Sunday, 22 September 2019

ख़ालीपन की चाहत

मेरे जैसे मामूली लोगों के पास अगर कहीं ख़ालीपन नहीं रहता तो वह जगह मेंरा दिमाग है. इतना शोर सा मचा हुआ है. कहीं और कभी भी राहत नहीं है. तीन चार दिन से फ्रेशर पार्टी में योगदान के लिए 1000 रुपए की मांग हो रही थी. हालाँकि यही किसी की सहायता के लिए होता तो शायद ही मैं एक बार सोचती. मैं पार्टी में नहीं जाती. न ही मेरे माँ पापा को यह सब करना आता है. वे मामूली सी जिंदगी जीते हैं. और उन्हीं का अक्स मुझमें चुपचाप आ गया है. हैरानी इस बात की है कि यह आदत और चाहत मुझमें क्यों नहीं? मेरी चाहत में एक या दो लोगों के साथ हल्की और आहिस्ता की जाने वाली बातें ही शामिल है. बाहर का शोर मुझे बेचैन कर देता है. इसलिए मुस्कराहट से बात ज़्यादा करती हूँ. फिर भी मुझे 1000 रुपए नहीं देने का दुःख है. एक तो मेरे पास हैं भी नहीं. जिन्हों ने मुझसे लिए हैं वे ख़ुद दे नहीं रहे. पैसा काफी कुछ है. लेकिन अगर आप इन मामलों में हिचकते हैं तो लोग आपको बेवकूफ बना सकते हैं. कल ही मैंने अपनी दोस्त से सड़क पर चलते हुए कहा- पैसा कुछ नहीं है. क्योंकि इसे नेचर ने नहीं बनाया...तब मेरी दोस्त ने मेरी बातों में पंक्ति जोड़ते हुए कहा- "hmm...Nature had made human only!" (प्रकृति ने तो बस इन्सान बनाया था!) अब ऐसी दोस्त को छोड़कर पार्टी में तो नहीं जा सकती न! खैर, जो लोग जाते हैं उनसे मुझे कुछ लेना देना नहीं. लोगों के निजी मामलों में हमें कोई हक ही नहीं है कुछ कहने का. यह उनकी अपनी ज़िन्दगी है. सब आज़ाद है अपने मुताबिक़ जीने के लिए.

दूसरी ज़रूरी बात जो आज ही हुई.
आज जब घर लौट रही थी तब बस में दो आदमी से चढ़े. रविवार था इसलिए हम 4 से 5 महिलाएं थीं और पुरुष भी लगभग इसी तरह कम संख्या में थे.दोनों में से एक आदमी मादर...नाम से बार-बार गालियों के शब्द बोले जा रहा था. तब खून खौल गया... माँ को लगता है कि अगर मैं इसी तरह घर से बाहर लड़ाई करुँगी तो मेरे साथ कुछ ग़लत हो जाएगा. "कसम है ज्योति जो तुम बाहर किसी को कुछ बोल या उलझ कर आई..." मानती नहीं यह सब. लेकिन माँ को तो मानती हूँ. कितना सब शोर सुनकर मेरे दिमाग में पच जाता है. यह बेरहमी है. शहर में अपने मुताबिक माहौल नहीं मिल पाता लेकिन क्या यह भी नहीं हो सकता कि कुछ लोग या बहुत से लोग तहज़ीब सीख लें? अगली बार जब वे भारत माता की जय करें तो उससे पहले अपने जेहन और अल्फ़ाज़ चेक करें.



मेरे कुछ परिचय के लोग बोलते हैं कि तुम ज़रूरत से ज़्यादा संवेदनशील हो जाती हो. लोगों का तो यही काम है. हर किसी से झगड़ा नहीं किया जा सकता. शुरू में मुझे बेहद कुफ्त होती थी. लेकिन लोगों ने मुझे ऐसी थैरेपी दी कि अब मैं चुप हूँ. मुझे डरा दिया गया है. मेरे पास हिम्मत नहीं बची. इसे मारने का काम ख़ुद मैंने और मेरे आसपास 'अच्छे' लोगों ने किया है. लोगों के पचड़ों में 'ज्योति' तुम क्या करोगी बोलकर? छोडो भी जाने दो...होता है..! लेकिन दम घुटता है यह सब देखकर. किसी दिन तेज़ चिल्लाऊंगी...बहुत तेज! किसी दिन ऐसी राक्षसनी बनूँगी जो बेहद खूंखार होगी. जिसके नाख़ून होंगे और जो ऐसे लोगों का मुंह नोच लेगी जो 6 महीने के बच्ची के साथ गलत करते हैं. क्योंकि मेरे देश की सरकार, विद्यालय, शिक्षा और शिक्षक फ़ेल हो गए हैं एक अच्छा इन्सान बनाने में...मैं ग़लत हूँ. हो सकता है. आप ही सही हैं. ...यहाँ सबकुछ हो सकता है. सबकुछ, जो सोचा भी नहीं गया वह भी...

अभी जब इसवक़्त जबये सब बकवास लिख रही हूँ, इसी पल कहीं कोई मारी जा रही है...कोई मारा जा रहा...सड़क पर कुछ लोग सो रहे हैं. उनके बच्चे सुबह का इंतज़ार करेंगे कि कब दिन हो और रेड लाइट्स काम करें. गाड़ियाँ रुकें...रेड लाइट्स न होती तो क्या होता? सोच रही हूँ...ओह! मुझे बेइंतहा ख़ाली हो जाने की चाहत..!



 चलिए अब बेटियों का दिन मनाया जाए!
 

Tuesday, 17 September 2019

मुट्ठी में दुःख लेकर पैदा होने वाले लोग

मुझे दो अनुभव साझा करने हैं. दोनों इसी महीने की 9 और 16 सितंबर 2019 के हैं. मुझे नहीं पता कि आगे आने वाले लोग इस अनुभव के किस तरह देखेंगे? हो सकता है वे हैरान हों या हंसें भी. उनके हैरान और हँसने के लिए सही लिख रही हूँ. 

दिल्ली विश्वविद्यालय के 77 कॉलेज हैं. इनमें से लगभग 20 से 25 कॉलेज में रविवार और शनिवार को लड़कियों की क्लास चलती हैं. ज़्यादा जानकारी आप इंटरनेट से ले सकते हैं. बढ़ती आबादी के हिसाब से सभी के लिए पर्याप्त कॉलेज की पढाई मुहैया कराई जा सके, पर सरकारों ने कभी ध्यान नहीं दिया. सरकार अगर धर्म और जहर की राजनीति से ऊपर उठती तो आम से लेकर ख़ास, सभी को बेहतर शिक्षा मिल सकती थी. पर आज़ाद भारत में ऐसा कभी नहीं हो पाया. इसलिए जो मुट्ठी भर कॉलेज हैं, वहां दाखिले के लिए मारामारी लगी रहती है. एक बच्चा कब कट-ऑफ़ के नंबर में तब्दील हो जाता है पता नहीं चल पाता. सरकार को एक ऐसी व्यवस्था तो करनी चाहिए जिसमें सभी पढ़ें और लिखें और अपनी पसंद का करियर चुने. लेकिन भारत में सरकारों की इच्छा एक छलावे से ज़्यादा कुछ नहीं. आज़ादी के सत्तर सालों बाद भी जाति पाँति बरक़रार है, वह भी अपने क्रूरतम रूप में. निकम्मी सरकारों में बैठे हुए लोगों ने अपना रुपया बनाया और कुछ नहीं किया. 

इन परिस्थितियों के चलते बड़े पूंजीवादी घरानों को मजदूर तो चाहिए ही. उनकी अमीरी मजदूरों के खून और शोषण पर ही टिकी है. यह आज से नहीं बहुत पहले से है. वह जमाना गया जब टीवी की उबासी फिल्में मजदूर को फटे-पुराने कपड़े में दिखाती थी. अब स्थिति में बदलाव यह हुआ है कि मजदूर ज़्यादा न सोचें इसलिए उनके हाथों में सस्ते दामों पर मोबाइल फोन्स को पकड़ा दिया है और व्यस्त रखने के लिए सस्ते दामों पर इंटरनेट की सुविधा है. इसके अलावा रही सही कसर फेसबुक ने पूरी कर दी है. कई बार सोचती हूँ तब लगता है यह भी एक वजह है कि लोग पालतू बन चुके हैं. उनके खून में गुस्से की मात्रा धीरे धीरे कम कर दी गई है. 
  
सस्ते मजदूरों की चाहत में सरकारiइस तरह के उपक्रम खोलती है कि सबको थोड़ी बहुत शिक्षा मिल जाए. इसलिए थोड़ी बहुत पढ़ाई और जानकारी के लिए यह रविवार सेंटर चलता है. हर रविवार दो क्लास मिलती है, पढ़ाने के लिए. उसी नौकरी का नियुक्तिपत्र लेने के लिए पहले 9 सितंबर को बिना इंतजाम के बुलाया गया और जब उस दिन बेरोजगारों की भीड़ बढ़ गई तब दिल्ली पुलिस को भी बुला लिया गया. ताज्जुब है दिल्ली पुलिस सुरक्षा के लिए पिस्टल नहीं लाती पर बेरोजगार पढ़े लिखे लोगों के लिए अपने साथ पिस्तौल लाई थी. भीड़ इतनी थी मेरे जैसे कमजोर लोगों को कोई मतलब वहां नहीं था. मैं घर लौटने लगी. तभी एक टीचर ने कहा- "मत जाइए. हो सकता है मिल जाए." मुझे नहीं रुकना चाहिए था लेकिन शायद वह अनुभव मेरी ज़िन्दगी में जुड़ना इसलिए मैं रूक गई. उसके बाद हम भीड़ में कुछ इस तरह फंस गए कि न तो वापस लौट सकते थे और न ही हमें बुलाया जा रहा था. हम ऐसे फंसे थे कि हमारा हाल बेहद बुरा था. लोगो के पास उस भयंकर गर्मी में पानी तक नहीं था. सब बूँद बूँद पानी के लिए तरस रहे थे. प्रशासन ने हमें पानी तक नहीं दिया. लोगों के दम घूँट रहे थे. इस बीच बदतमीजी भी काफी हुई. इन सब दम घोंटू परिस्थितियों के चलते थोड़ी ही देर में उस पतली सी गैलरी में फंसे हुए लोग बेहोश होकर गिरने लगे. ऐसा कई लोगों के साथ हुआ. साँस की बीमारी वाले लोगों को सबसे अधिक परेशानी हुई.


कई लड़के भी बेहोश हुए जिनको हम मानकर चलते हैं कि वे बेहद मजबूत होते हैं. वहां की स्थिति बेहद ख़राब थी. एक बात और हुई. मैं आगे ही खड़ी थी और मेरे बगल में एक लड़का, हेलमेट लेकर खड़ा था. जब भीड़ बेकाबू हुई तब हेलमेट वाले के पीछे खड़ा लड़का उसको उकसाने लगा कि हेलमेट सिक्यूरिटी गार्ड को मार दे. ऐसा उसने कई बार कहा. बल्कि उसके हेलमेट को उसने हाथ भी मारा पर उस लड़के ने ऐसा कुछ नहीं किया. तभी न जाने कैसे भीड़ में एक पतला सा लड़का तमाम महिला टीचरों को धक्का देकर आगे आ गया और अपने आगे वाले लड़के को खूब ज़ोर ज़ोर से धक्का देने लगा. उस के इस रवैया से सभी को बहुत परेशानी हुई. भीड़ का मनो-विज्ञान समझना बहुत ज़रूरी है. वास्तव में मेरा नुभव यह कहता है कि भीड़ जब भीड़ की शक्ल में आती है तब वह अपना व्यक्तिगत दिमाग तो खोती ही है साथ में प्रत्येक व्यक्ति के मूड में हर पल बहुत से उत्तेजित और कम उत्तेजित अप्लिफ्ट्स होते हैं. भीड़ के सामने खड़े व्यक्ति को नहीं पता कि मूड के इन बदलावों में भीड़ का अगला सक्रिय एक्शन या प्रतिक्रिया क्या होगी? 

भीड़ में नाजायज तत्व अगर न मिलें तब तक भीड़ पूरी नहीं होती. भीड़ के आगे कोई सुलझा विचार भी अगर उकसावे के रूप में रखा जाए तब वह मंथन नहीं करती. उसके पास वह व्यक्तिगत आलोचना दृष्टि नहीं होती कि वह पल भर रूक कर यह सोचे कि हम सभी जो मिलकर करने जा रहे हैं, उसका नतीजा किसी की जान से हाथ धोना भी हो सकता है. लेकिन यह भी सिक्के का दूसरा पहलु है जो दिखाई नहीं देता. यह जानना ज़रूरी होगा. पुराने ज़माने की लड़ाइयों को एक बार सोचें. इतने सारे सैनिक यह जानते हुए भी कि वह युद्ध में जा रहे हैं और मारे जा सकते हैं, फिर जाते थे. इसके पीछे का मनो-विज्ञान राजा का विचार होता था. राजा कहता था कि यह जगह जीत लेंगे तब राज होगा. दिलचस्प यह है कि राज तो आख़िर में राजा का ही होता था किसी सैनिक का नहीं. यह बारीक़ बात जान लीजिए कि सैनिकों का एक न होना ही राजा के होने का मतलब है और था. सैनिकों ने कभी एक साथ बैठकर किसी भी सवाल पर बात नहीं की. उन्हों ने कभी भी सवाल पूछने की हिम्मत नहीं दिखाई. जो युद्ध नहीं लड़ना चाहते थे उनको भगोड़ा कहा गया. इसलिए नौकरी पाने की भीड़ जो एन सी डब्ल्यू इ बी (Non-Collegiate Women Education Board) के सामने खड़ी थी वास्तव में प्रशासन (राजा के नोबल कॉज़) के कारण खड़ी. वह यह जाँच कर रहा था कि इस भीड़ को उकसावे के लिए कितना टाइम लगता है? 9 सितंबर को यही हुआ. यह बेहद शर्मनाक और भयानक था. मैं इस दिन को कभी नहीं भूल सकती. 

दूसरी भीड़ 16 तारीख सितम्बर को लगाई गई. यह भीड़ ज़्यादा सफिस्टकेटेड थी. मतलब किसी डॉक्टर की तरह कि क्या काटा जाए तो शरीर को मौत दी जा सकती है. यह ज़्यादा खतरनाक थी. हम सब सुबह देर सवेर आ गए थे और नाम लिखकर कूपन मिल गए थे. लेकिन वह किस्मती रहे जिनके नाम 93 तक थे. बाकी लोगों को भूख समेट निराशा मिली. यह भूख व्यक्ति से सब करवा सकती है. यही हुआ भी. भूखी भीड़ ने रात को डायरेक्टर का कमरा घेर लिया और दो दिन में अपना हक़ माँगा है. अब देखिए कि क्या होता है. 

लेकिन जब मैं अपना लैटर लेकर आ रही थी तब मैंने उम्मीद खो चुकी उस भीड़ के चेहरे को देखा जो सुबह बेहद चमकीली उम्मीद के साथ काम के लिए आई थी. ताकि रविवार को दो घंटे पढ़ाकर दो हज़ार रुपए कमा सके. मेरी ख़ुशी पल में बिखर गई. मुझे आत्म ग्लानी हुई और बेकार दुखी मन लिए घर को लौटी. यह लौटना बगैर ख़ुशी के था. ख़ुशी की उम्र कम होती है. हम मुट्ठी में दुःख लिए ही पैदा होने वाले लोग हैं. 
    

Monday, 9 September 2019

खिड़कियाँ


तहे दिल से उस लेखिका से माफ़ी मांगती हूँ. मैं उनका नाम भूल रही हूँ. मैं उस समय बहुत छोटी थी. लेखिका ने कहीं किसी इंटरव्यू में यह बात कही थी कि जब वह लिखने बैठती हैं तब घर के खिड़की दरवाज़े खोलकर लिखती हैं. ताकि बाहर के विचार अन्दर आ सकें और अन्दर के विचार बाहर.  


खिड़कियाँ क्यों होनी चाहिए घरों में
क्योंकि जो बहुत अरसे से क़ैद है और उसके भागने का रास्ता यही है
ताकि जो उड़ना चाहता है वह खिड़की से आसमान की थाह ले सके
ताकि फेरी वालों की आवाज़ें घरों में बिना पूछे घुस सकें
ताकि दो जोड़ी आँखें रसोई से बाहर देख सकें
ताकि छौंक और छाती की तीखी और तल्ख़ मैली हवा बाहर जा सके
ताकि आदान-प्रदान हो सके
ताकि चार जोड़ी मोहब्बत वाली आँखें एक दूसरे को कुछ पलों के लिए ही सही पर देख सकें
ताकि बारिश की बूँद अपना भी इस धरती पर एक घर तलाश सके
ताकि बारिश के ही कुछ छींटें जो धरती पर इंक़लाब करने आए हैं वे ज़बरन घर में घुस कर ठंडक पहुंचा सकें
ताकि किसान अपनी फ़सल के जन्म को पोषित होता हुआ देख सकें
ताकि कोई चिड़िया आकर कोई बात कह सके
ताकि गली की गूँज सुनी जा सके
ताकि ऑक्सीजन पीया जा सके
ताकि...



   

Sunday, 8 September 2019

'अ' से मतलब अभी जागो

आसपास की दुनिया काफी बड़ी हो गई है. हाँ, मैं कोई गणितीय माप लेकर नहीं घूम रही, बस जो महसूस कर रही हूँ वह लिख रही हूँ. हम कई दुनियाओं में जीते हैं. जो दुनिया मुझे बेहद पसंद है वह मेरे अंदर की दुनिया है. कितना कुछ तिलिस्म छुपा कर हम जीते हैं. एक औरत के मन का तिलिस्म तो जानती हूँ पर किसी पुरुष के मन का तिलिस्म क्या होता है, अभी तक नहीं जानती. पिता के मन का तिलिस्म अक्सर चिंताओं में पाती हूँ. आज के समय में किसी बेटी का पिता होना नाज़ की बात तो है ही और बहादुरी की भी. 

कई बार मैं अपनी बातों के पास पैदल चलकर आती हूँ. पैदल चलना मतलब उर्ज़ा लगाकर आना. जब भी कोई किताब पढ़ने के लिए खोलती हूँ और जब मुझे यह पता चलता है कि वह किसी औरत ने लिखी है तब महसूस करती हूँ कि मन में कुछ घुल रहा है. एक रिश्ता पनप जाता है. पुरुष लेखनी को पढ़ने की आदत स्कूल वालों ने डाल दी वरना मैंने कभी कहा ही नहीं था कि मुझे पुरुष की लेखनी पढ़नी है. कभी कभी सोचती हूँ कि अगर स्कूल के बारह सालों में पाठ्यक्रम का 50 प्रतिशत हिस्सा भी सिर्फ औरत के द्वारा लिखा हुआ पढ़ा होता तो मेरा दिमाग की मिट्टी का आज बना होता. कुछ तो फर्क होता उया नहीं? शायद होता!  

बचपन में तो कहानीकारा माएं हुआ करती हैं. फिर आदमी कब शिक्षा में अपनी जुबान हमारे सामने पटक देता है? कब पुरुष हाथ में कलम थामकर हमारी जीभ और दिमाग में लिखने लगता है, मालूम ही नहीं चलता! यह सब बहुत धीमा होता है और पता भी नही चलता. ठीक इसके विपरीत अगर पुरुष बच्चों को महिलाओं के हाथो से लिखे लेख और क़िताबें पढाई जाती तब क्या वे आज की तरह ही इन्सान होते जो बात बात पर माँ-बहन के अंगों से जुड़ी गालियाँ देते हैं? ये सभी सवाल परेशान करने वाले नहीं हैं भी और नहीं भी. 

आज  विश्व साक्षरता दिवस है. मुझे बचपन की वे सभी किताबेंयाद आ रही हैं जिनमें अ से अनार से लेकरज्ञ तक के अक्षर लिखे होते थे.बढ़ती हुई क्लासों में कमला को घर चलने के लिए कहने वाला एक भाई होता था. शिक्षा मतलब लोगों के व्यवहार में अच्छे परिवर्तन लाने का साधन. लेकिन मैंने इन अच्छे परिवर्तनों कब लोगों के व्यवहार में देखा हो, याद ही नहीं आता. जितना पढ़ा लिखा, उतना घमंड. जितनी पढ़ी लिखी उतना घमंड. जितने पढ़े लिखे उतने ही फासले, ऊँचे और नीचे वाले. यह सच है. शब्द कमाल करते हैं. उनमें पूरी दुनिया बदल देने की ताक़त है. ठीक ऐसे ही गणित के नंबर के साथ भी है. सूत्रों में बंधे नंबर दुनिया के बारे में कितने राज खोल देते हैं. ठीक ऐसे ही पढाई लिखाई बहुत बड़ा फर्क ले आने में सक्षम है. 



लेकिन आजकल की पढ़ाई-लिखाई आखिर है क्या? क्या है आज पढ़ने लिखने का मतलब? दिमाग पर ज़ोर डालिए तो कितनी निराशा सी मिलती है महसूस करने को. यह नहीं कह रही कि स्थिति बेहद ख़राब है पर कह यह भी तो नहीं रही कि स्थिति ख़राब नहीं है. शब्दों का फेर है. मुर्खता और हिंसा इतनी हावी है कि इसके रोज़ नए कीर्तिमान खड़े किए जा रहे हैं. सोचिए, जरा महसूस कीजिए की देश का इतना संपन्न कानून है फिर भी लोग लिंच कर के मार दिए जा रहे हैं. भीड़ इकठ्ठा होती है. उनके दिमाग में यह भर दिया जाता है कि आप मारने वाले की तरफ खड़े हैं और सामने जो व्यक्ति दिख रहा है उसे जान से मारना है क्योंकि वह दलित है या मुस्लिम है. कितना डरावना है यह सब. सोच कर रूह कांप जाती है. आप अपने आप को उस अकेले व्यक्ति के स्थान पर रखकर सोचिए, आप डर से सदमे में आ जाएंगे. यही बात मैं आपको बतलाना चाह रही हूँ कि हमने सोचना बंद कर दिया है. हमने दूसरों के दर्द और चोट को सहलाना और महसूस करना बंद कर दिया है. अगर कोई शिक्षा इन ख़ूबियों का क़त्ल करती है तो वह शिक्षा वास्तव में शिक्षा नहीं है. 

कुछ लोगों का मकान इतना बड़ा है कि उसकी ऊंचाई देखने पर गरदन में मोच आ जाती है वहीं कुछ लोग ऐसे हैं जो सड़ते हुए नाले के करीब या फिर कूड़े के ढेरों पर रहते हैं. क्या यह शिक्षा का काम नहीं कि वह यह सब बताए कि असमानता कितनी भयानक चीज है और यह कितनी तेज़ी से बढ़ रही है. जिस देश में हजारों मंदिर है उसी देश में हमारे विचार और मतभेद एक मंदिर पर आकर पिछले कई सालों से दम तोड़ रहे हैं. क्या हम इस ज़मीन में एक मंदिर निर्माण के लिए ही पैदा हुए हैं? मुझे यह सवाल परेशान करता है. मैं यह सोचती हूँ कि हम यहाँ जीने और एक दूसरे के साथ कुछ समय बिताने आये हैं. अगर इससे बढ़कर आगे जाएं तब इस धरती को जानने के लिए अपनी है. अपनी हैरानी को एक जगह देने आये हैं. अगर कहीं दुःख दर्द है तो अपने आप को मारने के अलावा उनके दर्द को बांटने आये हैं. 

शिक्षा की एक कमी के बारे में यह भी है कि हम अपने आसपास और उसके जीवन को बेहद क्रूरता से मार रहे हैं. किसी कुत्ते को तेज लात मारनी हो या फिर अपनी किसी नदी को गन्दा करना हो. हम हर काम में अव्वल हैं. यह इंसानों की भयानक क्रूरता है. बहुत ही बुरी तरह हम इन चीजो को नज़रन्दाज़ कर रहे हैं. कभी कभी लगता है करियर बनाने का क्या फायदा जब हम आने वाले कुछ ही सालों में इस पृथ्वी को नाश की कगार पर ले जा रहे हैं. कभी कभी ख़ुद ही कुछ न कर पाने का मलाल होता है इसलिए शब्दों से चिल्ला लेती हूँ. 

बैठ कर सोचिए कि मैं और आप किस साक्षरता के शिकार हो रहे हैं? हमें किस तरह की साक्षरता की ज़रूरत है? जल्दी अपने मन को बदलिए. जल्दी. वक़्त बेहद कम है!  



Thursday, 5 September 2019

अनूठा अनुभव


जो देखा उस पर यकीं नहीं हो रहा, अभी भी. बंद आँखों से जो देखा जाता है, उस पर यकीं न करने के एक हज़ार कारण हो सकते हैं. यह बात ठीक भी है. सपने सबसे ज़्यादा तरल और हवा में तैरने वाले होते हैं. बेहद महीन. लेकिन जो देखा, वह सपना नहीं था. जो देखा था वह चमत्कार भी नहीं था. जहाँ तक लगता है वह दिमाग की शानदार करामात या संरचनाएं थीं. क्या किसी का दिमाग इस तरह से नए नए पैटर्न तैयार कर सकता है? इसका जवाब हाँ है. 

उस दिन इतना बुखार था. होश गायब था. जब तेज़ बुखार होता है तब व्यक्ति को अजीब और अटपटे ख़याल आने लगते हैं. इसमें कोई हैरत की बात नहीं. दर्द आपको बातूनी भी बना सकता है साथ ही साथ उसमें इतनी ताक़त होती है कि वह आपको किसी दूसरी दुनिया में आसानी से ले जाकर पटक सकता है. इसके लिए आपके परिवार के लोग भी एक महत्पूर्ण भूमिका निभाते हैं. जब हालत नाजुक होती है तब घर में माएं सबसे अधिक मोह और प्यार के साथ पेश आती हैं. उनके द्वारा आपके लिए दिए गए भाव कुछ ऐसा माहौल पैदा करते हैं जिससे आपका दिमाग दूसरी ही रचनाएं बनाने में तेज़ी से काम करता है. 

फिर भी कहूँगी कि यह छल है. जो लिखने जा रही हूँ उस पर पूरा यकीं न भी कीजिए पर उसे नज़रन्दाज़ नहीं किया जा सकता. जो पैटर्न बंद आखों से दिखाई दिए वे बहुत हदतक दिमाग में कभी नहीं आये थे. ज़ोर डालकर याद करने पर भी कहूँगी कि अपनी छोटी सी ज़िन्दगी में वे पैटर्न कभी नहीं दिखे. उनके रंग बेहद संजीदा थे. या कहूँ कि वे अनूठे रंग थे. जो आकृतियाँ देखीं वे ऐसी थीं जो ज्यामिति की कुछ आकृतियों से मेल खाती थीं पर हुबहू नहीं. इन पैटर्न में गति इतनी थी कि इनको पकड़ पाना मेरे लिए न-मुमकिन था. कईयों को दर्ज़ करने की कोशिश की पर असफलता ही हाथ लगी.uउनके होने की पृष्ठभूमि भी न तो धरती थी और न ही आकाश. मुझे बिलकुल समझ नहीं आया कि यह तस्वीरें कहाँ की हैं, किससे मेल खा रही हैं और ये हैं क्या? बहुत तेज़ी से सब बदल रहा था. मैं सौ प्रतिशत होश में थी. बुखार और दर्द था पर मैंने कभी भी अपने आप को किसी दर्द का गुलाम नहीं बनने दिया है, अभी तक.



जब समानता शब्द के बारे में सोचा तब एक बेहद खुबसूरत तस्वीर सामने आई. पानी दिखा उस समय. इस एहसास को मैं ही महसूस कर सकती हूँ. पानी को अक्सर हम अपने एक ज़रूरी साधन के रूप में ही देखते आये हैं. लेकिन क्या वह महज साधन भर ही है? शायद नहीं. उसके अलावा वह क्या क्या है, सोचना अच्छा रहेगा. शोर में भी सोचने की प्रक्रिया को बनाये रखना, चुनौती है. हम कभी मुकम्मल नहीं बन सकते. हम वही बन सकते हैं जो हमें बनाया गया है. एक बात और जो इन छवियों को देखकर कह सकती हूँ और वह यह कि हम इस महान प्रकृति के सामने कुछ भी नहीं है. कुछ भी! मेरा यकीं कीजिए. जो प्रकृति का रंग रूप हम इन नंगी आँखों से देख रहे हैं वह कुछ भी नहीं है. असली रूप इतना महान है कि वह अपने आप को इस महान प्रकृति से जोड़कर ही देखा जा सकता है. ऐसा बहुत कुछ है जो इस प्रकृति में है और जिससे हम अनभिज्ञ हैं. यह अच्छा भी है. जो मैंने देखा वह शानदार अनुभव था. उसको सबसे पहले मैंने अपनी माँ से साझा किया था और वो हैरान होकर मेरे शरीर की गर्माहट देख रही थी. उसके बाद मेरे जन्म से पहले की कहानी बतानी शुरू की. खैर, माँ के पास हमेशा बहुत कहानियां अपने बच्चों के लिए होती हैं, सुना कीजिए उन्हें. 

फ़िलहाल इस अनुभव के बाद मुझे कैसा लग रहा है, वह मैं साझा कर सकती हूँ. इस अनुभव के बाद मुझे बेहद कमजोरी और थकावट रहने लगी है. जिन चित्रों को देखा उसके लिए शायद ताक़त की जरुरत अधिक होती है. मेरे पास यह नहीं है. फिर मुझे यह सब दिखा उसके लिए इस महान प्रकृति की शुक्रगुजार हूँ. दूसरा अनुभव जो मैं कह सकती हूँ वह यह कि मन में एक आत्मीय आराम सा रहने लगा है. ऐसा लग रहा है जैसे रुई वाली बर्फ़ गिर रही है और 'राहत' पहुंचा रही है...काफी बदली हूँ पर उन बदलावों को शायद धीरे धीरे ही समझ पाऊं.

यह सब इसलिए लिख रही हूँ वो भी ब्लॉग पर क्योंकि हमारे यहाँ इस तरह की बातों को पागल की बातें क़रार दिया जाता है. जबकि यह पागलपन नहीं है. यह बिलकुल प्राकृतिक है. बहुत से लोगों को ऐसे अनुभव होते रहते हैं. उन्हें साझा नहीं करते. शर्म, डर और मजाक के चलते ऐसे अनुभव नहीं आ पाते. इन्हें लिखिए. ये आपके विवरण हैं. ये आप की दुनिया और ब्लॉग है. बाकी इसे किसी भी तरह के धर्म से जोड़ना पाप होगा. यह बिलकुल करने के पक्ष में मैं नहीं हूँ. 

फोटो मैं स्टारी नाईट लगा रही हूँ जिसे विन्सेंट वॉन गॉग ने बनाया था. इस पेंटिंग में आपको ज़रूर कुछ ख़ास मिलेगा अगर इसे देर तक देखें. मैं समझती हूँ मेरे चित्र का कुछ हिस्सा इस पेंटिंग में आया है..!








 

Monday, 2 September 2019

कुछ भी तो नहीं हुआ है, फिर तुम क्यों...








               


रोज़ बहुत कोशिश करती हूँ कि मन से अपने करियर के लिए पढाई करूँ पर हो नहीं पाता. आप यह कैसे कर सकते हैं जब देश के हिस्से के लाखों लोगों के बारे में कुछ पता नहीं चल पा रहा है? यह एक दिन के लिए नहीं है. ऐसा कई दिनों से हो रहा है. गोलियों में जीते वे लोग कैसे जी रहे हैं, जी भी रहे हैं या मर गए हैं, पता नहीं? आप कैसे किसी किताब के पन्ने अपने सड़ियल और ठोकर खाते करियर के लिए पलट सकते हैं जब देश के किसी राज्य में तीन साल की बच्ची को पुलिस द्वारा पटक कर मार दिए जाने की ख़बर अन्दर से नोच कर निकल गई हो? लगता है जैसे ज़िस्म के कई ज़रूरी हिस्सों को तगड़ा बिजली का झटका लगा हो. आप कैसे उस नौकरी की बात सोच सकते हैं जो आप को मिलेगी ही नहीं? क्योंकि कई और भी हैं जिनको नहीं मिल रही. जिनको मिली थी, सुना है उनकी भी जा रही है. आप कैसे उस देश में हँसने की बात सोच पा रहे हैं जहाँ, अस्पताल के दरवाजे पर बच्चों का जन्म हो रहा है? आप कैसे उस झक्की नौकरी का सोच सकते हैं जहाँ, रात के समय भरोसे में डूबी लड़की तमाम दुर्घटनाओं के बाद भी यकीं कर के ओला या उबर कर लेती है? पर उसके साथ वही होता है जिसके बारे में आपको और मुझको अच्छी तरह पता है. यह पता होना हमारी बेबसी है. हमारी शर्मंदिगी है. हमारी जिंदा रहते हुए मौत है. मैं बराबर परेशान रहती हूँ क्योंकि इन लोगों ने मुझे कश्मीर के बारे में स्कूल की किताबों में पढ़ाया है. मैं उन लोगों का सोचती हूँ तो जी बाहर आ जाता है. मैं सामान्य जीवन भी नहीं जी पा रही. मैं मर रही हूँ. अगर कोई ख़ुदा है, तो कहो कि वह क़यामत का दिन भूल गया है शायद! मुझे बेसब्री से क़यामत का इंतज़ार है.

21 बरस की बाली उमर को सलाम, लेकिन

  दो साल पहले प्रथम वर्ष में पढ़ने वाली लड़की से मेरी बातचीत बस में सफ़र के दौरान शुरू हुई थी। शाम को काम से थकी हारी वह मुझे बस स्टॉप पर मिल...