायन की यात्रा के दौरान उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं था. मीडिया में उनकी छवि को बेहद असंवेदनशील तरीके से पेश किया गया. जो लोग मदद कर रहे थे उनको मीडिया ने केन्द्रित कर ख़बरों को फ्रेम किया जबकि मजदूरों का इतनी बड़ी तादाद में पलायन इंसानियत से अलग देश की राजनितिक, आर्थिक, सामाजिक और बेहद ख़राब नौकरशाही और योजनाओं से जुड़ी थी. इन्सानियत बेहद अलग मसला है. उस पर ख़बरें बनी ठीक है पर वे ख़बर के केंद्र में रहीं, ये दुर्भाग्यपूर्ण था. अगर मजदूरों की संख्या कम होती तो यह मीडिया के लिए कोई ख़बर नहीं हो सकती थी लेकिन, मजदूरों की संख्या इतनी अधिक थी कि वे उस भयानक गर्मी में अपने घरों की तरफ़ चल पड़े थे. महामारी में मजूदरों के साथ जो शब्द जुड़ा और जिसने भारत के विकास के काग़ज़ी महल को उड़ा दिया वह ‘पलायन’ था. एक विशाल जनता जो आंबेडकर और गाँधी के साथ कदम से कदम मिलाकर चली थी लगभग वैसी ही विशाल जनता अपने बच्चों को गोद और कन्धों पर बिठाए निकल पड़ी थी. इस बीच सरकारी तंत्र की भयानक नाकामयाबी को गिनने में सभ्य समाज को शर्म आनी चाहिए.

देश की संघर्षशील और कर्मठ जनता के साथ एक शब्द और जुड़ा और वह ‘भयंकर भूख’ का मसला था. सरकारों द्वारा हवाई इंतज़ाम नाकाफ़ी साबित हुए और लोग भूख के कारण बेहद परेशान हुए. भारत में अनाज के भंडारों की कोई कमी नहीं थी लेकिन वह महामारी में अंतिम व्यक्ति तक सुचारू रूप से नहीं पहुँच पाया. टेलीविज़न पर कई लोग यह कहते हुए पाए गए कि अगर घर में रहे थे भूख से मर जाएंगे औरबाहर गए थे कोरोना मार देगा. भूख ने उन्हें महामारी में बाहर कर दिया. यह अचरज का ही विषय है कि पलायन पर अभी तक कोई शोध और चर्चा क्यों नहीं हुई. किसी तरह का आँकड़ा भी शोध कर के नहीं निकाला गया.              

 -----------

तस्वीर गूगल से 

No comments:

Post a Comment

21 बरस की बाली उमर को सलाम, लेकिन

  दो साल पहले प्रथम वर्ष में पढ़ने वाली लड़की से मेरी बातचीत बस में सफ़र के दौरान शुरू हुई थी। शाम को काम से थकी हारी वह मुझे बस स्टॉप पर मिल...