Wednesday, 7 March 2018

ऐ लड़की

एक कहानी लिख रही हूँ। अभी अधूरी है। एक किताब पढ़ रही हूँ पर आधे से भी कम पर अटकी हूँ। कई लोगों के मैसेज आए हैं उन्हें जवाब भी देने हैं। कमरे को ध्यान से देखने पर धूल की भी शिकायत नज़र आ रही है। कल भी कहीं जाना है, इसलिए रह रहकर कपड़े प्रैस करने का भी खयाल आ रहा है। बहुत व्यस्तता है। मुझे इन कामों से अक्सर ऊब नहीं होती। अच्छा लगता है कि कुछ न कुछ हमेशा बाक़ी रहता है करने के लिए। पर यह बात भी है कि इन कामों में मेरी ऊर्जा का बड़ा हिस्सा बह जाता है। थकावट होती है तब रात में नींद भी बेहतर आती है। यही टूटा-फूटा रूटीन है मेरा। हाँ, इस रूटीन में बहुत कुछ नया जुड़ता है और पुराना हटता भी है। इसमें कुछ भी खास नहीं है। इस रूटीन की ख़ासियत भी यही है कि यह ख़ास नहीं। 

लेकिन यह पोस्ट इस सिलसिले पर भी नहीं है। वास्तव में इस पोस्ट को लिखने की वजह बहुत पहले बन गई थी पर आज एक दोस्त के फोन ने ट्रिगर कर दिया कि लिख ही डालूँ। बहुत दिनों से अपने बीते जन्मदिन पर कुछ लिखना भी चाह रही थी कि हर जन्मदिन एक होते हुए भी एक सा नहीं होता, इसकी वजह क्या है? बात जब लड़कियों के जन्मदिन की आती है तब बहुत सारी चीजें बदलती और बढ़ती रहती हैं। 

लड़कियों के जन्मदिन तब तक बहुत ख़ास रहते हैं जब तक उनको पीरियड आने शुरू नहीं हो जाते। घर में इससे पहले चंकी-पंकी माहौल रहता है। घर के और बाहर के लोगों के दिमाग में बच्ची की छवि बनी रहती है। लेकिन जैसे ही माहवारी शुरू होती है। माँ समेत पिता भी सावधान की अवस्था में आ जाते हैं। इसके बाद अगर एक चार्ट पेपर भी लेने जाना हो तब छोटा भाई साथ भेजा जाता है। मुझे तो लगता है हालात अभी तक या इस पड़ाव तक नियंत्रित होते हैं। 

 

स्कूल में भी कमोबेश लड़कियों की यही दशा दिशा होती है। क्लास रूम में पढ़ने वाली छोटी लड़कियां जल्दी टीचर के नियंत्रण में आ जाती हैं। इसके लिए टीचर के लोहे का स्केल अगर टेबल पर सटाक से पड़ जाये तो वे सब शांत हो जाती हैं, अपनी झुकी कमर के साथ। उनके जवाबों के अंतराल भी थोड़े होते हैं, क्योंकि उनको जबरन चुप करवा दिया जाता है। घरों में भी सुनने वाले लोग उन्हें पूरा नहीं सुनते, इसलिए बहुत सी लड़कियों के वाक्य टूटे या फिर मरम्मत किए हुए महसूस होते हैं। यही वजह भी है कि लड़कियां ख़मोश या निजता की शिकार होती हैं। कई बार लंबी चुप्पियों की भी यही वजह होती है। लड़कियां भावों से अपनी बात अधिकतर कहने की कोशिश करती हैं। ख़ैर यह मेरा ख़याल है। मैं गलत भी हो सकती हूँ।  

क्लास रूम में यह भी देखा गया है कि छोटी बच्चियों को हर तरह की बातें सुनने को अधिक मिलती हैं। मसलन आपसी किस्सों के अलावा बढ़ते जिस्म की ऐहतियात वाली बातें जो महिला टीचर के मुंह से निकलती रहती हैं। आप कभी गौर करें तो यह भी पाएंगे कि लड़कियों की कक्षाओं में निजता का तत्व बहुत बड़ी मात्रा में पाया जाता है। दो दोस्तों की बातों के अलावा समूह की और भावी लड़की संबंधी निजता वाली बातें। जिसे लड़कियों को खूबसूरत डायरी लिखने और उसे बनाए रखने में ताउम्र देखा जा सकता है। इसके अलावा लड़कियों में वे सब लक्षण पनपते हुए देखे जा सकते हैं जो भावी औरत बनने के लिए उनमें रोपे जाते हैं। 

 

इसके विपरीत अगर छोटे लड़कों की क्लास में आप दाखिल होंगे तब एक अल्हड़, मस्त, शोर भरा कमरा आपको दिखेगा और महसूस भी होगा। एक बार पाँचवी क्लास के एक पुरुष टीचर लड़कों को पढ़ा रहे थे और कई बच्चे उनसे बीच बीच में मज़ाक भी कर रहे थे। इन मज़ाक़ों की आवृति काफी अधिक थी। दिलचस्प था कि पुरुष टीचर भी इन मज़ाक़ों में बराबर उत्साह दिखा रहे थे। ऐसे मज़ाक किसी भी महिला टीचर को अपनी क्लास में करते हुए नहीं पाया जा सकता अक्सर। अगर कोई बच्ची कुछ कह भी दे तो टीचर उसे मॉरल सफर पर ले जाती हुई पाई जाती है। 

जिन कक्षाओं में लड़की और लड़के दोनों पढ़ते हैं वहाँ एक संतुलन जरूर रहता है और लड़कियों कुछ हद तक बढ़िया माहौल मिलता है जहां वे अपने से उलट लड़कों के बारे में बेहतर जान पाती हैं। और लड़कों में लड़कियों के प्रति एक नम्र भावना को भी भाँपा जा सकता है। बहुत सी बातें इसमें जोड़ी जा सकती है। कभी शोध करने के लिए किसी ने बुलाया तो जरूर जाऊँगी फिलहाल यह तो स्कूल का छोटा सा चित्र है। 

अब आते हैं कॉलेज में। दिल्ली शहर में बहुत से कॉलेज हैं। लेकिन यह भी है कि कुछ कॉलेज लड़कियों के लिए ही हैं। मुझे नहीं मालूम इन कॉलेजों का क्या स्वाद है क्योंकि मैंने लड़कियों के कॉलेज में जाने से परहेज़ कर लिया था। जहां तक बात है सह शिक्षा की तो आज भी यहाँ एक तरह संतुलन दिख ही जाता है। जो मुझे तो बहुत अच्छा लगता है। लेकिन यहाँ भी लड़कियों में स्कूल में डाला गया लड़कीपन दिख ही जाता है। बहुत सी लड़कियां जवाब देने का मन में ही सोच कर बैठी रह जाती हैं। बोल ही नहीं पाती। 

 

कॉलेज खत्म करते करते बहुत सी लड़कियां एक से दुकेली हो जाती हैं। लड़के भी, पर उनका अनुपात कम होता है। लेकिन मास्टर करते करते बची हुई लड़कियां जिनकी शादी ग्रेजुएशन में नहीं होती, वे शादीशुदा हो जाती हैं। जब वे क्लास लेने कॉलेज आती हैं तब बालों में छुपाकर सिंदूर का बेहद हल्का टीका लगाती हैं। दिलचस्प तो यह होता है कि वे बहुत से मौकों पर इस सिंदूर को दिखाना भी चाहती हैं और बहुत से मौकों पर चाहती हैं कि किसी को पता न चले। जब ये शादीशुदा लड़कियां अपनी पुरानी दोस्तों से मिलती हैं जिनकी शादी किसी वजह से नहीं हो पाई है, को सलाह देती हैं- "सही उम्र में शादी कर लेनी चाहिए। पता है बाद में बहुत तकलीफ़ होती हैं!" भारत के कॉलेजों में दी जाने वाली शिक्षा का अंदाज़ा इसी तरह के उदाहरणों से लगाया जा सकता है। हालांकि यह सभी लड़कियों पर लागू नहीं होता। कुछ तो बदलाव है ही पर बहुत बड़ा भी नहीं है।

 

फजीहत यहाँ भी नहीं है। यह एक सेट पैटर्न है और बहुत से लोगों को यह सामान्य लगता है। उन लोगों से इसे कुबूल कर लिया है और वे इससे खुश भी हैं। फजीहत किसी लड़की के उम्र के बढ़ने के साथ जुड़ी है। यह आधी आबादी की त्रासदी में से बड़ी और दुखद त्रासदी है। जैसे ही उम्र छब्बीस या सताईस पार होती है, एक भयानक दबाव लड़की और उसके घर के लोगों पर आना शुरू हो जाता है। लड़की अगर तीस को हो जाये तो यह विपदा ही है, समझो। उसके दोस्त, जो पक्के होने का दावा करते हैं, उसके टीचर(बहुत से) उसके घर के अपने लोग उसे धिक्कार की नज़र से भी देखना शुरू कर देते हैं। लड़की में जरूर कोई ऐब होगा, इसलिए तो शादी नहीं हो रही, रंग काला है, सुंदर नहीं है, कुछ आता भी तो नहीं, बिगड़ी हुई है तो कौन करेगा...ऐसे कितने ही जुमले सुनने को मिलते हैं। 

 

उपर्युक्त से यह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि यह न दिखने वाली विपदा इतनी बड़ी है कि मैं लेनिन, पेरियार, बाबासाहेब की मूर्ति टूटने जैसी महत्वपूर्ण घटनाओं को, किताब को न पढ़कर, अपनी अधूरी कहानी को पूरा किए बिना इस पोस्ट को रात ग्यारह बजे तक लिख रही  हूँ। 

 

फिर भी मैं यह कहूँगी या फिर यह पाया है कि अगर तीस पार करके भी आपकी शादी नहीं हुई तो यह बहुत सामान्य बात है। नहीं हुई तो नहीं हुई। इस बात को बस हल्के में ही लें। एक बार करियर बन जाएगा तो ज़िंदगी आपको उन मौकों के रास्ते भी दिखाएगी जो शादी से अधिक महत्वपूर्ण हैं शायद। शादी के पड़ाव है। लक्ष्य नहीं। जब कोई मिल जाएगा तो शादी भी हो जाएगी। लेकिन खामखाँ के दबाव में लड़कियों तनाव न लो। अपने कुछ शौक विकसित करो। घूमो, फिरो, योजना बनाओ, पेंटिंग करो, लिखने का चस्का पालों, अपना एक छोटा मोटा व्यवसाय शुरू करो, ड्रेस डिज़ाइन करो...ऐसे बहुत से काम हैं जिन्हें किया जा सकता है और खुश रहा जा सकता है। एक बार अपने अंदर की रोशनी में डुबकी लगा लो। तुम्हें सब समझ आ जाएगा।   

बहुत सी बातें छूट रही हैं। विज्ञान का या गणित का सूत्र-सवाल होता तो एक समाप्ती तक पहुंचा जा सकता। लेकिन यह विषय कुछ ऐसा है कि हर बार सोचने पर कुछ अलग पहलू निकल आएंगे। मैं और सोचूँगी और लिखूँगी। फिलहाल अभी इतना ही। कुछ दिनों पहले कृष्णा सोबती द्वारा लिखी लंबी कहानी पढ़ी थी 'ऐ लड़की।' इसलिए इस पोस्ट का नाम भी यही ठीक लग रहा है।  

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फ़ोटो गूगल से साभार



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