Tuesday, 17 September 2019

मुट्ठी में दुःख लेकर पैदा होने वाले लोग

मुझे दो अनुभव साझा करने हैं. दोनों इसी महीने की 9 और 16 सितंबर 2019 के हैं. मुझे नहीं पता कि आगे आने वाले लोग इस अनुभव के किस तरह देखेंगे? हो सकता है वे हैरान हों या हंसें भी. उनके हैरान और हँसने के लिए सही लिख रही हूँ. 

दिल्ली विश्वविद्यालय के 77 कॉलेज हैं. इनमें से लगभग 20 से 25 कॉलेज में रविवार और शनिवार को लड़कियों की क्लास चलती हैं. ज़्यादा जानकारी आप इंटरनेट से ले सकते हैं. बढ़ती आबादी के हिसाब से सभी के लिए पर्याप्त कॉलेज की पढाई मुहैया कराई जा सके, पर सरकारों ने कभी ध्यान नहीं दिया. सरकार अगर धर्म और जहर की राजनीति से ऊपर उठती तो आम से लेकर ख़ास, सभी को बेहतर शिक्षा मिल सकती थी. पर आज़ाद भारत में ऐसा कभी नहीं हो पाया. इसलिए जो मुट्ठी भर कॉलेज हैं, वहां दाखिले के लिए मारामारी लगी रहती है. एक बच्चा कब कट-ऑफ़ के नंबर में तब्दील हो जाता है पता नहीं चल पाता. सरकार को एक ऐसी व्यवस्था तो करनी चाहिए जिसमें सभी पढ़ें और लिखें और अपनी पसंद का करियर चुने. लेकिन भारत में सरकारों की इच्छा एक छलावे से ज़्यादा कुछ नहीं. आज़ादी के सत्तर सालों बाद भी जाति पाँति बरक़रार है, वह भी अपने क्रूरतम रूप में. निकम्मी सरकारों में बैठे हुए लोगों ने अपना रुपया बनाया और कुछ नहीं किया. 

इन परिस्थितियों के चलते बड़े पूंजीवादी घरानों को मजदूर तो चाहिए ही. उनकी अमीरी मजदूरों के खून और शोषण पर ही टिकी है. यह आज से नहीं बहुत पहले से है. वह जमाना गया जब टीवी की उबासी फिल्में मजदूर को फटे-पुराने कपड़े में दिखाती थी. अब स्थिति में बदलाव यह हुआ है कि मजदूर ज़्यादा न सोचें इसलिए उनके हाथों में सस्ते दामों पर मोबाइल फोन्स को पकड़ा दिया है और व्यस्त रखने के लिए सस्ते दामों पर इंटरनेट की सुविधा है. इसके अलावा रही सही कसर फेसबुक ने पूरी कर दी है. कई बार सोचती हूँ तब लगता है यह भी एक वजह है कि लोग पालतू बन चुके हैं. उनके खून में गुस्से की मात्रा धीरे धीरे कम कर दी गई है. 
  
सस्ते मजदूरों की चाहत में सरकारiइस तरह के उपक्रम खोलती है कि सबको थोड़ी बहुत शिक्षा मिल जाए. इसलिए थोड़ी बहुत पढ़ाई और जानकारी के लिए यह रविवार सेंटर चलता है. हर रविवार दो क्लास मिलती है, पढ़ाने के लिए. उसी नौकरी का नियुक्तिपत्र लेने के लिए पहले 9 सितंबर को बिना इंतजाम के बुलाया गया और जब उस दिन बेरोजगारों की भीड़ बढ़ गई तब दिल्ली पुलिस को भी बुला लिया गया. ताज्जुब है दिल्ली पुलिस सुरक्षा के लिए पिस्टल नहीं लाती पर बेरोजगार पढ़े लिखे लोगों के लिए अपने साथ पिस्तौल लाई थी. भीड़ इतनी थी मेरे जैसे कमजोर लोगों को कोई मतलब वहां नहीं था. मैं घर लौटने लगी. तभी एक टीचर ने कहा- "मत जाइए. हो सकता है मिल जाए." मुझे नहीं रुकना चाहिए था लेकिन शायद वह अनुभव मेरी ज़िन्दगी में जुड़ना इसलिए मैं रूक गई. उसके बाद हम भीड़ में कुछ इस तरह फंस गए कि न तो वापस लौट सकते थे और न ही हमें बुलाया जा रहा था. हम ऐसे फंसे थे कि हमारा हाल बेहद बुरा था. लोगो के पास उस भयंकर गर्मी में पानी तक नहीं था. सब बूँद बूँद पानी के लिए तरस रहे थे. प्रशासन ने हमें पानी तक नहीं दिया. लोगों के दम घूँट रहे थे. इस बीच बदतमीजी भी काफी हुई. इन सब दम घोंटू परिस्थितियों के चलते थोड़ी ही देर में उस पतली सी गैलरी में फंसे हुए लोग बेहोश होकर गिरने लगे. ऐसा कई लोगों के साथ हुआ. साँस की बीमारी वाले लोगों को सबसे अधिक परेशानी हुई.


कई लड़के भी बेहोश हुए जिनको हम मानकर चलते हैं कि वे बेहद मजबूत होते हैं. वहां की स्थिति बेहद ख़राब थी. एक बात और हुई. मैं आगे ही खड़ी थी और मेरे बगल में एक लड़का, हेलमेट लेकर खड़ा था. जब भीड़ बेकाबू हुई तब हेलमेट वाले के पीछे खड़ा लड़का उसको उकसाने लगा कि हेलमेट सिक्यूरिटी गार्ड को मार दे. ऐसा उसने कई बार कहा. बल्कि उसके हेलमेट को उसने हाथ भी मारा पर उस लड़के ने ऐसा कुछ नहीं किया. तभी न जाने कैसे भीड़ में एक पतला सा लड़का तमाम महिला टीचरों को धक्का देकर आगे आ गया और अपने आगे वाले लड़के को खूब ज़ोर ज़ोर से धक्का देने लगा. उस के इस रवैया से सभी को बहुत परेशानी हुई. भीड़ का मनो-विज्ञान समझना बहुत ज़रूरी है. वास्तव में मेरा नुभव यह कहता है कि भीड़ जब भीड़ की शक्ल में आती है तब वह अपना व्यक्तिगत दिमाग तो खोती ही है साथ में प्रत्येक व्यक्ति के मूड में हर पल बहुत से उत्तेजित और कम उत्तेजित अप्लिफ्ट्स होते हैं. भीड़ के सामने खड़े व्यक्ति को नहीं पता कि मूड के इन बदलावों में भीड़ का अगला सक्रिय एक्शन या प्रतिक्रिया क्या होगी? 

भीड़ में नाजायज तत्व अगर न मिलें तब तक भीड़ पूरी नहीं होती. भीड़ के आगे कोई सुलझा विचार भी अगर उकसावे के रूप में रखा जाए तब वह मंथन नहीं करती. उसके पास वह व्यक्तिगत आलोचना दृष्टि नहीं होती कि वह पल भर रूक कर यह सोचे कि हम सभी जो मिलकर करने जा रहे हैं, उसका नतीजा किसी की जान से हाथ धोना भी हो सकता है. लेकिन यह भी सिक्के का दूसरा पहलु है जो दिखाई नहीं देता. यह जानना ज़रूरी होगा. पुराने ज़माने की लड़ाइयों को एक बार सोचें. इतने सारे सैनिक यह जानते हुए भी कि वह युद्ध में जा रहे हैं और मारे जा सकते हैं, फिर जाते थे. इसके पीछे का मनो-विज्ञान राजा का विचार होता था. राजा कहता था कि यह जगह जीत लेंगे तब राज होगा. दिलचस्प यह है कि राज तो आख़िर में राजा का ही होता था किसी सैनिक का नहीं. यह बारीक़ बात जान लीजिए कि सैनिकों का एक न होना ही राजा के होने का मतलब है और था. सैनिकों ने कभी एक साथ बैठकर किसी भी सवाल पर बात नहीं की. उन्हों ने कभी भी सवाल पूछने की हिम्मत नहीं दिखाई. जो युद्ध नहीं लड़ना चाहते थे उनको भगोड़ा कहा गया. इसलिए नौकरी पाने की भीड़ जो एन सी डब्ल्यू इ बी (Non-Collegiate Women Education Board) के सामने खड़ी थी वास्तव में प्रशासन (राजा के नोबल कॉज़) के कारण खड़ी. वह यह जाँच कर रहा था कि इस भीड़ को उकसावे के लिए कितना टाइम लगता है? 9 सितंबर को यही हुआ. यह बेहद शर्मनाक और भयानक था. मैं इस दिन को कभी नहीं भूल सकती. 

दूसरी भीड़ 16 तारीख सितम्बर को लगाई गई. यह भीड़ ज़्यादा सफिस्टकेटेड थी. मतलब किसी डॉक्टर की तरह कि क्या काटा जाए तो शरीर को मौत दी जा सकती है. यह ज़्यादा खतरनाक थी. हम सब सुबह देर सवेर आ गए थे और नाम लिखकर कूपन मिल गए थे. लेकिन वह किस्मती रहे जिनके नाम 93 तक थे. बाकी लोगों को भूख समेट निराशा मिली. यह भूख व्यक्ति से सब करवा सकती है. यही हुआ भी. भूखी भीड़ ने रात को डायरेक्टर का कमरा घेर लिया और दो दिन में अपना हक़ माँगा है. अब देखिए कि क्या होता है. 

लेकिन जब मैं अपना लैटर लेकर आ रही थी तब मैंने उम्मीद खो चुकी उस भीड़ के चेहरे को देखा जो सुबह बेहद चमकीली उम्मीद के साथ काम के लिए आई थी. ताकि रविवार को दो घंटे पढ़ाकर दो हज़ार रुपए कमा सके. मेरी ख़ुशी पल में बिखर गई. मुझे आत्म ग्लानी हुई और बेकार दुखी मन लिए घर को लौटी. यह लौटना बगैर ख़ुशी के था. ख़ुशी की उम्र कम होती है. हम मुट्ठी में दुःख लिए ही पैदा होने वाले लोग हैं. 
    

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