मेरे जैसे मामूली लोगों के पास अगर कहीं ख़ालीपन नहीं रहता तो वह जगह मेंरा दिमाग है. इतना शोर सा मचा हुआ है. कहीं और कभी भी राहत नहीं है. तीन चार दिन से फ्रेशर पार्टी में योगदान के लिए 1000 रुपए की मांग हो रही थी. हालाँकि यही किसी की सहायता के लिए होता तो शायद ही मैं एक बार सोचती. मैं पार्टी में नहीं जाती. न ही मेरे माँ पापा को यह सब करना आता है. वे मामूली सी जिंदगी जीते हैं. और उन्हीं का अक्स मुझमें चुपचाप आ गया है. हैरानी इस बात की है कि यह आदत और चाहत मुझमें क्यों नहीं? मेरी चाहत में एक या दो लोगों के साथ हल्की और आहिस्ता की जाने वाली बातें ही शामिल है. बाहर का शोर मुझे बेचैन कर देता है. इसलिए मुस्कराहट से बात ज़्यादा करती हूँ. फिर भी मुझे 1000 रुपए नहीं देने का दुःख है. एक तो मेरे पास हैं भी नहीं. जिन्हों ने मुझसे लिए हैं वे ख़ुद दे नहीं रहे. पैसा काफी कुछ है. लेकिन अगर आप इन मामलों में हिचकते हैं तो लोग आपको बेवकूफ बना सकते हैं. कल ही मैंने अपनी दोस्त से सड़क पर चलते हुए कहा- पैसा कुछ नहीं है. क्योंकि इसे नेचर ने नहीं बनाया...तब मेरी दोस्त ने मेरी बातों में पंक्ति जोड़ते हुए कहा- "hmm...Nature had made human only!" (प्रकृति ने तो बस इन्सान बनाया था!) अब ऐसी दोस्त को छोड़कर पार्टी में तो नहीं जा सकती न! खैर, जो लोग जाते हैं उनसे मुझे कुछ लेना देना नहीं. लोगों के निजी मामलों में हमें कोई हक ही नहीं है कुछ कहने का. यह उनकी अपनी ज़िन्दगी है. सब आज़ाद है अपने मुताबिक़ जीने के लिए.
दूसरी ज़रूरी बात जो आज ही हुई.
आज जब घर लौट रही थी तब बस में दो आदमी से चढ़े. रविवार था इसलिए हम 4 से 5 महिलाएं थीं और पुरुष भी लगभग इसी तरह कम संख्या में थे.दोनों में से एक आदमी मादर...नाम से बार-बार गालियों के शब्द बोले जा रहा था. तब खून खौल गया... माँ को लगता है कि अगर मैं इसी तरह घर से बाहर लड़ाई करुँगी तो मेरे साथ कुछ ग़लत हो जाएगा. "कसम है ज्योति जो तुम बाहर किसी को कुछ बोल या उलझ कर आई..." मानती नहीं यह सब. लेकिन माँ को तो मानती हूँ. कितना सब शोर सुनकर मेरे दिमाग में पच जाता है. यह बेरहमी है. शहर में अपने मुताबिक माहौल नहीं मिल पाता लेकिन क्या यह भी नहीं हो सकता कि कुछ लोग या बहुत से लोग तहज़ीब सीख लें? अगली बार जब वे भारत माता की जय करें तो उससे पहले अपने जेहन और अल्फ़ाज़ चेक करें.
मेरे कुछ परिचय के लोग बोलते हैं कि तुम ज़रूरत से ज़्यादा संवेदनशील हो जाती हो. लोगों का तो यही काम है. हर किसी से झगड़ा नहीं किया जा सकता. शुरू में मुझे बेहद कुफ्त होती थी. लेकिन लोगों ने मुझे ऐसी थैरेपी दी कि अब मैं चुप हूँ. मुझे डरा दिया गया है. मेरे पास हिम्मत नहीं बची. इसे मारने का काम ख़ुद मैंने और मेरे आसपास 'अच्छे' लोगों ने किया है. लोगों के पचड़ों में 'ज्योति' तुम क्या करोगी बोलकर? छोडो भी जाने दो...होता है..! लेकिन दम घुटता है यह सब देखकर. किसी दिन तेज़ चिल्लाऊंगी...बहुत तेज! किसी दिन ऐसी राक्षसनी बनूँगी जो बेहद खूंखार होगी. जिसके नाख़ून होंगे और जो ऐसे लोगों का मुंह नोच लेगी जो 6 महीने के बच्ची के साथ गलत करते हैं. क्योंकि मेरे देश की सरकार, विद्यालय, शिक्षा और शिक्षक फ़ेल हो गए हैं एक अच्छा इन्सान बनाने में...मैं ग़लत हूँ. हो सकता है. आप ही सही हैं. ...यहाँ सबकुछ हो सकता है. सबकुछ, जो सोचा भी नहीं गया वह भी...
अभी जब इसवक़्त जबये सब बकवास लिख रही हूँ, इसी पल कहीं कोई मारी जा रही है...कोई मारा जा रहा...सड़क पर कुछ लोग सो रहे हैं. उनके बच्चे सुबह का इंतज़ार करेंगे कि कब दिन हो और रेड लाइट्स काम करें. गाड़ियाँ रुकें...रेड लाइट्स न होती तो क्या होता? सोच रही हूँ...ओह! मुझे बेइंतहा ख़ाली हो जाने की चाहत..!
चलिए अब बेटियों का दिन मनाया जाए!
दूसरी ज़रूरी बात जो आज ही हुई.
आज जब घर लौट रही थी तब बस में दो आदमी से चढ़े. रविवार था इसलिए हम 4 से 5 महिलाएं थीं और पुरुष भी लगभग इसी तरह कम संख्या में थे.दोनों में से एक आदमी मादर...नाम से बार-बार गालियों के शब्द बोले जा रहा था. तब खून खौल गया... माँ को लगता है कि अगर मैं इसी तरह घर से बाहर लड़ाई करुँगी तो मेरे साथ कुछ ग़लत हो जाएगा. "कसम है ज्योति जो तुम बाहर किसी को कुछ बोल या उलझ कर आई..." मानती नहीं यह सब. लेकिन माँ को तो मानती हूँ. कितना सब शोर सुनकर मेरे दिमाग में पच जाता है. यह बेरहमी है. शहर में अपने मुताबिक माहौल नहीं मिल पाता लेकिन क्या यह भी नहीं हो सकता कि कुछ लोग या बहुत से लोग तहज़ीब सीख लें? अगली बार जब वे भारत माता की जय करें तो उससे पहले अपने जेहन और अल्फ़ाज़ चेक करें.
मेरे कुछ परिचय के लोग बोलते हैं कि तुम ज़रूरत से ज़्यादा संवेदनशील हो जाती हो. लोगों का तो यही काम है. हर किसी से झगड़ा नहीं किया जा सकता. शुरू में मुझे बेहद कुफ्त होती थी. लेकिन लोगों ने मुझे ऐसी थैरेपी दी कि अब मैं चुप हूँ. मुझे डरा दिया गया है. मेरे पास हिम्मत नहीं बची. इसे मारने का काम ख़ुद मैंने और मेरे आसपास 'अच्छे' लोगों ने किया है. लोगों के पचड़ों में 'ज्योति' तुम क्या करोगी बोलकर? छोडो भी जाने दो...होता है..! लेकिन दम घुटता है यह सब देखकर. किसी दिन तेज़ चिल्लाऊंगी...बहुत तेज! किसी दिन ऐसी राक्षसनी बनूँगी जो बेहद खूंखार होगी. जिसके नाख़ून होंगे और जो ऐसे लोगों का मुंह नोच लेगी जो 6 महीने के बच्ची के साथ गलत करते हैं. क्योंकि मेरे देश की सरकार, विद्यालय, शिक्षा और शिक्षक फ़ेल हो गए हैं एक अच्छा इन्सान बनाने में...मैं ग़लत हूँ. हो सकता है. आप ही सही हैं. ...यहाँ सबकुछ हो सकता है. सबकुछ, जो सोचा भी नहीं गया वह भी...
अभी जब इसवक़्त जबये सब बकवास लिख रही हूँ, इसी पल कहीं कोई मारी जा रही है...कोई मारा जा रहा...सड़क पर कुछ लोग सो रहे हैं. उनके बच्चे सुबह का इंतज़ार करेंगे कि कब दिन हो और रेड लाइट्स काम करें. गाड़ियाँ रुकें...रेड लाइट्स न होती तो क्या होता? सोच रही हूँ...ओह! मुझे बेइंतहा ख़ाली हो जाने की चाहत..!
चलिए अब बेटियों का दिन मनाया जाए!