आज (11जुलाई 2017) कुछ बच्चों से बातचीत हो रही थी तब मैंने उन्हीं की किसी पंक्ति पर झपट्टा मारते हुए पूछा- 'देश क्या है, आपको क्या लगता है?'
उसके बाद जो जवाब मिले वो बड़े दिलचस्प थे-
भारत
इंडिया
हमारा घर
हमारा परिवार
जहां के हम होते हैं
दुनिया
जगह
प्यार से रहना, एक साथ
बहुत बड़ी जगह
हमारा गाँव ...
शायद कुछ देर और रहती तो बातचीत अच्छे मुकाम तक पहुँचती। लेकिन उनके इन शब्दों को मैं साथ लेती आई। घर तक। अपने ज़ेहन तक। अब इन्हें एक समझ की शक्ल देने की कोशिश कर रही हूँ। आजकल इसी बात का झगड़ा है। कोई छोटा या मोटा नहीं बल्कि जानलेवा झगड़ा। देशभक्ति और देश के इर्द-गिर्द घूमता हुआ। देश शब्द अब डराने या धमकाने सा लगा है। जबकि देश किसी भी व्यक्ति के लिए महज एक भौगोलिकता नहीं होता। वह इस दायरे से भीतर और बाहर दोनों होता है। देश शब्द के मायने सभी के लिए अलाहिदा हो सकते हैं और ये इस हद तक लचीले हैं कि कोई भी अपने हिस्से के आयतन के साथ खुशी से रह सकता है। सब अपनी समझ से इसे परिभाषित कर सकते हैं। यह छूट इस देश के संविधान ने तो दी ही है साथ यह नैसर्गिक भी है। मैंने अपनी किसी पोस्ट में यह लिखा था कि शीला धर द्वारा लिखी किताब 'दिस इंडिया' मे वह बहुत अच्छी तरह से लिखती हैं कि भारतीयता वह तत्व है जो इस देश में जन्म लेते समय ही शिशु में मौजूद होता है। उसे अलग से डालने की ज़रूरत नहीं होती। इस लिए तमाम इल्ज़ाम जो इस देश के नागरिकों पर देश द्रोह से जुड़े लगाए जाते हैं उन्हें बड़ी आसानी से ख़ारिज़ किया जा सकता है।
बच्चों की देश की समझ में धर्म भी नहीं दिखा। इस बात का मुझे आश्चर्य भी है। हम एक धर्म निरपेक्ष देश हैं। इसका मतलब राज्य का अपना कोई धर्म नहीं होगा। वह राज्य में ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करेगा जिसमें सभी धर्म का सत्व समाज को लाभ पहुंचाए। कुछ ऐसी ही हमारी संवैधानिक परिभाषा में धर्म के बारे में समझ मिल जाएगी। हो सकता है यह सब बच्चों ने कहीं किसी से सीखा हो, स्कूल में, घर में या कहीं भी। लेकिन बच्चों की दाद देनी होगी कि उन्हों ने अपनी समझ को अपनी जरूरत के मुताबिक ही लिया। बाकी को छोड़ दिया। या यह भी संभव है कि उन्हें सवाल के जवाब का हुनर आता हो। चाहे इसके पीछे कोई भी वजह हो। लेकिन मैं खुश थी कि कहीं भी धर्म ने दस्तक नहीं दी।
तीसरी बात यह भी ध्यान खींचने वाली रही कि देश के मतलब में वे इकाई से आगे बढ़ते हुए दिखे। हमारा परिवार से लेकर दुनिया तक। यह दिलचस्प है। बहुत। भई... पासपोर्ट के बाहर भी बहुत कुछ है। जो पढ़े लिखे लोग 'वसुधैव ही कुटुंबकम्' को हजारियों बार कहकर अपनी दिमाग की बत्ती की नुमाइश करते हैं उनसे अगर इसके पीछे की तस्वीर पूछ ली जाए तो उनका दम निकल जाएगा। इसके जवाब में वे लोग फिर संस्कृत के गल चुके श्लोक चिपकाएँगे जिनका मतलब वे खुद ही जानते हैं। यहाँ मैं रोज़मर्रा और आसपास को सीखने-सिखाने
जरिये के रूप में महत्वपूर्ण मान रही हूँ। देखिये यह आमफहम समझ कितनी ही शानदार है कि आपके देश में दुनिया के सभी हिस्से समा रहे हैं। ज़रा सोचिए उन फकीरी यात्राओं के बारे में कैसे बिना पासपोर्ट के एक देश से दूसरे देश जाया जाता था। जब लकीरें मौजूद नहीं थीं। पर आज तो अपने ही देश के दूसरे राज्य में जाने के लिए टोल टैक्स लग जाता है। आज के मसले भी सरल नहीं हैं। सुरक्षा के मद्देनज़र सीमाओं को खुला भी नहीं छोड़ा जा सकता।
लेकिन मुझे इस बात की खुशी है कि बच्चे अपनी कल्पनाओं को वैधानिक और अवैधानिक लकीर से आगे ले जा रहे हैं। ऐसे माहौल में जब देश और देशभक्ति की हाय-तौबा जानलेवा बन चुकी है तब बच्चों में इस तरह की समझ मुझे शांति दे रही है।
उसके बाद जो जवाब मिले वो बड़े दिलचस्प थे-
भारत
इंडिया
हमारा घर
हमारा परिवार
जहां के हम होते हैं
दुनिया
जगह
प्यार से रहना, एक साथ
बहुत बड़ी जगह
हमारा गाँव ...
शायद कुछ देर और रहती तो बातचीत अच्छे मुकाम तक पहुँचती। लेकिन उनके इन शब्दों को मैं साथ लेती आई। घर तक। अपने ज़ेहन तक। अब इन्हें एक समझ की शक्ल देने की कोशिश कर रही हूँ। आजकल इसी बात का झगड़ा है। कोई छोटा या मोटा नहीं बल्कि जानलेवा झगड़ा। देशभक्ति और देश के इर्द-गिर्द घूमता हुआ। देश शब्द अब डराने या धमकाने सा लगा है। जबकि देश किसी भी व्यक्ति के लिए महज एक भौगोलिकता नहीं होता। वह इस दायरे से भीतर और बाहर दोनों होता है। देश शब्द के मायने सभी के लिए अलाहिदा हो सकते हैं और ये इस हद तक लचीले हैं कि कोई भी अपने हिस्से के आयतन के साथ खुशी से रह सकता है। सब अपनी समझ से इसे परिभाषित कर सकते हैं। यह छूट इस देश के संविधान ने तो दी ही है साथ यह नैसर्गिक भी है। मैंने अपनी किसी पोस्ट में यह लिखा था कि शीला धर द्वारा लिखी किताब 'दिस इंडिया' मे वह बहुत अच्छी तरह से लिखती हैं कि भारतीयता वह तत्व है जो इस देश में जन्म लेते समय ही शिशु में मौजूद होता है। उसे अलग से डालने की ज़रूरत नहीं होती। इस लिए तमाम इल्ज़ाम जो इस देश के नागरिकों पर देश द्रोह से जुड़े लगाए जाते हैं उन्हें बड़ी आसानी से ख़ारिज़ किया जा सकता है।
बच्चों की देश की समझ में धर्म भी नहीं दिखा। इस बात का मुझे आश्चर्य भी है। हम एक धर्म निरपेक्ष देश हैं। इसका मतलब राज्य का अपना कोई धर्म नहीं होगा। वह राज्य में ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करेगा जिसमें सभी धर्म का सत्व समाज को लाभ पहुंचाए। कुछ ऐसी ही हमारी संवैधानिक परिभाषा में धर्म के बारे में समझ मिल जाएगी। हो सकता है यह सब बच्चों ने कहीं किसी से सीखा हो, स्कूल में, घर में या कहीं भी। लेकिन बच्चों की दाद देनी होगी कि उन्हों ने अपनी समझ को अपनी जरूरत के मुताबिक ही लिया। बाकी को छोड़ दिया। या यह भी संभव है कि उन्हें सवाल के जवाब का हुनर आता हो। चाहे इसके पीछे कोई भी वजह हो। लेकिन मैं खुश थी कि कहीं भी धर्म ने दस्तक नहीं दी।
तीसरी बात यह भी ध्यान खींचने वाली रही कि देश के मतलब में वे इकाई से आगे बढ़ते हुए दिखे। हमारा परिवार से लेकर दुनिया तक। यह दिलचस्प है। बहुत। भई... पासपोर्ट के बाहर भी बहुत कुछ है। जो पढ़े लिखे लोग 'वसुधैव ही कुटुंबकम्' को हजारियों बार कहकर अपनी दिमाग की बत्ती की नुमाइश करते हैं उनसे अगर इसके पीछे की तस्वीर पूछ ली जाए तो उनका दम निकल जाएगा। इसके जवाब में वे लोग फिर संस्कृत के गल चुके श्लोक चिपकाएँगे जिनका मतलब वे खुद ही जानते हैं। यहाँ मैं रोज़मर्रा और आसपास को सीखने-सिखाने
जरिये के रूप में महत्वपूर्ण मान रही हूँ। देखिये यह आमफहम समझ कितनी ही शानदार है कि आपके देश में दुनिया के सभी हिस्से समा रहे हैं। ज़रा सोचिए उन फकीरी यात्राओं के बारे में कैसे बिना पासपोर्ट के एक देश से दूसरे देश जाया जाता था। जब लकीरें मौजूद नहीं थीं। पर आज तो अपने ही देश के दूसरे राज्य में जाने के लिए टोल टैक्स लग जाता है। आज के मसले भी सरल नहीं हैं। सुरक्षा के मद्देनज़र सीमाओं को खुला भी नहीं छोड़ा जा सकता।
लेकिन मुझे इस बात की खुशी है कि बच्चे अपनी कल्पनाओं को वैधानिक और अवैधानिक लकीर से आगे ले जा रहे हैं। ऐसे माहौल में जब देश और देशभक्ति की हाय-तौबा जानलेवा बन चुकी है तब बच्चों में इस तरह की समझ मुझे शांति दे रही है।
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