Wednesday, 21 March 2018

हॅलो दिल्ली

मिथ- दिल्ली की लड़कियों की आवाज़ सुरीली नहीं होती!

जवाब सुनते जाइए... आइये!

उसने पूछा- "आप कहाँ की हैं?"

मैंने चौंकते हुए पूछा- "मतलब?"

उसने फिर पूछा- "मतलब आप कहाँ की रहने वाली हैं?"

मुझे इस सवाल से भी परेशानी हुई और फिर मैंने वही शब्द दोहराया- "मतलब?"

उसने इस बार साफ तरीके से सवाल पूछा- "मेरा मतलब दिल्ली की हैं या इससे बाहर?"

इस सवाल से हर बार बहुत कुफ़्त होती है। जहां बैठी हूँ वहीं की हूँ। जहां मैं नहीं हूँ, वहाँ की मैं हो ही नहीं सकती। न मैं होना चाहती हूँ। मैंने उसे थोड़ा इंतज़ार करवाते हुए जवाब दिया- "अम्म...दिल्ली की हूँ...यहीं जन्म लिया, यहीं पढ़ाई की और यहीं आगे की पढ़ाई भी जारी है।"

जवाब सुनकर उसने थोड़ा संभलते कहा- "दिल्ली की लड़कियां आपकी तरह बहुत धीमे धीमे नहीं बोलती। उनकी आवाज़ सुरीली नहीं होती जैसी आपकी है। मुझे लगा आप कहीं और की रहने वाली हैं।"

मुझे उसकी यह बात सुनकर एक पल को लगा कि कोई कड़वाहट मुंह में जबरन घुल गई है। मन में एक लहर उठने लगी कि लोगों ने ऐसे विचार आखिर कहाँ से अपने मन में ट्यूनिंग के साथ जमा लिए हैं कि फलां लोग यहाँ के ऐसे होते हैं तो फलां लोग वैसे होते हैं। लोग, लोग जैसे क्यों नहीं होते। पिछले दिनों मार्केज़ के लिखे उपन्यास को पढ़ते हुए उस पंक्ति पर रुक गई जिसमें लिखा था कि व्यक्ति जहां मरता है वही जगह उसकी हो जाती है। घर आकार मैं देर तक यही सोचती रही कि मैं कहाँ मरूँगी? क्या यहीं इसी शहर में? या फिर तक़दीर कहीं और ले जाएगी?...ऐसे सवाल मन में चल ही रहे थे तब मन में सुरीली आवाज़ का ज़िक्र आया। 

मुझे यह तारीफ़ कतई नहीं लगी। लगी तो बेइज्जती ही। हर जगह हर तरह के लोग होते हैं। जैसी जलवायु-जमीन वैसी ही उनकी बनावट। लेकिन क्योंकि इंसान पेड़ नहीं है तो वह एक जगह नहीं रहता अपनी जिंदगी के चक्र में उसने हर तरह के रिश्ते क़ायम किए हैं। इसलिए शरीर की बनावट में फर्क आ ही जाते हैं। और ये अंतर स्वाभाविक ही हैं। ये हर तरह के भी है।अब दिल्ली विषय पर आते हैं। यहा...देश की राजधानी में हर तरह के लोग रहते हैं और यह सिलसिला अभी भी चल रहा है और मुझे हाल के वर्षों में ऐसा नहीं लगता कि थमेगा भी। हर रोज़ बहुत से लोग आते हैं और यहीं के हो जाते हैं। 

 

                                Robert Farquhar- The Bohemian Village Voice

जिसकी जहां मर्ज़ी वहीं घर बसाये। सबको हक़ है। रोटी की तलाश मेरे पिताजी को दिल्ली के आपातकालीन वर्षों में ले आई थी और तब से उन्हों ने और दिल्ली से जितना लिया उतना ही लौटाया भी। बहुत सालों से सभ्य नागरिक बने हुए हैं यही क्या कम बात है! इसके बाद मेरी बारी आई। मैंने जब से अपना होश संभाला यहीं की गलियों में खुद को पाया। मुझे यह नहीं बताया गया कि तुम फलां राज्य की हो, न मेरे टीचर ने कभी मुझे यह कहकर पढ़ाया कि तुम फलां राज्य से ताल्लुक रखती हो...और न ही उन्हों ने यह बताया कि आप दिल्ली की हो तो कैसा बर्ताव करोगी...उन्हों ने यही कहा कि हम जिस देश में रहते हैं वह भारत है और तुम भारतीय हो। बस्स! किसी ने भी यह नहीं सिखाया की दिल्ली  के लोग सुरीले नहीं होते तो दिल्ली के लोग ऐसे नहीं वैसे होते हैं.. !

इतने साल हो गए हैं मुझे इस शहर में सांस लेते लेते कि अब कहीं और के शहर की शुद्ध हवा में भी मुझे दमे जैसी फीलिंग आने लगती है। मेरा मन एक या दो दिन के बाद अपने ही घर और शहर में लौट आने का करता है। हाँ घंटों सड़कों में बस में बैठी रह जाती हूँ। जी भर के इस शहर को खरी खोटी भी सुनाती हूँ...फिर भी अगले दिन तैयार हो जाती हूँ कि मुझे जाना है। 

इसलिए लोगों के मासूम सवाल भी मुझे कभी कभी चुभ जाते हैं। उनको मेरी आवाज़ से प्यार नहीं बल्कि यह सवाल है कि यह इतनी उत्तेजित क्यों नहीं है? क्यों वॉल्यूम इतना नीचे हैं? बोलने में मैं इतना समय क्यों ले लेती? ऐसे दिल्ली वाले नहीं बात करते...उनके लिए यह जवाब है कि जनाबे आली ...दिल्ली की लड़कियों की आवाज़ हर तरह की है। वक़्त पर मद्धम, कभी तेज़, कभी खामोशी, कभी गीत, कभी ग़ज़ल, कभी चिल्लाहट, कभी बेलगाम हंसी, कभी फूहड़-भौंडी, कभी खिलंदड़, कभी शोर और कभी सिसकी...हर तरह की है। क्यों एक एक फ्रेम वाला कैमरा लेकर फिरती/फिरते हो?



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