Sunday, 2 July 2017

...वरना इस गली में अकेला मकान तो किसी का नहीं है

इंटरॉडक्शन सबसे अच्छा मुझे बचपन में सुने एक गीत में लगा था। 'अमर अकबर एंथनी' फ़िल्म में अमिताभ बच्चन पर फिल्माए गीत में वह क्या खूब अपना परिचय देते हैं। यह परिचय दिल्लगी वाला है।

"माय नेम इज़ एंथनी गोंसाल्वेस 
मैं दुनिया मे अकेला हूँ 
दिल भी है खाली घर भी है खाली 
इसमे रहेगी कोई किस्मत वाली 
हाय जिसे मेरी याद आये जब चाहे चली आये.. 
रूपनगर प्रेमगली खोली नंबर चार सौ बीस..."

थोड़ा दार्शनिक और रूमानी परिचय फिल्म 'परिचय' के एक गीत में आता है-

मुसाफ़िर हूँ यारो
न घर है न ठिकाना
मुझे चलते जाना है
बस चलते जाना

सोचिए कोई इंटरव्यू में यह पूछे कि अपने बारे में कुछ बताइये। तब क्या मज़ेदार माहौल हो सकता है और ऐसा भी कि आपको बाहर का रास्ता दिखाया जा सकता है, तुरंत। मेरे साथ यही अजीबो-गरीब घटना घटती है। जब भी किसी इंटरव्यू में जाना होता है तब दिमाग में यह गाना बजना शुरू हो जाता है। बेहद असमंजस में पड़ जाती हूँ कि आखिर यह क्यों हो रहा है!

यह तो रही फिल्म और मेरी बात। लेकिन परिचय हल्की चीज नहीं होती। यह गंभीर है। इसे मज़ाक में नहीं बताया जा सकता और न ही किसी और का मज़ाक में परिचय समझा जा सकता है। अभी तक के दिये अपने परिचय पर मुझे संतुष्टि नहीं हुई है न ही बढ़िया परिचय गढ़ पाई हूँ और ऐसा किसी का परिचय रोचक नहीं लगा है जो याद रहे। किसी रोज़ यह भी हो ही जाएगा।

गौर करती हूँ तब पाती हूँ कि दिमाग का अनुकूलन बचपन से एक दूसरी दिशा की तरफ किया गया है। परिवार, स्कूल और बाहरी माहौल ने इसमें समान भागीदारी निभाई है। जनता की एक इकाई के रूप में वह मजबूती नहीं दी गई जिसकी की 'डमोक्रेसी' में उम्मीद होनी चाहिए। जुल्म न करने की शिक्षा, यह प्रणाली न तो अमीरों में भर पाई और जुल्म न सहने की शिक्षा, न हम गरीबों में कूट कूट कर भर पाई। यह लोकतंत्रीय प्रणाली जनता को निष्क्रिय जनता बनाए रखने में ज़्यादा सक्रिय रूप से उभर रही है।

लेकिन आजकल कुछ गुंडों और हत्यारों का परिचय अखबारों और टीवी की खबरों में देखने को मिल रहा है। गौ-रक्षक! कुछ देर इस शब्द को ध्यान से सोचिए। इस शब्द की थरथरी को महसूस कीजिये। सोचिए घड़ी की सेकंड की सुई के साथ। फिर मिनट की सुई के साथ और उसके बाद आपको लगेगा कि एक तस्वीर साफ हो रही है। समाज की इकाई के तौर पर हम सभी पर उंगली उठ रही है। हम जनता, भीड़ और गौ रक्षक नामक हत्यारों में बंटे हुए खुद को पाते हैं। हम यह तय तो कर ही सकते हैं कि हम कौन हैं और हमारा पाला क्या है!नकारात्मक ताक़तें कब नहीं थीं? अपने मिथकों की कहानियों को उठाकर देख लीजिये। उसके बाद के समाजों को दोहरा लीजिये। समय के हर पड़ावों पर ये ताक़तें रही हैं। दिलचस्प इनके विरोध रहे हैं। इन विरोधों में हम यानि आप और मैं कहाँ और कौन थे, यह जान लेना भी जरूरी है।

मैं उन विरोधों के समर्थन में रहती हूँ जिनमें कोई हीरो न हो। जनता की प्रत्येक इकाई जहां सक्रिय है वहीं मेरा मन रमता है। मसीहा टाइप की छवियों से मुझे हिकारत होती है। आखिर क्यों किसी एक को ही दिव्य शक्ति मिल जाती है? जब सब में वह महान शक्ति अपना अंश रखती है। वन मैन आर्मी वाला हाल हमें इस हद तक ले आया है कि कोई बेगुनाह को मार देता है और हम एक कोने में खड़े होकर बस देख ही लेते हैं। किसी गाँव में किसी औरत को डायन बताकर मारना हो या किसी को गाय के मांस पर ही चाकू घोंपना हो, ये सब काम कर दिये जाते हैं और आत्मा जो नहीं मरती, वह शरीर को छोड़ कर चली जाती है। सत्य तो यही है कि ज़िंदगी सभी की अनमोल है और सभी को बराबर हक़ हैं। मुझपर कोई वार कर रहा है तो मैं श्री कृष्ण के दसवें अवतार का इंतज़ार नहीं करूंगी। या तो बचूँगी या फिर बदले में वार करूंगी। यही व्यक्तिगत बात हुई।

जितेंद्र की एक पुरानी फिल्म है- 'हातिम ताई।' आपने देखी ही होगी यह फिल्म। फिल्म मोटे तौर पर बुराई और अच्छाई की भिड़ंत है जिसमें जितेंद्र एक अकेले मसीहा टाइप के किरदार में अच्छाई का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। हालांकि यह कहानी पुरानी मिथक कहानी से प्रेरित थी। इसके बाद और साथ साथ आई फिल्मों में भी अकेला मसीहा तारणहार ही दिखाई दिया। मुझे न... दिक्कत यहीं लगती है। हमारे समाजों को मसीहा वाला इंजेक्शन ही दिया जाता रहा है। यह क्रम अभी तक चालू है। इसका उदाहरण आजकल आपको 'शीर्ष नेता' या फलां पार्टी की 'सुप्रीमो' आदि के इस्तेमाल में होता है। हालांकि ये शब्द मीडिया द्वारा शुद्ध रूप से गढ़े हुए हैं फिर भी इनमें मुझे गलती नहीं दिखती। आजकल वर्तमान में केन्द्रीय सरकार में भी महज़ कुछ चेहरे ही हैं जिनको बहुत से अक्ल के अंधे मसीहा का रूप बता रहे हैं।


मसीहा से हटकर दूसरे पक्ष पर बात करें तो जनता का पक्ष दिखता है। एक अथाह जनसमूह। गिनती नहीं कर सकोगे जब जनता शब्द को सोचोगे। स्कूल में हरीशंकर परसाई की एक कहानी पढ़ाई गई थी। उसमें भेड़ों को जनता का रूप दिया गया था। तब से आजतक मुझे भी जनता शब्द का रंग सफ़ेद दिखता है। उनकी खाल और सफ़ेद मुलायम बाल महसूस करती हूँ। इस बात का भी पूरा आभास रहता है कि हर भेड़ की बलि चढ़ा दी जाएगी। कुछ की चढ़ाई जा रही है हर एक सेकंड। जनता में मैं उन लोगों को नहीं गिनना चाहती जिनके आलीशान बंगले हैं। जो नहीं जानते कि धूप क्या होती है। जिनको रोटी, कपड़े और मकान का सुरक्षित भविष्य मिला हुआ है, वह जनता नहीं होती। बल्कि वे लोग वही खूनचूषक होते हैं जो हाथ रिक्शे की वजनदार 50 रुपये की सवारी करने के बाद 40 रुपये पचा जाना चाहते हैं। ये लोग जनता वाली जमात में नहीं आते।



जनता का दिमाग कहाँ खोजा जाये, यह महत्वपूर्ण सवाल है। किसी एक व्यक्ति का दिमाग शरीर के ऊपर होता है। लेकिन यही चीज भीड़ में कहाँ समझी जाये? किन क्रियाओं में इसे जाना जाये? अगर दिमाग नाम की चीज है तो इसकी नैतिकता की नाप क्या मापी जाए...ऐसे सवाल मैं अभी तक सोचती रही हूँ। जनता की इकाई की परवरिश में ही खामी है। इस परवरिश के अपने ही कई प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष कारण भी हैं। अव्वल दर्जे तक गहरी असमानता बहुत है। पर्याप्त साधन तक नहीं हैं जीने के लिए। लैंगिक असमानता इस कद्र है कि औरतों को तो आज तक औरत को इंसान मान लेने की जंग लड़ी जा रही है। कई बार जब का हिंसक भीड़ का ज़िक्र होता है तब महिलाओं का भाग न के बराबर होता है। इसलिए महिलाएं भी जनता का बराबर हिस्सा है। कहीं आप लोग यह न सोच लेना कि औरतें जनता नहीं हुआ करतीं।

हमारे समाजों में वशीकरण मंत्र का बहुत ज़ोर रहा है। भीड़ के साथ भी यही मंत्र इस्तेमाल होता है। उनके दिमाग को सामूहिकता में वश में कर के उनसे अपने मतलब का काम करवाया जा रहा है। दुखद यह है कि इसमें राजनीतिक दलों का बहुत बड़ा हाथ है जो ऐसे 'ब्रेनलेस' समूह तैयार कर रहे हैं। ये दल इस तरह की विचारधारा को लोगों में इनपुट कर रहे हैं जो अपने होश-हवाश से बाहर होकर अपने कृत्य को अंजाम देती है। ये समूह इस हद तक क्रूर हैं कि पीट पीटकर जान लेने तक उतारू हो चुके हैं। भीड़ का ब्रेन ऐसी ही विचारधारा में मौजूद है। मारक। जानलेवा विचारधारा। जिसका आधार नफरत पर खड़ा है।

जब इस तरह की घटनाएँ घट जाती हैं तब अपराधी के प्रति मेरा और आपका मन कितनी घृणा से भर जाता है। हम स्वर में स्वर मिलाकर यह कहते हैं कि इन अपराधियों को फांसी दे दो.., सूली पर चढ़ा दो। हम कब अपराधी के पाले में खड़े हो जाते हैं यह पता भी नहीं चलता। दोनों में ही हिंसा मुख्य स्वर हो जाती है। हम हिंसा का जवाब हिंसा से देना चाहते हैं। हमने इसलिए जेल बना रखी है। ...लेकिन यह कैसे संभव है कि हिंसा का जवाब हिंसा हो! जब मैं जेल की प्रणाली को सोचती हूँ तब सिहर उठती हूँ। जेलों में ज़िंदा जीवन तिल तिल मरता है। हमें यह समझना होगा कि जिसे मारा जा रहा है वो भी आम इंसान है और जो मार रहा है वह भी हिंसा से पहले आम इंसान ही था। मुझको आपको लड़वा कर, एक दूसरे को मरवाकर कोई तीसरा अपनी मज़े की ज़िंदगी काट रहा है। अगली बार उठाने से  पहले ये बातें सोच लेना। हमारा ध्येय हथियार उठाना और कत्ल करना कतई नहीं है। जीवन का मतलब मिलकर जीना है। यही सच है। बाकी कुछ नहीं।

हमें अपने अंदर इंसान बनने का ऐलान करना होगा। कुछ गलत करने से पहले पूछिये कि आपके असली धर्म इंसानियत पर इसका क्या असर होगा! हम ही जनता और भीड़ का निर्माण करते हैं। इसलिए यह तय कर लेना सबसे जरूरी है कि भीड़ में मुर्दा बनना है या जनता के रूप में सचेत।...वरना इस गली में अकेला मकान तो किसी का नहीं है। सभी जलेंगे। बस क्रम अलग होगा।


(आजकल गलत अर्थ लेने की परंपरा है। इसलिए यह साफ करती चलूँ कि मैं क़त्ल करने वालों का पक्ष नहीं ले रही। बल्कि उनके अंदर आए इस परिवर्तन को समझने की कोशिश कर रही हूँ। यह शुरुआत है।)    






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