भले ही यह सच है कि इस दुनिया में सब कुछ बदलने के वरदान और श्राप से युक्त है पर फिर भी हम सब में कुछ ऐसे लक्षण हैं जो हम सब को एक ही बनाते हैं। हाँ, मैं इनमें जानवर जगत से लेकर हर किस्म की जाति को भी गिन रही हूँ। हम आज जिस 21वीं सदी में जी रहे हैं यह एक पड़ाव है। लेकिन इस पड़ाव तक आने में हमारे पूर्वजों के सभी तरह के संघर्ष का बेहतरीन इतिहास है। इस संघर्ष में मुझे नहीं लगता कि उन्हों ने शिकायतों की सूची बनाई होगी। क्योंकि उनके पास ज़िंदगी थी और उसे जंगल और जानवरों के बीच जीने की गतिशील कोशिश थी। आज मैं और आप बेंतहा शिकायतों में ही लिपटे हैं, जबकि हमारे पास वह सब है जो ज़िंदगी को बेहतर बनाते हैं...फिर चाहे वे साधन हों या फिर हमारे रिश्ते।
इसलिए ज़रा अपने दिमाग पर ज़ोर डालिए कि हमारे शुरुआती दौर के मानव और मानवी कैसे रहे होंगे और उनकी अवस्था कैसी रही होगी? जब उन्हें आग और नियंत्रित आग की खबर नहीं होगी तब उनका जीवन जंगल में घर के बगैर कैसा होगा? क्या वे भी रात दिन, मौसम, सुरज, सितारे, चाँद, आसमान देख कर अचरज करते होंगे? हैरान हुए होंगे? क्या कौतूहल हम इन्सानों में विरासत में प्राप्त वह बेहतरीन भाव है जिसे हम मशीनों के जमाने में भूलते जा रहे हैं?
आज जब मैं हैरानी जैसे शब्द को सोच रही हूँ तब अपने घर में खेलते बच्चों में ही उसकी उपस्थिति समझ पाती हूँ। हाँ, बच्चों में अभी तक इसकी अच्छी और बड़ी मात्रा मौजूद हैं। यह राहत वाली बात है। हैरानी से चीज़ों के बारे में जानने और देखने से एक सोचने समझने की अंदरूनी प्रक्रिया की शुरूआत होती है। एक अंतर्दृष्टि की क्षमता विकसित होती है जिसका होना ज़रूरी है। जिसे मैं और आप कॉमन सेंस कहकर छोड़ देते हैं वास्तव में वहीं से अंतर्दृष्टि के धागे जुड़े हैं।
दुनिया को बाहर से जरूर देखा, सुना, महसूस, सूंघा आदि जा सकता है पर अंतिम निर्णय इंद्रियों की मदद से अंतर्दृष्टि के माध्यम से विकसित कर एक मुकाम पर पहुंचाया जा सकता है। इस क्षेत्र के तार आज के समय में जरूर दर्शन से जुड़े हैं पर अगर हम वर्ग विभाजन न भी करें तो हर व्यक्ति अपने नज़रिये को एक ठहराव के साथ आगे बढ़ा सकता है। इसमें अमीरी गरीबी की बात नहीं। वास्तव में प्रकृति ने आपको बराबर ही बनाया है। यह तो कृत्रिम समाज आपको बताता है कि आप किस काबिल हैं और किस काबिल नहीं!
हमारे दौर में जिस तरह का तनाव दिखता है वास्तव में वह हमारे तुरंत और त्वरित एक्शन का नतीजा भी है। हमें बचपन से कुछ पाने की इच्छा के साथ बड़ा किया जाता है। प्रकृति को न जानकार हम देशों के बार्डर की पढ़ाई में उलझाए जाते हैं। पर सच तो यह है कि कुदरत ने किसी भी सीमा रेखा को नहीं खींचा। इसलिए कभी कभी मुझे लगता है कि इंसान होने की हैसियत से हमें कम से कम दुबारा पीछे मुड़कर देखना चाहिए। खुद को जानना चाहिए साथ ही साथ इस महान प्रकृति को भी।
संस्कृति और सभ्यता के पड़ाव में वे जातियाँ जरूर क्रूर रही होंगी जिन्हों ने आदमी में फ़र्क किया होगा। यह उस सभ्यता का सबसे बड़ा पाप माना जाना चाहिए जिसने जाति जैसे शब्द को क्रूरता से अपनाया और प्रकृति के उस एकत्व तत्व के नियम की अनदेखी की। यह सभ्यताओं में उनके सोच के दायरे की घिसने की निशानी है।दर्शन का विषय आज भी स्कूल के स्लेबस में नहीं है। इसके पीछे वही वजह है एक तबके को निरंतर झुकाये रखने की साज़िश। वास्तव में दर्शन की पढ़ाई सभी को एक धरातल पर बिठाती है और प्रकृति के नियम समझाती है। इसलिए खुद से दर्शन की किताब खरीदिए और पढ़िये। खासतौर से यूनान के दर्शनिकों को पढ़िये। वे अपने सिद्धांतों में एक तत्व के होने की बात करते हैं। वे बहुत सी बात भी करते हैं जो हो सकता है हमें ठीक नहीं लगे। लेकिन उन्हें छोड़ कर दूसरी बातों को समझने की कोशिश की जा सकती है। यह बहुत जरूरी है कि आप खुद से जानें और सोचें भी।
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फोटो सौजन्य गूगल
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