Wednesday, 21 March 2018

हॅलो दिल्ली

मिथ- दिल्ली की लड़कियों की आवाज़ सुरीली नहीं होती!

जवाब सुनते जाइए... आइये!

उसने पूछा- "आप कहाँ की हैं?"

मैंने चौंकते हुए पूछा- "मतलब?"

उसने फिर पूछा- "मतलब आप कहाँ की रहने वाली हैं?"

मुझे इस सवाल से भी परेशानी हुई और फिर मैंने वही शब्द दोहराया- "मतलब?"

उसने इस बार साफ तरीके से सवाल पूछा- "मेरा मतलब दिल्ली की हैं या इससे बाहर?"

इस सवाल से हर बार बहुत कुफ़्त होती है। जहां बैठी हूँ वहीं की हूँ। जहां मैं नहीं हूँ, वहाँ की मैं हो ही नहीं सकती। न मैं होना चाहती हूँ। मैंने उसे थोड़ा इंतज़ार करवाते हुए जवाब दिया- "अम्म...दिल्ली की हूँ...यहीं जन्म लिया, यहीं पढ़ाई की और यहीं आगे की पढ़ाई भी जारी है।"

जवाब सुनकर उसने थोड़ा संभलते कहा- "दिल्ली की लड़कियां आपकी तरह बहुत धीमे धीमे नहीं बोलती। उनकी आवाज़ सुरीली नहीं होती जैसी आपकी है। मुझे लगा आप कहीं और की रहने वाली हैं।"

मुझे उसकी यह बात सुनकर एक पल को लगा कि कोई कड़वाहट मुंह में जबरन घुल गई है। मन में एक लहर उठने लगी कि लोगों ने ऐसे विचार आखिर कहाँ से अपने मन में ट्यूनिंग के साथ जमा लिए हैं कि फलां लोग यहाँ के ऐसे होते हैं तो फलां लोग वैसे होते हैं। लोग, लोग जैसे क्यों नहीं होते। पिछले दिनों मार्केज़ के लिखे उपन्यास को पढ़ते हुए उस पंक्ति पर रुक गई जिसमें लिखा था कि व्यक्ति जहां मरता है वही जगह उसकी हो जाती है। घर आकार मैं देर तक यही सोचती रही कि मैं कहाँ मरूँगी? क्या यहीं इसी शहर में? या फिर तक़दीर कहीं और ले जाएगी?...ऐसे सवाल मन में चल ही रहे थे तब मन में सुरीली आवाज़ का ज़िक्र आया। 

मुझे यह तारीफ़ कतई नहीं लगी। लगी तो बेइज्जती ही। हर जगह हर तरह के लोग होते हैं। जैसी जलवायु-जमीन वैसी ही उनकी बनावट। लेकिन क्योंकि इंसान पेड़ नहीं है तो वह एक जगह नहीं रहता अपनी जिंदगी के चक्र में उसने हर तरह के रिश्ते क़ायम किए हैं। इसलिए शरीर की बनावट में फर्क आ ही जाते हैं। और ये अंतर स्वाभाविक ही हैं। ये हर तरह के भी है।अब दिल्ली विषय पर आते हैं। यहा...देश की राजधानी में हर तरह के लोग रहते हैं और यह सिलसिला अभी भी चल रहा है और मुझे हाल के वर्षों में ऐसा नहीं लगता कि थमेगा भी। हर रोज़ बहुत से लोग आते हैं और यहीं के हो जाते हैं। 

 

                                Robert Farquhar- The Bohemian Village Voice

जिसकी जहां मर्ज़ी वहीं घर बसाये। सबको हक़ है। रोटी की तलाश मेरे पिताजी को दिल्ली के आपातकालीन वर्षों में ले आई थी और तब से उन्हों ने और दिल्ली से जितना लिया उतना ही लौटाया भी। बहुत सालों से सभ्य नागरिक बने हुए हैं यही क्या कम बात है! इसके बाद मेरी बारी आई। मैंने जब से अपना होश संभाला यहीं की गलियों में खुद को पाया। मुझे यह नहीं बताया गया कि तुम फलां राज्य की हो, न मेरे टीचर ने कभी मुझे यह कहकर पढ़ाया कि तुम फलां राज्य से ताल्लुक रखती हो...और न ही उन्हों ने यह बताया कि आप दिल्ली की हो तो कैसा बर्ताव करोगी...उन्हों ने यही कहा कि हम जिस देश में रहते हैं वह भारत है और तुम भारतीय हो। बस्स! किसी ने भी यह नहीं सिखाया की दिल्ली  के लोग सुरीले नहीं होते तो दिल्ली के लोग ऐसे नहीं वैसे होते हैं.. !

इतने साल हो गए हैं मुझे इस शहर में सांस लेते लेते कि अब कहीं और के शहर की शुद्ध हवा में भी मुझे दमे जैसी फीलिंग आने लगती है। मेरा मन एक या दो दिन के बाद अपने ही घर और शहर में लौट आने का करता है। हाँ घंटों सड़कों में बस में बैठी रह जाती हूँ। जी भर के इस शहर को खरी खोटी भी सुनाती हूँ...फिर भी अगले दिन तैयार हो जाती हूँ कि मुझे जाना है। 

इसलिए लोगों के मासूम सवाल भी मुझे कभी कभी चुभ जाते हैं। उनको मेरी आवाज़ से प्यार नहीं बल्कि यह सवाल है कि यह इतनी उत्तेजित क्यों नहीं है? क्यों वॉल्यूम इतना नीचे हैं? बोलने में मैं इतना समय क्यों ले लेती? ऐसे दिल्ली वाले नहीं बात करते...उनके लिए यह जवाब है कि जनाबे आली ...दिल्ली की लड़कियों की आवाज़ हर तरह की है। वक़्त पर मद्धम, कभी तेज़, कभी खामोशी, कभी गीत, कभी ग़ज़ल, कभी चिल्लाहट, कभी बेलगाम हंसी, कभी फूहड़-भौंडी, कभी खिलंदड़, कभी शोर और कभी सिसकी...हर तरह की है। क्यों एक एक फ्रेम वाला कैमरा लेकर फिरती/फिरते हो?



Friday, 9 March 2018

एक दिन पक्का (छोटी कहानी)

घड़ी में दो बज गए हैं। घर के काम अभी अभी ख़त्म हुए हैं, पर पूरे कभी नहीं होते। रोज़ रोज़ करती हूँ, पर पूरे कभी नहीं कर पाती। दो बज गए हैं पर मैं अभी नहाई भी नहीं हूँ। दोपहर का खाना भी नहीं खाया है। आज उकता गई हूँ। आज मैं घर छोड़ कर चली ही जाऊँगी। मैंने मन बना लिया है। अब नहीं रूक सकती। मैंने हल्की गुलाबी रंग वाली साड़ी पहनी है। इसके नीचे आसमानी बार्डर है। इसी बार्डर से यह साड़ी अच्छी लगती है। मैंने खुद से ही खरीदी थी इसे। हाथ में छ-छ चुड़ियाँ हैं काँच की। रंग लाल है। एक बिंदी है माथे पर। और बालों के बीच की लकीर पर सिंदूर। पैरों में दो दो बिछियां हैं। पतली सी पायल है जो भारी कतई नहीं है। पर हर रोज़ मुझे भारीपन का अहसास दिलाती है। घुँघरू न जाने कब के टूट के गिर गए हैं। घर में ही गिरे हैं। बाहर आना जाना होता ही नहीं अब। देखो न, घर में ही गिरे हैं पर मिले कभी नहीं। जाने दो रहते तो शोर ही मचाते। मुझे न शोर अच्छा नहीं लगता। हल्की सी आवाज़ से भी सिर में भयानक दर्द होता है। सहा नहीं जाता शोर। 
मुद्दे की बात पर आते हैं। मुझे पता है कि जब तुम काम से लौटकर आओगे और मेरे पीछे यह पत्र-पाती पाओगे तो बेहद नाराज़ हो जाओगे। तुम शादी के बाद से जल्दी नाराज़ होने लगे हो। हमेशा खराब के मूड में रहते हो। लोग समय को बदनाम करते हैं कि वह रुकता नहीं। पर समर, सच कहती हूँ। समय हमेशा रहता है। उसकी यही ख़ासियत होती है। बस तुम और मैं ही नहीं रहते। गुज़र जाते हैं, बिना एक दूसरे को चौंकाए हुए। तुम्हें पता है कि हम एक दूसरे को इतना जान गए हैं कि हम एक दूसरे में नया कुछ भी नहीं खोज पाते। कितनी ऊब बैठती है हम दोनों के बीच में। मुझे इस ऊब से ऊब हो गई है इसलिए मैंने रोज़ की तरह आज भी यही फैसला लिया है कि मैं जा रही हूँ। 


आज सुनो, मेरे जाने को लोग जब जानेंगे तब मेरे भाग जाने से ही जोड़ेंगे। पर क्या किया जा सकता है! मेरा किसी से कोई चक्कर नहीं है। कोई रिश्तेदार भी नहीं है जिसके यहाँ जाकर में रहने लग जाऊँगी। अकेले जाने में जोखिम है, पर मैं यह जोखिम उठाना चाहती हूँ। मैंने कुछ सालों से हर दिन यह भागने की हिम्मत जुटाई है। पर मैं इतनी कमजोर हो जाती हूँ कि कभी मिसेज़ समर तो कभी बच्चों की माँ बन जाती हूँ। हमारे बड़े हो रहे बच्चों को लोग देखेंगे तो कहेंगे- देखो वे जो जा रहे हैं, उन्हीं का माँ इस उम्र में भाग गई है। कैसी माँ है? माँ तो भगवान होती है। कैसा जिगर था जो छोड़ के भाग गई! हिम्मत न जाने कहाँ से आई। और भी बहुत कुछ कहेंगे। पर मुझे आशा है कि हमारे बच्चे नए जमाने के हैं और मुझे समझ सकेंगे। ऐसे ही तुम्हारे दफ़्तर में जब पता चलेगा तो तुम्हारे आगे सब हमदर्दी जताएँगे, पर पीठ पीछे ताली मार कर हसेंगे। पर मैं क्या कर सकती हूँ? 

मेरा मन अब कहीं टिक नहीं पा रहा। मुझे रह रहकर समुद्र देखने की तलब होती है। उसकी लहरों के साथ बह जाने का भी दिल कर ही जाता है। किनारे पर जब लहरें आती हैं और पैरों के नीचे से रेत बहा ले जाती हैं, वह अहसास मुझे बहुत अच्छा लगता है। मैं कैसे बताऊँ कि जब बारिश होती है तब अपने कमरे की शीशे वाली खिड़की पर पानी बहकर गिरता है, तब मुझे बहुत अच्छा लगता है। बारिश की बूंदों को हाथ में, आँखों में ...पूरे शरीर पर पड़ने देने से ऐसा लगता है, यही जीवन है। सर्दियों में जब बच्चे और तुम चले जाते हो तब, धूप में बैठना मुझे बहुत अच्छा लगता है। चटाई पर लेटकर धूप में सींचते जाने का मज़ा मुझसे पूछे कोई तो मैं बताऊँ। 


तुम कहोगे मैं पागल हूँ। मेरा मनोविज्ञान बिगड़ गया है। अच्छी ख़ासी शादीशुदा ज़िंदगी बिता रही हो। कोई कमी नहीं फिर यह हरकत। उफ़्फ़! शायद सच में मेरा मनोविज्ञान सड़ गया है। लेकिन मुझमें यह घर छोड़ने की बात आज अचानक तो आई नहीं है। मैंने बरसों की तैयारी से इसे अपने अंदर पाया है। जब मैं शादीशुदा नहीं थी। जब कॉलेज की सीढ़ियों पर बैठे बैठे कई घंटें गुज़ार दिया करती थी। जींस में जकड़ी मेरी टांगें किसी संगीत के साथ हिला करती थीं, मानो गाना गा रही हों। पर देखो न आज साड़ी के अंदर वे दोनों आज़ाद हैं फिर भी ऐसा लगता है कि बंधी हुई हैं। हाँ, तुम सही कहते कि मैं ज़रा पागल हूँ। खैर अब इस पागल से छुटकारा मिल जाएगा। मैं जा रही हूँ। ...और आखिर में मैं जा रही हूँ।
बीते दिनों से अपने अंदर के एक एक टुकड़े को हर रोज़ भगा रही थी। आज आखिरी टुकड़ा है जिसे लेकर मैं पूरी तरह से भाग रही हूँ। घबराहट हो रही है कदम बाहर रखने में। लेकिन अगर आज इस घबराहट से रूक गई तो कभी खुद को नहीं पा सकूँगी।
( उसने इस चिट्ठी को लिख लेने के बाद बार बार पढ़ा और तय कर के अपने गहने रखने की जगह के साथ लॉकर में रख दिया। वहाँ ऐसी ही बहुत सारी चिट्ठियाँ सांस ले रही थीं। हर चिट्ठी का विषय भागने पर ही था। उसने घड़ी पर नज़र टिकाई। तीन बजने को थे। बच्चे आ रहे होंगे। उसने लॉकर की चाभी लगा देने के बाद लंबी सांस ली और रसोई की ओर चल पड़ी। )       
 

Wednesday, 7 March 2018

ऐ लड़की

एक कहानी लिख रही हूँ। अभी अधूरी है। एक किताब पढ़ रही हूँ पर आधे से भी कम पर अटकी हूँ। कई लोगों के मैसेज आए हैं उन्हें जवाब भी देने हैं। कमरे को ध्यान से देखने पर धूल की भी शिकायत नज़र आ रही है। कल भी कहीं जाना है, इसलिए रह रहकर कपड़े प्रैस करने का भी खयाल आ रहा है। बहुत व्यस्तता है। मुझे इन कामों से अक्सर ऊब नहीं होती। अच्छा लगता है कि कुछ न कुछ हमेशा बाक़ी रहता है करने के लिए। पर यह बात भी है कि इन कामों में मेरी ऊर्जा का बड़ा हिस्सा बह जाता है। थकावट होती है तब रात में नींद भी बेहतर आती है। यही टूटा-फूटा रूटीन है मेरा। हाँ, इस रूटीन में बहुत कुछ नया जुड़ता है और पुराना हटता भी है। इसमें कुछ भी खास नहीं है। इस रूटीन की ख़ासियत भी यही है कि यह ख़ास नहीं। 

लेकिन यह पोस्ट इस सिलसिले पर भी नहीं है। वास्तव में इस पोस्ट को लिखने की वजह बहुत पहले बन गई थी पर आज एक दोस्त के फोन ने ट्रिगर कर दिया कि लिख ही डालूँ। बहुत दिनों से अपने बीते जन्मदिन पर कुछ लिखना भी चाह रही थी कि हर जन्मदिन एक होते हुए भी एक सा नहीं होता, इसकी वजह क्या है? बात जब लड़कियों के जन्मदिन की आती है तब बहुत सारी चीजें बदलती और बढ़ती रहती हैं। 

लड़कियों के जन्मदिन तब तक बहुत ख़ास रहते हैं जब तक उनको पीरियड आने शुरू नहीं हो जाते। घर में इससे पहले चंकी-पंकी माहौल रहता है। घर के और बाहर के लोगों के दिमाग में बच्ची की छवि बनी रहती है। लेकिन जैसे ही माहवारी शुरू होती है। माँ समेत पिता भी सावधान की अवस्था में आ जाते हैं। इसके बाद अगर एक चार्ट पेपर भी लेने जाना हो तब छोटा भाई साथ भेजा जाता है। मुझे तो लगता है हालात अभी तक या इस पड़ाव तक नियंत्रित होते हैं। 

 

स्कूल में भी कमोबेश लड़कियों की यही दशा दिशा होती है। क्लास रूम में पढ़ने वाली छोटी लड़कियां जल्दी टीचर के नियंत्रण में आ जाती हैं। इसके लिए टीचर के लोहे का स्केल अगर टेबल पर सटाक से पड़ जाये तो वे सब शांत हो जाती हैं, अपनी झुकी कमर के साथ। उनके जवाबों के अंतराल भी थोड़े होते हैं, क्योंकि उनको जबरन चुप करवा दिया जाता है। घरों में भी सुनने वाले लोग उन्हें पूरा नहीं सुनते, इसलिए बहुत सी लड़कियों के वाक्य टूटे या फिर मरम्मत किए हुए महसूस होते हैं। यही वजह भी है कि लड़कियां ख़मोश या निजता की शिकार होती हैं। कई बार लंबी चुप्पियों की भी यही वजह होती है। लड़कियां भावों से अपनी बात अधिकतर कहने की कोशिश करती हैं। ख़ैर यह मेरा ख़याल है। मैं गलत भी हो सकती हूँ।  

क्लास रूम में यह भी देखा गया है कि छोटी बच्चियों को हर तरह की बातें सुनने को अधिक मिलती हैं। मसलन आपसी किस्सों के अलावा बढ़ते जिस्म की ऐहतियात वाली बातें जो महिला टीचर के मुंह से निकलती रहती हैं। आप कभी गौर करें तो यह भी पाएंगे कि लड़कियों की कक्षाओं में निजता का तत्व बहुत बड़ी मात्रा में पाया जाता है। दो दोस्तों की बातों के अलावा समूह की और भावी लड़की संबंधी निजता वाली बातें। जिसे लड़कियों को खूबसूरत डायरी लिखने और उसे बनाए रखने में ताउम्र देखा जा सकता है। इसके अलावा लड़कियों में वे सब लक्षण पनपते हुए देखे जा सकते हैं जो भावी औरत बनने के लिए उनमें रोपे जाते हैं। 

 

इसके विपरीत अगर छोटे लड़कों की क्लास में आप दाखिल होंगे तब एक अल्हड़, मस्त, शोर भरा कमरा आपको दिखेगा और महसूस भी होगा। एक बार पाँचवी क्लास के एक पुरुष टीचर लड़कों को पढ़ा रहे थे और कई बच्चे उनसे बीच बीच में मज़ाक भी कर रहे थे। इन मज़ाक़ों की आवृति काफी अधिक थी। दिलचस्प था कि पुरुष टीचर भी इन मज़ाक़ों में बराबर उत्साह दिखा रहे थे। ऐसे मज़ाक किसी भी महिला टीचर को अपनी क्लास में करते हुए नहीं पाया जा सकता अक्सर। अगर कोई बच्ची कुछ कह भी दे तो टीचर उसे मॉरल सफर पर ले जाती हुई पाई जाती है। 

जिन कक्षाओं में लड़की और लड़के दोनों पढ़ते हैं वहाँ एक संतुलन जरूर रहता है और लड़कियों कुछ हद तक बढ़िया माहौल मिलता है जहां वे अपने से उलट लड़कों के बारे में बेहतर जान पाती हैं। और लड़कों में लड़कियों के प्रति एक नम्र भावना को भी भाँपा जा सकता है। बहुत सी बातें इसमें जोड़ी जा सकती है। कभी शोध करने के लिए किसी ने बुलाया तो जरूर जाऊँगी फिलहाल यह तो स्कूल का छोटा सा चित्र है। 

अब आते हैं कॉलेज में। दिल्ली शहर में बहुत से कॉलेज हैं। लेकिन यह भी है कि कुछ कॉलेज लड़कियों के लिए ही हैं। मुझे नहीं मालूम इन कॉलेजों का क्या स्वाद है क्योंकि मैंने लड़कियों के कॉलेज में जाने से परहेज़ कर लिया था। जहां तक बात है सह शिक्षा की तो आज भी यहाँ एक तरह संतुलन दिख ही जाता है। जो मुझे तो बहुत अच्छा लगता है। लेकिन यहाँ भी लड़कियों में स्कूल में डाला गया लड़कीपन दिख ही जाता है। बहुत सी लड़कियां जवाब देने का मन में ही सोच कर बैठी रह जाती हैं। बोल ही नहीं पाती। 

 

कॉलेज खत्म करते करते बहुत सी लड़कियां एक से दुकेली हो जाती हैं। लड़के भी, पर उनका अनुपात कम होता है। लेकिन मास्टर करते करते बची हुई लड़कियां जिनकी शादी ग्रेजुएशन में नहीं होती, वे शादीशुदा हो जाती हैं। जब वे क्लास लेने कॉलेज आती हैं तब बालों में छुपाकर सिंदूर का बेहद हल्का टीका लगाती हैं। दिलचस्प तो यह होता है कि वे बहुत से मौकों पर इस सिंदूर को दिखाना भी चाहती हैं और बहुत से मौकों पर चाहती हैं कि किसी को पता न चले। जब ये शादीशुदा लड़कियां अपनी पुरानी दोस्तों से मिलती हैं जिनकी शादी किसी वजह से नहीं हो पाई है, को सलाह देती हैं- "सही उम्र में शादी कर लेनी चाहिए। पता है बाद में बहुत तकलीफ़ होती हैं!" भारत के कॉलेजों में दी जाने वाली शिक्षा का अंदाज़ा इसी तरह के उदाहरणों से लगाया जा सकता है। हालांकि यह सभी लड़कियों पर लागू नहीं होता। कुछ तो बदलाव है ही पर बहुत बड़ा भी नहीं है।

 

फजीहत यहाँ भी नहीं है। यह एक सेट पैटर्न है और बहुत से लोगों को यह सामान्य लगता है। उन लोगों से इसे कुबूल कर लिया है और वे इससे खुश भी हैं। फजीहत किसी लड़की के उम्र के बढ़ने के साथ जुड़ी है। यह आधी आबादी की त्रासदी में से बड़ी और दुखद त्रासदी है। जैसे ही उम्र छब्बीस या सताईस पार होती है, एक भयानक दबाव लड़की और उसके घर के लोगों पर आना शुरू हो जाता है। लड़की अगर तीस को हो जाये तो यह विपदा ही है, समझो। उसके दोस्त, जो पक्के होने का दावा करते हैं, उसके टीचर(बहुत से) उसके घर के अपने लोग उसे धिक्कार की नज़र से भी देखना शुरू कर देते हैं। लड़की में जरूर कोई ऐब होगा, इसलिए तो शादी नहीं हो रही, रंग काला है, सुंदर नहीं है, कुछ आता भी तो नहीं, बिगड़ी हुई है तो कौन करेगा...ऐसे कितने ही जुमले सुनने को मिलते हैं। 

 

उपर्युक्त से यह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि यह न दिखने वाली विपदा इतनी बड़ी है कि मैं लेनिन, पेरियार, बाबासाहेब की मूर्ति टूटने जैसी महत्वपूर्ण घटनाओं को, किताब को न पढ़कर, अपनी अधूरी कहानी को पूरा किए बिना इस पोस्ट को रात ग्यारह बजे तक लिख रही  हूँ। 

 

फिर भी मैं यह कहूँगी या फिर यह पाया है कि अगर तीस पार करके भी आपकी शादी नहीं हुई तो यह बहुत सामान्य बात है। नहीं हुई तो नहीं हुई। इस बात को बस हल्के में ही लें। एक बार करियर बन जाएगा तो ज़िंदगी आपको उन मौकों के रास्ते भी दिखाएगी जो शादी से अधिक महत्वपूर्ण हैं शायद। शादी के पड़ाव है। लक्ष्य नहीं। जब कोई मिल जाएगा तो शादी भी हो जाएगी। लेकिन खामखाँ के दबाव में लड़कियों तनाव न लो। अपने कुछ शौक विकसित करो। घूमो, फिरो, योजना बनाओ, पेंटिंग करो, लिखने का चस्का पालों, अपना एक छोटा मोटा व्यवसाय शुरू करो, ड्रेस डिज़ाइन करो...ऐसे बहुत से काम हैं जिन्हें किया जा सकता है और खुश रहा जा सकता है। एक बार अपने अंदर की रोशनी में डुबकी लगा लो। तुम्हें सब समझ आ जाएगा।   

बहुत सी बातें छूट रही हैं। विज्ञान का या गणित का सूत्र-सवाल होता तो एक समाप्ती तक पहुंचा जा सकता। लेकिन यह विषय कुछ ऐसा है कि हर बार सोचने पर कुछ अलग पहलू निकल आएंगे। मैं और सोचूँगी और लिखूँगी। फिलहाल अभी इतना ही। कुछ दिनों पहले कृष्णा सोबती द्वारा लिखी लंबी कहानी पढ़ी थी 'ऐ लड़की।' इसलिए इस पोस्ट का नाम भी यही ठीक लग रहा है।  

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फ़ोटो गूगल से साभार



Saturday, 3 March 2018

फिलॉसफ़ी

भले ही यह सच है कि इस दुनिया में सब कुछ बदलने के वरदान और श्राप से युक्त है पर फिर भी हम सब में कुछ ऐसे लक्षण हैं जो हम सब को एक ही बनाते हैं। हाँ, मैं इनमें जानवर जगत से लेकर हर किस्म की जाति को भी गिन रही हूँ। हम आज जिस 21वीं सदी में जी रहे हैं यह एक पड़ाव है। लेकिन इस पड़ाव तक आने में हमारे पूर्वजों के सभी तरह के संघर्ष का बेहतरीन इतिहास है। इस संघर्ष में मुझे नहीं लगता कि उन्हों ने शिकायतों की सूची बनाई होगी। क्योंकि उनके पास ज़िंदगी थी और उसे जंगल और जानवरों के बीच जीने की गतिशील कोशिश थी। आज मैं और आप बेंतहा शिकायतों में ही लिपटे हैं, जबकि हमारे पास वह सब है जो ज़िंदगी को बेहतर बनाते हैं...फिर चाहे वे साधन हों या फिर हमारे रिश्ते।



इसलिए ज़रा अपने दिमाग पर ज़ोर डालिए कि हमारे शुरुआती दौर के मानव और मानवी कैसे रहे होंगे और उनकी अवस्था कैसी रही होगी? जब उन्हें आग और नियंत्रित आग की खबर नहीं होगी तब उनका जीवन जंगल में घर के बगैर कैसा होगा? क्या वे भी रात दिन, मौसम, सुरज, सितारे, चाँद, आसमान देख कर अचरज करते होंगे? हैरान हुए होंगे? क्या कौतूहल हम इन्सानों में विरासत में प्राप्त वह बेहतरीन भाव है जिसे हम मशीनों के जमाने में भूलते जा रहे हैं?

आज जब मैं हैरानी जैसे शब्द को सोच रही हूँ तब अपने घर में खेलते बच्चों में ही उसकी उपस्थिति समझ पाती हूँ। हाँ, बच्चों में अभी तक इसकी अच्छी और बड़ी मात्रा मौजूद हैं। यह राहत वाली बात है। हैरानी से चीज़ों के बारे में जानने और देखने से एक सोचने समझने की अंदरूनी प्रक्रिया की शुरूआत होती है। एक अंतर्दृष्टि की क्षमता विकसित होती है जिसका होना ज़रूरी है। जिसे मैं और आप कॉमन सेंस कहकर छोड़ देते हैं वास्तव में वहीं से अंतर्दृष्टि के धागे जुड़े हैं। 



दुनिया को बाहर से जरूर देखा, सुना, महसूस, सूंघा आदि जा सकता है पर अंतिम निर्णय इंद्रियों की मदद से अंतर्दृष्टि के माध्यम से विकसित कर एक मुकाम पर पहुंचाया जा सकता है। इस क्षेत्र के तार आज के समय में जरूर दर्शन से जुड़े हैं पर अगर हम वर्ग विभाजन न भी करें तो हर व्यक्ति अपने नज़रिये को एक ठहराव के साथ आगे बढ़ा सकता है। इसमें अमीरी गरीबी की बात नहीं। वास्तव में प्रकृति ने आपको बराबर ही बनाया है। यह तो कृत्रिम समाज आपको बताता है कि आप किस काबिल हैं और किस काबिल नहीं!

हमारे दौर में जिस तरह का तनाव दिखता है वास्तव में वह हमारे तुरंत और त्वरित एक्शन का नतीजा भी है। हमें बचपन से कुछ पाने की इच्छा के साथ बड़ा किया जाता है। प्रकृति को न जानकार हम देशों के बार्डर की पढ़ाई में उलझाए जाते हैं। पर सच तो यह है कि कुदरत ने किसी भी सीमा रेखा को नहीं खींचा। इसलिए कभी कभी मुझे लगता है कि इंसान होने की हैसियत से हमें कम से कम दुबारा पीछे मुड़कर देखना चाहिए। खुद को जानना चाहिए साथ ही साथ इस महान प्रकृति को भी। 

संस्कृति और सभ्यता के पड़ाव में वे जातियाँ जरूर क्रूर रही होंगी जिन्हों ने आदमी में फ़र्क किया होगा। यह उस सभ्यता का सबसे बड़ा पाप माना जाना चाहिए जिसने जाति जैसे शब्द को क्रूरता से अपनाया और प्रकृति के उस एकत्व तत्व के नियम की अनदेखी की। यह सभ्यताओं में उनके सोच के दायरे की घिसने की निशानी है।दर्शन का  विषय  आज  भी  स्कूल के स्लेबस में नहीं है। इसके पीछे वही वजह है  एक तबके को निरंतर झुकाये रखने  की साज़िश। वास्तव में दर्शन की पढ़ाई सभी को एक धरातल पर बिठाती है और प्रकृति के नियम समझाती है। इसलिए खुद से दर्शन की किताब खरीदिए और पढ़िये। खासतौर से यूनान के दर्शनिकों को पढ़िये। वे अपने सिद्धांतों में एक तत्व के होने की बात करते हैं। वे बहुत सी बात भी करते हैं जो हो सकता है हमें ठीक नहीं लगे। लेकिन उन्हें छोड़ कर दूसरी बातों को समझने की कोशिश की जा सकती है। यह बहुत जरूरी है कि आप खुद से जानें और सोचें भी।







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फोटो सौजन्य गूगल
  

21 बरस की बाली उमर को सलाम, लेकिन

  दो साल पहले प्रथम वर्ष में पढ़ने वाली लड़की से मेरी बातचीत बस में सफ़र के दौरान शुरू हुई थी। शाम को काम से थकी हारी वह मुझे बस स्टॉप पर मिल...