Monday, 20 March 2017

उस एक को इतना बड़ा मकान क्यों चाहिए?

जब यू पी चुनाव के परिणाम घोषित हुए तब कई तरह की प्रतिक्रियाएँ सामने आईं। डिग्रीधारियों और बे-डिग्रीधारियों ने जम कर जीत हार का फेसबुकिया विश्लेषण किया। इसमें मेरा नाम भी शामिल है। अपने को छूट नहीं दी जानी चाहिए। मुझे सबसे अजीब हैरत कुछ बातों को पढ़कर हुई। पहली यह कि यू पी की मुख्यमंत्री रह चुकीं, मायावती पढ़कर वक्तव्य देती हैं और इस बार राम मंदिर बनकर ही रहेगा। इसके अलावा योगी जी का मुख्यमंत्री बनना भी लोगों को अपने युग के चमत्कारों में से एक लग रहा है। फ़ेहरिश्त तो लंबी है ही। क्या कीजिएगा! अटपटा से लेकर चटपटा सबकुछ मिलेगा। मैं इस सूची में दिलचस्पी ज़रा कम रखती हूँ। इसमें शामिल कुछ बातों पर ध्यान देना ठीक रहेगा।

अगर मायावती पढ़कर ही अपनी बात रखती हैं तो इसमें गलत क्या है? पढ़कर बोलने में क्या हर्ज़ा है? मज़े की बात यह है कि ख़ूब पढे लिखे लोग जिन्हों ने स्त्री विमर्श पर शोध करके किताबें लिखी हैं और जिन पर बोलने के लिए IIC और IHC में बकायदा हाल बुक किए जाते हैं, उन्हीं लोगों की तरफ से मायावती जी के लिए ऐसे बयान सुनकर अच्छा नहीं लगा। आलोचना यदि उनकी राजनीति के लिए की जाती तो बात समझ आती। एक लाईन में किसी के बोलने के तौर तरीक़े पर पंच मारना बेहद अजीब है।
 
पढ़कर बोलना विवादों से दूर रखता है। यह एक कला है जो सबके बस की बात नहीं। पढ़ना धैर्य को समझाता है। इससे मुलाक़ात करवाता है। शब्द और उसकी अहमियत को सहेज कर रखता है। लिखने के लिए लोग सोचते हैं। एक एक बात की परख की जाती है। इसलिए यह वाज़िब है कि पढ़ने वाला इस बात को समझता है और वह संतुलित बोलता है। मायावती का क्षेत्र राजनीति का है। इसलिए मुझे लगता है कि वह वर्तमान नेत्रियों और नेताओं में अच्छा बोलती हैं। आजकल इतने अधिक विवाद हो रहे हैं कि इनसे बचने का यह अच्छा माध्यम है। अब बात उनके बोलने के लहज़े और तरीके पर करें तो सभी की अपनी निजी शैली होती है। इसमें आलोचना मुझे समझ से परे प्रतीत होती है। सभी का अलग उच्चारण होता है। इसलिए इस शैली की आलोचना के बजाय उनके द्वारा की जानी वाली राजनीति पर बहस हो तो अच्छा रहे।  
 
                                                           फ्रांस की केव पेंटिंग 
  
दूसरा बयान ज़रा सा विवादस्पद है। वो राम लला पर है। रामकथा को मैं मोटे तौर पर कुछ तरीक़ों से जानती हूँ। पहला स्रोत रामायण धारावाहिक और दूसरा अपने कुछ लोगों से सुनी हुई पुरानी कहानियों के आधार पर। हाँ, संक्षिप्त रामायण की एक किताब भी है घर में पर मैं उसे पूरा नहीं पढ़ पाई कभी। इसी तरह और भी कई स्रोतों से रामकथा से बावस्ता पड़ता रहा है। इसके अलावा एक दिलचस्प बात और यह है कि रचनात्मक लेखन की पढ़ाई के दौरान मेरे सर ने बताया था कि रामायण और महाभारत तरह तरह के किरदारों की खान हैं। इसलिए रामकथा या महभारत को देखने की मेरे पास धार्मिक दृष्टि न के बराबर है। मैं यह भी नहीं कहूँगी कि राम या कृष्ण का नाम आते ही मेरा सिर श्रद्धा से नतमस्तक हो जाता है। ऐसा कभी नहीं हुआ। यदि कभी कहीं मंदिर भी जाना हुआ तो मुझे पूजा का कोई बढ़िया ख़याल नहीं आया। मैं मंदिर भी स्थापत्य की कला को देखने जाती हूँ। मेरा मक़सद कभी भी पूजा-पाठ नहीं रहा।
 
मेरी माँ बहुत सी राम कहानियाँ के छोटे छोटे टुकड़े सुनाती हैं। ये कहानियाँ बहुत दिलचस्प होती हैं क्योंकि इनमें
राम एक ऐतिहासिक मिथक पुरुष के रूप में आते हैं। वे भगवान की तरह बर्ताव नहीं करते। उनका संवाद एक मामूली मच्छर से भी होता है और मच्छर बराबर की बात रखता है। राम भी आलोच्य हैं। मिथक ऐसे ही होने चाहियें। कृष्ण भी ऐसी दशा दिशा में आते हैं। मतलब की आप उन पर एक आलोच्य निगाह भी रख सकते हैं। इस्कॉन मंदिर वाले अगर उन्हें पूजते हैं तब आप यह भी देखिये कि मंदिर का सम्पूर्ण वातावरण वे लोग कृष्णमय बनाकर रखते हैं। मानसिकता में कृष्ण भजन ऐसे बैठ जाते हैं कि व्यक्ति हरे रामा हरे कृष्णा करने लगता है। यह एक अलग विषय है सोचने समझने के लिए। मुझे संवाद करने वाले मिथक ज़्यादा पसंद है। वे कतई नहीं जो संवाद ही नहीं करते। वास्तव में संवाद उन तारों की खोज भी करता है जो मनुष्य के विकास में बुने गए हैं। ख़ुद मनुष्य ने इन्हें अपनी समझ से बुना है। अगर मिथक पूजनीय और पहुँच से दूर एक लिबास पहना दिया जाये तो वास्तव में यह तरीका सोचने या मंथन करने की क्षमता को मार देता है। मनुष्य को यह सोचना चाहिए कि इस पृथ्वी पर राम और मच्छर का समान अस्तित्व रहा है। इसका रूपक ऐसे भी लिया जा सकता है- सूक्ष्म या अति सूक्ष्म और विराट की सत्ता साथ साथ रही है। बरबरी के दर्जे पर। 
 
                                                    यह भी केव पेंटिंग का नमूना है
 
 
मानवजाति के एक खूंखार और घटिया मानसिकता वाले गिरोह ने जात पात का बंटवारा कर इस पृथ्वी को अव्वल दर्ज़े का नुकसान ही पहुंचाया है। इसके नियम क़ानूनों को ठेंगा दिखाया है। इसलिए मुझे वे सभी संघर्ष, जो इस शोषण के खिलाफ़ किए गए हैं, सबसे अच्छे जान पड़ते हैं। जो राम मंदिर मनाने की वकालत करते हैं वे सबसे पहले गटर में घुस कर एक रोज़ काम कर लें। बेवकूफाना ज़िद्द करना बहुत घटिया लगता है। ऐसे हाल में जब बेरोजगारी, भुखमरी, मानव तस्करी, तापमान का बदलाव, रेप, बाल शोषण और इसी तरह के तमाम मुद्दे और परेशानियाँ सामने हैं तो हम आज 21वीं सदी में धर्म को लेकर डोल रहे हैं।    
 
राम मंदिर बनने को लोग इतना क्यों तवज्जो देते हैं? मंदिर या मस्जिद हमारे देश में अनेको हैं। अब्दुल्ला नाम का बच्चा रोज़ ख़ुदा के मंदिर और मस्जिद दोनों को देखकर हैरान हो जाता है कि 'तुझ एक को इतना बड़ा मकान' है और मेरे पास तो कुछ भी नहीं। मैं उस जगह को एक ऐसी जगह में तब्दील करने की राय रखती हूँ जहां बैठकर लोग तरह तरह के विषयों पर बात करें। जहां एक किताबघर खोल देना चाहिए। कम से कम किताब पढ़कर लोग इल्म हासिल करेंगे और जानेंगे कि दुनिया वास्तव में धर्म की चाश्नी में  नहीं है। उसका अपना एक भूगौल है। उसकी अपनी कुछ प्रवृत्तियाँ हैं। उसका ख़ुद का एक बर्ताव है। इंसान को न तो अब मंदिर की ज़रूरत है न मस्जिद की। इबादत के लिए बहुत सी जगहें हैं। अब पंडित और मौलवियों के भाषण की भी जरूरत नहीं। बल्कि जरूरत इस बात की है कि ख़ुद की अंतरात्मा में उस नूर की तलाश कर ली जाये। बाकी सब छोड़ कर आसपास फैली असमानता और अशांति के खिलाफ़ मोर्चा खोला जाये। पढ़ा जाये उन विद्वानों को जो समाज की अपनी  समझ किताबों में दे गए हैं। मैं आज भी उस क़तार में खड़ा होना मुनासिब नहीं समझती जो बेवकूफ़ों से बनी हो। जो धर्म के पीछे अंधी दौड़ में जा रही हो। यकीन मानिए यह चश्मा उतार दीजिये। आप बहुत सुलझे हुए इंसान बन जाएंगे। 


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