Sunday, 23 July 2017

हर बार इश्क़ का रंग पक्का भी नहीं होता!

'तुम आराम से क्यों नहीं बैठती हो? कहानियाँ सुनना आराम से होता है...रुककर। और एक तुम हो कि भागने के मूड में रहती हो।'

मैंने झिझकते हुए कहा- 'ऐसी तो बात नहीं है। शाम काफी ढल गई है। तो बस समझिए कि माँ का फोन आता ही होगा। आपको नहीं पता मैं घर न पहुंचूँ तो उनकी जान बाहर को आने लगती है।'

'चली जाना। चाय पीकर।' उन्होने बराबर हक़ जमाते हुए कहा। मैंने इसके बाद कुछ नहीं कहा। मैं घर लौटी तो उनकी कहानी साथ लेकर आई। उन्होने कुछ सुनाया जो दिमाग में अटक गया था। लिखने की कोशिश करती हूँ। उनका नाम लेने का मन नहीं। हालांकि इजाज़त ले चुकी हूँ।

ओम प्रकाश बाल्मीकी की आत्मकथा का वह हिस्सा याद आ रहा है जिसमें एक लड़की को उनकी जाति के बारे में पता चलता है और प्यार रफ्फ़ू चक्कर हो जाता है। ऐसा ही कुछ प्यार इन मोहतरमा का था। मोहतरमा तथकथित जाति में निम्न थीं और इनका प्रेमी भारद्वाज था। शुरूआत में प्रेम , प्रेम ही रहा। लेकिन पहली उत्साही मुलाकात से जैसे सब मर गया। भारत देश में प्रेम सबसे पहले जाति, रंग रूप और पैसा देखकर तौला जाता है। शायद बाकी देशों में भी ऐसे ही मापक जरूर होते होंगे। मैं कभी बाहर नहीं गई। खैर विषय यह भी तो नहीं है।

उन्होने मुझे बताया-
मेरी उम्र यही 21 के आसपास होगी। फेसबुक दस्तक दे चुका था। लोग ऑर्कुट से बाहर आकर एफ़बी पर अपना खाता खोल रहे थे। घर में हमारे पास  कंप्यूटर नहीं था इसलिए हम अब भी इस तरह की साइट्स से दूर थे। लेकिन बड़े भईया कॉमर्स की पढ़ाई कर रहे थे और कॉलेज में कंप्यूटर भी विषय के रूप में ले लिया था इसलिए घर में पिताजी ने उनकी ही खुशी और पढ़ाई लिखाई का ध्यान रखते हुए एक कंप्यूटर खरीद लिया। हम दो बहनों को उसके पास फटकने की भी मनाही थी। छोटी वाली तो अल्हड़ थी सो वो बाहर घूमने में जी लगा लिया करती थी। मैं बड़ी थी सो घर में काम में मन लगा लेती थी। आते जाते भाई के कमरे में कंप्यूटर दिखता तो जी करता कि एक दफा देख लूँ... यह है क्या जो टीवी की तरह दिखता है। लेकिन यह तो वह मशीन थी जिसका दरवाज़ा दुनिया में खुलता था।

पर कभी हिम्मत नहीं हुई। एक रोज़ भाई से पूछा तो बोले चलो खुद से देख लो। जबरन ले गए और बताने लगे कि तुम अब क्या क्या कर सकते हो सिर्फ इस कंप्यूटर से। कुछ दिनों बाद उन्होने खुद मेरा एफ़बी अकाउंट भी खोल दिया। खुद से ही कुछ लोगों को फ्रेंड रिक्वेस्ट भी भेज दी। मेरी लिए उस समय एफ़बी एक ऐसी दुनिया बन गया था जिसका रास्ता सीधे वंडरलैंड जाता था। हालांकि लोग उसे बुरा कहते थे। यह बुरी और खराब चीज है। लड़कियों को इससे दूर रहना चाहिए। पर चस्का नाम की भी तो कोई चीज होती है। आदमी को भी कई चस्के हैं। सो अगर एक लड़की या औरत को लग गया तो क्या हो गया। बिग बैंग का धमाका तो नहीं हो जाएगा फिर से! हो जाये...मेरी बला से...मैं उस समय ऐसा ही सोचती थी। शायद आज भी।

एफ़बी पर मेरी किसी से बात हुई जिनके नाम के पीछे भारद्वाज लगता था। लड़का खूब गोरा था। नैन नक्श उतने तीखे नहीं थे जैसे मेरे थे। हल्की हल्की बातें शुरू हुईं और बात एफ़बी से आगे बढ़ गई। या यूं कहूँ कि हमने मिलने का फैसला किया। हालांकि मैं खुद को बहुत चालाक समझती थी सो लड़के को अपने एरिया के आसपास ही बुलाया। वह राजी था। मैं भी राजी थी।



रेगिस्तान को तो प्यास की तलाश होती है और सूखे दिल को प्यार की। मुझे लग रहा था कि तलाश खत्म हो गई है। अब जैसे तैसे घर में बात चलाई जाएगी और मामला सेट किया जाएगा। कोई न माने तो मैं भागने में भी झिझकूंगी नहीं। मेरे लिए यह मेरा क्रांतिकारी व्यक्तित्व था। मुझे इतने अरसे से यह भी नहीं मालूम था कि मैं इतना बड़ा कुछ धमाकेदार भी सोच सकती हूँ।

हम जिस रोज़ मिले, वो तारीख मुझे याद नहीं है। मैं कॉलेज के अंतिम साल में थी। वह लड़का शायद किसी अंतर्राष्ट्रीय कॉल सेंटर में काम करता था। मैं इतने हद तक खुश रहती थी कि घर बसाने के अच्छे खयाल सेट कर चुकी थी। यह शानदार अनुभव था। ऐसा मुझे आज भी लगता है। ख़ैर हम मिले। वो फोटो से भी ज्यादा दूध सा सफ़ेद था। मेरा रंग ऐसा नहीं था। गहरे में भी गहरा। शायद यही वजह थी कि वो बोला- 'अरे यार!...तुम तो फोटो से बहुत अलग हो!..' मैंने कुछ नहीं कहा और सिर्फ एक मुस्कुराहट बाहर रख दी। ...इसके बाद हम बैठने की जगह खोजने में लग गए। निगोड़ी गर्मी ऐसी थी कि सभी एसी और छायादार जगहें भरी पड़ी थीं। हमें कहीं भी कोई जगह नहीं मिल रही थी। आखिर में एक पार्क मिला जहां हम कुछ देर बैठे।

पार्क खाली ही था। क्योंकि उसके ज़्यादातर हिस्से में धूप थी। इक्का दुक्का लोग ही दिख रहे थे और वे भी शायद उसकी देख रेख करने वाले लोग थे। उन्होने हम पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया यह मेरे लिए सुकून की बात थी। उसके लिए कोई मतलब नहीं था क्योंकि वह इस इलाके से था ही नहीं। अक्सर लड़कियों के अपने इलाक़े में किसी लड़के साथ घूमना उनकी अच्छी ख़ासी पिटाई का विषय बन जाता है। इस खयाल से मुझे थोड़ी घबराहट थी पर इश्क़ जिसे हुआ वह निर्भीक न हुआ तो क्या खाक हुआ! यही मैं थी उस समय।

हम बैठे थे और गर्मी से परेशान पानी के घूंट अपने अंदर ले रहे थे। कुछ देर बाद पेड़ की छाया और हवा से हमें राहत मिल गई जिससे हम अपनी बात कुछ आगे बढ़ा सके।

मैंने उसे आँखें गढ़ा कर देखा। ऊपर से नीचे। उसने अपने सीधे हाथ की सभी उंगलियों में रंग बिरंगी (पत्थर वाली) अंगूठियाँ पहनी थीं। बाएँ हाथ पर ध्यान नहीं दे पाई। मैंने मज़ाक के लहजे में उसे कहा- 'कहाँ से डकैती की है इन अंगूठियों की? इतनी सारी भी कोई अंगूठियाँ पहनता है भला। उसे मेरा यह मज़ाक बिलकुल अच्छा नहीं लगा। गंभीर होते हुए बोला- 'अपनी माँ की खातिर पहनता हूँ। उनका इन सब बातों पर बहुत विश्वास है। दिल रखने के लिए करना पड़ता है।' ...मैंने हम्म में बात अटपटी होते हुए भी पी ली। 

उसने आगे अपने पिता और मामा का ज़िक्र भी किया। उसका यह कहना था कि पिता तो बहुत ही अच्छे हैं और जात-पात में यकीन नहीं रखते। मैंने पलटते हुए पूछा-  'और रंग के बारे में उनके क्या ख़याल हैं?' उसने सवाल झेंपते हुए टाल दिया। वह आगे बोला- 'मुझे तो तुम पसंद हो, पर माँ तुम्हें कभी नहीं अपनाएगी। पक्की पंडिताइन है। उस पर भी वह मामाजी के वश में रहती है। पापा भी तुम्हें अपना लेंगे। पर माँ कभी नहीं मानेगी। कहीं अपने को कुछ कर न बैठे!'

मेरा दिल टूटा जैसे किसी भी माशूका का टूट जाता है। इतनी तेज़ आवाज़ हुई कि घूमकर मुझमें ही दफ्न हो गई। पर अपनी आँखों से आंसुओं को गिरने नहीं दिया। मुझे पता था कि भारद्वाज माँ की आड़ ले रहे हैं शायद। एक औरत पर बंदूक भी चलाई जा रही वह भी किसी दूसरी औरत के कंधे पर रखकर। मुझे वह उसी समय दिल से उतरता हुआ महसूस हुआ। मुझे अपने आकर्षण के झीने पर्दे फटते हुए दिखाई दिये। भारत और उसके देश की व्यवस्था की गहराई से उसी दिन खबर हुई। जाति, रंग, रुतबा, भाषा, अमीरी आदि इश्क़ में बहुत मायने रखते हैं।

मुझे एक बात और समझ आई इस सब हादसे के पीछे। मैं और मेरा माहौल इस तरह का था जिससे मुझे शायद जल्दी आकर्षण हो गया। अगर मेरी परवरिश में मुझमें लड़कों के साथ लिखने पढ़ने की संगत और बराबरी का माहौल मिला होता तो शायद भारद्वाज जी को बेहतर जवाब दे पाती। यही अच्छी परवरिश उन्हें मिली होती तो वह मुझे वास्तव में प्यार कर पाते। उनके मन में जात को डालने वाले उनके कट्टर माँ और मामा थे। मुझे एकांत, सहमी और बंदकोश देने वाले मेरे घर के लोग। कहीं मायनों में भैया को देखकर सुकून हुआ कि वह नए जमाने के साथ थे और चाहते थे कि उनकी बहनें बाहर की दुनिया को जानें भी।

(उनकी कहानी बहुत लंबी थी। मैंने बहुत छोटे में इसे लिखा है। जो भी प्रभाव यदि आप लोगों पर पढ़कर हुआ तो वह उनका होगा। जो भी गलत या जल्दबाज़ी महसूस होगी उसका ज़िम्मा मेरा। और भी कहानियाँ लाती रहूँगी। साथ ही रहिए। फोटो गूगल से आभार सहित।)



Saturday, 22 July 2017

मानो तो झंझट, न मानो तो कुछ भी नहीं

मेरे पास मुझसे कुछ ही साल कम उम्र की लड़कियों और लड़कों के फोन आते हैं। वे निहायती निराश और परेशान समझ आते हैं। बहुतों को देश में मौजूद व्यवस्था या आसपास की सामाजिक प्रणाली से शिकायतें होती हैं। बहुत लोग सवाल पूछते हैं। अपने करियर से जुड़े। कुछ लोगों की प्रेम कहानियाँ सुनती हूँ। कुछ लोगों के परिवार का हिस्सा जाने कब बन जाती हूँ। कुछ लोगों की फौरी परेशानियों का हल बताने की कोशिश करती हूँ। हालांकि मैं कितनी और कहाँ तक-सही गलत होती हूँ मुझे भी इस बात की ख़बर नहीं है। हाँ, पर मैं मदद जो कर पाऊँ तब जरूर करती हूँ।



इन नौजवान लोगों से ही मुझे आजकल सुनने की अच्छी आदत लगी है। कई लोग मुझे व्हाट्सएप और फ़ेसबुक पर भी देर तक बातें करते हैं। उनकी बहुत सी बातें निजी होती हैं। निजी बातों के दायरे में आते ही मुझमें थोड़ी हकलाहट होने लगती है। एक ज़िम्मेदारी का अहसास हो आता है। पर इन सब से यह भी पता चलता है कि आजकल के ये नौजवान लोग (इनमें मैं भी शामिल हूँ) बहुत ही रफ़्तार पसंद लोग बनते जा रहे हैं। कर्म से पहले फल को सोच लेने वाले, पढ़ाई से पहले जानकारी को कैच करने वाले, जल्दी भावुक होने वाले, जल्द ही विश्वास करने वाले, मिश्रित प्रकृति वाले हैं ये लोग।

उनकी रीडिंग से यह पता चलता है कि कई बार ये नौजवान अपने कामों और फैसलों से चौंका देते हैं। उम्मीद से परे या तो ये बहुत हद तक जिम्मेदारियों को समझ लेते हैं या फिर कई इतनी सी उम्र में बेहद परिपक्वता वाली बातों को अंजाम देते हैं। कभी जब पास बैठती हूँ तब इनमें से भारी उर्ज़ा को चारों ओर फैलता हुआ अनुभव करती हूँ। ऐसा लगता है कि इनका दिमाग बड़ी तेज़ गति से काम कर रहा है। ठीक इसी तरह जब मैं मेट्रो में यात्रा कर रही होती हूँ तब मुझे यकायक बहुत आहिस्ता से कही गई बातें भी सुनाई दे जाती हैं। यकीन मानिए मेरा यह कतई मतलब नहीं है कि मैं जानबूझकर सुनना चाहती हूँ। मैं कानों पर दीवार नहीं खड़ी कर सकती और न ही आवाज़ की गुणवत्ता को मार सकती हूँ। मुझे बस सुनाई देता है।

और इस तरह से धीरे-धीरे मैं उनके संसार में कदम रखती चली जाती हूँ। ठीक वैसे ही जैसे एलिस करती थी। अहा! एक कहानी जो मुझे हाल ही में अपनी मेट्रो यात्रा में सुनाई दी। ...उसे साझा करना चाहूंगी।

बहुत भीड़ थी और बहुत कोलाहल भी था। एक लड़की बहुत ही धीमे से हेड्स फोन से बात कर रही थी। चूंकि मुझे कहीं खड़े होने की जगह नहीं मिल रही तो मैं उससे थोड़ी नजदीक खड़ी हो गई। उसने मुझे नज़रें उठाकर देखा। मैंने भी। हम दोनों मुस्करा दिये। वह थोड़ा खिसक गई और मैं ठीक से खड़े होते हुए उसके और नजदीक आ गई। उस दिन मैं शायद परेशान थी कुछ बातों को लेकर। इसलिए मेरा ध्यान शुरू शुरू में उसकी बातों पर नहीं गया। वह मेरी ही हमउम्र लग रही थी। आवाज़ महीन थी। उसके बाल घुँघराले और रंग पक्का था। मेरा वाला रंग। आँखों को मसकारे से सजाया था। वह कुल मिलाकर बहुत ही अच्छी लग रही थी।

वह बात कर रही थी- 'मैं क्या करूँ? मैंने खुद से ही सीख लिया है। Yes...I  learned now...totally. जब उसे मेरी फिक्र नहीं तो मैं क्यों अपना दिमाग उस पर जाया करूँ! पहले काफी इंटरेस्ट लेता था। but now...he has just stooped. I know...he has anyone. May be beautiful more than me...सुन मैंने तो तुझसे कुछ कभी नहीं छिपाया। उसकी जो अजीब सी शर्तें हैं, वो पूरी नहीं हो सकती। प्यार में शर्त ही है आजकल। Honesty तो बची ही नहीं है। ...'

दूसरी तरफ कोई लड़की ही थी जो मेरी तरह अच्छे कान रखती थी। वह हाँ या yes बोलकर इस लड़की की बातों को आगे बढ़ा रही थी। मुझे ऐसा भी लगा कि वह अच्छे तरीके से किसी के सीने का ग़ुबार निकलवा रही थी।

यह लड़की आगे बोली-

'नहीं... अभी सब बंद। जबर्दस्ती तो किसी से कहा जा नहीं सकता कि मुझे पसंद करो। पता नहीं लोग इतने अजीब से क्यों होते हैं! मशीन के type। समझ नहीं आते। अभी मुझे न थकावट होती है। भाड़ में जाए साला सब कुछ। कूल रहूँगी। अपना पढ़ाई वढ़ाई पर ध्यान देना है। वैसे भी distance kills relationship. अभी मुझे खुश रहना है। कुछ करना है। हर बात में दिल में मातम लेकर नहीं बैठना चाहती। बहुत stress हो जाता है। दुनिया में पहले से ही इतना कुछ हो रहा है। फिर मैं क्यों किसी एक के मुझे पसंद न करने से मरी जा रही हूँ।...'

इस लड़की ने एक लंबी सांस ली और आगे बात करती गई। मेरा स्टेशन आ गया था। मैं उस रोज़ घर आई तो एक लड़की, जिसकी प्रेम ज़िंदगी अजीब मोड़ पर थी उसे उस लड़की की बातों से उदाहरण ले लेकर समझाया। मुझे नहीं पता कि उसे कितना समझ आया। पर मुझे समझ आ गया। उसकी कुछ लाइंस तो मैंने दिल में गांठ बांधकर रख ली। कसम से बहुत राहत है।

शुक्रिया उस लड़की का।





  







  

Saturday, 15 July 2017

ज़िक्र-ए-ख़्वाब

कभी कभी ऐसा लगता है कि घड़ी की सुइयों को हमसे अधिक जल्दी है। कभी लगता है, समय को खींचकर अपने साथ लेकर भाग रही हैं। उनको जलन तो नहीं होती हमसे? हो भी सकता है। आजकल सब कुछ हो सकता है। जो होना है वो भी हो रहा है पर जो नहीं होना चाहिए वो तो पक्का हो रहा है। कुछ दिन से माथे के अंदर अजब गजब सी शांति थी सो कुछ नहीं छापा। आज इस शांति ने मुझे एक पर्ची पकड़ाई कि कुछ तो अपने लिए लिखो। दूसरों के लिए क्या लिखना! आसपास कितना कुछ हो रहा है। सब कुछ चक्कर-घिन्नी की तरह घूमता है। फिर भी सपनों की बात करना ज़्यादा महत्वपूर्ण है। घटनाओं के लिए मीडिया तो है ही।



रोज़ कोशिश करती हूँ कि अपने दिमाग को समेट लूँ। उसमें इतनी लहरे हैं कि उनकी लगाम मेरे वश से बाहर है। जितनी कोशिश करूँ, उन्हें संभाल नहीं पाती। आज उस सपने का ज़िक्र रह रह कर मन में आ रहा है जो तीन साल पहले देखा था। जब मेरे शरीर का ऊपरी भाग यकायक विशाल हो गया था और मेरे सीधे हाथ पर पृथ्वी अपनी चरम रफ़्तार में घूम रही थी। इस सपने ने मुझे कुछ ऐसा चौंकया कि आजतक इसे अपनी छवि तिजोरी में लिए रहती हूँ। मैंने कभी इसे तालाबंद करने की कोशिश नहीं की। चाहती हूँ कि इसे भाग निकलने का मौक़ा मिले। पर यह छवि वाला सपना कभी फरार नहीं होता। आज भी फेविकोल के मजबूत जोड़ के साथ मुझसे चिपका हुआ है। स्कूल के समय से ही मेरी याद में जंग लगा हुआ है। कभी कोई चीज़ याद ही नहीं हुई न रट्टा लगा पाई। लेकिन इस तरह के सपने मुझे रटे हुए हैं।

अगर वास्तव में भोलेनाथ मेरे सिर के ऊपर वाले आसमान में रहते हैं तब तो मेरा एक दिल वाला शुक्रिया कि क्या गज़ब किए हो महादेव! इतने सपने मेरे माथे में भरे हैं। मुझे शुरुआत में कुफ्त होती थी। लेकिन अब इनके प्रति दिलचस्पी और जिज्ञासा होती है। इनमें फैले रंग और बनावट इतने जुदा होते हैं कि मुझे इस बात की हैरानी होती है कि हमारा दिमाग अपनी ही तरह का शानदार वर्कशॉप है।



सपने सबसे ज़्यादा गुंजल और बिखरे हुए होते हैं। बेताल की तरह पीठ पर सवार। इनकी अपनी एक भाषा होती है। कुछ चेहरों और पल पल में बदलते घटनाक्रम कुछ संकेत देते हैं। ये संकेत आसपास की हमारी दुनिया से जुड़े होते हैं। इनको समझना अपने वास्तविक जीवन की जटिलताओं को सुलझाने जैसा है। कम-से-कम उनके नजदीक तो पहुँचना ही है।

सपने बेवजह की उपज नहीं होते। वे कहीं न कहीं और किसी भी तरह से हमसे ही जुड़े होते हैं। उनकी जगह बेशक दिमागी दुनिया होती है पर वे उस तरह का साया हैं जो काफी विशाल है। वे छलिया होते हैं। छलते हुए भी सही की ओर इशारा करते हैं। वे लोगों और परिस्थितियों के ठगने के घटनाक्रम का हल्का ब्योरा पेश करने की कोशिश करते हैं। वे जो नहीं कहा जाता, उसे सामने लाने की कोशिश करते हैं। वे यह भी साबित करते हैं कि आपका कुछ हिस्सा डिवाइन है। रोबोट को सपने नहीं आते। कम्प्यूटर सपने नहीं देख सकता। वो तो आप और मैं ही देख सकते हैं।

कुछ सपने एक ही स्लाइड में आते हैं। कुछ सपनों की बनावट एक के अंदर दूसरे सपने की संरचना में दिखती है। यह मेरा अनुभव है। हो सकता है किसी और को दूसरी तरह के सपने आते हों। सपनों का अंतराल या उनकी उम्र का मतलब सीधे तौर पर जागने के बाद याद में महज़ कुछ छवियों के रह जाने से जुड़ा है। यह प्रक्रिया इतनी गजब है कि जो किसी में भी रचनात्मकता को जन्म देते हैं। सपनों से बहुत कुछ उधार लिया जा सकता है।


....जारी है, अगली पोस्ट में सपना का ज़िक्र!







Tuesday, 11 July 2017

वी द पीपल

आज (11जुलाई 2017) कुछ बच्चों से बातचीत हो रही थी तब मैंने उन्हीं की किसी पंक्ति पर झपट्टा मारते हुए पूछा- 'देश क्या है, आपको क्या लगता है?'
उसके बाद जो जवाब मिले वो बड़े दिलचस्प थे-
भारत
इंडिया
हमारा घर
हमारा परिवार
जहां के हम होते हैं
दुनिया
जगह
प्यार से रहना, एक साथ
बहुत बड़ी जगह
हमारा गाँव ...

शायद कुछ देर और रहती तो बातचीत अच्छे मुकाम तक पहुँचती। लेकिन उनके इन शब्दों को मैं साथ लेती आई। घर तक। अपने ज़ेहन तक। अब इन्हें एक समझ की शक्ल देने की कोशिश कर रही हूँ। आजकल इसी बात का झगड़ा है। कोई छोटा या मोटा नहीं बल्कि जानलेवा झगड़ा। देशभक्ति और देश के इर्द-गिर्द घूमता हुआ। देश शब्द अब डराने या धमकाने सा लगा है। जबकि देश किसी भी व्यक्ति के लिए महज एक भौगोलिकता नहीं होता। वह इस दायरे से भीतर और बाहर दोनों होता है। देश शब्द के मायने सभी के लिए अलाहिदा हो सकते हैं और ये इस हद तक लचीले हैं कि कोई भी अपने हिस्से के आयतन के साथ खुशी से रह सकता है। सब अपनी समझ से इसे परिभाषित कर सकते हैं। यह छूट इस देश के संविधान ने तो दी ही है साथ यह नैसर्गिक भी है। मैंने अपनी किसी पोस्ट में यह लिखा था कि शीला धर द्वारा लिखी किताब 'दिस इंडिया' मे वह बहुत अच्छी तरह से लिखती हैं कि भारतीयता वह तत्व है जो इस देश में जन्म लेते समय ही शिशु में मौजूद होता है। उसे अलग से डालने की ज़रूरत नहीं होती। इस लिए तमाम इल्ज़ाम जो इस देश के नागरिकों पर देश द्रोह से जुड़े लगाए जाते हैं उन्हें बड़ी आसानी से ख़ारिज़ किया जा सकता है।



बच्चों की देश की समझ में धर्म भी नहीं दिखा। इस बात का मुझे आश्चर्य भी है। हम एक धर्म निरपेक्ष देश हैं। इसका मतलब राज्य का अपना कोई धर्म नहीं होगा। वह राज्य में ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करेगा जिसमें सभी धर्म का सत्व समाज को लाभ पहुंचाए। कुछ ऐसी ही हमारी संवैधानिक परिभाषा में धर्म के बारे में समझ मिल जाएगी। हो सकता है यह सब बच्चों ने कहीं किसी से सीखा हो, स्कूल में, घर में या कहीं भी। लेकिन बच्चों की दाद देनी होगी कि उन्हों ने अपनी समझ को अपनी जरूरत के मुताबिक ही लिया। बाकी को छोड़ दिया। या यह भी संभव है कि उन्हें सवाल के जवाब का हुनर आता हो। चाहे इसके पीछे कोई भी वजह हो। लेकिन मैं खुश थी कि कहीं भी धर्म ने दस्तक नहीं दी।

तीसरी बात यह भी ध्यान खींचने वाली रही कि देश के मतलब में वे इकाई से आगे बढ़ते हुए दिखे। हमारा परिवार से लेकर दुनिया तक। यह दिलचस्प है। बहुत। भई... पासपोर्ट के बाहर भी बहुत कुछ है। जो पढ़े लिखे लोग 'वसुधैव ही कुटुंबकम्' को हजारियों बार कहकर अपनी दिमाग की बत्ती की नुमाइश करते हैं उनसे अगर इसके पीछे की तस्वीर पूछ ली जाए तो उनका दम निकल जाएगा। इसके जवाब में वे लोग फिर संस्कृत के गल चुके श्लोक चिपकाएँगे जिनका मतलब वे खुद ही जानते हैं। यहाँ मैं रोज़मर्रा और आसपास को सीखने-सिखाने 
जरिये के रूप में महत्वपूर्ण मान रही हूँ। देखिये यह आमफहम समझ कितनी ही शानदार है कि आपके देश में दुनिया के सभी हिस्से समा रहे हैं। ज़रा सोचिए उन फकीरी यात्राओं के बारे में कैसे बिना पासपोर्ट के एक देश से दूसरे देश जाया जाता था। जब लकीरें मौजूद नहीं थीं। पर आज तो अपने ही देश के दूसरे राज्य में जाने के लिए टोल टैक्स लग जाता है। आज के मसले भी सरल नहीं हैं। सुरक्षा के मद्देनज़र सीमाओं को खुला भी नहीं छोड़ा जा सकता।

लेकिन मुझे इस बात की खुशी है कि बच्चे अपनी कल्पनाओं को वैधानिक और अवैधानिक लकीर से आगे ले जा रहे हैं। ऐसे माहौल में जब देश और देशभक्ति की हाय-तौबा जानलेवा बन चुकी है तब बच्चों में इस तरह की समझ मुझे शांति दे रही है।





Sunday, 2 July 2017

...वरना इस गली में अकेला मकान तो किसी का नहीं है

इंटरॉडक्शन सबसे अच्छा मुझे बचपन में सुने एक गीत में लगा था। 'अमर अकबर एंथनी' फ़िल्म में अमिताभ बच्चन पर फिल्माए गीत में वह क्या खूब अपना परिचय देते हैं। यह परिचय दिल्लगी वाला है।

"माय नेम इज़ एंथनी गोंसाल्वेस 
मैं दुनिया मे अकेला हूँ 
दिल भी है खाली घर भी है खाली 
इसमे रहेगी कोई किस्मत वाली 
हाय जिसे मेरी याद आये जब चाहे चली आये.. 
रूपनगर प्रेमगली खोली नंबर चार सौ बीस..."

थोड़ा दार्शनिक और रूमानी परिचय फिल्म 'परिचय' के एक गीत में आता है-

मुसाफ़िर हूँ यारो
न घर है न ठिकाना
मुझे चलते जाना है
बस चलते जाना

सोचिए कोई इंटरव्यू में यह पूछे कि अपने बारे में कुछ बताइये। तब क्या मज़ेदार माहौल हो सकता है और ऐसा भी कि आपको बाहर का रास्ता दिखाया जा सकता है, तुरंत। मेरे साथ यही अजीबो-गरीब घटना घटती है। जब भी किसी इंटरव्यू में जाना होता है तब दिमाग में यह गाना बजना शुरू हो जाता है। बेहद असमंजस में पड़ जाती हूँ कि आखिर यह क्यों हो रहा है!

यह तो रही फिल्म और मेरी बात। लेकिन परिचय हल्की चीज नहीं होती। यह गंभीर है। इसे मज़ाक में नहीं बताया जा सकता और न ही किसी और का मज़ाक में परिचय समझा जा सकता है। अभी तक के दिये अपने परिचय पर मुझे संतुष्टि नहीं हुई है न ही बढ़िया परिचय गढ़ पाई हूँ और ऐसा किसी का परिचय रोचक नहीं लगा है जो याद रहे। किसी रोज़ यह भी हो ही जाएगा।

गौर करती हूँ तब पाती हूँ कि दिमाग का अनुकूलन बचपन से एक दूसरी दिशा की तरफ किया गया है। परिवार, स्कूल और बाहरी माहौल ने इसमें समान भागीदारी निभाई है। जनता की एक इकाई के रूप में वह मजबूती नहीं दी गई जिसकी की 'डमोक्रेसी' में उम्मीद होनी चाहिए। जुल्म न करने की शिक्षा, यह प्रणाली न तो अमीरों में भर पाई और जुल्म न सहने की शिक्षा, न हम गरीबों में कूट कूट कर भर पाई। यह लोकतंत्रीय प्रणाली जनता को निष्क्रिय जनता बनाए रखने में ज़्यादा सक्रिय रूप से उभर रही है।

लेकिन आजकल कुछ गुंडों और हत्यारों का परिचय अखबारों और टीवी की खबरों में देखने को मिल रहा है। गौ-रक्षक! कुछ देर इस शब्द को ध्यान से सोचिए। इस शब्द की थरथरी को महसूस कीजिये। सोचिए घड़ी की सेकंड की सुई के साथ। फिर मिनट की सुई के साथ और उसके बाद आपको लगेगा कि एक तस्वीर साफ हो रही है। समाज की इकाई के तौर पर हम सभी पर उंगली उठ रही है। हम जनता, भीड़ और गौ रक्षक नामक हत्यारों में बंटे हुए खुद को पाते हैं। हम यह तय तो कर ही सकते हैं कि हम कौन हैं और हमारा पाला क्या है!नकारात्मक ताक़तें कब नहीं थीं? अपने मिथकों की कहानियों को उठाकर देख लीजिये। उसके बाद के समाजों को दोहरा लीजिये। समय के हर पड़ावों पर ये ताक़तें रही हैं। दिलचस्प इनके विरोध रहे हैं। इन विरोधों में हम यानि आप और मैं कहाँ और कौन थे, यह जान लेना भी जरूरी है।

मैं उन विरोधों के समर्थन में रहती हूँ जिनमें कोई हीरो न हो। जनता की प्रत्येक इकाई जहां सक्रिय है वहीं मेरा मन रमता है। मसीहा टाइप की छवियों से मुझे हिकारत होती है। आखिर क्यों किसी एक को ही दिव्य शक्ति मिल जाती है? जब सब में वह महान शक्ति अपना अंश रखती है। वन मैन आर्मी वाला हाल हमें इस हद तक ले आया है कि कोई बेगुनाह को मार देता है और हम एक कोने में खड़े होकर बस देख ही लेते हैं। किसी गाँव में किसी औरत को डायन बताकर मारना हो या किसी को गाय के मांस पर ही चाकू घोंपना हो, ये सब काम कर दिये जाते हैं और आत्मा जो नहीं मरती, वह शरीर को छोड़ कर चली जाती है। सत्य तो यही है कि ज़िंदगी सभी की अनमोल है और सभी को बराबर हक़ हैं। मुझपर कोई वार कर रहा है तो मैं श्री कृष्ण के दसवें अवतार का इंतज़ार नहीं करूंगी। या तो बचूँगी या फिर बदले में वार करूंगी। यही व्यक्तिगत बात हुई।

जितेंद्र की एक पुरानी फिल्म है- 'हातिम ताई।' आपने देखी ही होगी यह फिल्म। फिल्म मोटे तौर पर बुराई और अच्छाई की भिड़ंत है जिसमें जितेंद्र एक अकेले मसीहा टाइप के किरदार में अच्छाई का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। हालांकि यह कहानी पुरानी मिथक कहानी से प्रेरित थी। इसके बाद और साथ साथ आई फिल्मों में भी अकेला मसीहा तारणहार ही दिखाई दिया। मुझे न... दिक्कत यहीं लगती है। हमारे समाजों को मसीहा वाला इंजेक्शन ही दिया जाता रहा है। यह क्रम अभी तक चालू है। इसका उदाहरण आजकल आपको 'शीर्ष नेता' या फलां पार्टी की 'सुप्रीमो' आदि के इस्तेमाल में होता है। हालांकि ये शब्द मीडिया द्वारा शुद्ध रूप से गढ़े हुए हैं फिर भी इनमें मुझे गलती नहीं दिखती। आजकल वर्तमान में केन्द्रीय सरकार में भी महज़ कुछ चेहरे ही हैं जिनको बहुत से अक्ल के अंधे मसीहा का रूप बता रहे हैं।


मसीहा से हटकर दूसरे पक्ष पर बात करें तो जनता का पक्ष दिखता है। एक अथाह जनसमूह। गिनती नहीं कर सकोगे जब जनता शब्द को सोचोगे। स्कूल में हरीशंकर परसाई की एक कहानी पढ़ाई गई थी। उसमें भेड़ों को जनता का रूप दिया गया था। तब से आजतक मुझे भी जनता शब्द का रंग सफ़ेद दिखता है। उनकी खाल और सफ़ेद मुलायम बाल महसूस करती हूँ। इस बात का भी पूरा आभास रहता है कि हर भेड़ की बलि चढ़ा दी जाएगी। कुछ की चढ़ाई जा रही है हर एक सेकंड। जनता में मैं उन लोगों को नहीं गिनना चाहती जिनके आलीशान बंगले हैं। जो नहीं जानते कि धूप क्या होती है। जिनको रोटी, कपड़े और मकान का सुरक्षित भविष्य मिला हुआ है, वह जनता नहीं होती। बल्कि वे लोग वही खूनचूषक होते हैं जो हाथ रिक्शे की वजनदार 50 रुपये की सवारी करने के बाद 40 रुपये पचा जाना चाहते हैं। ये लोग जनता वाली जमात में नहीं आते।



जनता का दिमाग कहाँ खोजा जाये, यह महत्वपूर्ण सवाल है। किसी एक व्यक्ति का दिमाग शरीर के ऊपर होता है। लेकिन यही चीज भीड़ में कहाँ समझी जाये? किन क्रियाओं में इसे जाना जाये? अगर दिमाग नाम की चीज है तो इसकी नैतिकता की नाप क्या मापी जाए...ऐसे सवाल मैं अभी तक सोचती रही हूँ। जनता की इकाई की परवरिश में ही खामी है। इस परवरिश के अपने ही कई प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष कारण भी हैं। अव्वल दर्जे तक गहरी असमानता बहुत है। पर्याप्त साधन तक नहीं हैं जीने के लिए। लैंगिक असमानता इस कद्र है कि औरतों को तो आज तक औरत को इंसान मान लेने की जंग लड़ी जा रही है। कई बार जब का हिंसक भीड़ का ज़िक्र होता है तब महिलाओं का भाग न के बराबर होता है। इसलिए महिलाएं भी जनता का बराबर हिस्सा है। कहीं आप लोग यह न सोच लेना कि औरतें जनता नहीं हुआ करतीं।

हमारे समाजों में वशीकरण मंत्र का बहुत ज़ोर रहा है। भीड़ के साथ भी यही मंत्र इस्तेमाल होता है। उनके दिमाग को सामूहिकता में वश में कर के उनसे अपने मतलब का काम करवाया जा रहा है। दुखद यह है कि इसमें राजनीतिक दलों का बहुत बड़ा हाथ है जो ऐसे 'ब्रेनलेस' समूह तैयार कर रहे हैं। ये दल इस तरह की विचारधारा को लोगों में इनपुट कर रहे हैं जो अपने होश-हवाश से बाहर होकर अपने कृत्य को अंजाम देती है। ये समूह इस हद तक क्रूर हैं कि पीट पीटकर जान लेने तक उतारू हो चुके हैं। भीड़ का ब्रेन ऐसी ही विचारधारा में मौजूद है। मारक। जानलेवा विचारधारा। जिसका आधार नफरत पर खड़ा है।

जब इस तरह की घटनाएँ घट जाती हैं तब अपराधी के प्रति मेरा और आपका मन कितनी घृणा से भर जाता है। हम स्वर में स्वर मिलाकर यह कहते हैं कि इन अपराधियों को फांसी दे दो.., सूली पर चढ़ा दो। हम कब अपराधी के पाले में खड़े हो जाते हैं यह पता भी नहीं चलता। दोनों में ही हिंसा मुख्य स्वर हो जाती है। हम हिंसा का जवाब हिंसा से देना चाहते हैं। हमने इसलिए जेल बना रखी है। ...लेकिन यह कैसे संभव है कि हिंसा का जवाब हिंसा हो! जब मैं जेल की प्रणाली को सोचती हूँ तब सिहर उठती हूँ। जेलों में ज़िंदा जीवन तिल तिल मरता है। हमें यह समझना होगा कि जिसे मारा जा रहा है वो भी आम इंसान है और जो मार रहा है वह भी हिंसा से पहले आम इंसान ही था। मुझको आपको लड़वा कर, एक दूसरे को मरवाकर कोई तीसरा अपनी मज़े की ज़िंदगी काट रहा है। अगली बार उठाने से  पहले ये बातें सोच लेना। हमारा ध्येय हथियार उठाना और कत्ल करना कतई नहीं है। जीवन का मतलब मिलकर जीना है। यही सच है। बाकी कुछ नहीं।

हमें अपने अंदर इंसान बनने का ऐलान करना होगा। कुछ गलत करने से पहले पूछिये कि आपके असली धर्म इंसानियत पर इसका क्या असर होगा! हम ही जनता और भीड़ का निर्माण करते हैं। इसलिए यह तय कर लेना सबसे जरूरी है कि भीड़ में मुर्दा बनना है या जनता के रूप में सचेत।...वरना इस गली में अकेला मकान तो किसी का नहीं है। सभी जलेंगे। बस क्रम अलग होगा।


(आजकल गलत अर्थ लेने की परंपरा है। इसलिए यह साफ करती चलूँ कि मैं क़त्ल करने वालों का पक्ष नहीं ले रही। बल्कि उनके अंदर आए इस परिवर्तन को समझने की कोशिश कर रही हूँ। यह शुरुआत है।)    






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