'तुम आराम से क्यों नहीं बैठती हो? कहानियाँ सुनना आराम से होता है...रुककर। और एक तुम हो कि भागने के मूड में रहती हो।'
मैंने झिझकते हुए कहा- 'ऐसी तो बात नहीं है। शाम काफी ढल गई है। तो बस समझिए कि माँ का फोन आता ही होगा। आपको नहीं पता मैं घर न पहुंचूँ तो उनकी जान बाहर को आने लगती है।'
'चली जाना। चाय पीकर।' उन्होने बराबर हक़ जमाते हुए कहा। मैंने इसके बाद कुछ नहीं कहा। मैं घर लौटी तो उनकी कहानी साथ लेकर आई। उन्होने कुछ सुनाया जो दिमाग में अटक गया था। लिखने की कोशिश करती हूँ। उनका नाम लेने का मन नहीं। हालांकि इजाज़त ले चुकी हूँ।
ओम प्रकाश बाल्मीकी की आत्मकथा का वह हिस्सा याद आ रहा है जिसमें एक लड़की को उनकी जाति के बारे में पता चलता है और प्यार रफ्फ़ू चक्कर हो जाता है। ऐसा ही कुछ प्यार इन मोहतरमा का था। मोहतरमा तथकथित जाति में निम्न थीं और इनका प्रेमी भारद्वाज था। शुरूआत में प्रेम , प्रेम ही रहा। लेकिन पहली उत्साही मुलाकात से जैसे सब मर गया। भारत देश में प्रेम सबसे पहले जाति, रंग रूप और पैसा देखकर तौला जाता है। शायद बाकी देशों में भी ऐसे ही मापक जरूर होते होंगे। मैं कभी बाहर नहीं गई। खैर विषय यह भी तो नहीं है।
उन्होने मुझे बताया-
मेरी उम्र यही 21 के आसपास होगी। फेसबुक दस्तक दे चुका था। लोग ऑर्कुट से बाहर आकर एफ़बी पर अपना खाता खोल रहे थे। घर में हमारे पास कंप्यूटर नहीं था इसलिए हम अब भी इस तरह की साइट्स से दूर थे। लेकिन बड़े भईया कॉमर्स की पढ़ाई कर रहे थे और कॉलेज में कंप्यूटर भी विषय के रूप में ले लिया था इसलिए घर में पिताजी ने उनकी ही खुशी और पढ़ाई लिखाई का ध्यान रखते हुए एक कंप्यूटर खरीद लिया। हम दो बहनों को उसके पास फटकने की भी मनाही थी। छोटी वाली तो अल्हड़ थी सो वो बाहर घूमने में जी लगा लिया करती थी। मैं बड़ी थी सो घर में काम में मन लगा लेती थी। आते जाते भाई के कमरे में कंप्यूटर दिखता तो जी करता कि एक दफा देख लूँ... यह है क्या जो टीवी की तरह दिखता है। लेकिन यह तो वह मशीन थी जिसका दरवाज़ा दुनिया में खुलता था।
पर कभी हिम्मत नहीं हुई। एक रोज़ भाई से पूछा तो बोले चलो खुद से देख लो। जबरन ले गए और बताने लगे कि तुम अब क्या क्या कर सकते हो सिर्फ इस कंप्यूटर से। कुछ दिनों बाद उन्होने खुद मेरा एफ़बी अकाउंट भी खोल दिया। खुद से ही कुछ लोगों को फ्रेंड रिक्वेस्ट भी भेज दी। मेरी लिए उस समय एफ़बी एक ऐसी दुनिया बन गया था जिसका रास्ता सीधे वंडरलैंड जाता था। हालांकि लोग उसे बुरा कहते थे। यह बुरी और खराब चीज है। लड़कियों को इससे दूर रहना चाहिए। पर चस्का नाम की भी तो कोई चीज होती है। आदमी को भी कई चस्के हैं। सो अगर एक लड़की या औरत को लग गया तो क्या हो गया। बिग बैंग का धमाका तो नहीं हो जाएगा फिर से! हो जाये...मेरी बला से...मैं उस समय ऐसा ही सोचती थी। शायद आज भी।
एफ़बी पर मेरी किसी से बात हुई जिनके नाम के पीछे भारद्वाज लगता था। लड़का खूब गोरा था। नैन नक्श उतने तीखे नहीं थे जैसे मेरे थे। हल्की हल्की बातें शुरू हुईं और बात एफ़बी से आगे बढ़ गई। या यूं कहूँ कि हमने मिलने का फैसला किया। हालांकि मैं खुद को बहुत चालाक समझती थी सो लड़के को अपने एरिया के आसपास ही बुलाया। वह राजी था। मैं भी राजी थी।
रेगिस्तान को तो प्यास की तलाश होती है और सूखे दिल को प्यार की। मुझे लग रहा था कि तलाश खत्म हो गई है। अब जैसे तैसे घर में बात चलाई जाएगी और मामला सेट किया जाएगा। कोई न माने तो मैं भागने में भी झिझकूंगी नहीं। मेरे लिए यह मेरा क्रांतिकारी व्यक्तित्व था। मुझे इतने अरसे से यह भी नहीं मालूम था कि मैं इतना बड़ा कुछ धमाकेदार भी सोच सकती हूँ।
हम जिस रोज़ मिले, वो तारीख मुझे याद नहीं है। मैं कॉलेज के अंतिम साल में थी। वह लड़का शायद किसी अंतर्राष्ट्रीय कॉल सेंटर में काम करता था। मैं इतने हद तक खुश रहती थी कि घर बसाने के अच्छे खयाल सेट कर चुकी थी। यह शानदार अनुभव था। ऐसा मुझे आज भी लगता है। ख़ैर हम मिले। वो फोटो से भी ज्यादा दूध सा सफ़ेद था। मेरा रंग ऐसा नहीं था। गहरे में भी गहरा। शायद यही वजह थी कि वो बोला- 'अरे यार!...तुम तो फोटो से बहुत अलग हो!..' मैंने कुछ नहीं कहा और सिर्फ एक मुस्कुराहट बाहर रख दी। ...इसके बाद हम बैठने की जगह खोजने में लग गए। निगोड़ी गर्मी ऐसी थी कि सभी एसी और छायादार जगहें भरी पड़ी थीं। हमें कहीं भी कोई जगह नहीं मिल रही थी। आखिर में एक पार्क मिला जहां हम कुछ देर बैठे।
पार्क खाली ही था। क्योंकि उसके ज़्यादातर हिस्से में धूप थी। इक्का दुक्का लोग ही दिख रहे थे और वे भी शायद उसकी देख रेख करने वाले लोग थे। उन्होने हम पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया यह मेरे लिए सुकून की बात थी। उसके लिए कोई मतलब नहीं था क्योंकि वह इस इलाके से था ही नहीं। अक्सर लड़कियों के अपने इलाक़े में किसी लड़के साथ घूमना उनकी अच्छी ख़ासी पिटाई का विषय बन जाता है। इस खयाल से मुझे थोड़ी घबराहट थी पर इश्क़ जिसे हुआ वह निर्भीक न हुआ तो क्या खाक हुआ! यही मैं थी उस समय।
हम बैठे थे और गर्मी से परेशान पानी के घूंट अपने अंदर ले रहे थे। कुछ देर बाद पेड़ की छाया और हवा से हमें राहत मिल गई जिससे हम अपनी बात कुछ आगे बढ़ा सके।
मैंने उसे आँखें गढ़ा कर देखा। ऊपर से नीचे। उसने अपने सीधे हाथ की सभी उंगलियों में रंग बिरंगी (पत्थर वाली) अंगूठियाँ पहनी थीं। बाएँ हाथ पर ध्यान नहीं दे पाई। मैंने मज़ाक के लहजे में उसे कहा- 'कहाँ से डकैती की है इन अंगूठियों की? इतनी सारी भी कोई अंगूठियाँ पहनता है भला। उसे मेरा यह मज़ाक बिलकुल अच्छा नहीं लगा। गंभीर होते हुए बोला- 'अपनी माँ की खातिर पहनता हूँ। उनका इन सब बातों पर बहुत विश्वास है। दिल रखने के लिए करना पड़ता है।' ...मैंने हम्म में बात अटपटी होते हुए भी पी ली।
उसने आगे अपने पिता और मामा का ज़िक्र भी किया। उसका यह कहना था कि पिता तो बहुत ही अच्छे हैं और जात-पात में यकीन नहीं रखते। मैंने पलटते हुए पूछा- 'और रंग के बारे में उनके क्या ख़याल हैं?' उसने सवाल झेंपते हुए टाल दिया। वह आगे बोला- 'मुझे तो तुम पसंद हो, पर माँ तुम्हें कभी नहीं अपनाएगी। पक्की पंडिताइन है। उस पर भी वह मामाजी के वश में रहती है। पापा भी तुम्हें अपना लेंगे। पर माँ कभी नहीं मानेगी। कहीं अपने को कुछ कर न बैठे!'
मेरा दिल टूटा जैसे किसी भी माशूका का टूट जाता है। इतनी तेज़ आवाज़ हुई कि घूमकर मुझमें ही दफ्न हो गई। पर अपनी आँखों से आंसुओं को गिरने नहीं दिया। मुझे पता था कि भारद्वाज माँ की आड़ ले रहे हैं शायद। एक औरत पर बंदूक भी चलाई जा रही वह भी किसी दूसरी औरत के कंधे पर रखकर। मुझे वह उसी समय दिल से उतरता हुआ महसूस हुआ। मुझे अपने आकर्षण के झीने पर्दे फटते हुए दिखाई दिये। भारत और उसके देश की व्यवस्था की गहराई से उसी दिन खबर हुई। जाति, रंग, रुतबा, भाषा, अमीरी आदि इश्क़ में बहुत मायने रखते हैं।
मुझे एक बात और समझ आई इस सब हादसे के पीछे। मैं और मेरा माहौल इस तरह का था जिससे मुझे शायद जल्दी आकर्षण हो गया। अगर मेरी परवरिश में मुझमें लड़कों के साथ लिखने पढ़ने की संगत और बराबरी का माहौल मिला होता तो शायद भारद्वाज जी को बेहतर जवाब दे पाती। यही अच्छी परवरिश उन्हें मिली होती तो वह मुझे वास्तव में प्यार कर पाते। उनके मन में जात को डालने वाले उनके कट्टर माँ और मामा थे। मुझे एकांत, सहमी और बंदकोश देने वाले मेरे घर के लोग। कहीं मायनों में भैया को देखकर सुकून हुआ कि वह नए जमाने के साथ थे और चाहते थे कि उनकी बहनें बाहर की दुनिया को जानें भी।
(उनकी कहानी बहुत लंबी थी। मैंने बहुत छोटे में इसे लिखा है। जो भी प्रभाव यदि आप लोगों पर पढ़कर हुआ तो वह उनका होगा। जो भी गलत या जल्दबाज़ी महसूस होगी उसका ज़िम्मा मेरा। और भी कहानियाँ लाती रहूँगी। साथ ही रहिए। फोटो गूगल से आभार सहित।)
मैंने झिझकते हुए कहा- 'ऐसी तो बात नहीं है। शाम काफी ढल गई है। तो बस समझिए कि माँ का फोन आता ही होगा। आपको नहीं पता मैं घर न पहुंचूँ तो उनकी जान बाहर को आने लगती है।'
'चली जाना। चाय पीकर।' उन्होने बराबर हक़ जमाते हुए कहा। मैंने इसके बाद कुछ नहीं कहा। मैं घर लौटी तो उनकी कहानी साथ लेकर आई। उन्होने कुछ सुनाया जो दिमाग में अटक गया था। लिखने की कोशिश करती हूँ। उनका नाम लेने का मन नहीं। हालांकि इजाज़त ले चुकी हूँ।
ओम प्रकाश बाल्मीकी की आत्मकथा का वह हिस्सा याद आ रहा है जिसमें एक लड़की को उनकी जाति के बारे में पता चलता है और प्यार रफ्फ़ू चक्कर हो जाता है। ऐसा ही कुछ प्यार इन मोहतरमा का था। मोहतरमा तथकथित जाति में निम्न थीं और इनका प्रेमी भारद्वाज था। शुरूआत में प्रेम , प्रेम ही रहा। लेकिन पहली उत्साही मुलाकात से जैसे सब मर गया। भारत देश में प्रेम सबसे पहले जाति, रंग रूप और पैसा देखकर तौला जाता है। शायद बाकी देशों में भी ऐसे ही मापक जरूर होते होंगे। मैं कभी बाहर नहीं गई। खैर विषय यह भी तो नहीं है।
उन्होने मुझे बताया-
मेरी उम्र यही 21 के आसपास होगी। फेसबुक दस्तक दे चुका था। लोग ऑर्कुट से बाहर आकर एफ़बी पर अपना खाता खोल रहे थे। घर में हमारे पास कंप्यूटर नहीं था इसलिए हम अब भी इस तरह की साइट्स से दूर थे। लेकिन बड़े भईया कॉमर्स की पढ़ाई कर रहे थे और कॉलेज में कंप्यूटर भी विषय के रूप में ले लिया था इसलिए घर में पिताजी ने उनकी ही खुशी और पढ़ाई लिखाई का ध्यान रखते हुए एक कंप्यूटर खरीद लिया। हम दो बहनों को उसके पास फटकने की भी मनाही थी। छोटी वाली तो अल्हड़ थी सो वो बाहर घूमने में जी लगा लिया करती थी। मैं बड़ी थी सो घर में काम में मन लगा लेती थी। आते जाते भाई के कमरे में कंप्यूटर दिखता तो जी करता कि एक दफा देख लूँ... यह है क्या जो टीवी की तरह दिखता है। लेकिन यह तो वह मशीन थी जिसका दरवाज़ा दुनिया में खुलता था।
पर कभी हिम्मत नहीं हुई। एक रोज़ भाई से पूछा तो बोले चलो खुद से देख लो। जबरन ले गए और बताने लगे कि तुम अब क्या क्या कर सकते हो सिर्फ इस कंप्यूटर से। कुछ दिनों बाद उन्होने खुद मेरा एफ़बी अकाउंट भी खोल दिया। खुद से ही कुछ लोगों को फ्रेंड रिक्वेस्ट भी भेज दी। मेरी लिए उस समय एफ़बी एक ऐसी दुनिया बन गया था जिसका रास्ता सीधे वंडरलैंड जाता था। हालांकि लोग उसे बुरा कहते थे। यह बुरी और खराब चीज है। लड़कियों को इससे दूर रहना चाहिए। पर चस्का नाम की भी तो कोई चीज होती है। आदमी को भी कई चस्के हैं। सो अगर एक लड़की या औरत को लग गया तो क्या हो गया। बिग बैंग का धमाका तो नहीं हो जाएगा फिर से! हो जाये...मेरी बला से...मैं उस समय ऐसा ही सोचती थी। शायद आज भी।
एफ़बी पर मेरी किसी से बात हुई जिनके नाम के पीछे भारद्वाज लगता था। लड़का खूब गोरा था। नैन नक्श उतने तीखे नहीं थे जैसे मेरे थे। हल्की हल्की बातें शुरू हुईं और बात एफ़बी से आगे बढ़ गई। या यूं कहूँ कि हमने मिलने का फैसला किया। हालांकि मैं खुद को बहुत चालाक समझती थी सो लड़के को अपने एरिया के आसपास ही बुलाया। वह राजी था। मैं भी राजी थी।
रेगिस्तान को तो प्यास की तलाश होती है और सूखे दिल को प्यार की। मुझे लग रहा था कि तलाश खत्म हो गई है। अब जैसे तैसे घर में बात चलाई जाएगी और मामला सेट किया जाएगा। कोई न माने तो मैं भागने में भी झिझकूंगी नहीं। मेरे लिए यह मेरा क्रांतिकारी व्यक्तित्व था। मुझे इतने अरसे से यह भी नहीं मालूम था कि मैं इतना बड़ा कुछ धमाकेदार भी सोच सकती हूँ।
हम जिस रोज़ मिले, वो तारीख मुझे याद नहीं है। मैं कॉलेज के अंतिम साल में थी। वह लड़का शायद किसी अंतर्राष्ट्रीय कॉल सेंटर में काम करता था। मैं इतने हद तक खुश रहती थी कि घर बसाने के अच्छे खयाल सेट कर चुकी थी। यह शानदार अनुभव था। ऐसा मुझे आज भी लगता है। ख़ैर हम मिले। वो फोटो से भी ज्यादा दूध सा सफ़ेद था। मेरा रंग ऐसा नहीं था। गहरे में भी गहरा। शायद यही वजह थी कि वो बोला- 'अरे यार!...तुम तो फोटो से बहुत अलग हो!..' मैंने कुछ नहीं कहा और सिर्फ एक मुस्कुराहट बाहर रख दी। ...इसके बाद हम बैठने की जगह खोजने में लग गए। निगोड़ी गर्मी ऐसी थी कि सभी एसी और छायादार जगहें भरी पड़ी थीं। हमें कहीं भी कोई जगह नहीं मिल रही थी। आखिर में एक पार्क मिला जहां हम कुछ देर बैठे।
पार्क खाली ही था। क्योंकि उसके ज़्यादातर हिस्से में धूप थी। इक्का दुक्का लोग ही दिख रहे थे और वे भी शायद उसकी देख रेख करने वाले लोग थे। उन्होने हम पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया यह मेरे लिए सुकून की बात थी। उसके लिए कोई मतलब नहीं था क्योंकि वह इस इलाके से था ही नहीं। अक्सर लड़कियों के अपने इलाक़े में किसी लड़के साथ घूमना उनकी अच्छी ख़ासी पिटाई का विषय बन जाता है। इस खयाल से मुझे थोड़ी घबराहट थी पर इश्क़ जिसे हुआ वह निर्भीक न हुआ तो क्या खाक हुआ! यही मैं थी उस समय।
हम बैठे थे और गर्मी से परेशान पानी के घूंट अपने अंदर ले रहे थे। कुछ देर बाद पेड़ की छाया और हवा से हमें राहत मिल गई जिससे हम अपनी बात कुछ आगे बढ़ा सके।
मैंने उसे आँखें गढ़ा कर देखा। ऊपर से नीचे। उसने अपने सीधे हाथ की सभी उंगलियों में रंग बिरंगी (पत्थर वाली) अंगूठियाँ पहनी थीं। बाएँ हाथ पर ध्यान नहीं दे पाई। मैंने मज़ाक के लहजे में उसे कहा- 'कहाँ से डकैती की है इन अंगूठियों की? इतनी सारी भी कोई अंगूठियाँ पहनता है भला। उसे मेरा यह मज़ाक बिलकुल अच्छा नहीं लगा। गंभीर होते हुए बोला- 'अपनी माँ की खातिर पहनता हूँ। उनका इन सब बातों पर बहुत विश्वास है। दिल रखने के लिए करना पड़ता है।' ...मैंने हम्म में बात अटपटी होते हुए भी पी ली।
उसने आगे अपने पिता और मामा का ज़िक्र भी किया। उसका यह कहना था कि पिता तो बहुत ही अच्छे हैं और जात-पात में यकीन नहीं रखते। मैंने पलटते हुए पूछा- 'और रंग के बारे में उनके क्या ख़याल हैं?' उसने सवाल झेंपते हुए टाल दिया। वह आगे बोला- 'मुझे तो तुम पसंद हो, पर माँ तुम्हें कभी नहीं अपनाएगी। पक्की पंडिताइन है। उस पर भी वह मामाजी के वश में रहती है। पापा भी तुम्हें अपना लेंगे। पर माँ कभी नहीं मानेगी। कहीं अपने को कुछ कर न बैठे!'
मेरा दिल टूटा जैसे किसी भी माशूका का टूट जाता है। इतनी तेज़ आवाज़ हुई कि घूमकर मुझमें ही दफ्न हो गई। पर अपनी आँखों से आंसुओं को गिरने नहीं दिया। मुझे पता था कि भारद्वाज माँ की आड़ ले रहे हैं शायद। एक औरत पर बंदूक भी चलाई जा रही वह भी किसी दूसरी औरत के कंधे पर रखकर। मुझे वह उसी समय दिल से उतरता हुआ महसूस हुआ। मुझे अपने आकर्षण के झीने पर्दे फटते हुए दिखाई दिये। भारत और उसके देश की व्यवस्था की गहराई से उसी दिन खबर हुई। जाति, रंग, रुतबा, भाषा, अमीरी आदि इश्क़ में बहुत मायने रखते हैं।
मुझे एक बात और समझ आई इस सब हादसे के पीछे। मैं और मेरा माहौल इस तरह का था जिससे मुझे शायद जल्दी आकर्षण हो गया। अगर मेरी परवरिश में मुझमें लड़कों के साथ लिखने पढ़ने की संगत और बराबरी का माहौल मिला होता तो शायद भारद्वाज जी को बेहतर जवाब दे पाती। यही अच्छी परवरिश उन्हें मिली होती तो वह मुझे वास्तव में प्यार कर पाते। उनके मन में जात को डालने वाले उनके कट्टर माँ और मामा थे। मुझे एकांत, सहमी और बंदकोश देने वाले मेरे घर के लोग। कहीं मायनों में भैया को देखकर सुकून हुआ कि वह नए जमाने के साथ थे और चाहते थे कि उनकी बहनें बाहर की दुनिया को जानें भी।
(उनकी कहानी बहुत लंबी थी। मैंने बहुत छोटे में इसे लिखा है। जो भी प्रभाव यदि आप लोगों पर पढ़कर हुआ तो वह उनका होगा। जो भी गलत या जल्दबाज़ी महसूस होगी उसका ज़िम्मा मेरा। और भी कहानियाँ लाती रहूँगी। साथ ही रहिए। फोटो गूगल से आभार सहित।)