कल शाम मैं एक चीनी कहानी 'मेंढक' पढ़ रही थी जिसे 'मो चान' ने लिखा है. कहानी ज़्यादा बड़ी नहीं थी फिर भी मैंने उसे पढ़ने में ज़्यादा वक़्त ले लिया था. मेरे पिता बीच बीच में कुछ पूछ भी रहे थे, जिसे मैंने हाँ और न के साथ उन्हें जवाब दिया. मुझे अंदर से बेहद अच्छा लग रहा था. मेरी शाम जो रात की तरफ़ बढ़ती है अक्सर कुछ ऐसी ही होती हैं. एक बार घर लौट आने के बाद मैं वापस कहीं नहीं जाती. कॉलेज से पढ़ा आने के बाद, रविवार मेरे लिए बाक़ी दिनों की तरह अच्छा ही बीतता है. मुझे कुछ देर के लिए बेहतर नींद भी आ जाती है. नींद में सोच कुछ देर के लिए रूक भी जाती है. जाती हुई सर्दियों की नींद में कुछ ख़ास होता है. जैसे वो सपने में अपना सामान बाँध रही हो अगले बरस फिर आने के लिए.
मैंने कहानी जब पूरी की, तब मुझे एक भारी और लगातार शोर की आवाज़ आनी शुरू हुई. मैंने तुरंत अपने पिता से कहा- "पापा, कहीं से अजीब सा शोर आ रहा है." उन्होंने कहा- "किसी के घर कुछ प्रोग्राम होगा. आजकल सभी के यहाँ कुछ न कुछ होता रहता है या फिर बच्चे शोर कर रहे होंगे." लेकिन मुझे वो शोर बच्चों के शोर से अलग महसूस हुआ साथ ही कड़वा सा लगा. मैं दौड़ कर छत पर गई. सच में एक भयानक शोर हो रहा था. कुछ सेकंड के लिए मैं सुन्न हो गई. लोगों की भिन्नभिनाहट से जो आवाज़ कानों ने छांट कर ली थी- "दरवाजे जल्दी बंद करो. वो आ गए हैं...वो आ गए हैं...सब घर में घुस जाओ." ...इसी बीच नीचे से मेरी एक मासूम रिश्तेदार ने कहा, "ये रख लो वो रख लो...जल्दी करो. बहुत शोर हो रहा है बाहर गली में..." इतने में मेरे घर में आये दो बच्चे तेज़ी से रोने लगे...उनमें से एक रोते हुए कहने लगी- "पापा के पास जाना है..." और मैं वहीं खड़ी रही. जैसे मंदिर का भगवान अपनी जगह से नहीं हिलता वैसे ही मैंने भी किया.
मेरे पिता ने मेरा घरेलू नाम लिया और तब मुझे कुछ होश आया. नीचे आते ही घर के मुख्य दरवाजे और बच्चों को समेटने के लिए भागी. मेरे पिता बाहर हालात का जायजा लेने गए थे...इस बीच माँ ने जो किया उसे देखकर और सोचकर हिम्मत आई. वो बिलकुल नहीं घबराई थी. उन्होंने कहा- "आने दो उन्हें!" हालाँकि उस वक़्त मैंने इस पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया और बच्चों को चिपकाए इधर से उधर घूम रही थी. जब वो शांत हुए तब पापा, पापा चिल्लाने लगी. "घर में आओ... जल्दी आओ..."
वास्तव में हम सभी लोग एक अफवाह के शिकार हो गए थे. घबराने वाली कोई बात नहीं थी. बहुत दिनों बाद मैं गली में खड़ी थी और हर भागने और दौड़ने वालों को घूर रही थी. मुझे सब चेहरे नए से लगे. हर आदमी नया सा लगा. कोई भी बच्चा पहचान में नहीं आया कि किसका है. इसी जगह पर रहते हुए इतने साल हो गए और मेरी ये हालत थी कि मैं लोगों को पहचान भी नहीं पा रही थी. अगर वास्तव में कुछ घटना घट ही जाती तो मैं क्या करती? मैंने किताबों में कुछ इस क़द्र अपनी दुनिया बसा ली है कि मुझे, मैं और मेरे कुछ लोग ही समझ आते हैं. बाक़ी की मुझे कोई सुध-बुध नहीं रहती. कई बार क़िताब भी नहीं पढ़ती, कई दिन हो जाते हैं. उस दौरान फ़िल्म देखती हूँ और सपने की बुनाई करती हूँ. कल मेरे दो विदेशी दोस्तों का तुरंत मैसेज आया और उनमें से एक ने कहा कि मैं प्रार्थना कर रही हूँ तुम्हारे लिए. वो अक्सर मेरे लिए बहुत सी प्रार्थना करती है और मैं उसे स्माइल भेजती हूँ. मैं कुछ नहीं कहती. मुझे भगवान जैसी चीज और सोच या तो परेशां करती है या डरा देती है. लेकिन कई बार मैं सिर ऊपर कर लेती हूँ जैसे कोई मुझे सुन रहा है. फिर क्या कहती हूँ उसकी याद नहीं. दूसरी दोस्त ने मिलने की इच्छा जाहिर की. हम काफ़ी दिनों के अन्तराल में मिल लेते हैं और बहुत कुछ बाँट लेते हैं. इसके बाद मैं कुछ ठीक सी हो जाती हूँ.
फिर मेरी कॉलेज की दोस्त का मैसेज आया. वही सब दोहराया गया...मैं ठीक हूँ. फिर व्हाट्स एप कॉल पर किसी से बात हुई. बातें होती रहीं...मैंने फिर दोहराया मैं ठीक हूँ...मैंने सभी को कहा मैं ठीक हूँ...मुझे इस बात पर खुश होना चाहिए था कि मेरे पास ऐसे लोगों का गुच्छा है जो मेरी इस वक़्त ख़बर ले रहा है. लेकिन मुझे कोई ख़ुशी नहीं हुई...मुझे हैरानी इस बात पर हो रही थी कि मैं कब और कैसे ठीक नहीं थी और मैं कब और कैसे ठीक हो गई...मुझे फिर एक कहानी याद आई जो हाल फ़िलहाल पढ़ी थी...(ऐसे मौके पर कहानी या कुछ भी याद आता रहती है...)
कहानी मार्गरेट एटवुड की 'हैपी एंडिंग' थी. बेहद खूबसूरत और प्रभावी कहानी है. कहानी कहने की शैली के चलते ये शानदार कहानी है. कहानी में उन्होंने बताया है कि हमारा अंत एक ही होता है. ख़ुद उनके शब्दों में-"अंत को आप किसी भी तरह से तराश कर देखें, वे एक जैसे होते हैं." मैंने फिर इस बात को अपने अंदर दोहराया. अंत एक ही हो सकता है. कहीं मेरी माँ ने मुझसे पहले ये कहानी तो नहीं पढ़ ली थी? लेकिन ऐसा हो नहीं सकता. वो तो पढ़ना ही नहीं जानती. लेकिन फिर भी कुछ तो जानती है. वो ख़ाली तो नहीं हैं न!
फिर लगभग पूरी रात मैंने किससे क्या बातें कीं मुझे याद है लेकिन फिर भी कुछ भूलती गई. पूरी रात मैंने ख़ुद को और उसने मुझे महज ये समझाने और एहसास में पिरो देने में लगाई- "कुछ नहीं होगा. ख़ाली अफवाह थी. तुम सो जाओ..." मैंने बदले में कहा- "मुझे नींद नहीं आ रही. आँखें बंद करने पर शोर सुनाई दे रहा है...मुझे कुछ हो गया तो...!" मैं कितनी महान डरपोक हूँ. पूर्वी दिल्ली में जो हुआ उसके मुकाबले मुझे तो हवा ने भी नहीं छुआ था. उनका तो सब कुछ तबाह हो गया. उनकी जान चली गई. लोगों ने हिंसा को अपने ऊपर झेला है सहा है...भयंकर अत्याचार हुआ...और मुझे क्या हुआ?...कुछ भी नहीं! मैं तो ठीक हूँ.
मैंने उसी दिन अपनी चिंता कुछ समझदार लोगों के बीच रखनी शुरू कर दी थी जब झुंड बनाकर इंसान को मारा गया था. मुझे अंदर तकलीफ हुई थी. मैंने बार बार और कई मर्तबा कहा था कि ये सब ग़लत है और रास्ता भयानक होगा. लेकिन उन समझदार लोगों में से एक दो ने मुझे कहा- "तुम चुप रहो. तुम्हें क्या? दूसरी सरकार का भी देखो...क्या किया है उन्होंने?" किसी दूसरे ने कहा- "कुछ मत बोलो ज्योति...कहीं तुम्हें कुछ हो गया तो?" लेकिन दिलचस्प है कि मुझे वो 'कुछ' नहीं हुआ. मुझे कल भी कुछ नहीं हुआ. इसका सबूत यह है कि मैं यह पोस्ट लिख रही हूँ. एक सेल्फ थेरपी कर रही हूँ. जैसे बैरी जॉन को लगता है कि थिएटर एक थेरपी है वैसे मुझे लगाता है कि लिखना एक थेरपी है. बैरी जॉन वही हैं जिनके स्कूल में शाहरुख़ खान ने एक्टिंग की क्लासेज ली हुई हैं. लेकिन आजकल तो वो बादशाह भी कुछ नहीं बोलता! मेरी तरह! हम दोनों ही ठीक हैं.
लेकिन मेरे न बोलने और कुछ न करने के बावजूद मैं तो ठीक हूँ. मुझे कुछ भी नहीं हुआ. यह ठीक होना क्या वास्तव में ठीक है? अब मुझे यही सवाल परेशां कर देता है...आज के वक़्त में ठीक वही हैं जो चुप्पी को चुन रहे हैं. चुप्पी तो कब्रवालों की भी निशानी है. तो मैं क्या उन्हीं जैसी ठीक हूँ? हाँ, शायद!
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Painting: B. Prabha (1933-2001)
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