Tuesday, 21 March 2017

'एक्स सेंट' वाली औरतें

कुछ बातें ऐसी हो जाती हैं जो बुरी तरह से चुभती हैं। कल फेसबुक पर किसी पढ़े-लिखे जनाब की पोस्ट देखी तब कुछ और जानकारी लेने के लिए मैंने उस पोस्ट के बारे में तमाम तरह के किए गए कमेंट्स भी पढ़ लिए। अब पोस्ट का ब्योरा दिया जाये। पोस्ट में एक सुंदर लड़की का फोटो था जिसने पाकिस्तान नाम की एक पट्टी डाली हुई थी। वह शायद किसी सुंदरता प्रतियोगिता की एक प्रतियोगी थी। उसने सफ़ेद रंग के अन्तः वस्त्र पहने हुए थे। फोटो को डालते हुए यह लिखा गया था कि वह जनाब जल्द से जल्द पड़ोसी देश से अच्छे रिश्ते के इच्छुक हैं। नीचे दी गई टिप्पणियाँ बेहद निचले दर्ज़े की थीं। एक जनाब ने स्तनों के बारे में लिखा था कि नीचे ज़्यादा ही लटक रहे हैं, किसी ने लिखा था कटवी है बच कर रहा जाये.., ऐसे ही और भी बातें थीं। अब बात किसी पाकिस्तानी महिला के संदर्भ में कही जाये या फिर भारतीय या अन्य किसी देश की औरत के बारे में, यह क्यों नहीं उस देश के बहुत से पुरुषों की मानसिकता परिचायक समझा जाए। जो देश के खिलाफ़ बोलता है, वो देश द्रोही है पर जो औरत की बातों बातों में इज्जत ही ले लेते हैं वे क्या कहलाएंगे इसके लिए भी शब्दावली की जरूरत है। अब बात घटिया मानसिकता वाले कह कर पूरी नहीं हो सकती।

आज की ही बात है। एक लड़की जो कि बस से उतरने के लिए खड़ी हुई तो दो नौ जवान लड़कों की नज़रें उसके स्तनों से तर गईं। एक लड़का बड़े हल्के से बोला-'आह!' ऐसे दृश्य मुझे ही नहीं और भी बाक़ी लड़कियों को दिखते हैं। कई तो इन हरकतों का शिकार भी होती हैं। बक़ौल राजेंद्र यादव, नारी से अधिक नारी का आइडिया हमें हमेशा सम्मोहित करता रहा है।(1) अब इस नारी का आइडिया और सम्मोहन को समझे तो पता चलेगा कि सड़क से बहुत से मेहनतकश मज़दूरों में से एकाद साईकिल पर सवार जाते हुए आदमी बस के इंतज़ार में खड़ी लड़कियों को पूरी ऊर्जा के साथ आँख मारकर सर(जल्दी) से निकल जाते हैं। इसी तरह गाड़ी में कुछ तमीज़दार गुज़रते हुए अपनी मुंडी हिला हिलाकर बग़ल में बैठने का निमंत्रण देते हैं। कुछ दो पहिये वाले जरा ज़्यादा सत्यानाशी स्टाइलिश होते हैं। उनके इशारे सबसे गंदे होते हैं। अब लोग बोलेंगे कि तुम लड़कियों की ही ग़लती है। आवाज़ नहीं उठातीं तुम लोग! पर मामला औरत को एक इंसान की तरह न देख कर एक सेक्स ऑब्जेक्ट में देखने का है। कई लोग तो लड़की को देखकर दिमाग में ही रेप कर देते हैं और नॉर्मल चेहरे में ही दिखते हैं। एक जेंटलमैन की तरह। तो क्या इसके लिए भी आवाज़ उठाई जाएगी!

बात आवाज़ उठाने से अधिक महत्वपूर्ण यह है कि ऐसी हरकतें हमारे लोगों(बाहर के लोगों में भी) के व्यक्तित्व का अभिन्न अंग आख़िर क्योंकर हैं? भारत के बारे में मैंने बहुत लंबे समय तक एक चमकीली गलतफहमी पाल रखी थी। यह हाल के समय में ही मुझसे दूर हो रही है। गलतफहमी यह कि भारतीय संस्कृति बहुत महान है। पता नहीं क्या फ़लाना-ढमकाना हमारे यहाँ हुआ है। ऐसा माना जाता है तो वैसा माना जाता है। तो ये, तो वो....उफ़्फ़! अब मुझे ऐसा लगता है कि जिस देश की संस्कृति और इतिहास को हद से ज़्यादा गौरवपूर्ण रचाया और दिखाया गया हो तो उस पर शक़ किया जाना चाहिए। किसी भी देश का इतिहास या संस्कृति महान नहीं होनी चाहिए। उसे ऊबड़ खाबड़ मानवीय घटनाओं से भरा होना चाहिए। ऊबड़ खाबड़ होने की निशानी यह बतलाएगी कि संघर्ष कितने महान रहे होंगे। आज जिस आज़ादी को मैं जी रही हूँ, लिख रही हूँ, बोल रही हूँ, पढ़ रही हूँ, सोच रही हूँ, समझ रही हूँ, ...वह ऐसे नहीं आई मेरे पास। इसके पीछे तमाम महिलाओं और पुरुषों के संघर्ष रहे हैं।

हमारे समय में जिसकी मैं साक्षी बन रही हूँ, दैनिक दिनचर्या में औरत और प्रकृति दोनों की कोई अच्छी दशा और दिशा नहीं है। मार्क्स अंकल के एक कथन का महान आशय यह रहा है कि अगर किसी समाज में पर्यावरण को समझना हो, जानना हो तो उस समाज में औरत की स्थिति देख लेनी चाहिए।(2) बात में दम है। कल जब एक कोर्ट ने गंगा और यमुना को जीवित मानने की बात कही तो मुझे ज़रा अटपटा लगा। आपको यह बात समझने में इतनी देर क्यों हुई कि नदिया जीवित ही होती हैं? ख़ैर, माना तो सही।... अच्छा नदी की बात चली है तो आप सिंधु नदी को भी जानते होंगे, जो पड़ोसी मुल्क में भी बहती है और हमारे मुल्क में भी। पाकिस्तान में भी सिंधु का पानी, पानी ही होता है और हिंदुस्तान में भी वह पानी, पानी ही होता है। तो उस पाकिस्तान की लड़की पर क्या इसलिए भद्दे इशारे किए जाने चाहिए क्योंकि वह पड़ोसी मुल्क से ताल्लुक रखती है, जिससे हमारे रिश्ते अच्छे नहीं रहते? सोचिए ज़रा! ... फेसबुक पर एक मजेदार पोस्ट या 'लाईक्स' की भूख को शांत करने के लिए ऐसी हरकतें करने वाले बहुत से लोग हैं। असल रोज़मर्रा में भी ऐसे बहुत से लोग दिख ही जाते हैं। वास्तविक और आभासी दुनिया में ऐसे बहुत से  लोग मिलकर 'डेंजर ज़ोन' बना देते हैं। इसी ज़ोन के चलते फिर हमें वैधानिक सी चेतावनी दी जाती है- रात के अंधेरे में घर से बाहर न निकलें...!

                                                  प्राचीन मिस्त्र में इत्र बनाते हुए लोगों का चित्र

किसी भी घर, परिवार और मुल्क की इज्जत लेने का सबसे अच्छा तरीका औरतों को इस्तेमाल करने का निकाल लेते हैं। किसी औरत पर वैचारिक हमला भी करना हो तो उसे एक महान गाली दी जाएगी जिससे उसे अव्वल दर्ज़े का नुकसान पहुंचाया जाये। वास्तव में लोगों को यह समझना ही पड़ेगा कि औरत वह नहीं है जो किसी मर्द के द्वारा लगाए गए सेंट को सूंघकर उसके पास चिपक जाएगी। यह कंपनियों की बेईमान कल्पना है। 'एक्स इफेक्ट'  टीवी विज्ञापनों में चलता है। औरत के पास अपना दिमाग है। इसलिए उनमें इतनी समझ तो है कि सेंट सूंघकर किसी से नहीं चिपका जा सकता। 'एक्स इफेक्ट' औरतें यहाँ नहीं रहती हैं वो तो बस बहुराष्ट्रीय कंपनियों के रचनात्मक हैड के दिमाग में रहती हैं। गलती उनकी भी नहीं। कहीं से उन्हों ने ढमकाना कोर्स किया होगा या करने वाली होगी।
 -----------------------
1 व 2-दलित आंदोलन का इतिहास, मोहनदास नैमिशराय





      

Monday, 20 March 2017

उस एक को इतना बड़ा मकान क्यों चाहिए?

जब यू पी चुनाव के परिणाम घोषित हुए तब कई तरह की प्रतिक्रियाएँ सामने आईं। डिग्रीधारियों और बे-डिग्रीधारियों ने जम कर जीत हार का फेसबुकिया विश्लेषण किया। इसमें मेरा नाम भी शामिल है। अपने को छूट नहीं दी जानी चाहिए। मुझे सबसे अजीब हैरत कुछ बातों को पढ़कर हुई। पहली यह कि यू पी की मुख्यमंत्री रह चुकीं, मायावती पढ़कर वक्तव्य देती हैं और इस बार राम मंदिर बनकर ही रहेगा। इसके अलावा योगी जी का मुख्यमंत्री बनना भी लोगों को अपने युग के चमत्कारों में से एक लग रहा है। फ़ेहरिश्त तो लंबी है ही। क्या कीजिएगा! अटपटा से लेकर चटपटा सबकुछ मिलेगा। मैं इस सूची में दिलचस्पी ज़रा कम रखती हूँ। इसमें शामिल कुछ बातों पर ध्यान देना ठीक रहेगा।

अगर मायावती पढ़कर ही अपनी बात रखती हैं तो इसमें गलत क्या है? पढ़कर बोलने में क्या हर्ज़ा है? मज़े की बात यह है कि ख़ूब पढे लिखे लोग जिन्हों ने स्त्री विमर्श पर शोध करके किताबें लिखी हैं और जिन पर बोलने के लिए IIC और IHC में बकायदा हाल बुक किए जाते हैं, उन्हीं लोगों की तरफ से मायावती जी के लिए ऐसे बयान सुनकर अच्छा नहीं लगा। आलोचना यदि उनकी राजनीति के लिए की जाती तो बात समझ आती। एक लाईन में किसी के बोलने के तौर तरीक़े पर पंच मारना बेहद अजीब है।
 
पढ़कर बोलना विवादों से दूर रखता है। यह एक कला है जो सबके बस की बात नहीं। पढ़ना धैर्य को समझाता है। इससे मुलाक़ात करवाता है। शब्द और उसकी अहमियत को सहेज कर रखता है। लिखने के लिए लोग सोचते हैं। एक एक बात की परख की जाती है। इसलिए यह वाज़िब है कि पढ़ने वाला इस बात को समझता है और वह संतुलित बोलता है। मायावती का क्षेत्र राजनीति का है। इसलिए मुझे लगता है कि वह वर्तमान नेत्रियों और नेताओं में अच्छा बोलती हैं। आजकल इतने अधिक विवाद हो रहे हैं कि इनसे बचने का यह अच्छा माध्यम है। अब बात उनके बोलने के लहज़े और तरीके पर करें तो सभी की अपनी निजी शैली होती है। इसमें आलोचना मुझे समझ से परे प्रतीत होती है। सभी का अलग उच्चारण होता है। इसलिए इस शैली की आलोचना के बजाय उनके द्वारा की जानी वाली राजनीति पर बहस हो तो अच्छा रहे।  
 
                                                           फ्रांस की केव पेंटिंग 
  
दूसरा बयान ज़रा सा विवादस्पद है। वो राम लला पर है। रामकथा को मैं मोटे तौर पर कुछ तरीक़ों से जानती हूँ। पहला स्रोत रामायण धारावाहिक और दूसरा अपने कुछ लोगों से सुनी हुई पुरानी कहानियों के आधार पर। हाँ, संक्षिप्त रामायण की एक किताब भी है घर में पर मैं उसे पूरा नहीं पढ़ पाई कभी। इसी तरह और भी कई स्रोतों से रामकथा से बावस्ता पड़ता रहा है। इसके अलावा एक दिलचस्प बात और यह है कि रचनात्मक लेखन की पढ़ाई के दौरान मेरे सर ने बताया था कि रामायण और महाभारत तरह तरह के किरदारों की खान हैं। इसलिए रामकथा या महभारत को देखने की मेरे पास धार्मिक दृष्टि न के बराबर है। मैं यह भी नहीं कहूँगी कि राम या कृष्ण का नाम आते ही मेरा सिर श्रद्धा से नतमस्तक हो जाता है। ऐसा कभी नहीं हुआ। यदि कभी कहीं मंदिर भी जाना हुआ तो मुझे पूजा का कोई बढ़िया ख़याल नहीं आया। मैं मंदिर भी स्थापत्य की कला को देखने जाती हूँ। मेरा मक़सद कभी भी पूजा-पाठ नहीं रहा।
 
मेरी माँ बहुत सी राम कहानियाँ के छोटे छोटे टुकड़े सुनाती हैं। ये कहानियाँ बहुत दिलचस्प होती हैं क्योंकि इनमें
राम एक ऐतिहासिक मिथक पुरुष के रूप में आते हैं। वे भगवान की तरह बर्ताव नहीं करते। उनका संवाद एक मामूली मच्छर से भी होता है और मच्छर बराबर की बात रखता है। राम भी आलोच्य हैं। मिथक ऐसे ही होने चाहियें। कृष्ण भी ऐसी दशा दिशा में आते हैं। मतलब की आप उन पर एक आलोच्य निगाह भी रख सकते हैं। इस्कॉन मंदिर वाले अगर उन्हें पूजते हैं तब आप यह भी देखिये कि मंदिर का सम्पूर्ण वातावरण वे लोग कृष्णमय बनाकर रखते हैं। मानसिकता में कृष्ण भजन ऐसे बैठ जाते हैं कि व्यक्ति हरे रामा हरे कृष्णा करने लगता है। यह एक अलग विषय है सोचने समझने के लिए। मुझे संवाद करने वाले मिथक ज़्यादा पसंद है। वे कतई नहीं जो संवाद ही नहीं करते। वास्तव में संवाद उन तारों की खोज भी करता है जो मनुष्य के विकास में बुने गए हैं। ख़ुद मनुष्य ने इन्हें अपनी समझ से बुना है। अगर मिथक पूजनीय और पहुँच से दूर एक लिबास पहना दिया जाये तो वास्तव में यह तरीका सोचने या मंथन करने की क्षमता को मार देता है। मनुष्य को यह सोचना चाहिए कि इस पृथ्वी पर राम और मच्छर का समान अस्तित्व रहा है। इसका रूपक ऐसे भी लिया जा सकता है- सूक्ष्म या अति सूक्ष्म और विराट की सत्ता साथ साथ रही है। बरबरी के दर्जे पर। 
 
                                                    यह भी केव पेंटिंग का नमूना है
 
 
मानवजाति के एक खूंखार और घटिया मानसिकता वाले गिरोह ने जात पात का बंटवारा कर इस पृथ्वी को अव्वल दर्ज़े का नुकसान ही पहुंचाया है। इसके नियम क़ानूनों को ठेंगा दिखाया है। इसलिए मुझे वे सभी संघर्ष, जो इस शोषण के खिलाफ़ किए गए हैं, सबसे अच्छे जान पड़ते हैं। जो राम मंदिर मनाने की वकालत करते हैं वे सबसे पहले गटर में घुस कर एक रोज़ काम कर लें। बेवकूफाना ज़िद्द करना बहुत घटिया लगता है। ऐसे हाल में जब बेरोजगारी, भुखमरी, मानव तस्करी, तापमान का बदलाव, रेप, बाल शोषण और इसी तरह के तमाम मुद्दे और परेशानियाँ सामने हैं तो हम आज 21वीं सदी में धर्म को लेकर डोल रहे हैं।    
 
राम मंदिर बनने को लोग इतना क्यों तवज्जो देते हैं? मंदिर या मस्जिद हमारे देश में अनेको हैं। अब्दुल्ला नाम का बच्चा रोज़ ख़ुदा के मंदिर और मस्जिद दोनों को देखकर हैरान हो जाता है कि 'तुझ एक को इतना बड़ा मकान' है और मेरे पास तो कुछ भी नहीं। मैं उस जगह को एक ऐसी जगह में तब्दील करने की राय रखती हूँ जहां बैठकर लोग तरह तरह के विषयों पर बात करें। जहां एक किताबघर खोल देना चाहिए। कम से कम किताब पढ़कर लोग इल्म हासिल करेंगे और जानेंगे कि दुनिया वास्तव में धर्म की चाश्नी में  नहीं है। उसका अपना एक भूगौल है। उसकी अपनी कुछ प्रवृत्तियाँ हैं। उसका ख़ुद का एक बर्ताव है। इंसान को न तो अब मंदिर की ज़रूरत है न मस्जिद की। इबादत के लिए बहुत सी जगहें हैं। अब पंडित और मौलवियों के भाषण की भी जरूरत नहीं। बल्कि जरूरत इस बात की है कि ख़ुद की अंतरात्मा में उस नूर की तलाश कर ली जाये। बाकी सब छोड़ कर आसपास फैली असमानता और अशांति के खिलाफ़ मोर्चा खोला जाये। पढ़ा जाये उन विद्वानों को जो समाज की अपनी  समझ किताबों में दे गए हैं। मैं आज भी उस क़तार में खड़ा होना मुनासिब नहीं समझती जो बेवकूफ़ों से बनी हो। जो धर्म के पीछे अंधी दौड़ में जा रही हो। यकीन मानिए यह चश्मा उतार दीजिये। आप बहुत सुलझे हुए इंसान बन जाएंगे। 


Wednesday, 8 March 2017

हार्मोन-शार्मोन...हाय रब्बा

आप एक तो देर से आईं और तिस पर भी दुरुस्त नहीं हो पाईं। सबसे पहले मैम, आपका शुक्रिया कि आपने 'हार्मोन आउटबर्स्ट' की जानकारी दी। वरना तो हमें पता ही नहीं था कि शारीरिक विज्ञान आख़िर है कौन सी चिड़िया का नाम! है न मैम! आप जानवरों को प्यार करती हैं इसलिए आप शाकाहार और मांसाहार में आसानी से बच गईं। लेकिन आप तीन बिदुओं में नप गईं, पहला ' दो जेंटलमैन बिहारी गार्ड और दूसरा 'हार्मोन समीकरण' और तीसरा 'लक्ष्मण रेखा।' 
 
मैम आप कैसे किसी प्रदेश के व्यक्तियों को ऐसी निगाह से देख सकती हैं? हालांकि आपने जेंटलमैन शब्द जोड़ लिया फिर भी आप बच नहीं पाईं यह बताने से कि आप एक प्रदेश के लोगों के बारे में क्या सोचती हैं? मैम, क्या आपके पास डेटा-वेटा है कि उसी प्रदेश विशेष के लोग सुरक्षा देने का काम करते हैं? होगा तभी आप बोल रही हैं? मैम, आप भारत के लोगों को इस निगाह से देखती हैं जबकि भारत को देखने के तमाम तरह के फ़लक हैं! जब जस्टिस काटजू उस प्रदेश के लोगों पर जोक बनाते हैं तब मुझे लगता है आपको बहुत हंसी आती होगी। मैम मुझे अच्छा नहीं लग रहा कि महिला दिवस पर आपके बारे में मैं यह सोच रही हूँ। मैं भी कुछ सालों बाद आपकी उम्र में आऊँगी और क्या यही सोच रखूंगी यही सोच रही हूँ। 
 
डियर मैम, पानी फेरने टाइप-वाइप का काम कर दिया आपने। कहाँ कि जुनून छिन कर लाये थे...अपने हकों की...और आप तो हमारी बीरादरिन बहन होकर अपने ही लोटे में छेद का के बैठ गईं। उफ़्फ़!!! मैं और आप भी 16 या 17 बरस की उम्र से गुज़रे थे। हमने और आपने किसी पर अपना आउटबर्स्ट नहीं मारा...उफ़्फ़ !...फिर आपको कैसे लगा कि ई हर्मोनवा गड़बड़ हो जाता है। मैम, आपके और मेरी तमाम पूर्वज औरतों के न बाहर निकलने से गुलज़ार अंकल बतूता पर गाना लिख बैठ गए। सोचो वो औरतें जो इतिहास में गुमनामी की सांसें ले रही हैं, वो बाहर निकली होतीं तो क्या ग़ज़ब का देश होता अपना!...अगर औरतें घर से बाहर निकलीं होतीं तो वो भी इब्न बतूता से कम नहीं होतीं। मैंने तो अपना एक नाम कुछ दिन पहले ही इबनी बतूती रखने या फिर चीनी यात्री या फिर वास्को डिगामी रखने का मन बनाया था। लेकिन आप तो कह रही हैं लक्ष्मण रेखा ही खींच दो। मन करता है अपना माथा ही धून लूँ। मैम, पीछे की तरफ़ क्यों धक्का दे रही हैं? हमको यह तरक-वरक समझ में नहीं आ रहा। हम आपसे डिस-गरी (disagree) होते हैं। 
 
मन तो बहुत है लिखने का लेकिन अभी आप ज़रा ख़ुद ही सोचिए कि आप क्या बोल गईं ! चलिये, गले लगिए। महिला दिवस की बधाई आपको।


Saturday, 4 March 2017

'ℼ'

आठ मार्च आने वाला है। चलिये कुछ सोच लें!
1.
कुछ दिन पहले हिन्दी की ख़ासी चर्चित पत्रिका के पन्ने पलटते हुए मैं आख़िर तक पहुँच गई। यह पत्रिका देखने का अच्छा तरीका है। पर उस जगह मुझे लगभग 15 मिनट रुकना भी पड़ा। लेख तस्लीमा नसरीन के बारे में था। ऐसा नहीं है कि यह मेरी पसंद की लेखिका हैं। उनका लिखा हुआ पसंद है। उनके बारे में जानने की इच्छा हुई सो पढ़ना शुरू किया। वह लेख एक अनुवाद था। मुझे अनुवादिका का नाम अभी याद नहीं आ रहा। उस लेख में नसरीन साहिबा की एक बड़ी परेशानी की बात थी। उन्हें रहने के लिए कोई भी घर नहीं मिल रहा। वह इस चलते लगभग नुकीली ज़िंदगी जी रही हैं। अभी वह जिस मकान में रह रही हैं वह उनके किसी मित्र का है, जिसे मित्र का बेटा कुछ ही दिनों में बेचने वाला है। इसलिए उन्होने रहने के लिए घर खोजने की क़वायद शुरू कर दी है।
क्योंकि वह बांग्लादेश से ताल्लुक रखती हैं इसलिए भारत में उस जगह की महक लेने की वह भरपूर कोशिश में रहती हैं। दिल्ली की चर्चित जगह सीआर पार्क उर्फ चित्तरंजन पार्क को वह अपना ठिकाना बनाना चाहती हैं। लेकिन उन्हें कोई भी अपना मकान किराए पर नहीं देना चाहता। लेखिका के अनुसार 2014 के लोकसभा चुनाव अभियान के समय आज के सबसे बड़े नेता ने तस्लीमा नसरीन के नाम और उनकी दशा को वादे के साथ भाषणों में जगह दी थी। पर वे अब भूल गए हैं। वे उनका नाम भी नहीं लेते। इस लेखिका का संघर्ष ज्यों-का-त्यों है।
सोचिए हम कितने गुमान में कहते हैं कि हम भारत के लोग लोकतन्त्र के हिमायती हैं। पर यह भी है कि सिर्फ़ बातों के गुब्बारे फुलाने में। एक सेमिनार हुआ नहीं कि सबसे पहले चिल्लाने लगते हैं। गौर से देखने में गुरमेहर कौर और तसलीमा नसरीन, दोनों ही कट्टरता की शिकार हैं। एक को उसका देश छुड़वा दिया गया और दूसरी को दिल्ली। बहुत बड़ा फ़र्क नहीं है। ध्यान से सोचिए! 'पुरो' को उसका ठिकाना मिल गया पर कईयों को अभी तक नहीं मिला है। कई और भी हैं जो अपने मन मुताबिक़ ठिकाने की तलाश में भटक रही हैं। पर वे हार नहीं मानतीं। ठिकानों की मार क्यों पड़ रही है जबकि हम कितनी तरक्की कर रहे हैं? एक चैन की ज़िंदगी क्यों नहीं मिल सकती, जबकि धर्म और राज्य भलाई और सेवा के लिए हैं?



 2. 
दो साल पहले की बात है। जब मैं नौकरी किया करती थी। अपने बलबूते पर एक घर(कमरा) खरीदने की तमन्ना रखती थी। इसी को पूरा करने के लिए बैंक लोन लेने का भयानक ख़याल सुहाने सपने की तरह आया। इस बाबत मैंने बैंक के कस्टमर केयर को फोन लगा दिया। मैंने उनके सभी सवालों का जवाब बड़ी खूबसूरती से दिया और पूछा- 'क्या मुझे लोन मिल जाएगा?' दूसरी तरफ से उस स्पीकर ने पूछा- 'आपको घर की क्या जरूरत है?' मैं बहुत हैरान हुई। कहा- 'है।... इसलिए जानकारी इकट्ठी कर रही हूँ। ताकि ख़ुद का घर ले पाऊँ।' वो एकदम से हंसने लगा और तुरंत बोला- 'अरे आप तो दूसरे घर जाएंगी जहां आपका अपना घर होगा। अभी तो आप अपने मम्मी पापा के साथ होंगी। वही आपका घर है।' मैंने फोन रख दिया और लोन का ख़याल त्याग दिया। हालांकि बाद तक मैंने ख़ुद से किस्तों में कमरा या फ्लैट ख़रीदने के कई ख़याली पुलाव पकाए। पकाने में कोई बुराई नहीं। अब ऐसा लगता है कमरे के बारे में सोचकर ही बहादुरी का काम किया था।... कितना कुछ जतला दिया जाता है कि तुम एक लड़की हो। आप यह कह सकते हैं कि मुझे दुनियावी चीज़ों का लालच है। लेकिन मुझे इस बात की फिक्र नहीं। मुझे फिक्र उस सवाल से है, जो मुझसे पूछा गया था। मैं आख़िर अपना घर क्यों नहीं ले सकती?

3.
आपने ज़रूर गणित के 'ℼ' को एक न एक बार चाहा होगा। इसे पाई कहा जाता है। इसका मूल्य 22/7 या 3.14 कई जगह सटाया होगा। यह गणित में रहने वाला बहुत मज़ेदार निशान है। जैसे ही दिखता है हमारे दिमाग में तुरंत आ जाता है कि अब इसकी जगह 22/7 भी चिपकाया जा सकता है। यह याद में ठहर जाने वाली बात भी है। लेकिन याद में ठहर जाने और किसी बात के साथ चिपक जाने में अंतर है। मैं ख़ुद भी इसी बात की शिकार हूँ। मैं भी कई बार 'ℼ' की तरह महसूस करती हूँ। ऐसा लगता है कि लोगों को अपने अनुसार देखती हूँ जबकि वह अलग हैं। वे सभी अपने अनुसार हैं। यह बात आपको आजकल एक जुमले में पढ़ने को मिल जाएगी कि हम दुनिया को दुनिया जैसी है न देखकर वैसे देखते हैं जैसे हम हैं। बात सही भी है। मैंने 'ℼ' का ज़िक्र कुछ सोचकर ही किया है।



मैंने 'ℼ' के साथ एक जांच की। मैंने इस बात को कुछ लोगों से बांटा भी है कि मैं 'ℼ' जैसा महसूस करने लगी हूँ। वे मुझ पर हंस देते हैं। इस बात को हमें समझना चाहिए। अक्सर लोग किसी न किसी फिक्स खयाल के मारे होते हैं। जैसे 'ℼ' के बारे में मैंने अपने चार दोस्तों से बात की। मैंने कहा-'कुछ बताओं इसके बारे में।' उनके जवाब काफी आशा अनुरूप ही थे। किसी ने 'लाइफ ऑफ पाई' का नाम भी लिया पर सभी ने उसके मूल्य के बारे में ज़रूर कहा। कारण उन्होंने स्कूल में इसके बारे में जाना था। सवाल हल किए थे। तभी से दिमाग में 'ℼ'  जम गया है। ...अभी समझे कि मैं 'ℼ'  की तरह क्यों महसूस करती हूँ! जिसे देखो वह अपनी जमी-जमाई प्रतिक्रिया उड़ेलने को तैयार बैठा है। हमने एक ही सूत्र से सारे सवालों को हल करने की कसं खाई है। कहीं कुछ हुआ नहीं कि अपना अपना 'ℼ' लिए सभी खड़े हो जाते हैं। गुरमेहर को शिकार बनाने वाले भी ऐसे ही हैं जो सेट पैटर्न के शिकार हैं। गुंडों का दिमाग होता तो भयानक ही है। इसलिए गुंडों से डर लगता है। पर उन लोगों के बारे में आप क्या कहेंगे जो सफ़ेद कॉलर वाले गुंडे हैं? वास्तव में ये सभी सफ़ेद कॉलर वाले वो लोग हैं जो रूढ़िवाद से ऊपर उठ नहीं पाते और हर सवाल या मसले को 'ℼ' समझ कर हल कर लेना चाहते हैं। आजकल 'ℼ'  मूल्य देशभक्ति है जो सिर्फ़ नारे में दिखती है। आपको क्या लगता है?

सोचिए तो इन सवालों पर...!

21 बरस की बाली उमर को सलाम, लेकिन

  दो साल पहले प्रथम वर्ष में पढ़ने वाली लड़की से मेरी बातचीत बस में सफ़र के दौरान शुरू हुई थी। शाम को काम से थकी हारी वह मुझे बस स्टॉप पर मिल...